मिथकीय चेतना एवं लोकमन (सन्दर्भ: नदी केंद्रित यात्रावृत्त)

 

मिथकीय चेतना एवं लोकमन

(सन्दर्भ: नदी केंद्रित यात्रावृत्त)

समवेत, अगस्त२०२५ में प्रकाशित

नदियों के किनारे विकसित संस्कृतियाँ हमेशा नदियों के आँचल को ही ओढ़कर अपने अस्तित्व को प्रकट करती रही हैं। इन सरिताओं ने सदियों से अपने नाम, गुण और धर्म के कारण जनसमुदाय को आकृष्ट किया है। नदियों के पौराणिक और मिथकीय सन्दर्भ लोकमन में अपना स्थान घेरते रहे हैं। नदियों के प्रति ऐसे ही श्रद्धाभाव और सहज सौंदर्य के वशीभूत होकर भारतवर्ष के आमजन सहित अनेक लेखकों व कवियों ने भी यात्राएँ की हैं। इन्हीं यात्राओं का ब्यौरा यात्रा साहित्य में प्रकाशित हुआ है। यात्रा-पथ में आने वाली नदियों का शाश्वत सौन्दर्य और उनका पुरात्मक महत्त्व यात्रावृत्तों का वर्ण्य विषय रहा है। अनेक लेखकों ने अपनी उत्तर एवं दक्षिण भारत की यात्राओं के दौरान पथ की नदियों का विस्तारपूर्वक वर्णन पेश किया है। उन नदियों से जुड़े मिथकीय, पौराणिक, लोक कथात्मक और ऐतिहासिक प्रसंग भारतीय संस्कृति के जल तत्त्व और उसके प्रति सम्मान का बोध करवाते हैं।  

मिथक शब्द अंग्रेजी के मिथ (Myth) शब्द से लिया गया है। ‘माइथोस’ शब्द से इसकी उत्पत्ति मानी गयी है। इस शब्द का आशय ‘मुहँ से निकला हुआ’ होता है। अतः ये मौखिक कथा से सम्बंधित हैं। “भारतीय सन्दर्भ में मिथ का अर्थ ‘पुराण’ होना चाहिए। पुराण अर्थात् पुरा कथा। यह समझदारी नहीं होने के कारण हमने 'मिथक' चूँकि उक्त अर्थ में झूठी कथा है, को हमने इतिहास का पाठ नहीं माना जब कि भारतीय सन्दर्भ में मिथक झूठी कथा न होकर 'पुरा कथा' है।' जिसमें इतिहास के खोज की अनन्त संभावनाएँ हैं। वस्तुतः जहाँ इतिहास नहीं है अथवा जहाँ इतिहास खो गया है, वहाँ पुराण हमारे लिए एक पाठ का काम कर सकता है।”[1] आदिम मानव प्रकृति की शक्तियों को समझ नहीं पाया अतः उसने प्रकृति की शक्तियों को अपनी कल्पना से अतिमानवीय देवी-देवताओं के रूप दे दिए। “इस प्रकार धार्मिक विश्वास तथा मिथक में अटूट सम्बन्ध है। धार्मिक विधि-विधान से जुड़े आख्यानों ने भी मिथक का रूप ले लिया। इनके पीछे उन रहस्यमयी शक्तियों को तुष्ट करके विपत्तियों से जन-समाज की रक्षा करने की भावना प्रमुख थी।”[2] मिथक मनुष्य जाति में एकता और समाज में संसार के प्रति आस्था जगाते हैं।

मिथक प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त होते हैंये सृष्टि की उत्त्पत्ति, इसके सृजन की प्रक्रिया तथा मनुष्य के जीवन अनुभवों को विभिन्न प्रतीकों और कथाओं का सहारा लेकर व्यक्त करते हैं। मिथक का यथार्थ मनुष्य के वर्तमान भौतिक जगत् से साम्य नहीं रखता है, परन्तु यह मानव के अंतर्मन और पारलौकिक सत्य को व्यक्त करता है। मिथक को मनुष्य समाज के सामूहिक मन की सच्चाई कही जाती है। मनोविज्ञान ने भी निजी मन की गुत्थियों को सुलझाने के लिए इस सामूहिक सच का सहारा लिया है। भारत में मिथक साहित्य केवल एक विधा नहीं है बल्कि यह जीवन को संचालित करने वाली संस्कृति है। उषा पुरी विद्यावाचस्पति लिखती हैं, “प्रत्येक देश का मिथक साहित्य उस देश की संस्कृति, कला, विज्ञान, आचार-विचार आदि का आरक्षण करता है। अनैतिक कार्य करते हुए मानव पर अंकुश स्थापित करने वाला मिथक साहित्य नैतिकता को प्रोत्साहित करता है।”[3] भारतीय समाज पुरातन और आधुनिक दोनों ही रूपों में एक साथ गतिमान है। यहाँ के जीवन में मिथकीय विश्वासों के साथ विज्ञानयुक्त चिंतन भी देखा जा सकता है। समय और जीवन पद्धति में बदलावों के साथ इन मिथकों में बहुत कुछ परिवर्तन देखे गए हैं, परन्तु इन्हें नकारा नहीं गया। भारतीय मिथकों में वेद, पुराण, उपनिषदों, रामायण, महाभारत आदि की कथाओं और पात्रों को सम्मिलित किया जाता हैं।

हिन्दी यात्रा साहित्य में नदियों को केंद्र में रखकर लेखन मिथकीय चेतना और लोकमन के अवगाहन बिना पूर्ण नहीं होता। इन कृतियों में अमृत लाल वेगड़ के नर्मदा नदी केन्द्रित तीन यात्रावृत्तांत सौन्दर्य की नदी नर्मदा’, ‘अमृतस्य नर्मदाऔर तीरे तीरे नर्मदाहैं। इसी तरह विष्णु प्रभाकर का जमना-गंगा के नैहर में’, अभय मिश्र एवं पंकज रामेंदु द्वारा लिखित दर दर गंगे’, सांवरमल सांगानेरिया का ब्रह्मपुत्र के किनारे किनारे’, राकेश तिवारी का सफर एक डोंगी में डगमग’, श्रीराम परिहार का संस्कृति सलिला नर्मदा’, राजेश कुमार व्यास का नर्मदे हर’, अमरेन्द्र कुमार राय का गंगा तीरेऔर अर्जुनदास केसरी का एक आँख गंगा एक आँख सोनआदि अनेक यात्रावृत्त हैं, जिनमें भारतीय पौराणिक मिथकों और लोक मानस की अभिव्यक्ति सांस्कृतिक धरातल पर हुई है।

वाराणसी मोक्षदायिनी पुरी है। गंगा किनारे का यह प्रसिद्ध नगर सदियों से संस्कृति का केंद्र है। गंगा तट के घाटों में राजा हरिश्चंद्र के नाम से भी घाट है जहाँ श्मशान स्थित है। यहीं पर उन्होंने सत्य की टेक रखते हुए अपने पुत्र रोहित के शव का अंतिम संस्कार करने का भी शुल्क अपनी पत्नी से वसूल किया था। सफर एक डोंगी में डगमग  यात्रावृत्तांत के लेखक राकेश तिवारी ने राजा हरिश्चंद्र के मिथक को अपने वृत्तान्त में जगह दी है। वे लिखते हैं, आगे आया हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा बखानता चिर प्रज्वलित महाश्मशान।....भयानक श्मशान के साथ राजा की अद्वितीय सत्यनिष्ठा की कथा का योग इस स्थल के साथ रोमांच समावेशित कर इसमें चुम्बकीय आकर्षण भर देती है।[4]

गंगा नदी के जाह्नवी नाम के पीछे का मिथक बड़ा प्रसिद्ध हुआ है। गंगा नदी का जाह्नवी नाम जन्हु ऋषि के कारण पड़ता है। इसके पीछे की कथा का विवरण हमें यात्रावृत्तांत जमना-गंगा के नैहर में मिल पाता है। गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे आती हुई अपने प्रबल वेग से जह्नु ऋषि के आश्रम को बहा ले जाती है। क्रुद्ध जह्नु आचमन करके गंगा को पी जाते हैं। भगीरथ ने उनसे प्रार्थना की। इसको आगे बढ़ाते हुए वे लिखते हैं, महर्षि प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी जांघ चीरकर भागीरथी को फिर धराधाम पर जाने दिया। इसीलिए भागीरथी का एक और नाम हुआ जाह्नवी।[5] अभय मिश्र और पंकज रामेन्दु भी अपनी गंगा यात्रा में इस मिथक का जिक्र करते हैं। बिहार के भागलपुर से कुछ दूर कहलगाँव है।कहते हैं इसी जगह पर जह्नु ऋषि ने गंगा को अपनी जांघ पर रोक दिया था। बाद में भागीरथ की प्रार्थना पर उन्होंने गंगा को छोड़ दिया।[6] कहलगाँव में गंगा का नाम जाह्नवी है। सफ़र एक डोंगी में डगमग यात्रावृत्तांत में भी इसकी चर्चा लेखक ने की है यहाँ गंगा 'जाह्नवी' कहलाती है।[7] फरक्का में गंगा नदी पर बने हुए बैराज को देखते हुए लेखक को पौराणिक कथा स्मरण हो आई। फरक्का के बाद दो धाराओं में बहती गंगा पद्मा और भागीरथी के नाम से जानी जाती है। कहते हैं गोमुख से राजा भगीरथ के साथ चली गंगा को यहीं आकर... गंगा को चेताया तो मुख्य प्रवाह से एक धारा निकलकर गंगासागर की ओर चल दी जिसे 'भागीरथी' कहा गया। मुख्य धारा आज के बांग्लादेश में बहती है और पद्मा कहलाती है।[8]

      मिथकों में नदियों के किनारे के प्रमुख तीर्थों, नगरों और स्थानों आदि के नामकरण के संदर्भ भी जुड़े हुए मिलते हैं। नदी केंद्रित यात्रावृत्तांतों में ऐसे प्रसंग भी देखने में आए हैं। जैसे नारद को आशीर्वाद देने के लिए शिव के द्वारा रौद्र रूप धारण करने से रुद्रप्रयाग नाम पड़ा। कर्णप्रयाग में दानवीर कर्ण ने सूर्य भगवान की तपस्या की थी। नंद प्रयाग में कण्वाश्रम के महादेव मंदिर में रावण ने अपने दस सिर काट कर चढ़ाये थे अतः दशमौली से ही इस क्षेत्र का नाम दशौली पड़ना बताया जाता है। हरिद्वार में हरि की पौड़ी पर ही अमृत की बूँदें गिरने के कारण ही इसे ब्रह्म कुंड माना जाता है। गंगनानी के साथ वेदव्यास की माता मत्स्यगंधा और पराशर ऋषि की एक प्राचीन कथा जुड़ी हुई है। ब्रह्मपुत्र के किनारे स्थित गुवाहाटी नगर के नीलकूट पर्वत पर कामाख्या देवी की कहानी के पौराणिक संदर्भ हमें ब्रह्मपुत्र के किनारे किनारे के लेखक बयाँ करते हैं।

नदियों के किनारे के नगरों, प्रमुख स्थानों आदि के साथ कुछ किवदन्तियाँ और अंतर्कथाएँ भी प्रचलित होती हैं। उस क्षेत्र के अस्तित्व की पुरातनता को सिद्ध करने अथवा लोक में उसकी महत्ता बताने के लिये भी परम्परा से इनका प्रसार होते हुए देखा जा सकता है। नर्मदा नदी को चिरकुमारी माना गया है। चिरकुमारी होने के कारण नर्मदा अत्यन्त पवित्र नदी मानी गई। इसीलिए भक्तगण और साधारणजन उसकी परिक्रमा करते हैं। यह प्राचीनतम नदियों में से एक है। ऋग्वेद में भी इस नदी के प्रमाण मिलते है। जनमानस में नर्मदा के प्रति काफी सम्मान व्याप्त है। दर्शन मात्र से पाप का शमन करने वाली नर्मदा नदी के साथ शोणभद्र नद की प्रणयकथा लोक में बहुश्रुत है। वेगड़ जी ने इसके बारे में लिखा है,नर्मदा और शोणभद्र नद एक दूसरे को चाहते थे, दोनों का विवाह होने वाला था। एक बार नर्मदा ने अपनी दासी जुहिला के हाथ शोण के लिए सन्देश भेजा। काफी देर बाद भी जब जुहिला नहीं आई, तो नर्मदा स्वयं गई। उसने देखा कि शोण जुहिला से ही प्रेमक्रीड़ा कर रहा है। उसे शोण पर अत्यन्त क्रोध आया और कभी विवाह न करने की प्रतिज्ञा करके पश्चिम की ओर चल दी। निराश और हताश शोण पूर्व की ओर चल पड़ा।[9] यह कथा प्रकृति के उपादान के माध्यम से लोक में प्रेम की एकनिष्ठता को स्थापित करती दिखाई पड़ती है। श्रीराम परिहार भी अपने यात्रावृत्तांत में इसका जिक्र करते हैं, एक लोक कथा है- शोण और नर्मदा की प्रणय कथा।[10] राकेश तिवारी अपने यात्रावृत्त में जब गंगा की सहायक नदियों का जिक्र करते हैं तो उनमे सोन का नाम भी लेते हैं साथ ही इसी दंतकथा को दुहराते हैं,किसी बात पर दोनों में ठन गई। सोन तुनक के उत्तर चले और नर्बदा पश्चिम।[11]

