गोदान के दलित पात्रों का वैचारिक पक्ष

 

गोदान के दलित पात्रों का वैचारिक पक्ष
 

दलित विमर्श अस्सी के दशक का वह साहित्यिक आंदोलन है जिसमें दलित रचनाकारों ने स्वानुभूत पीड़ाओं का उद्घाटन अपनी आत्मकथाओं अथवा अन्य विधाओं के माध्यम से किया। जिसका आलोचनात्मक पक्ष भी उसी के अनुरूप विगत 30-40 वर्षों में निर्मित हुआ। इस विमर्श की आलोचनात्मक अवधारणा अंबेडकरवादी है, जहाँ जाति-व्यवस्था का मुखर विरोध है। यहाँ इस बात पर भी सैद्धांतिक स्वीकृति है कि एक दलित रचनाकार ही दलित सवालों को सही ढंग से उठा सकता है। इस दृष्टि से समकालीन दलित साहित्य की वैचारिकी के आधार पर प्रेमचंद की रचनाओं के दलित पात्रों का मूल्यांकन तर्कसंगत नहीं हो सकता।

दूसरी ओर हिंदी साहित्य के वे संवेदनशील रचनाकार हैं, जिन्होंने अपने समय के सामाजिक यथार्थ को चिह्नित किया और उसे मानवीय धरातल पर मूल्यांकित करने का प्रयास भी किया। स्वानुभूति अथवा सहानुभूति के तार्किक पक्ष हो सकते हैं, लेकिन दोनों ही दृष्टियों में दलितों के कल्याण का स्वाभाविक आग्रह है। प्रेमचंद के लेखन को विचारकों ने अपनी दृष्टि से पहचाना।  कुछ ने उन्हें दलितों का मसीहा बताया तो कुछ ने उन्हें खारिज किया। मेरा मत है कि हिंदी साहित्य में जो दलितों के विषय में लिखने की परंपरा है, उसका मूल्यांकन हमें सजग होकर करना चाहिए, क्योंकि विचार और संवेदना के स्तर पर दलितों का चित्रण किस रूप में हुआ है? यह बहुत महत्त्वपूर्ण है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

प्रेमचंद ने दलितों के जो प्रश्न उठाए हैं, उन्हें किसी निश्चित वैचारिक प्रतिमान की निर्मिति के रूप में न देखकर यह समझना उचित होगा कि उनके सवाल बुद्ध, अश्वघोष, सिद्ध, नाथ, कबीर, रैदासनानक आदि की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं और हमारे समाज के समक्ष नए प्रश्न भी  खड़े करते हैं। वे अपने पात्रों के माध्यम से निरंतर जीवन की सच्चाइयों को प्रकट करते हैं, क्योंकि उनका मानना है, " हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें  गति,संघर्ष और बेचैनी पैदा करें, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।"1 प्रेमचंद की यह दृष्टि निश्चित रूप से अपने रचना कर्म के प्रति पूर्ण सजगता व्यक्त करती है।

प्रेमचंद साहित्य के अध्येता एवं समकालीन विचारक कमल किशोर गोयनका का मत है, "आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में और वह भी पराधीन भारत में प्रेमचंद पहले ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने दलितों के हजारों वर्षों से चली आई यात्रा में दमन तथा क्रूर मानवीय भेदभाव एवं अपमान का दंश अनुभव किया और अपनी मनुष्यता को मरने नहीं दिया।“2 यह सही है कि प्रेमचंद ने इन शूद्र जातियों की यात्रा एवं मनुष्यता दोनों को उजागर किया, जिसे दलित विमर्श का बीज रूप माना जा सकता है।

प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में सर्वप्रथम दलित वर्ग को स्थान दिया। 'रंगभूमि' का नायक दलित है, जिसे हिंदी उपन्यास परंपरा का महत्त्वपूर्ण उदाहरण माना जा सकता है। 'कर्मभूमि' में दलितों के मंदिर प्रवेश को मुद्दा बनाया गया है, 'प्रेमाश्रम' में अछूतों से बेगारी करवाए जाने का चित्रण किया गया है, तो 'कायाकल्प' में बेगार प्रथा के मुखर विरोध को स्वर देते हुए प्रेमचंद ने 'हम चमारों के लिए' शब्द का प्रयोग करके लेखन की धारा को नया मोड़ दिया। इसी प्रकार 'गबन' में देवीदीन खटीक के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन में दलितों के योगदान को रेखांकित किया और 'गोदान' तक आते-आते प्रेमचंद ने दलितों के प्रति सामाजिक दृष्टि को एक नया रूप दे दिया।