लोक-परम्परा के अनुसार नर्मदा नदी के पैंदे से निकले शिवलिंग पूरे देश में पूजे जाते हैं। इस नदी के पत्थर सुडौल और तराशे हुए मालूम जान पड़ते हैं। इसके संदर्भ में एक पौराणिक उद्धरण राजेश कुमार व्यास देते हैं। उनके अनुसार, स्कंद पुराण में आता है, तपस्यारत शिव के शरीर से निकलने वाले स्वेद से नर्मदा की उत्पत्ति हुई।... स्वेद से उत्पन्न पुत्री ने पिता से वर माँगा, महेश्वर-पार्वती सहित उनके तट पर विराजे। शिव ने इसे स्वीकारा। इसीलिए नर्मदा के जल में स्थित सभी पाषाण शिवतुल्य कहे गए हैं। कहते भी हैं, 'नर्मदा के कंकर, सब शिवशंकर'[12] मिथक अपने भीतर सूत्र छिपाए रखते हैं। वर्तमान भौतिक जगत् में इन संदर्भों को समझना थोड़ा मुश्किल जान पड़ता हैं, परन्तु उनके भीतर के प्रतीकों के माध्यम से उनके अभिप्रायों के निकट पहुँचा जा सकता हैं। मिथक हमें नदियों के जन्म के संदर्भ भी देते हैं। उनके नामकरण के बारे में भी बताते हैं। सांवरमल सांगानेरिया के वृत्तान्त ब्रह्मपुत्र के किनारे किनारे में इसकी बानगी देखिए, शान्तनु मुनि को ब्रह्मा से वरदान स्वरूप उनका अग्निमय ओज प्राप्त हुआ।...उस दिव्य ओज को अपनी भार्या अमोघा के गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे एक जलस्वरूप पुत्र ने जन्म लिया। कालान्तर में वही जलधारा के रूप में प्रवाहित होने पर ब्रह्मपुत्र कहलाने लगा।[13]

इन यात्रावृत्तांतों में बड़ी और महत्त्वपूर्ण नदियों से जुड़े संदर्भ और दंतकथाओं के साथ ही सहायक और छोटी नदियों से जुड़ी किवदंतियाँ भी हमें पढ़ने को मिलती हैं। जरूरी नहीं कि ये कथाएँ प्राचीन हों ही। यथा केन नदी से सम्बंधित एक अंतर्कथा आती है जो गाँव की लड़की किनिया की प्रेम कहानी से जुड़ी है। राजेश कुमार व्यास लिखते हैं, “प्रेमी का शव देखते ही किनिया ने भी अपने प्राण त्याग दिए। वर्षा के पानी से नदी निकली और नदी का नाम किनिया हो गया।"[14] इसी तरह सरयू नदी से सम्बंधित अंतर्कथा भी पढ़ने में आती है। चंबल नदी के नामकरण पर बात करते हुए लेखक राकेश तिवारी ने उसकी उत्पत्ति के स्रोत का परिचय प्रस्तुत किया है। राजा रन्तिदेव की कथा का जिक्र करते हुए वे लिखते हैं, अग्निहोत्र नामक यज्ञ के अवसर पर उनकी पाक-शाला से मेध्य पशुओं के चमणे की राशि से चर्मण्वती नदी प्रभूत हुई। यही चर्मण्वती आज की चम्बिल, चामिल, चम्बल, चामर या चामल है।[15] उनके वृत्तान्त में चंबल किनारे के गाँव पिनहट के नामकरण के पीछे पांडु-हाट शब्द में छिपी जनश्रुति का जिक्र होता है।

कई बार स्थानीय निवासियों द्वारा भी परम्परा से चली आती कथा को नदियों के नामकरण के संदर्भ में भी स्वीकार कर लिया जाता है। लोक में पारिवारिक रिश्तों के आधार पर भी नदियों की पहचान स्थापित होती है। मानवीकरण द्वारा लोक नदियों के बारे में किसी रिश्ते से सम्बंधित कथाएँ गढ़ लेता है। इसी संदर्भ में यमुना की सहायक नदी 'ससुर-खदेरी' के नामकरण की जनश्रुति बड़ी ही रोचक लगती है। धान की रोपाई के मौके पर ससुर और बहू में शर्त लग गई, देखें कौन कितना धान रोपता है। ... शाम को जब सब लौटते तो बाजी बहू के हिस्से पड़ती। ...ससुर विस्मय में पड़ गया—'यह तो मानुस की काया में देवी लगती है। ... पैर छूने के चक्कर में ससुर पीछे दौड़ा। बहू भागती रही, ससुर खदेड़े रहा। बहू ने लज्जावश यमुना में छलांग लगा दी। बहू की मृत्यु से दुखी ससुर भी यमुना में डूब गया। बहू के भागने की जगह से यमुना तक एक पुण्य-धारा फूटकर बह चली जिसका नाम पड़ा 'ससुर-खदेरी'[16] हालाँकि आज के दौर में इन दंतकथाओं पर विश्वास करना मुश्किल होता है, पर इनके पूर्वकालिक आधारों को एकदम से नकारा भी नहीं जा सकता हैंसफ़र एक डोंगी में डगमग में गहमर गाँव के मंदिर में लड़कों से बात करने पर लेखक को एक पतली नदी के नाम के पीछे की गाथा ज्ञात हुई। यहाँ त्रिशंकु की अंतर्कथा के द्वारा इसी पतली कर्मनाशा नदी के उद्भव की बात कही गई है।

इन यात्रावृत्तांतों में नदियों से सम्बंधित मिथक, अंतर्कथाएँ और दंतकथाएँ बहुतायत में पढने को आती हैं। दरअसल नदियों के किनारे रहने वाला समाज नदियों से सम्बंधित पौराणिक सन्दर्भों को अपने मानस में उतार लेता है। समय के अनुसार इन सन्दर्भों में वह अपनी सुविधा और समझ के चलते परिवर्तन भी कर लेता है। यही बात दंतकथाओं के संदर्भ में भी सटीक बैठती हैं। कुछ अंतर्कथाएँ नदियों के किनारे स्थित गाँवों, शहरों, प्रसिद्ध स्थानों के नामकरण के बारे में भी मिलती हैं। राकेश तिवारी के यात्रावृत्त में गंगा तट पर स्थित बक्सर शहर के नाम की उत्पत्ति में छिपे मिथक से परिचय प्राप्त होता है। कहा जाता है यहाँ वेदशिरा ऋषि का आश्रम था। वेदशिरा शाप पाकर बाघ बन बहुत समय तक इसी रूप में विचरते रहे। दूसरे मुनियों से उन्हें पता चला कि निकट ही स्थित 'अधसर' में स्नान करके अनचाही मुसीबत से मुक्ति मिल सकती है। उन्होंने ऐसा ही किया और तब से तालाब व्याघ्रसर कहलाया। कालान्तर में वहाँ बसी बस्ती 'ब्याघ्रसर' व्युत्पत्ति के अनुसार 'बक्सर' कहलाई।[17] नामकरण की ये कथाएँ बुजुर्गों की स्मृतियों और उनकी बातों में उपस्थित रहती हैं। गंगा की यात्रा के दौरान लेखक राकेश तिवारी ने अपनी डोंगी में एक बुजुर्ग को बैठाया था। उसने जनश्रुति द्वारा तट के लाक्षागिरि गाँव के नामकरण की जानकारी दी।

इसी पुस्तक में गंगा तट के गाँव विंध्याचल से संबंधित लोक मान्यता का विवरण प्राप्त होता है। गंगा के प्रवाह के निकट स्थित चरणाद्रि पर्वत, जिस पर ऐतिहासिक चुनार दुर्ग निर्मित है, के संबंध में राजा बलि और भगवान् विष्णु के वामन अवतार की पौराणिक कथा का जिक्र भी सफ़र एक डोंगी में डगमग में किया गया है। कहते हैं, पुण्यात्मा बलि यहीं कहीं रहते थे और विष्णु का पहला कदम इसी चरणाकृति जैसी पहाड़ी पर पड़ा।[18] चुनार दुर्ग की तरह वे काशी नगर के नामकरण के संदर्भ भी प्रस्तुत करते हैं,राजा काश के नाम पर यह क्षेत्र काशी कहलाया। कुछ लोग काश और कुश नामक स्थानीय घास से काशी की व्युत्पत्ति मानते हैं।[19] असम को कामरूप कहे जाने के पीछे तपस्यारत भगवान् शिव द्वारा कामदेव को भस्म करने के मिथक का उल्लेख ब्रह्मपुत्र के किनारे किनारे में मिलता है। उसकी पत्नी रति ने शिवाराधना की, तब उसे आदेश हुआ कि कामदेव की भस्मी लेकर प्राग्ज्योतिषपुर जाए। आखिर शिव-कृपा से उसे यहीं नया रूप मिला था, तब से यह क्षेत्र कामरूप कहलाने लगा।[20] इस प्रकार हम पाते हैं कि पौराणिक प्रसंगों के माध्यम से भी किसी क्षेत्र का नाम प्रचलन में आ जाता है। यह नाम चिरकाल तक स्थायी और स्वीकार्य भी रहता है

भारतीय समाज का नदियों के साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध लोकगीतों सहित लोक कथाओं के माध्यम से भी परिलक्षित होता है। लोककथाएँ वाचिक परम्परा का साहित्य है। ये पीढ़ी दर पीढ़ी यात्रा करती हुई अपना अस्तित्व कायम रखती हैं। मौखिक परम्परा ने अपने श्रुत-कौशल और विवेक से इसे आगे बढ़ाया है। कथा कहने और सुनने के क्रम में काल के साथ कुछ परिवर्तन भी होता है। इनमें कुछ घटाव और बढाव संभव है। स्थान के अनुसार भी लोक कथाओं में पात्र और परिस्थितियाँ स्थानीय रूप धारण कर लेते हैं। इन कथाओं में सम्पूर्ण समाज के मंगल का विधान निहित होता है। सामाजिक विश्वास, मान्यताएँ और आस्थाएँ इनमें आसानी से ढूँढी जा सकती हैं।

सुदर्शन वशिष्ठ इन लोक कथाओं के बारे में लिखते हैं, “भारतीय साहित्य का परम ध्येय मंगलकामना रहने के कारण हमारी अधिकांश कथाएँ ‘और अंत में सब सुखपूर्वक रहने लगे’ के आदर्श पर आधारित हैं।”[21] इन कथाओं में कोई संदेश अथवा गूढ़ बात निहित होती है। ये लंबे अनुभव और व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपने भीतर समाए रहती हैं। भारतीय समाज में नदियों के साथ भी लोक कथाएँ जुड़ी हुई हैं। ये कहानियाँ नदियों की संस्कृति को समाज के साथ एकाकार करने में बड़ी भूमिका निभाती हैं। कईं बार अतिरंजित वर्णन के कारण ये विश्वास से परे होती दीखती है, लेकिन लोक अपनी छवि का दिग्दर्शन इनमें कर पाता है। इन यात्रावृत्तांतों में हमें नदियों के उद्गम, प्रवाह क्षेत्र, प्रभाव और उनके महत्त्व से जुड़ी लोक कथाओं से परिचय प्राप्त होता हैं। सफ़र एक डोंगी में डगमग यात्रावृत्तांत में हम देख पाते हैं कि लोककथा के माध्यम से जनसमाज ने कोसी नदी से सांस्कृतिक संबंध स्थापित किया। कोसी मइया की कथा घर-घर में गाई सुनी जाती है। “कोसिका महारानी नदी नहीं तिरहुत की कन्या। बंगाल में ब्याही गई। झगड़ालू सास-ननदों के अत्याचार सहते-सहते दुखी होकर लड़ पड़ी, खीझ के मारे सोरह मन के चमचमाते चाँदी के आभूषण चूर-चूर करके धूर कर डाले और चिटककर तिरहुत की ओर भागी। ननदों ने कुल्हाड़े वाले हजार दानव लेकर चलने वाली कुल्हाड़ी-आँधी और पहाड़ डुबाने वाले पहड़िया पानी पीछे लगा दिए। कोसी मइया जान छोड़कर भागी, बंगला जादू के जोर से आँधी-पानी ने पीछा पकड़ लिया। जहाँ-जहाँ कोसी भागी आँधी-पानी ने सब नष्ट कर डाला। इलाका उजाड़ हो गया। तब तक कोसी मइया की दुलारी बहिन दुलारी दाय ने एक दीया जलाकर जादू काट दिया। कोसी रुक गई।[22] इन लोक कथाओं में जीवन का उल्लास और संघर्ष दोनों मौजूद हैं। विरह और करुणा के साथ मंगल की सृष्टि भी उपस्थित रहती है।

कहा जा सकता है कि लोक कथाएँ जीवन के सभी रंग अपने भीतर रखती हैं। बहुत सी लोक कथाओं में नदियों का जिक्र आता हैं। उन कथाओं में नदियों के कारण कथानक की गति में बदलाव भी देखा जाता है। लोरिक और मंजरी की कथा में इसी तरह का वर्णन मौजूद है, जहाँ सोन नद मुख्य भूमिका में दिखाई दे जाता है। यात्रावृत्तांत एक आँख गंगा एक आँख सोन में लोककथा सोननद के साथ जुड़ी लोरकहा का चित्रण लेखक करता है। अर्जुनदास केसरी सोन नद की यात्रा में गोठाना के साथ लोरिक की ससुराल का सम्बन्ध बताते हैं। वे लिखते हैं, “पानी जांघ तक, फिर सीना तक, उसके बाद कंठ तक आने लगा। डूब जाने का भय, इसलिए गाँव के रत्थी नाई यहाँ की घटना 'लोरिकी गाकर सुनाया करते थे जिसमें लोरिक की बारात के डूबने-उबरने, झीमल मल्लाह द्वारा लोरिक की बारात को नदी पार करने और फिर मोलागत राजा से लोहा लेकर मंजरी की बिदाई कराने का विस्तृत वर्णन सुन रखा था।[23] गोठाना के लिए कहा जाता है कि यही वह अञ्चल है, जहाँ कथा-नायिका मंजरी ने जन्म लिया था और वीर लोरिक उसे ब्याहने गौरा से यहाँ सवा लाख बारातियों को लेकर आया था। राजा ओव्रागत से उसका भयंकर युद्ध हुआ था और लाशों से धरती पट गयी थी। इतना शोणित वहाँ था कि सोन खून की नदी बन गयी थी।

नदी के साथ समाज के अन्तःसंबंधों का विश्लेषण करने पर हम देखते हैं कि नदी किनारे के व्यक्ति, समाज, परिवार, रीति-रिवाज, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, साहित्य, मिथक, पर्यावरण इत्यादि के साथ गहरा सम्बन्ध बना लेते हैं। इन सभी को नदियाँ किस प्रकार प्रभावित करती हैं और इनके भीतर किस प्रकार पैठ बनाती है, इसे लोकमन में देखा जा सकता है। मिथकों, लोकगीतों और लोक कथाओं में नदी की मौजूदगी के साथ समाज द्वारा नदियों के साथ व्यक्त की जाने वाली श्रद्धा, आस्था और विश्वास मुग्धकारी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि नदियों पर केंद्रित यात्रावृत्तांतों में प्रयुक्त कथात्मक और मिथकीय प्रसंग भारत की नदियों के साथ यहाँ के निवासियों का अटूट संबंध व्यक्त करते हैं। ये पुरा कथाएं भारत की सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती हैं । इनके माध्यम से हम उन तत्त्वों को पहचान सकते हैं जो भारतीय संस्कृति का संबंध जल, जल स्रोत, जल संस्कृति, नदी और तीर्थों के साथ स्थापित करती है।

संदर्भ सूची -



[1] बद्री नारायण : लोक संस्कृति और इतिहास, लोक भारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 87

[2] अमरनाथ : हिदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, चौथा संस्करण,

   2016, पृ. 282

[3] उषा पुरी विद्यावाचस्पति : भारतीय मिथकों में प्रतीकात्मकता, सार्थक प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997, पृ. 1

[4] राकेश तिवारी : सफर एक डोंगी में डगमग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 106

[5] विष्णु प्रभाकर : जमना-गंगा के नैहर में, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1964, पृ. 112

[6] अभय मिश्र एवं पंकज रामेंदु : दर दर गंगे, पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया प्रा. लि. गुड़गाँव, 2013,  पृ. 172

[7] राकेश तिवारी : सफर एक डोंगी में डगमग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 165

[8] वही, पृ. 174

[9] अमृत लाल वेगड़ : तीरे-तीरे नर्मदा, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, द्वितीय संस्करण, 2018, पृ. 53

[10] श्रीराम परिहार : संस्कृति सलिला नर्मदा, आदिवासी लोक कला एवं तुलसी साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश

    संस्कृति परिषद्, भोपाल, 2006, पृ. 24

[11] राकेश तिवारी : सफर एक डोंगी में डगमग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 141

[12] राजेश कुमार व्यास : नर्मदे हर, पुरोवाक्, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली, 2018, पृ. 7

[13] सांवरमल सांगानेरिया : ब्रह्मपुत्र के किनारे किनारे, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2015, पृ. 126

[14] राजेश कुमार व्यास : नर्मदे हर, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली, 2018, पृ. 15

[15] राकेश तिवारी : सफर एक डोंगी में डगमग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 42

[16] वही, पृ. 83

[17] वही, पृ. 129

[18] वही, पृ. 101

[19] वही, पृ. 107

[20] सांवरमल सांगानेरिया : ब्रह्मपुत्र के किनारे किनारे, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2015, पृ. 20

[21] सुदर्शन वशिष्ठ : हिमाचल प्रदेश की लोक कथाएँ, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण, 2017,

    भूमिका, पृ. 8

[22] राकेश तिवारी : सफर एक डोंगी में डगमग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 166

[23] अर्जुनदास केसरी एवं शेख जैनुल आब्दीन : एक आँख गंगा एक आँख सोन, लोकवार्ता शोध संस्थान,

    राबर्ट्सगंज, सोनभद्र, 1999 पृ. 3


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नासिरा शर्मा के उपन्यासों में संवेदना का धरातल

 

नासिरा शर्मा के उपन्यासों में संवेदना का धरातल

'विविधा' जनवरी-मार्च,2025 में प्रकाशित

साहित्य संसार के प्रति मानसिक प्रक्रिया अर्थात् विचारों व भावों की अभिव्यक्ति है। यह ‘हित का साधन’ भी करता है, अतः संरक्षणीय भी है। इसे समाज का उत्पादन भी कहा जाता है, जिससे विशाल मानव जाति की आत्मा का स्पन्दन ध्वनित होता है। साहित्य जीवन की व्याख्या भी करता है, इसी कारण उसमें जीवन देने की शक्ति भी आती है। इस प्रकार साहित्य व समाज का अन्योन्याश्रयत्व चिरकाल से रहा है। स्वप्निल श्रीवास्तव के अनुसार- “आज का यथार्थ मारक और अविश्वसनीय है। वह फैंटेसी के आगे का यथार्थ है। आज के यथार्थ का चेहरा रक्तरंजित और अमानवीय है। यथार्थ हमारे सामने विस्मयकारी दृश्य प्रस्तुत करता है, जो कल्पनातीत है।”[1] विस्मयकारी यथार्थ का जो दृश्य नई सदी के दो दशकों में दिखाई देता है, वह उपनिवेशवादी प्रभाव का परिणाम है। फलतः जो कारक हमारे समक्ष उपस्थित हैं, उनमें प्रमुख हैं- वैश्वीकरण, मुक्तबाजारवाद, विकृत उभोक्तावाद, राजनीतिक अधिनायकवाद, मूल्यहीनता, सांस्कृतिक संघर्ष, भ्रष्ट आचार, हिंसक वर्चस्व आदि। यद्यपि ये कारक वैश्विक हैं, किन्तु भारतीय मन इससे ज्यादा प्रभावित है।

नासिरा शर्मा हिंदी कथा साहित्य की एक सशक्त हस्ताक्षर है।  उनकी कृतियों में समाज और संस्कृति का कैनवास विराट रूप में मिलता है। उनके उपन्यासों में रिश्तों की दास्तान, लुप्त होती संवेदनाओं की पड़ताल, वैश्विक परिदृश्य में इंसानियत तथा समकालीन परिवेश में संघर्षशील समाज का बहुआयामी पक्ष बखूबी उभरता है। उन्होंने बाजार और तकनीक के मकड़जाल में फँसी युवा पीढ़ी को भी सावचेत करने का प्रयास किया है। उनके प्रत्येक उपन्यास में समाज के विविध पक्षों को लेकर चिंताएँ व्यक्त की गई हैं। ‘सात नदियाँ: एक समंदर’ ईरानी क्रांति पर लिखा गया दुनिया का पहला उपन्यास है। ‘शाल्मली’ स्वतंत्रता के बाद महिला विमर्श की चेतना को इंगित करने वाला उपन्यास है तो ‘ठीकरे की मंगनी’ एक संघर्षशील युवती की दास्तान है। ‘जिंदा मुहावरे’ में भारत विभाजन का दर्द छलकता है। ‘अक्षयवट’ में युवा पीढ़ी का संघर्ष दिखाई देता है, वहीं ‘कुइयां जान’ में शुष्क होती संवेदनाओं का प्रकटीकरण है। ‘जीरो रोड’ में देश के सामयिक यथार्थ का अंकन है तो ‘पारिजात’ में संस्कृति और परंपरा में नए सूत्र को खोजने की कोशिश है। ‘अजनबी जजीरा’ में इराक की दारुण स्थितियों का अंकन है। ‘कागज के नाव में बेरोजगारी और पलायन की विसंगतियों को उजागर करने की कोशिश है। ‘शब्द पखेरू’ में बाजार का परिदृश्य तो ‘दूसरी जन्नत’ में आधुनिकता की तेज रफ्तार पर फिसलती जिंदगी का सजीव चित्रण है। इस प्रकार मानव जीवन के समग्र पक्षों को नासिरा शर्मा ने अपने उपन्यासों की विषय-सामग्री के रूप में प्रस्तुत किया है।

भारत ने अथक संघर्ष के उपरांत 15 अगस्त, 1947 को आजादी तो प्राप्त कर ली, किन्तु विभाजन की त्रासदी के दंश के आघात को भी झेला। जहाँ धर्म और संप्रदाय के आधार पर मानवता का विभाजन हुआ और मनुष्यता के पतन का रक्तस्नात् चेहरा भी प्रकट हुआ। हजारों लोग बेघर, दंगे, अकाल मृत्यु, विध्वंस, द्वेष के दृश्य के साथ संवेदना का अवसान भी देखने को मिला। नासिरा शर्मा ने उन विभीषिकाओं का केवल ब्यौरा प्रस्तुत न कर उस मानसिकता को नंगा किया है, जो संकटकालीन स्थितियों में भी सब कुछ छीनने और मौके का फायदा उठाने की मनोवृत्ति से ग्रस्त है। नासिरा शर्मा का 'जिंदा मुहावरे' उपन्यास भारत विभाजन की त्रासदी के आधार पर लिखा गया है। धर्म के नाम पर हुए कत्लेआम और इंसानियत के मर जाने का वीभत्स चित्रण करता हुआ यह उपन्यास हिंदी साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। फैजाबाद गाँव में रहने वाला रहीमुद्दीन का छोटा बेटा निजाम उपन्यास का केंद्रीय पात्र है, वह पाकिस्तान का ख्वाब देखते हुए करांची चला जाता है और सोचता है "जहाँ जात है अब वही हमारे वतन कहल इहे। नया ही सही अपना तो होइहे। जहां रोज-रोज ओकी खुद्दारी को कोई ललकारिए तो नाहीं।"[2] परंतु पाकिस्तान जाकर वह अपनी जन्मभूमि की गंध के लिए तड़पता है, क्योंकि उसके माँ-बाप, भाई-बहन तो अपनी पैतृक जमीन भारत में ही हैं। वह भारत लौटने के लिए लालायित रहता है, परंतु सियासत उसे ऐसा नहीं करने देती। उसकी तड़प मर्म को हिला देती है। इससे यह प्रकट होता है कि विभाजन का दर्द हमारे समय का घातक सच है।

वैश्विक धरातल पर यदि हम अवलोकन करें तो किसी भी समाज में महिलाओं को समान स्तर प्राप्त नहीं हुआ। पुरुष की परंपरागत मानसिकता में नारी की संघर्ष गाथा है। यह विश्व के प्रत्येक देश में देखी जा सकती है। ईरान की क्रांति पर आधारित उपन्यास ‘सात नदियां: एक समंदर’ में अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठती स्त्रियों की संघर्ष गाथा है। इस उपन्यास की सारी प्रमुख पात्र स्त्रियां हैं, जहां खुमेनी  शासन के आने पर उनकी उम्मीदें टूट जाती है। शासन के विरोध में बोलने का नतीजा यह होता है कि पहले तो वह अपने वैवाहिक जीवन से दूर हो जाती है और तैयब अपनी कलम को खुमेनी शासन के विरुद्ध चलाती है तो अंततः शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना देते हुए उसे गोली से उड़ा दिया जाता है।  यहां नासिरा शर्मा लिखती है, “ईरान की क्रांति पर लिखा मेरा यह उपन्यास उन अनुभवों का लेखा-जोखा है जो पिछले नौ वर्ष में मुझे ईरान की धरती पर हुए इन नौ वर्षों के पीछे लगभग नब्बे वर्षों का अतीत सांस ले रहा था जिसमें 5000 वर्ष पुराने ईरान की सभ्यता संस्कृति का वैभव अपनी ऐतिहासिक गाथा गुनगुना रहा था।“[3] वास्तव में युद्ध हो या क्रांति, स्त्रियों का संघर्ष अपने लिए कुछ पा न सका।

आर्थिक नाकाबंदी में इराक की जनता जिस गरीबी और महंगाई से जूझ रही थी, उसी में अमेरिकन बमबारी, सद्दाम का तख्ता पलट और आम आदमी किस तरह सियासी खबरों के पीछे छुप जाता है उसका सुख-दुख ‘अजनबी जजीरा’ में प्रकट हुआ है। युद्ध ग्रस्त विभीषिका में औरतों की स्थिति का सत्य और भी भीषण है। लेखिका ने इस सत्य को इस उपन्यास की पात्र समीरा के मुँह से कहलवाया है, "युद्धग्रस्त समाज की कठिनाइयाँ कितनी नई परेशानियों से हमारा परिचय कराती है, तब पेट के आगे बदन बेचना यहां तक की अपने बच्चे तक को बेचना मुश्किल काम नहीं लगता, बल्कि मौत को नजदीक पाकर जीने की तमन्ना ज्यादा बढ़ जाती है। मुझे ही देखो जवान बेटियों की भूख के आगे मैं अपनी भूख को दबा नहीं पाती..।"[4]  समीरा का यह कथन मानवीय त्रासदी की पराकाष्ठा है। जब वह कहती है, “जिस्मफरोशी से मुझे हालात ने महफूज रखा वरना वह भी मुझे करना पड़ता.. हालात अच्छाई और बुराई के मायने कैसे बदल कर रख देते हैं.. पेट भरे लोगों के लिए उंगली उठाना कितना आसान होता है मगर भूखे के लिए रोटी हर फलसफे से बढ़कर अहम हो उठती है।“[5] सभ्य कहलाने वाले इस आधुनिक विश्व में विध्वंस का यह मूर्त रूप पाठकों को स्तब्ध कर देता है। ऐसे परिदृश्य में मान्यता तारतार होती है और स्त्री विमर्श के समूचे निहित अर्थ बदल जाते हैं।