'गोदान' प्रेमचंद की अंतिम कृति है, जनमानस में लोकप्रिय है और आलोचकों को ध्यान इस प्रति पर अधिक गया है। अतः प्रेमचंद की वैचारिकी का विश्लेषण दलित चेतना की दृष्टि से इस कृति में तलाशना समीचीन होगा। गोदान का रचनाकाल 1936 है। यह काल राजनैतिक स्वतंत्रता आंदोलन के साथ सामाजिक स्वाधीनता का भी है। महार आंदोलन, गांधी जी द्वारा हरिजन सेवक संघ की स्थापना और पूना पैक्ट जैसी राजनीतिक घटनाएँ इस रचना से पूर्व हो चुकी थीं। अतः उस राजनीतिक परिदृश्य में जब प्रेमचंद ने गोदान का कथानक निर्मित किया, तब तत्कालीन सामाजिक चेतना को पहचान भी लिया था। वस्तुतः रचनाकार जिस कृति की निर्मिति करता है, वह प्रकाश में आने से पूर्व जितनी उसकी होती है, प्रकाश में आने के बाद उतनी ही समाज की भी होती है। गोदान को इस संदर्भ में विशेष रूप से देखना चाहिए, क्योंकि यहाँ पर प्रेमचंद का वैचारिक मंतव्य भी प्रकट हो जाता है।

गोदान के कई पात्र दलित चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। 'गोबर' उनमें महत्त्वपूर्ण है। गोबर अपने पिता की तरह मर्यादा का आश्रय नहीं लेता। अपने पिता को रायसाहब की मजबूरियाँ गिनाने के प्रत्युत्तर में  वह कहता है, "तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते! हम अपने खेत, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं! करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है, निरी  मोट मरदी है। जिसे दुख होता हैवह दर्जनों मोटरें नही रखतामहलों में नही रहताहलवा पूरी नही खाता और न नाच रंग में लिप्त रहता है। मजे से राज का सुख भोग रहे है उस पर भी दुखी है!3 यह कथन अंबेडकर की वैचारिकी को प्रकट करता है जहाँ संपन्न वर्ग तमाम सुख भोगते हुए भी स्वयं को समाज के समक्ष दरिद्र  रूप में अपने आपको रखते हैं और शोषण करते हैं। समाज का यह बगुला भगत रूप गोदान में बखूबी उजागर हुआ है और इस स्वरूप को पहचानने का कार्य तत्कालीन समाज में गोबर जैसे पात्र के माध्यम से और अंबेडकर की दृष्टि से आसानी से हो रहा था।

समाज में कानून का शासन स्थापित करके ही शोषण से मुक्ति मिल सकती है। नागरिकों के साथ समान व्यवहार हो इसकी जानकारी दलितों को उस समाज में नहीं थी, परंतु गोदान में जब गोबर शहर से लौटकर आता है तो उसे कई कानूनी पहलुओं की जानकारी हो जाती है। उसे यह मालूम है कि कानून की नजर में सब बराबर है। वह देखता है कि उसके पिता को गांव के कुलीनों ने अपने खेत से बेदखल कर दिया है और वह अपने ही खेत में अब मजदूरी करने को अभिशप्त है। समस्त परिस्थिति को जानकर वह कहता है," पंचों को उस पर डाँड लगाने का अधिकार क्या है? कौन होता है कोई उसके बीच मे बोलने वाला? उसने एक औरत रख ली तो पंचो के बाप का क्या बिगाड़ा? अगर इसी बात पर वह फौजदारी में दावा कर देतो लोगों के हाथ मे हथकड़ियाँ पड़ जाए। सारी गृहस्थी तहस-नहस हो गई, क्या समझ लिया है उसे इन लोगों ने।"4 यह कथन उस समय की सामाजिक हलचल का प्रतिबिम्ब है