पेट की आग व्यक्ति को कुछ भी करने कोई वश कर देती है उसे समय उसके सामने नैतिकता का मायने बदल जाते हैं। विदेशी सेना के आक्रमण और बम हमले से इराक पूरी तरह नष्ट हो गया है। फौजी शासन के तले लोगों को जरूरत की चीजों के लिए घरेलू सामान बेचना पड़ रहा है। अधिकांश इराक के समर्थक मारे जा चुके हैं। ऐसे भीषण समय में एक बूढी औरत जो अपने दो छोटे नवासों की एकमात्र संरक्षक है। बच्चों की भूख को शांत करने के लिए बाजार में दो रोटी छुपाने के आरोप पकड़ी जाती है। वह अपना दुखड़ा समीरा के समक्ष कहती है, "मेरे दो नवासे हैं, कल से भूखे हैं। चारा क्या था मेरे पास?"[6] यह सच मानवता के नाम पर कलंक है।

धर्म के नाम पर हमारा सामाजिक ताना-बाना आज के समय में छिन्न-भिन्न दिखाई देता है। 'जीरो रोड' उपन्यास में धार्मिक कट्टरता के नाम पर इंसानियत को तबाह करने का दृश्य दिखाई देता है। कई ऐसे दृष्टांत है जिसके माध्यम से पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है। उपन्यास का पात्र मुन्ना हाफिज का घर राम प्रसाद व जगत रामजी  के मोहल्ले में है। वह चौक में मजहबी किताबों की दुकान लगाकर परिवार का पालन पोषण करता है। अपनी ईमानदारी व उदार दृष्टिकोण के कारण अपने ही मजहब के कट्टर व संकुचित मानसिकता वाले लोगों को चुभने लगता है। उनके उकसाने पर वह तबलीगी जमात वालों को जवाब देते हुए कहता है, "कान खोल कर सुन लें आप सभी साहेबान! मैं किसी के ना खिलाफ कोई काम करता हूँ ना किसी मजहब की तब्लीग पर। मैं गैर मुसलमान को गाली नहीं देता हूँ, बल्कि उन बातों की शिकायत करता हूँ, जो हमें खलती है, जिससे हमें नुकसान पहुँचता है।"[7] उसके इस उदार मनोवृति का परिणाम यह होता है कि एक दिन अचानक रात के दो-तीन बजे उसकी दुकान में आग लगा दी जाती है। लगभग दो लाख की किताबें जलकर खाक हो जाती हैं। इस घटना को लेकर उनके ही जमात के लोग तरह-तरह के आशंकाएं व्यक्त करते हैं और कोशिश करते हैं कि इसे सांप्रदायिक रूप दिया जाए।

जब भी दुनिया में सांस्कृतिक एकता के इतिहास की बात होती है तो भारत का जिक्र होना लाजमी ही है। यहाँ के संस्कारों में दो संस्कृतियाँ यूँ घुली-मिली हैं मानो दोनों एक दूसरे की पूरक हों। ‘पारिजात’ उपन्यास नासिरा शर्मा की एक ऐसी ही कृति है, जो भारत की समावेशी संस्कृति को परत-दर-परत खोलती और मानवीय रिश्तों की बुनावट को भाषा के एहसासों से पाठक के अंदर जीवंत करती है। ‘पारिजात’ आज की पीढ़ी के सपनों, उसके निर्णय, माता-पिता के प्रेम, स्त्री की भारतीय और पाश्चात्य छवि के साथ गुरु-शिष्य के संबंधों और एक समुदाय विशेष के प्रति पाश्चात्य पूर्वाग्रह से घायल समाज जैसी संवेदनाओं को एक नए फलक में तर्कों के साथ बयां करता है, वहीं ‘अक्षयवट’ उपन्यास में लेखिका ने इलाहाबाद से जुड़ी अपनी स्मृतियों के बहाने मानवीय संवेदना में आए बदलाव को रेखांकित किया है। इस उपन्यास के केंद्र में इलाहाबाद शहर के पत्थर गली, नखास कोना, रानी मुंडी, दरियाबंद, हिम्मत गंडा, बताशा वाली गली आदि भागों में रहने वाले लोगों की जिंदगी को दर्शाया है।

यहाँ हम देखते हैं कि उपभोक्ता संस्कृति ने उत्सवों में छिपे सार तत्त्वों को सोख लिया है। स्वयं लेखिका कहती है, "परंपरा के निर्वाह के लिए रावण के पुतले में आग लगाना और बुराई को सदा के लिए मिटा देने का संकल्प हर दिल में होता, मगर व्यावहारिक रूप से मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनने की जिज्ञासा किसी में ना जगती। क्योंकि त्याग करने पर आज के दौर में कोई राजी ना था, उल्टे त्याग की जगह पैसा कमाने की नई-नई तरकीबों में सबका मन मस्तिष्क रमता। रावण को ना करते हुए भी रावण- कृत्य को अपनाने की छुपी लालसा आज का सबसे कड़वा यथार्थ था।"[8] वस्तुतः इलाहाबाद की धमनियों में अक्षयवट के समान अविराम भाव धारा विरासत के रूप में सदैव विद्यमान रही, लेकिन समय के साथ उसमें भी व्यवस्था की सड़ांध और अवसाद भरी जिंदगी के चिह्न नजर आने लगे हैं।

आर्थिक उदारीकरण के दौर में शहरीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई है और इस प्रक्रिया में सर्वाधिक नुकसान ‘संवेदना’ का हुआ है। जहाँ व्यक्ति अपने घर को बचाने के लिए संघर्ष करता दिखाई देता है। हमने भावनाओं को केन्द्रित करना सीखा है और रिश्तों को भी ताक पर रख दिया है। हम सवालों से डरने लग गए हैं और अपेक्षा करते हैं कि जैसा चल रहा है उसे घर का हर सदस्य स्वीकार कर ले। 'शब्द पखेरू' उपन्यास हमें आगाह करता है कि कैसे नई पीढ़ी अनजाने में ही साइबर क्राइम का हिस्सा बन जाती है। आम जीवन में बढ़ते इंटरनेट के इस्तेमाल और सामाजिक संबंधों में आए बदलावों को हमारे समक्ष बखूबी उपस्थित करता है, दूसरी और मध्यमवर्गीय परिवार की घुटन, संवादहीनता और सीमित संसाधनों के साथ बड़े सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद में लगे बच्चों की कथा यह उपन्यास बारीकी से कहता है। आज के मध्यमवर्गीय  परिवारों में  यह दृश्य सामान्यतया दिखाई दे सकता है।

आज की पीढ़ी बुजुर्गों के बजाय गूगल से मिलने वाले ज्ञान पर ज्यादा सहज है। "मनीषा शैलजा में बढ़ता विश्वास देख रही थी जो कभी-कभी उसे बाद आक्रामक लगता। हरदम लैपटॉप की स्क्रीन पर आंखें गाड़ी रहती। एक दिन उसने ईर्ष्या वश उसका नाम 'इंटरनेट बेबी' रख दिया था, मगर उसे इस पर कोई फर्क नहीं पड़ा। फेसबुक पर हर फ्रेंड रिक्वेस्ट को कंफर्म कर देना जैसे उसके लिए जरूरी था। किताब या नोटबुक खुली है, सामने मैटर ढूँढने के बहाने चैट चल रही है। दिखावा ऐसी करती है जैसे बेचारी पढ़ाई को लेकर हलकान हो रही है। इंटरनेट के विस्तृत आकाश पर देखने पढ़ने और खोजने के लिए बहुत कुछ था। उसने गूगल को 'ग्रैंडपा' का नाम दे रखा था।"[9]

समग्रतः यह कहा जा सकता है कि जब कभी मानव सभ्यता चाँद को छूने के लिए ब्रम्हांड को चीरती है तब ये चित्र मानव को आदिम युग में ले जाते है, जो शर्मनाक है। मनुष्यता के कलंक से विमुक्ति का प्रयास मानव जीवन के प्रति एकात्म भाव से ही संभव है, अन्यथा विकास की गति केवल छलावा है। विश्व साहित्य की प्रथम पुस्तकजिसे यूनेस्को ने भी स्वीकार किया हैवह है- ऋग्वेद। उसमें कहा गया है- मनुर्भवःअर्थात् मनुष्य बनो। मनुष्यता का बोध ही भारतीय संस्कृति का मूल हैजो वर्तमान और भविष्य के लिए भी जरूरी है व रहेगी। हिन्दी उपन्यास परम्परा में नासिरा शर्मा का अवदान मानवीय संवेदनाओं के धरातल पर इस दृष्टि से स्तुत्य है।

संदर्भ-

1.      आलोचना, अप्रैल-जून,2003, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.32

2.      जिंदा मुहावरे, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2017, पृष्ठ 11

3.      सात नदियां: एक समंदर, अभिव्यंजना प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 1984, पृष्ठ 7

4.      अजनबी जजीरा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2017, पृष्ठ 78

5.      अजनबी जजीरा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2017, पृष्ठ 120

6.      अजनबी जजीरा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2017, पृष्ठ 24

7.      जीरो रोड, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सं. 2003 पृष्ठ 286

8.    अक्षयवट, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सं. 2003 पृष्ठ 42

9.      शब्द पखेरू' वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2017, पृष्ठ 40

 


आधुनिक हिन्दी काव्य-धारा में मेवाड़

आधुनिक हिन्दी काव्य-धारा में मेवाड़ 
अपनी माटी पत्रिका जनवरी-मार्च,२०२५ में प्रकाशित

शोध सार : 
मेवाड़ का नाम स्वातंत्र्य चेतना की श्रेणी में बड़े आदर से लिया जाता है। इसी कारण आधुनिक हिंदी कविता में मेवाड़ का ऐतिहासिक गौरव स्वाधीनता संग्राम का पदचिह्न बना। यहाँ का शौर्य साहित्यकारों के लिए विस्मयकारी रहा। लेखन की विषय-वस्तु में अत्याचारों के विरुद्ध नहीं झुकने का संदेश, मातृभूमि की आन-बान-शान पर कर्तव्य निभाते हुए युद्ध करना, सतीत्व की रक्षा के मर मिटना, प्रताप का मातृभूमि प्रेम, पन्ना का पुत्र-बलिदान जैसे कई कथानक मेवाड़ की माटी के माध्यम से साहित्य की धरोहर बने। दासता के विरुद्ध संघर्ष के प्रेरणा स्रोत रहे इन उदात्त चरित्रों को लेकर महाकाव्य, खंडकाव्य, मुक्तक काव्य लिखे गए, जिसमें मेवाड़ का शौर्य प्रखर रूप में प्रदीप्त हुआ। इस अनुपम अवदान में श्यामनारायण पांडेय रचित ‘जौहर’ और ‘हल्दीघाटी’, रामकुमार वर्मा की रचना ‘चित्तौड़ की चिता’, जयशंकर प्रसाद कृत ‘महाराणा का महत्त्व’, लाला भगवानदीन की ‘वीर पंचरत्न’ जैसी प्रबंध रचनाओं के साथ प्रसाद रचित ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ जैसी अमर कविता उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त वाचिक परम्परा में गाए जाने वाली स्तुतियों की संख्या अपार हैं। कालांतर में शांति की कामना का स्वर भी डॉ. हरीश का खंडकाव्य ‘महीयषी मीरा’ में मुखरित हुआ है। 
बीज शब्द : मेवाड़ का गौरव, जौहर, सतीत्व की रक्षा, शौर्य, स्वामिभक्ति, स्वातंत्र्य-बोध, आत्मोत्सर्ग-भाव, औदात्य, युद्ध की भीषणता, वाचिक परम्परा, भक्ति-भाव।

मूल आलेख :
राजस्थान शूरवीरों की भूमि के रूप में विख्यात है। मेवाड़ का इतिहास स्वातंत्र्य-चेतना का सदैव आदर्श प्रतीक बनकर उपस्थित रहा। वीर गाथाओं में महाराणा प्रताप का शौर्य स्वाधीन मातृभूमि का प्रेरणा-स्रोत बनकर प्रकट हुआ तो पन्नाधाय का मातृभूमि के लिए पुत्र का बलिदान अपूर्व है। पद्मिनी-कर्मवती का जौहर, गोरा-बादल की वीरता को समय की अबाध गति में भी अविस्मरणीय बनाए रखने का स्तुत्य कार्य कवियों ने किया है। मेवाड़ की भूमि जो भारतीय ललनाओं के रक्त से लाल है। उन्होंने अपने सुकुमार हाथों से अपने लिए चिता सजाई थी। प्रचंड आग और कोमल शरीर कैसा विचित्र संयोग था? उस बलिदान में कांति और गौरव की चिंगारियाँ भरी हैं। 
डॉ. रामकुमार वर्मा लिखते हैं, “चित्तौड़ की चिता की ज्वालाएँ अब भी इतिहास के पृष्ठों पर चमकती हैं। वासना में डूबे मुसलमानों की आँखों में अक्षम्य अपराध था। किसी हिंदू के घर में सौंदर्य का फूल खिलना, उसकी नियति- यवनों की वासना की भीषण अग्नि थी, अत्याचार, निर्दयता, शासन और वासनामयी प्रवृत्ति थी। चित्तौड़ भूमि में गौरव और सम्मान की भावना बची थी। चित्तौड़ ने जागृत रखा- सम्मान युक्त सूखी रोटी खाकर क्रूर शासकों से लड़कर, मिटकर भी गौरव को बचाना। वे टूट गए पर चित्तौड़ की आत्मा को, गौरव को कोई कुचल नहीं सका।“ [1] यह भूमि सम्पूर्ण भारतवर्ष में क्यों पूजनीय है, उसका उत्तर मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत भारती' में मिलता है। यह रचना स्वाधीनता आन्दोलन की कंठ-हार बनी, उसमें मेवाड़ की धरा के लिए व्यक्त उक्त पंक्तियाँ सभी कवियों के लिए प्रेरणास्पद मानी गई, जिसमें वर्णित है-

चित्तौड़ चंपक ही रहा यद्यपि यवन अलि हो गए,
धर्मार्थ हल्दीघाटी में कितने सूभट बली हो गए।
कुलमान जब तक प्राण तब तक, यह नहीं तो वह नहीं,
मेवाड़ भर में वक्तृताएँ गूंजती ऐसी रही।। [2]

श्री श्यामनारायण पांडेय ने जौहर की भूमिका में लिखा, "जौहर अपनी आर्य संस्कृति के 
संरक्षण में सहायक होगा और संस्कृति के पुजारियों की कमी नहीं, इसलिए इसका प्रचार स्वयंसिद्ध है। इस संघर्ष काल में आर्य संस्कृति के रक्षकों को जौहर के छंदों ने मंत्रों से भी अधिक बल दिया है, जो सर्वत्र स्पष्ट है।” [3] श्यामनारायण पांडे ‘जौहर’ में इस भूमि के माहात्म्य का परिचय एक संन्यासी के कथन के माध्यम से देते हैं जब कवि प्रश्न करता है कि संन्यासी तुम कहाँ पर पूजन करने के लिए जा रहे हो-

थाल सजाकर किसे पूजने चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का पीतांबर तन पर डाले?
कहाँ चले ले चंदन अक्षत, बगल दबाए मृगछाला?
कहाँ चली यह सजी आरती, कहाँ चली जूही माला?
इधर प्रयाग न गंगासागर, इधर ना रामेश्वर काशी।
कहाँ किधर है तीर्थ तुम्हारा, कहाँ चले तुम संन्यासी ? [4]

कवि संन्यासी से प्रश्न करता है और पूछता है कि तुम उपवीत, मेखला, जल से भरा कमंडल लेकर किसे नहलाओगे? मौलसिरी का गजरा किसके गले में पहनाओगे? कहाँ दीप जलाकर माला-फूल चढ़ाओगे? सारे प्रश्नों को सुनकर संन्यासी उत्तर देता है-
 मुझे न जाना गंगासागर, मुझे न रामेश्वर काशी।
 तीर्थराज चित्तौड़ देखने को, मेरी आँखें प्यासी।। [5] 

राजपूतों का युद्ध के लिए प्रस्थान करना, केसरिया वस्त्र धारण करना, क्षत्राणियों का जौहर करने का व्रत लेना, चिता के समीप फूलों की रेखाएँ सुसज्जित होना, फूलों से द्वार बनाने, आर्य ललनाओं का पूजन करना, धर्म हित मरण हेतु जौहर करना, दुर्गा देवी का पूजन करना कहना और अपनी भूलों के लिए क्षमायाचना करते हुए मरण-पथ पर प्रस्थान करना कितना लोमहर्षक है- 

देवी यह है अंतिम पूजन, क्षमा करना सब की सब भूल,
रहे सब पर सदैव अनुकूल, न करना हमसे निष्ठुरपन। [6]

मेवाड़ धरा के गौरव, राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक एवं मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले शूरवीर महाराणा प्रताप का व्यक्तित्व सदैव प्रेरणास्पद रहा है। श्याम नारायण पांडेय रचित खंडकाव्य ‘हल्दीघाटी’ प्रताप के जीवन-चरित्र को अमरत्व प्रदान करने वाली कृति है। हल्दीघाटी नामकरण राजस्थान की वीरभूमि के उस स्थल का नाम है, जहाँ राणा प्रताप और अकबर के मध्य भीषण संग्राम हुआ, परन्तु अकबर की मेवाड़ विजय की कामना अधूरी रही। श्याम नारायण पांडेय ने अपनी ओजस्वी प्रस्तुति से इस कृति को जनव्यापी बना दिया।  ‘हल्दीघाटी’ के नायक राणाप्रताप हैं और प्रतिनायक हैं- अकबर। प्रताप राजपूताना की छोटी-सी रियासत के राणा हैं, जबकि अकबर मुगल साम्राज्य का सम्राट। उसने संपूर्ण भारत पर एकाधिकार कर लिया, परन्तु प्रताप को झुकाने में विफल रहा। यह दंश उसे रह-रहकर सालता रहता। रत्नजटित महलों में अकबर की मनःदशा का चित्रण कवि ने इस प्रकार किया-

स्वर्णिम घर में शीत प्रकाश, जलते थे मणियों के दीप।
धोते आँसू-जल से चरण, देश-देश के सकल महीप ।
तो  भी कहता  था सुल्तान, पूरा  कब होगा अरमान ।
कब  मेवाड़ मिलेगा  आन, राणा  का होना अपमान ।। [7]

दूसरी तरफ राणा प्रताप तनिक भी विचलित नहीं और अकबर से किसी प्रकार का भय नहीं। अरावली की उपत्यकाओं में अपना दरबार सजाए हुए हैं । उन्हें पता है कि मानसिंह की अवज्ञा से अब रण अनिवार्य है, परन्तु मातृभूमि की अस्मिता अक्षुण्ण रहे, उसकी रक्षा का प्रण अटल है। अपनी छोटी सी सेना, भील सरदारों के प्रण और स्वाभिमानी गौरव के साथ भावी रण की तैयारियाँ वीरोचित गरिमा के साथ प्रस्तुत हुआ है-

शुचि  सजी शिला  पर राणा भी, बैठा  अहि-सा फुंकार लिए।
फर-फर  झंडा  था  फहर  रहा,  भावी  रण का  हुंकार लिए।
+++ +++ +++
तरकस  में  कस कस तीर भरे, कंधों  पर कठिन कमान लिए।
सरदार  भील भी  बैठ गए, झुक-झुक रण  के अरमान  लिए। [8]

अकबर द्वारा अब्दुर्रहीम खानखाना को जब मेवाड़ विजय के लिए भेजा, तब महाराणा प्रताप के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अकबर को जाकर जो वर्णन किया, वह स्वयमेव रोमांचित करता है। जयशंकर प्रसाद रचित ‘महाराणा का महत्त्व’ कविता में बताया गया कि इस घटना को सुनकर अकबर ने प्रताप से भविष्य में युद्ध करने का विचार ही त्याग दिया-

जिस दिवस मुझे कर सैनप भेजा आपने, 
वीरभूमि मेवाड़ विजय के हेतु, हाँ-
उस दिन सचमुच मुझे असीम प्रसन्नता 
हुई, कि मैं भी देखूँगा उस वीर को,
जो अब तक होकर अबाध्य सम्राट का
करता है सामना बड़े उत्साह से। 
सचमुच शहंशाह एक ही शत्रु वह
मिला है आपको है कुछ ऊँचे भाग्य से;
पर्वत की कंदरा महल है, बाग है-
जंगल ही आहार-घास, फल-फूल है।
सच्चा हृदय सहायक उसके साथ है। [9]

प्रताप की प्रतिज्ञा कि उनके जीवित रहते हुए मेवाड़ कभी भी पराधीन नहीं होगा। इसके लिए विशाल मुगल सेना से भिड़ने का अदम्य साहस अकल्पनीय है। राणा का महान् चरित्र तत्कालीन वातावरण में उनके अटल प्रण के साथ प्रकट होकर अथाह ऊर्जा का संचार करता है। माँ भवानी का आशीष लेकर जब हल्दीघाटी के मैदान में भीषण रण हुआ, तब मानसिंह के पैर उखड़ गए। राणा की सेना के अदम्य उत्साह से भीषण प्रहार हुआ, मुगल सेना में हाहाकार मच गया। युद्ध की भीषणता का अनुमान कवि की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- 

हयरुण्ड गिरे, गजमुण्ड गिरे, कट-कट अवनि पर शुण्ड गिरे।
लड़ते-लड़ते  अरिझुण्ड गिरे, भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे।
क्षण महाप्रलय की बिजली-सी, तलवार हाथ की तड़प-तड़प।
हय-गज-रथ, पैदल भगा-भगा, लेती थी बैरी वीर हड़प।। [10]

 हल्दीघाटी का युद्ध यदि राणा प्रताप के तेज को कालजयी बनाता है तो स्वामिभक्त चेतक के अद्भुत रण-कौशल को भी अमर कर देता है। चेतक का शौर्य कवि की दृष्टि में विस्मयकारी था। रण-क्षेत्र में स्वामी के आदेश पर चौकड़िया भरकर अरि मस्तक को रौंद रहा था। हवा से बातें करने वाला चेतक दुश्मनों पर कहर बनकर टूट रहा था, कवि ने चेतक के कौशल को इन शब्दों में प्रकट किया है-

रणबीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से, हवा का पड़ गया पाला था।
गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था। [11]

भारतीय जनता जब स्वाधीनता संग्राम की वेला में अपनी विरासत को भूल चुकी थी, तब प्रसाद  ने ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’  कविता में कवि ने महाराणा प्रताप सिंह की उत्तराधिकारी की आस का वर्णन किया है कि किस प्रकार वह अपने अंतिम समय में अपनी आस को पूरा होते देखना चाहते थे। कवि आधुनिक प्रतीकों के माध्यम से भारतीय जन मानस में दासता के विरुद्ध चेतना का संचार कर रहे हैं-

फिर भी पुकार सी है गूँज रही व्योम में -
"कौन लेगा भार यह ?
कौन विचलेगा नहीं ?
दुर्बलता इस अस्थिमांस की -
ठोंक कर लोहे से,परख कर वज्र से,
प्रलयोल्का खंड के निकष पर कस कर
चूर्ण अस्थि पुंज-सा हँसेगा अट्टहास कौन?
साधना पिशाचों की बिखर चूर-चूर होके
धूलि सी उड़ेगी किस दृप्त फूत्कार से? [12]

महारानी पद्मिनी भारतीय जन-मानस में अप्रतिम सौन्दर्य और औदात्य की प्रतिमूर्ति के रूप में बिम्बित है। वीरभूमि मेवाड़ के गौरव को अक्षुण्ण रखते हुए पद्मिनी ने भारतीय नारी की गरिमा और तेजस्विता को आने वाली पीढ़ियों के समक्ष आदर्श रूप में प्रस्तुत किया। मेवाड़ और दिल्ली सल्तनत के संघर्ष में महारानी पद्मिनी का व्यक्तित्व तत्कालीन राजनीति और आत्मोत्सर्ग की प्रबल भावना को प्रकट करता है, वहीं एक आदर्श नारी प्रतीक के रूप में समकालीन समाज को भी सनातन सांस्कृतिक मूल्यों से परिचित कराता है। कामांध अल्लाउद्दीन खिलजी जब पद्मिनी की चाह में व्याकुल है, तब एक सरदार उसके व्यक्तित्त्व को इस प्रकार वर्णित करता है- 
साध्वी परम पुनीता है वह, रामचंद्र की सीता है वह,
अधिक आपसे और कहूँ क्या, रामायण है गीता है वह।
खुद आग में जल जाएगी, गिरी से गिरकर मर जाएगी, 
मेरा कहना मान लीजिए, पर न हाथ में आएगी।
नभतारों को ला सकते हैं, अंगारों को खा सकते हैं, 
गिरह बाँध ले मैं कहता हूँ, लेकिन उसे न पा सकते हैं। [13]

लाला भगवानदीन साहित्य में बहुत बड़ा नाम है। वे लक्ष्मी पत्रिका के संपादक रहे। वीर क्षत्राणी, वीर बालक, वीर प्रताप शीर्षक से इनकी कविताएँ पुस्तकार में प्रकाशित हुई है। फिर वीर माता तथा वीर पत्नी शीर्षक से दो और पुस्तकें तैयार कर समग्रत: ‘वीर पंचरत्न’ प्रकाश में आई जिसमें- वीर प्रताप, वीर बालक, वीर क्षत्राणी, वीरमाता, वीर पत्नी को समर्पित कविताएँ हैं। ‘वीराबाई’ शीर्षक में चित्तौड़ के राणा उदयसिंह की पत्नी का वीर क्षत्राणी के रूप में कविता में अंकन किया गया है। अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण करने का निश्चय किया। वह विकट फौज लेकर चित्तौड़ का घेरा डालकर वीरा को पकड़कर निज कंठ से लगाने का सोचता था। राणा भयभीत हो गए तब वीरा ने बीड़ा उठाया-