गोदान में जगह-जगह दलितों के क्रांतिकारी कदमों की आहट सुनाई पड़ती है। गोबर के अतिरिक्त धनिया, रामसेवक, सिलिया, हरखू आदि दलित पात्र हैं। अधिकांश का चित्रण विद्रोही रूप में किया गया है।गर्भवती झुनिया को यादवों के विरोध के बावजूद बहू के रूप में स्वीकार करने का धनिया का निर्णय इसका उदाहरण है। वह दातादीन से कहती है, "हमको कुल प्रतिष्ठा प्यारी नहीं महाराज कि उसके पीछे एक की हत्या कर डालते। ब्याहता ना सही पर उसकी बांह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही, किस मुँह से निकाल देतीवही काम बड़े करते हैं, उनसे कोई नहीं बोलता, उन्हें कलंक नहीं लगता। जब वही काम छोटे आदमी करते हैं तो मरजाद बिगड़ जाती है, नाक कट जाती है।"5 धनिया का यह व्यवहार तत्कालीन समाज की विद्रूपता का सटीक प्रतिरोध है। जहाँ एक अपराध के अलग-अलग मापदंड हैं, वह उसका प्रत्युत्तर अपनी मर्जी से देती है और समाज को चुप रहना पड़ता है।

सिलिया  गोदान की अभिशप्त दलित पात्र है, जिसका फायदा मातादीन उठाता है। मातादीन उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता, फिर भी सिलिया  की निष्ठा उसके प्रति है, क्योंकि वह प्रेम में अखंड विश्वास करने वाली नारी है। दूसरी ओर मातादीन की दृष्टि में वह केवल भोग्या और स्वार्थ पूर्ति का माध्यम है। वह उसे मजदूरिन से अधिक नहीं समझता। मुट्ठी भर अनाज के लिए जब मातादीन निर्लज्जता के साथ उसे कह देता है, "नहीं तुझे अख्तियार नहीं, काम करती है, खाती है, जो तू चाहे खा भी, लुटा दे तो वह यहाँ न होगा, अगर तुझे यहाँ पर परता न पड़ता हो, कहीं और जाकर काम कर। मजूरी की कमी नहीं है।“6 वास्तव में माता दिन के लिए वह सिर्फ रखैल है, सहभोग की  अधिकारिणी नहीं। दाता दिन अपने भाव भी प्रकट कर देता है। वह दम्भ के साथ सिलिया  के बारे में कहता है, "हमारी चौखट नहीं लाँघ पाती, बर्तन, भांडे छूना तो दूर की बात है।"7 देखा जाए तो समाज का यह दोहरापन ही घुन की तरह खा रहा है। प्रेमचंद की दृष्टि में सवर्ण समाज के दंभ के कारण ही अछूत की समस्या जोंक की तरह चिपकी हुई है।

सिलिया के माता-पिता अपनी बेटी  के प्रति अन्याय और दुर्व्यवहार का प्रतिकार लेते हैं। वे  मातादीन के खलिहान पर पहुँच कर चुनौती देते हैं ।उसका पिता हरखू कहता है, " हम आज या तो मातादीन को चर्मकार बनाकर छोड़ेंगे या उनका और अपना रक्त एक कर देंगे।.... तुम हमें ब्राह्मण नहीं बना सकते, मुदा हम तुम्हें चर्मकार बना सकते हैं।"8  यह विद्रोही चेतना प्रेमचंद की उस भावना को प्रदर्शित करती है जहां अन्याय का प्रतिकार करना आवश्यक है और वहाँ किसी प्रकार का संकोच भी नहीं है। दलित साहित्य का मुखर आवरण इस दृश्य से मेल खाता है।