कैसी है यह मेवाड़ धरा जग को दिखा दूँ,
वीरत्व के इतिहास में निज नाम लिखा दूँ,
नारी के विकट क्रोध का परसाद चखा दूँ,
इस दुष्ट मुगल जोद को कुछ सिखा दूँ। [14]
उसके वीरोचित उद्बोधन ने राणा को छुड़ाया और चित्तौड़ का सम्मान बचाया-
वीरा की थी तलवार, कि हनुमान की थी लूम,
जिस ओर को फिर जाती, मचाती थी वहीं धूम। [15]                   

‘महीयषी मीरा’ खंडकाव्य में पथिक पात्र काल्पनिक है जो बंगाल से चलकर मीरा का आख्यान सुनने चित्तौड़ आया है। वह मीरा मंदिर पर वृद्ध वाचक पुजारी से उसकी भव्य जीवन गाथा का पान करता है। इसमें मीरा के जीवन के ऐतिहासिक सत्यों को उजागर करते हुए सामाजिक प्रभावों को दर्शाया गया है। साथ ही माँ की विराटता, प्रेम की असाधारणता और मेवाड़ का गौरव अंकित है। कवि की दृष्टि में मीरा जनकल्याण और मानव प्रेम की उपासिका रही है। मीरा के पदों में लोक व लोक दर्शन दोनों हैं। इसी करण भावविभोर होकर पथिक पूछता है-
दूर से आया सुना, इस द्वार प्रभु का वास,
भक्ति और अनुराग में डूबा यहाँ हर सांस।
प्रीति का सरगम जहाँ बनता अटल आधार,
कृष्ण औ मां का जहाँ होता सदैव विहार।। [16]

मीरा का अमर संदेश- मानव प्रेम, नारी जागरण, भक्ति गान का संगम है। इस खंडकाव्य के माध्यम से देश की वर्तमान दशा का यथार्थ चित्रण, शिक्षा, जीवन मूल्य, आस्थाएँ, आस्तिकता, वर्तमान नारियाँ, युवामन, व्यक्ति स्वार्थ, सृजन में अतीत का गौरव, सांस्कृतिक उन्मुखता, जन कल्याण के भाव का स्वर प्रधान रहा है। इस खंडकाव्य की अंतिम पंक्तियाँ मेवाड़ को गौरव प्रदान करती है-
आज भी चित्तौड़ के उस दुर्ग पर साकार,
प्रणयिनी की प्रीति ममता के खुले हैं द्वार,
कीर्ति का वह स्तंभ, गौरव की लिए मुस्कान,
प्रणयिनी की साधना से अमर राजस्थान। [17]

निष्कर्ष :
मातृभूमि को प्रणम्य बनाने का संकल्प और उसके लिए प्राणों का अर्पण की भावाभिव्यंजना पराधीन राष्ट्र के लिए चेतना की संवाहक होती है। राष्ट्रीय-चिंतन का उद्देश्य समष्टि में आत्म-गौरव की भावना का निर्माण कर उसे उन्नति के पथ पर अग्रसर करने में है। इसी राष्ट्रीय-भावना से ओतप्रोत आधुनिक हिन्दी साहित्य में मेवाड़ के चरित-नायकों का वर्णन इस दृष्टि से हुआ कि  राष्ट्र के जनमानस में  सामूहिक रूप में अपनी तथा अपने देश को उन्नत बनाने की इच्छा प्रबल हों तथा अपने देश के लिए अगाध भक्ति, अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति गौरव की भावना जाग्रत हों। स्वाधीन भारत में भी मेवाड़ प्रेरणा का केंद्रबिंदु बना रहे, रचनाकारों का यही अभीष्ट है।  

सन्दर्भ :

1.  रामकुमार वर्मा, चित्तौड़ की चिता, परिचय, चाँद कार्यालय, चंद्रलोक, इलाहाबाद, सं. 1929, पृ. 1

2.   मैथिलीशरण गुप्त, भारत भारती, साहित्य सदन, चिरगांव, सं. 1984, पृ. 79

3.   श्यामनारायण पांडेय, जौहरविश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं. 2012, पृ. 13

4.   वही, पृ. 4

5.   वही, पृ. 5

6.   रामकुमार वर्मा, चित्तौड़ की चिता, परिचय, चाँद कार्यालय, चंद्रलोक, इलाहाबाद, सं. 1929, पृ. 111

7.   श्यामनारायण पांडेय, हल्दीघाटी, सर्ग-3, कविताकोश वेबपेज

8.   वही, सर्ग-1 कविताकोश वेबपेज

9. महाराणा का महत्त्व, जयशंकर प्रसाद, भारती भण्डार, बनारस, सं. 1985 पृ. 21-22

10. श्यामनारायण पांडेय, हल्दीघाटी, सर्ग-12, कविताकोश वेबपेज

11. वही, सर्ग-12, कविताकोश वेबपेज

12. जयशंकर प्रसाद, पेशोला की प्रतिध्वनि, (सं.) सत्येन्द्र पारीक, आधुनिक काव्य सोपान, पुनीत प्रकाशन, जयपुर, सं. 2004,  पृ. 50-51

13. श्यामनारायण पांडेय, जौहरविश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं. 2012, पृ. 42

14. लाला भगवानदीन, वीर पंचरत्नआदर्श ग्रन्थ माला, कलकत्ता, सं. 1920, पृ. 190

15. वहीपृ. 190

16. हरीश, महीयषी मीरा, कृष्णा ब्रदर्स, अजमेर, सं. 1998, पृ. 15

17. वहीपृ. 92

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जैन श्वेताम्बर तेरापंथ की आध्यात्मिक यात्रा

जैन श्वेताम्बर तेरापंथ की आध्यात्मिक यात्रा 

'मीरायन' दिसंबर-फरवरी,२०२५ अंक में...

धर्म एक शाश्वत और सार्वभौमिक तत्व है, जिसका मानव संस्कृति के विकास में सदैव योगदान रहा। सनातन काल से भारतीय संस्कृति की आत्मा धर्म है। इस भूमि पर अनेक धर्म पल्लवित पुष्पित हुए। इसी कारण भारतीय संस्कृति में भी धर्म की सत्ता का कभी लोप नहीं हुआ। भारतीय सांस्कृतिक धारा में अत्यंत प्राचीन काल से दो प्रमुख आध्यात्मिक संस्कृतियों का रूप विद्यमान रहा है, वह है-श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति। वैदिक साहित्य में इन्हें क्रमशः आर्हत और बार्हत धर्म के नाम से संबोधित किया गया है। जैन धर्म प्राचीन काल में आर्हत धर्म के नाम से विख्यात रहा। बाद में इसे श्रमण धर्म1, निर्ग्रन्थ प्रवचन2, जिनशासन3, जिन मार्ग4 व जिनवचन5 आदि नाम से भी संबोधित किया जाने लगा। वर्तमान समय में यह जैन धर्म के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार जैन धर्म श्रमण परंपरा का एक प्राचीनतम धर्म है।

जैन परंपरा अनुसार संपूर्ण कालचक्र दो भागों में विभक्त है- अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणी काल। अवसर्पिणी की चरम सीमा ही उत्सर्पिणी का आरम्भ है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। जैन मान्यता अनुसार प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में तीर्थंकरों के जन्म से पहले कुलकर उत्पन्न होते हैं। इस अवसर्पिणी काल में श्वेतांबर जैन मान्यता अनुसार सात कुलकर हुए- विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, प्रसेनजित, मरूदेव व नाभि।6 वर्तमान अवसर्पिणी काल में जैन धर्म का उदय भगवान ऋषभदेव के काल से माना जाता है भगवान ऋषभदेव के पिता अंतिम कुलकर नाभिराज थे व माता मरुदेवी थी। भगवान ऋषभदेव के पश्चात 23 तीर्थंकर और हुए तथा मान्यता अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी काल के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हैं। भगवान महावीर केनिर्वाण प्राप्त होने के पश्चात गुरु परंपरा के आधार पर जैन धर्म में अनेक गण, शाखाएँ एवं कुल अस्तित्व में आए। इनमें प्रमुख आचार्य हुए, जैसे-आर्य सुधर्मा, आर्य जम्बू इत्यादि। लगभग 600 वर्षों तक आचार्य-परंपरा चलती रही। इन आचार्यों, गणों एवं कुलों की विस्तृत जानकारी का प्रामाणिक आधार श्वेतांबर परंपरा में कल्पसूत्र व नंदीसूत्र की स्थविरावलियाँ हैं तथा दिगंबर परंपरा में यह जानकारी तिलोयपन्नति में लिखित है।7

भगवान महावीर के निर्वाण पश्चात सचेलता और अचेलता के आधार पर पर श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदाय का जन्म हुआ। दिगंबर संप्रदाय अंतर्गत वस्त्र-पात्र आदि को परिग्रह माना जाता है, अतः इस संप्रदाय के साधु निर्वस्त्र रहते हैं और हाथ में भोजन ग्रहण करते हैं। इस संप्रदाय के अंतर्गत विभिन्न उपसंप्रदाय हैं, उनमें मूलसंघ, द्राविड़ संघ, काष्ठा संघ, देवसेन संघ, बीसपंथी वर्ग, दिगंबर तेरापंथ, टोटा पंथ, तारण पंथ, कानजी पंथ आदि प्रमुख हैं।8 श्वेतांबर संप्रदाय के अंतर्गत साधु श्वेत वस्त्र पहनते हैं तथा वस्त्र-पात्र आदि को अपरिग्रह मानते हुए मुनि धर्म का निर्वहन करते हैं। वर्तमान में इसकी दो प्रमुख धाराएँ  हैं- मूर्तिपूजक धारा और अमूर्तिपूजक धारा। मूर्तिपूजक धारा तीर्थंकरों की मूर्तियाँ स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना में विश्वास करती है। इस धारा में प्रमुख गच्छ हैं- वृहद गच्छसंडेर गच्छ, धर्म घोष गच्छ, अचल गच्छ, खरतर गच्छ, तपा गच्छ आदि।9 इसी प्रकार अमूर्तिपूजक धारा में मूर्तिपूजा का निषेध किया गया है। इसमें तप-त्याग आदि पर विशेष बल दिया जाता है। इस धारा में भी कई उपसंप्रदाय हुए हैं, जिनमें प्रमुख हैं- श्रमण संघ, साधुमार्गी संघ, श्वेतांबर तेरापंथ आदि।

अमूर्तिपूजक धारा को स्थानकवासी नाम से भी संबोधित किया जाता है। वर्तमान में यही नाम अधिक प्रचलित है। जब इस संप्रदाय के मुनि स्थानकों में रहने लगे, तब यह नाम लोक में प्रचलित हो गया। स्थानकवासी संप्रदाय में से तेरापंथ का उद्भव हुआ। इसके प्रवर्तक आचार्य भीखणजी हैं। संत भीखणजी आचार्य रुघनाथ जी के प्रिय शिष्य थे, परंतु कुछ घटनाएँ  ऐसी घटीं कि संत भीखणजी को नया मार्ग चुनना पड़ा, जिसके फलस्वरूप तेरापंथ का उदय हुआ। विक्रम संवत 1815 में तत्कालीन साधुओं के शिथिल आचार से खिन्न होकर राजनगर के श्रावकों ने  साधुओं की वंदना करना छोड़ दिया। आचार्य रुघनाथ जी उस समय मारवाड़ में विहार कर रहे थे। जब उन्होंने यह बात सुनी तो उन्होंने इस समस्या का समाधान करने हेतु अपने प्रिय शिष्य भीखणजी को चुना। क्योंकि वह शास्त्रज्ञ होने के साथ-साथ असाधारण रूप से बुद्धिमान भी थे। उन्होंने अपने शिष्य भीखणजी से कहा, "तुम स्वयं बुद्धिमान हो, अतः कोई ऐसा उपक्रम करना, जिससे श्रावकों की शंकाएँ मिटें और वे पुनः वंदन करने लगें।"10

संत भीखणजी ने गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर चातुर्मास हेतु राजनगर की ओर विहार किया। उनके साथ टोकर जी, हरनाथ जी, वीरभान जी और भारमल जी ये चार साधु भी थे। जब वे राजनगर पहुँचे तो वहाँ के श्रावक अत्यधिक प्रसन्न हुएक्योंकि संत भीखणजी एक तत्वज्ञ और विरागी साधु के रूप में विख्यात थे। श्रावकों ने साधु समाज के आचार-विचार की दयनीय स्थिति भीखणजी के सम्मुख रखी। संतों के उद्गार सुन लेने के पश्चात संत भीखणजी ने अपने बुद्धि-चातुर्य से उन्हें संतुष्ट करने का प्रयास किया। यद्यपि वे स्वयं गुरु के व्यामोह के कारण सत्य को स्वीकार नहीं कर रहे थे। श्रावकों की शंकाओं ने उन्हें आत्म-निरीक्षण के लिए बाध्य कर दिया। उनका सत्य प्रेम वस्तुतः उस समय कसौटी पर चढ़ गया। यही कारण है कि राजनगर का वह चातुर्मास उनके लिए मानसिक संघर्ष का काल रहा।11

संयोगवश उस घटना के पश्चात रात्रि के समय संत भीखणजी को बड़े जोर का ज्वर प्रकोप हुआ। ज्वर के उस आकस्मिक आक्रमण ने उनके शरीर के साथ मन को भी झकझोर डाला। आत्मग्लानि और पश्चाताप की तीव्र अनुभूति करते हुए वे सोचने लगे,  "मैंने जिनेश्वर देव के वचनों को छुपाकर सच को झूठा ठहराया, यह कैसा अनर्थ कर डाला? यदि इस समय मेरी मृत्यु हो जाए, तो अवश्य ही मुझे दुर्गति में जाना पड़े। क्या ऐसी स्थिति में यह मत पक्ष और ये गुरु मेरे लिए शरणभूत हो सकते हैं?12 इन विचारों ने उनके मन की कलुषता को समाप्त कर दिया। हृदय-मंथन की इस प्रक्रिया के बाद उन्होंने साहस और दृढ़ता के साथ प्रतिज्ञा की, "यदि मैं इस अस्वस्थता, से मुक्त हुआ तो निष्पक्ष भाव से खोजकर सत्य मार्ग को अपनाऊँगाजिन-भाषित  आगमों के अनुसार अपनी चर्या बनाऊँगा और साधुओं के लिए निर्दिष्ट मार्ग के अनुरूप आचरण करने में किसी की भी परवाह नहीं करूँगा।"13 स्वामीजी का ज्वर उस प्रतिज्ञा के पश्चात क्रमशः शांत होता गया और रात्रि के साथ ही उसका अंत हो गया। इस प्रकार सत्यान्वेषण के प्रति उनका संकल्प और दृढ़ हो गया। संत भीखणजी ने सत्य मार्ग को स्वीकार करने की प्रतिज्ञा की थी। उसका तात्पर्य यह नहीं था कि वे स्वयं आचार्य बनना चाहते थे या अपना पृथक संघ चलाना चाहते थे। उनके सामने तो केवल सत्य का ही प्रश्न था। वे आत्म-कल्याण के पथ पर शिक्षक और गुरु में कोई भेद नहीं मानते थे। किसी भी प्रकार से सत्य का पालन हो, आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो, यही उनका प्रमुख लक्ष्य था।

चातुर्मास समाप्ति के पश्चात संत भीखणजी ने अपने गुरु से शंकाओं के समाधान हेतु विनम्र प्रयास किया, परंतु मत-आग्रह बढ़ते गए। उचित अवसर देखकर उन्होंने सत्य शोध के लिए एक बार फिर अपने गुरु से निवेदन किया, " स्वामिन! भगवान महावीर के वचनों पर विचार करें। संघ में शुद्ध श्रद्धा और शुद्धाचार की पुनः प्रतिष्ठा करें। आत्म-कल्याण के लिए इस कार्य की अनिवार्य आवश्यकता है।"14 इस प्रकार विक्रम संवत 1815 के राजनगर चातुर्मास लेकर विक्रम संवत 1817 के चैत्र शुक्ला नवमी तक की अवधि में गुरु शिष्य में परस्पर अनेक बार विचार-विमर्श हुआ, चर्चाएँ हुई, परंतु समाधान नहीं हो सका। संत भीखणजी ने तब अपने चिंतन प्रभाव को दूसरी ओर मोड़ दिया। उन्होंने सोचा, "आत्म कल्याण के जिस महान उद्देश्य से घर बार छोड़कर मैं यहाँ दीक्षित हुआ, उसके कुछ भी पूर्ति नहीं हो पा रही है। इस स्थिति में संघ के व्यामोह में फंसकर निरुद्देश्य यहाँ  बैठे रहना मेरे लिए शोभास्पद नहीं होगा। मुझे आत्म-कल्याण को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। उसके बिना प्रत्येक साधना केवल  विराधना या विडंबना बन कर रह जाती है।“15 उक्त चिंतन क्रम में उन्होंने संघ से संबंध विच्छेद कर अभिनिष्क्रमण का निश्चय कर लिया।

विक्रम संवत 1817 चैत्र शुक्ला नवमी के दिन बगड़ी नगर, जिला पाली, राजस्थान में वे अपने दीक्षा गुरु आचार्य रुघनाथ जी से अलग हो गए। इस प्रकार 'रामनवमी' नाम से समग्र भारत में प्रख्यात यह पर्व-दिवस संत भीखण जी के लिए आत्मविजय के पथ पर अभिनिष्क्रमण का पुनीत दिन बन गया। संत भीखण जी के साथ संत टोकर जी, हरनाथ जी, वीरभान जी और भारमल जी भी थे। ये पाँचों साधु तत्काल स्थानक छोड़कर बाहर आ गए, परंतु उस शहर में उन्हें कहीं भी ठहरने का स्थान नहीं मिला। दूसरे शहर की ओर जाने का निश्चय किया तो तेज आँधी ने उनका रास्ता रोक लिया। जैन शास्त्रों के अनुसार इस परिस्थिति में विहार करना अकल्प्य है।  तब वहीं पास स्थित श्मशान भूमि में बनी जैतसिंह जी की छतरी में ठहर गए। जगत जिसे अपने अंतिम मंजिल समझता है, उन्होंने उसे अपनी मंजिल का प्रथम स्थान बनाया।

संत भीखणजी अपने साथी चार साधुओं सहित बगड़ी नगर से चलकर जोधपुर पहुंचे। तब तक आठ अन्य साधु उनके सहयात्री बन गए। इस प्रकार उनकी कुल संख्या तेरह हो गई।16 जोधपुर में भी स्थान की समस्या थी। बाजार का स्थान जनसंपर्क की दृष्टि से उपयुक्त रहा। वहाँ अनेक लोगों ने उनके विचार सुने, कुछ उनके विचारों से प्रभावित हुए और उनके अनुयायी बन गए। कुछ दिन प्रवास कर संत भीखण जी ने जोधपुर से आगे की ओर प्रस्थान कर दिया। यद्यपि संत भीखणजी जोधपुर छोड़ चुके थे, परंतु उनके व्यक्तित्व और विचारों से लोग प्रभावित होकर सामूहिक रूप से बाजारों की दुकान में मिलते और धर्म उपासना करते। जोधपुर के तेरह श्रावक एक दिन बाजार की दुकान पर सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धर्म अनुष्ठान कर रहे थे। संयोगवश जोधपुर राज्य के दीवान श्री फतेहमल जी सिंघी उधर से गुजरे। वह एक जैन श्रावक थे। स्थानक छोड़कर बाजार में सामायिक करते श्रावकों को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। तब गेरुलालजी व्यास ने संत भीखणजी का परिचय देते हुए आचार्य रुघनाथजी से स्वामी भीखणजी के पृथक होने की सारी घटना सुना दी। सारी बातों को ध्यान पूर्वक सुन लेने के पश्चात श्री सिंघीजी ने उत्सुकतावश पूछा, "इस समय कितने साधु इस विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं?" गेरुलालजी बोले, "साधुओं की संख्या तेरह है।"  उन्होंने फिर पूछा, "अपने यहाँ जोधपुर में उनका अनुसरण करने वाले कितने श्रावक हैं ?" संयोग की बात उस समय जोधपुर में उनके अनुयायियों की संख्या तेरह थी।  महामंत्री श्री सिंघीजी के साथ उस समय सेवग जाति का एक कवि भी था। वह उपयुक्त सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था। तेरह की संख्या ने उसके कवि मन को मुखर किया और उसने तत्काल दोहा सुनाया-

साध-साध रो गिलो करैते आप आपरो मन्त।

सुणज्यो रे शहर रा लोगां!  ए तेरापंथी तंत।।17

अर्थात साधु-साधु आपस में खींचातान करते हैं। उनका अपना-अपना मत है। शहर के लोगों! सुनो, यह तेरापंथ बहुत सारपूर्ण है। इसमें कोई भी खींचातानी नहीं है।

संत भीखणजी के पास जब नामकरण के समाचार पहुंचे तो कवि द्वारा सहज रूप से व्यवहृत उस 'तेरापंथी' शब्द में उन्हें अपनी आंतरिक विचारधारा की प्रतिध्वनि सुनाई दी और अपने संघ की संज्ञा के रूप में स्वीकार कर लिया। राजस्थानी भाषा में संख्यावाची 'तेरह' को तेरा कहा जाता है और 'तू' सर्वनाम की संबंधवाचक विभक्ति का एकवचन भी 'तेरा' बनता है। संत भीखण जी ने दोनों ही शब्द रूपों को ध्यान में रखते हुए भगवान महावीर को नमन करते हुए व्याख्या की- "हे प्रभो! यह तेरापंथ है। हम सब निर्भ्रांत होकर इस पर चलने वाले हैं, अतः तेरापंथी हैं।"18 मूलतः कवि की भावना को तेरह की संख्या  ने ही प्रेरणा प्रदान की थी। अतः संत भीखण जी ने उसे भी उतना ही महत्त्व  दिया और उस शब्द का दूसरा संख्यापरक अर्थ प्रकट करते हुए कहा- "पाँच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह, पाँच समितियाँ -ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग एवं तीन गुप्तियाँ- मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति-  ये तेरह नियम जहाँ  पालनीय हैं, वह तेरापंथ है।"19 तेरापंथ शब्द का उपर्युक्त अर्थ यद्यपि संत भीखणजी की प्रत्युत्पन्नमति द्वारा तत्काल प्रसूत हुआ था, फिर भी उसमें संयम के जिन तेरह नियमों का उल्लेख किया गया है, वे आगम-सम्मत तथा प्राचीन जैन आचार्यों द्वारा इसी संख्या के रूप में बहुमान्य रहे हैं। 

विक्रम संवत् 1817, चैत्र शुक्ल नवमी से आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा की अवधि में संत भीखणजी के निर्दिष्ट साध्वाचार जनसाधारण में चर्चा का विषय बनते जा रहे थे। चातुर्मास काल निकट आ जाने से उन्होंने इस हेतु केलवा नामक ग्राम को चुना। जो वर्तमान में राजसमंद जिले में स्थित है वे आषाढ़ शुक्ल तेरस को वहाँ पहुँचे। इसी बीच वहाँ उनके विरुद्ध प्रचार प्रारंभ किया जा चुका था। जनता में भय व घृणा का प्रचार इस रूप में किया गया कि जब वे वहाँ पहुँचे तो उन्हें वहाँ कोई स्थान देने वाला नहीं मिला। स्थान की गवेषणा करने में संत भीखणजी को काफी परिश्रम व पूछ्ताछ करनी पड़ी। अंत में उन्होंने स्थान मिला- स्थानीय जैन मंदिर की एक अंधेरी कोठरी। वर्षों पूर्व से वह स्थान शून्य और उपेक्षित था। अतः भयप्रद भी हो गया था। जनता में यह अनुश्रुति प्रचलित थी कि जो भी वहाँ जाएगा वह भूत-प्रेत आदि से बच नहीं पाएगा। स्वामी भीखणजी ने उस कोठरी में ठहरने का निश्चय कर लिया।

प्रातःकाल परिणाम देखने के लिए उत्सुकतावश लोग वहाँ आए तो उन्हें सानंद देखकर चकित हो गए। इस घटना से वहाँ के लोगों को स्वामी भीखणजी की आत्मशक्ति पर विश्वास हो गया। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन संत भीखणजी ने अरिहंत भगवान की आज्ञा लेकर सिद्धों के साक्ष्य से सामायिक सूत्र का उच्चारण करते हुए सामायिक-चारित्र ग्रहण किया और अन्य साधुओं को भी सामायिक पाठ के द्वारा चारित्र ग्रहण करवाया। तेरापंथ की वास्तविक स्थापना स्वामी जी के भाव-संयम ग्रहण के साथ उसी दिन हुई। उसी दिन तेरापंथ नाम वैधानिक स्तर पर स्वीकार कर लिया गया।20

आचार्य भीखणजी द्वारा स्थापित तेरा पंथ संप्रदाय ने अब तक 260 वर्षों का गंतव्य तय किया है। एक धर्म संस्था के लिए यह कोई बहुत लंबा समय नहीं होता, फिर भी इस अवधि में तेरापंथ में जिस इतिहास का निर्माण किया वह अत्यंत प्रेरक और गौरवपूर्ण है। यद्यपि यह संगठन के रूप में नवीनतम संघ है, परंतु परंपरा की दृष्टि से तेरापंथी जैन परंपरा का निर्वाह कर रहा है। मुनि बुद्धमल के शब्दों में, ”तेरापंथ प्राचीनता और अर्वाचीनता  का ऐसा संगम है जहाँ दोनों को ही उपयुक्त महानीयता प्राप्त हुई है। उसने दोनों को अपना शृंगार बनाया है, सिर का भार नहीं।“21 वैचारिक दृष्टि से तेरापंथ एक आचार, एक विचार और एक आचार्य की विचारधारा का पोषक है। इसका दर्शन तर्क-विज्ञान पर आधारित है।

तेरापंथ धर्म संघ में आचार्यों की यशस्वी परंपरा रही है। उत्तराधिकारी का मनोनयन स्वयं आचार्य करते हैं। चतुर्विध धर्मसंघ आचार्य के उस निर्णय को हार्दिक भाव से स्वीकार करता है। अब तक तेरापंथ संप्रदाय में ग्यारह आचार्य हुए हैं। उनके नाम हैं- आचार्य भीखण (भिक्षु), आचार्य भारीमाल, आचार्य रायचंद, आचार्य जीतमल (जयाचार्य), आचार्य मघवा, आचार्य माणक, आचार्य डालिम, आचार्य कालूराम, आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ एवं वर्तमान आचार्य महाश्रमण।