सिलिया के साथ दुर्व्यवहार का प्रतिकार केवल मौखिक नहीं, बल्कि उसे धरातल पर भी क्रियान्वित करने का प्रयास किया गया है। उपन्यास का वह अंश जब दो चमारों ने लपक कर मातादीन का हाथ पकड़ लिया, तीसरे ने झपट कर उसका जनेऊ तोड़ डाला और उससे पहले कि दातादीन और झींगुरी सिंह अपनी अपनी लाठी संभाल सके, दो चमारों ने मातादीन के मुँह में एक बड़ी-सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया। यह घटना मातादीन को धर्म भ्रष्ट प्रमाणित करने की दृष्टि से पर्याप्त व तर्कसंगत थी। प्रेमचंद ने यहाँ पाखंडियों को चुनौती दी है, "जिस मर्यादा के बल पर अपनी रसिकता का घमंड और पुरुषार्थ अकड़ता फिरता था, वह मिट चुकी थी। उस हड्डी के टुकड़े ने उसके मुँह को ही नहीं उसकी आत्मा को भी अपवित्र कर दिया था।.... उसका धर्म इसी खानपान, छूत-विचार पर टिका हुआ था। आज उस धर्म की जड़ फट गई। अब वह लाख प्रायश्चित्त करे और गंगाजल पिए, लाख दान-पुण्य और तीर्थ-व्रत करेउसका मरा हुआ धर्म जी नहीं सकता।"9 अंत में मातादीन का  हृदय परिवर्तन दिखाकर प्रेमचंद ने समाज को एक संदेश भी दे दिया कि पाखंड अब नहीं चल सकता।

डॉ. धनंजय चौहान इस प्रसंग पर लिखते हैं, "गोदान के इस दलित प्रसंग में दलितों के नेतृत्व की बागडोर स्वयं दलितों के हाथों में है। आज से लगभग सात दशक पूर्व प्रेमचंद दलित विमर्श को जिस रचनात्मक मुहावरे में ढाल सके, वह उनकी उस औपन्यासिक अंतर्दृष्टि का परिचायक है, जो अतीत से मुक्त होकर वर्तमान की दहलीज पर आगत की आहट सुनने का हूनर रखती है।"10 दलित साहित्य की वैचारिकी में इसे प्रस्थान बिंदु माना जा सकता है। कलम का सिपाही में अमृतराय प्रेमचंद के सन्दर्भ में कहते हैं, “कोई इसे गुण माने या दोषसामयिकता मुंशी जी के कृति मन की प्रधान वृत्ति है। मुंशी जी वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान के लिए लिखते हैं। वर्तमान को फलाँग कर भविष्य में नहीं पहुँचा जा सकता। वर्तमान से परांग-मुख होकर कोई कालजयी नहीं हुआ। वर्तमान को छोड़ते ही भविष्य की स्थिति आकाश बेल-सी हो जाती हैजो कभी नहीं फूलती। वर्तमान ही भविष्य का आधार है। उसकी खाद-मिटटी और भविष्य की वर्तमान की सहज दिशा हैउसका गंतव्य।’11 प्रेमचन्द इसलिए हमारे समय से संपृक्त है क्योंकि उनकी समस्याएं लगभग वही है जो हमारी आज की समस्या है। हम भी अपने भविष्य को प्रेमचन्द जैसे समर्थ रचनाकार के माध्यम से बेहतर निर्मित कर सकते है।

समग्र रूप से यह कहना समीचीन होगा कि प्रेमचंद ने न केवल अपने समय को पहचाना, बल्कि आने वाले समय के अनुरूप समाज को प्रगतिगामी बनाने का विकल्प भी प्रस्तुत किया। आज के समाज में यदि कुछ बदलाव है और दलित आत्मसम्मान की भावना मुखर रूप में है तो प्रेमचंद की कालजयी दृष्टि का भी उसमें योगदान है। गोदान के माध्यम से उन्होंने यथास्थितिवाद का समर्थन नहीं किया, बल्कि समाज की विसंगतियों को उजागर किया। उसी का परिणाम है कि प्रेमचंद की प्रासंगिकता दलित विमर्श के केंद्र में आज भी विद्यमान है।

 

 

सन्दर्भ ग्रन्थ :

1. ओम प्रकाश वाल्मीकि, गोदान और दलित प्रसंग, वर्तमान साहित्य, अप्रैल,2009, पृ.71

2. कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद का दलित-विमर्श, बहुवचन, जुलाई-सितम्बर, 2014, पृ.17

3. प्रेमचंद, गोदान, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, सं. 2010, पृ.11

4. वही, पृ.167

5. वही, पृ.189

6. वही, पृ.262

7. वही, पृ.200

8. वही, पृ.263

9. वही, पृ.269

10. डॉ. धनंजय चौहान, हिंदी साहित्य में दलित सरोकार, माया प्रकाशन, कानपुर, सं.2000, पृ.114-115

11. अमृत रायकलम का सिपाही, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, सं. 2010,  पृष्ठ-306

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