आचार्य भिक्षु का युग धार्मिक विसंगतियों का काल था। असंयम की बढ़ती प्रवृत्ति, धार्मिक अनुष्ठानों का बढ़ता प्रचलन, धन का बढ़ता महत्त्व और हिंसा में भी धर्म का निरूपण किया जा रहा था। ऐसी स्थिति में उनका मन आंदोलित हो उठा। उन्होंने तत्कालीन पाखंड का विरोध करते हुए धर्म की नई कसौटियाँ स्थापित की उन्होंने कहा22-

·        अहिंसा धर्म है, हिंसा धर्म नहीं है।

·        संयम धर्म है, असंयम धर्म नहीं है।

·        जिन आज्ञा में धर्म है, आज्ञा से बाहर धर्म नहीं है।

·        हृदय परिवर्तन धर्म है, बल प्रयोग धर्म नहीं है।

·        जीवन शुद्धि के लिए किया जाने वाला आचरण धर्म है, मूल्य से जो कुछ खरीदा जाता है, वह धर्म नहीं है।

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जी के शब्दों में, “संत भीखणजी ने धर्म की जो कसौटियाँ  प्रस्तुत कीं, वे आध्यात्मिक धर्म की दृष्टि से है, लौकिक धर्म से नहीं।“23 क्योंकि लौकिक कर्तव्यों, व्यवस्थाओं, या व्यवहारों को जहाँ धर्म माना जाता है, वह लौकिक धर्म है। आध्यात्मिक धर्म और लौकिक धर्म के क्षेत्रों में काफी भिन्नता है। दोनों की अपनी उपादेयता होती है। आचार्य भारमलजी ने तेरापंथ के साधु-साध्वियों के लिए आचार संहिता का निर्माण किया। नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए अभियान चलाया। वे कुशल धर्माचार्य होने के साथ साथ एक कुशल धर्म प्रसारक तथा सुदृढ़ अनुशासक थे, परिणामस्वरूप उनके शासनकाल में तेरापंथ संघ के अच्छी प्रगति हुई। साधु-साध्वियों की वृद्धि के अतिरिक्त श्रावक-श्राविकाओं की भी बहुत वृद्धि हुई। उस वृद्धि का साधारण अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब विक्रम संवत् 1875 में उनका चातुर्मास कांकरोली में था तब वहाँ 1700 पौषध हुए। उन्होंने भी आचार्य भिक्षु की तरह अनुशासन व मर्यादा का विशेष ध्यान रखा तथा तेरापंथ को प्रगति की ओर अग्रसर किया।

आचार्य रायचंदजी ने तम्बाकू नियंत्रण हेतु जनता में अभियान चलाया एवं उसके दुष्प्रभावों को उजागर किया। वे महान परिव्राजक थे। उनके विहार क्षेत्र में राजस्थान के तत्कालीन राज्य- मेवाड़, मारवाड़, ढूंढाड़ तो थे ही, उनके अतिरिक्त थली, मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ को भी उन्होंने अपने विहार क्षेत्र में सम्मिलित किया। उनके शासनकाल में 275 दीक्षाएँ  हुई। उनमें से 77 साधु और 168 साध्वियाँ थीं।

श्री जयाचार्य तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य थे। वे बड़े प्रभावशाली एवं नव-निर्माण की चेतना वाले आचार्य थे। तेरापंथ में आचार्य भिक्षु का जो स्थान है, वही जयाचार्य का भी है। आचार्य भिक्षु ने जिस तरह अपने जीवन का संपूर्ण समय तेरापंथ की जड़ों को जमा देने में लगाया, उसी तरह जयाचार्य ने अपने संपूर्ण शक्ति उसे शक्तिशाली बनाने में लगाई। तेरापंथ के विचारों तथा व्यवहारों को प्रभावशाली ढंग से उन्होंने जनता के समक्ष रखा, गाथा प्रणाली का आरंभ किया, पुस्तकों का सांघिकीकरण किया, श्रम-विभाजन का स्वरूप प्रस्तुत किया, पट्ट महोत्सव, चरम महोत्सव व मर्यादा महोत्सव का आयोजन आरंभ किया तथा प्रचुर मात्रा में साहित्य की रचना की। उनकी प्रतिभा से तेरापंथ ने जो पाया वह उसके लिए बहुत ही मूल्यवान और शक्तिशाली संबल सिद्ध हुआ। आचार्य मघवागणी अत्यंत सहज, सरल व मध्यस्थ वृत्ति के थे। अध्यात्म भाव से ओतप्रोत उनका हृदय था। अनुशासन के प्रति उतने ही सख्त थे। उन्होंने उपासना को विशेष महत्त्व दिया। विवेक और मर्यादा मिश्रित आत्मानुशासन के पक्ष में थे। उन्होंने आंतरिक जागरण पर बल दिया तथा तेरापंथ को दृढ़ आधार प्रदान करते हुए उसे पल्लवित किया।

आचार्य माणकगणी का शासनकाल अत्यंत छोटा रहा। वह अपने अंतिम समय में संघ के लिए आगामी व्यवस्था नहीं कर सके थे। यह तेरापंथ धर्म संघ के इतिहास की अनहोनी घटना थी। अपने अल्प समय में उन्होंने प्रश्नोत्तर, तत्वबोध, झीणी चर्चा और बारह व्रतों के पालन पर विशेष बल दिया। आचार्य डालिमगणी तेरापंथ संघ के सातवें आचार्य बने। उनका चयन संघ ने सर्वसम्मति से किया, कारण कि आचार्य माणकगणी का अचानक स्वर्गवास हो गया था और वह भावी आचार्य की घोषणा नहीं कर पाए थे। उन्होंने जैनत्व के संदेश को प्रचार का माध्यम बनाया और साधु जीवन की युगानुकूल व्याख्या की। डालिमगणी यशस्वी आचार्य हुए। आज्ञा और मर्यादा की अवहेलना करने वाला उनका कृपा पात्र व्यक्ति भी डांट से वंचित नहीं रहा। एक सजग और विश्वस्त व्यक्ति की भाँति उन्होंने अपने धर्म की सुरक्षा की। अंतिम समय में उन्होंने अनशन पूर्वक समाधि मरण का वरण किया। आचार्य कालूगणी तेरापंथ संघ के आठवें आचार्य बने। वह कठोर साधक थे तथा इसके द्वारा ही ज्ञान प्राप्ति के समर्थक भी थे। सामाजिक सुधार हेतु विशेष अभियान चलाया। धर्म प्रचार हेतु उन्होंने कई यात्राएँ  की तथा अपने प्रवचनों के माध्यम से मूल्यों की रक्षा का प्रयास किया।

आचार्य तुलसी तेरापंथ संघ के नवम आचार्य बने। उनके कार्यकाल में तेरापंथ ने शिखर स्थान को प्राप्त किया। जैन धर्म को जन-धर्म के रूप प्रस्तुति, अणुव्रत आंदोलन, सामाजिक क्रांति एवं विराट साहित्य-साधना, प्रेक्षा-ध्यान और जीवन-विज्ञान जैसे व्यापक कार्यक्रमों से तेरापंथ संघ को यशस्वी बनाया। आचार्य तुलसी ने प्रायोगिक जीवन हेतु व्यक्तिगत और संघीय स्तर पर एक विशेष प्रयोग किया। जिसका नाम है-समण श्रेणी। साधु और श्रावक के बीच इस श्रेणी के माध्यम से अध्यात्म साधना का विकास किया, ज्ञान विज्ञान की नई विधाओं में प्रवेश हुआ और माननीय मूल्यों के प्रचार-प्रसार में अभिनव योगदान दिया। उन्होंने अपने जीवन काल में विक्रम संवत 2050, माघ शुक्ला सप्तमी मर्यादा महोत्सव के अवसर पर सुजानगढ़ में महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर जैन शासन के आचार्य परंपरा में एक कीर्तिमान स्थापित किया। आचार्य महाप्रज्ञ तेरापंथ के दसवें आचार्य के रूप में संपूर्ण विश्व में प्रतिष्ठित हुए। उन्होंने अणुव्रत आंदोलन को गति प्रदान की तथा प्रेक्षा ध्यान को जन-जन में लोकप्रिय बनाया। अपनी अहिंसा-यात्रा के माध्यम से भगवान महावीर के अहिंसा संदेश को विश्वव्यापी बनाने में अपना योगदान दिया। महान साहित्य सर्जना द्वारा नैतिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए तथा उसे जीवन का अंग बनाने हेतु उनका प्रयास स्तुत्य है। वर्तमान आचार्य महाश्रमण भी तेरापंथ के उद्देश्यों को जनव्यापी बनाने की दिशा में गतिमान हैं।

वर्तमान समय में तेरापंथ धर्म संघ की सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को संचालित करने हेतु कई सभा संस्थाएँ कार्य कर रही हैं। उनमें प्रमुख हैं- पारमार्थिक शिक्षण संस्था, तेरापंथ महासभा, अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद, अखिल भारतीय तेरापंथ महिला मंडल, अखिल भारतीय अणुव्रत समिति, आदर्श साहित्य संघ, जैन विश्व भारती, जय तुलसी फाउंडेशन, अणुव्रत विश्वभारती, जैन श्वेतांबर तेरापंथी स्मारक समिति आदि। इन संस्थाओं के अतिरिक्त देश भर में क्षेत्र व स्थानीय स्तर पर भी अनेक संस्थाएँ कार्य कर रही हैं। केंद्रीय स्तर की संस्थाओं द्वारा कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी हो रहा है। उनमें तुलसी प्रज्ञा, जैन भारती, अणुव्रत, युवा दृष्टि, प्रेक्षा ध्यान, तेरापंथ टाइम्स, विज्ञप्ति आदि उल्लेखनीय हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी तेरापंथ  जैन संघ ने अपना अमूल्य योगदान दिया है। अपनी मौलिक अवधारणाओं के लिए यह संप्रदाय जैन परंपरा के साहित्य का ऋणी है। वैसे इस संप्रदाय का साहित्य आगम साहित्य पर आधारित रहा है, फिर भी साहित्यिक अनुभूति और अभिव्यक्ति के धरातल पर अपनी श्रेष्ठता रखता है। इस संप्रदाय के अंतर्गत विपुल मात्रा में साहित्य रचा गया है। इस परंपरा के साधु-साध्वी, समण-समणी उच्च कोटि के रचनाकारों में गिने जाते हैं। इसी परंपरा में आचार्य भिक्षु, जयाचार्य, तुलसी और महाप्रज्ञ जैसे विलक्षण रचनाकार हुए, जिनसे संपूर्ण संत परंपरा लाभान्वित हुई।

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि तेरापंथ का इतिहास धर्म-क्रांति का इतिहास है। आचार्य भिक्षु ने चारित्रिक विशुद्ध की नींव पर तेरापंथ का शिलान्यास किया। उस पुनीत परंपरा से जुड़ कर उत्तरवर्ती सभी आचार्यों ने धर्म संघ में आत्मविकास को नई ऊँचाइयाँ  दीं। श्रद्धा, अनुशासन, संयम, समर्पण और मर्यादा को प्रखर बनाया। तेरापंथ से न केवल गौरवशाली इतिहास निर्मित हुआ, वरन उससे प्राप्त अनुभव के आधार पर अपने आप को अधिक सावधान तथा प्रगतिशील बनने की परंपरा बनी। यही कारण है कि आज युगबोध को प्रतिभासित करने वाले महान संतों की वाणी तेरापंथ से उद्भासित हो रही है।

संदर्भ ग्रंथ-

1.      दशवैकालिक सूत्र, सं. मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सं. 1985, सूक्त 8/42

2.      व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, सं. मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, भाग 1-4, सं. 1982, सूक्त 9/33/30

3.      दशवैकालिक सूत्र, सं. मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सं. 1985, सूक्त 8/25

4.      पद्मपुराण, रविषेण, अनु. पन्नालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, भाग 1-2, सं. 1959, सूक्त 53/67

5.      वही, सूक्त 14/251

6.      व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, सं. मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, भाग 1-4, सं. 1982, सूक्त 5/5/6

7.      जैन धर्म के संप्रदाय, डॉ. सुरेश सिसोदिया, आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, सं. 1994, पृष्ठ सं. 30

8.      वही, पृष्ठ सं. 100-112

9.      वही, पृष्ठ सं. 62-91

10.    तेरापंथ का इतिहास, खंड-1, मुनि बुद्धमल, आदर्श साहित्य संघ, चूरू, सं. 1984, पृष्ठ सं. 50

11.    वही, पृष्ठ सं. 51

12.    वही, पृष्ठ सं. 52

13.    वही, पृष्ठ सं. 52

14.    वही, पृष्ठ सं. 61-62

15.    वही, पृष्ठ सं. 62

16.    तेरापंथ: इतिहास और दर्शन, साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा, आदर्श साहित्य संघ, चूरू, सं. 1990, पृष्ठ सं. 6

17.    तेरापंथ का इतिहास, खंड-1, मुनि बुद्धमल, आदर्श साहित्य संघ, चूरू, सं. 1984, पृष्ठ सं. 74

18.    वही, पृष्ठ सं. 75

19.    वही, पृष्ठ सं. 75

20.    वही, पृष्ठ सं. 77-83

21.    वही, पृष्ठ सं. 12

22.    तेरापंथ: इतिहास और दर्शन, साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा, आदर्श साहित्य संघ, चूरू, सं. 1990, पृष्ठ सं. 12

23.    वही, पृष्ठ सं. 13

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