सांस्कृतिक प्रतिमान और अज्ञेय की दृष्टि (सन्दर्भ:कथेतर गद्य)


            सांस्कृतिक प्रतिमान और अज्ञेय की  दृष्टि

(सन्दर्भ:कथेतर गद्य)

हिंदी विभाग,मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में दिया गया वक्तव्य एवं मधुमती अंक नवम्बर -2018 में प्रकाशित 


             
 सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेयआधुनिक भारतीय साहित्य के महान् रचनाकार और चिंतक थे। कुमार विमल के अनुसार, “अज्ञेय ने अपने कथा-साहित्य के माध्यम से हिन्दी पाठकों को अखिल भारतीय साहित्य और संस्कृति के सार्वदेशिक स्वरूप से परिचित कराया। साथ ही, उन्होंने अपने यात्रा-संस्मरणों और चिंतन-प्रधान लेखन के माध्यम से हिन्दी जगत को अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य रूचि एवं ज्ञान-विस्तार से अवगत कराते हुए भारतीय ज्ञान-गरिमा तथा उसकी कालजयी विशिष्टता का बोध दिया। अज्ञेय जितने समर्थ कवि थे, उतने ही समर्थ गद्यकार भी थे।”1 लगभग छह दशक तक साहित्य-सेवा करने वाले अज्ञेय जीवन के गहनतर स्तरों को उज्ज्वलतर आलोक से प्रतिभासित करने वाले वे अप्रतिम चिंतक हैं।

               किसी भी देश की संस्कृति को प्रणम्य बनाने एवं कालखंड को अमरता प्रदान करने में साहित्यकार की अहम् भूमिका होती है। भारतीय संस्कृति सनातन, समृद्ध और जीवन्त है। इसकी परम विशेषता रही है कि उसने पदार्थ को आवश्यक माना पर उसे आस्था का केन्द्र नहीं, शस्त्र-शक्ति का सहारा लिया, लेकिन उसमें त्राण नहीं देखा, अपने लिए दूसरों का अनिष्ट हो गया, पर उसे क्षम्य नहीं माना। यहाँ जीवन का लक्ष्य विलासिता नहीं, आत्म-साधना रहा, लोभ-लालसा नहीं, त्याग-तितिक्षा रहा।2 इस दृष्टि से अज्ञेय का निबंध-साहित्य, अन्तःप्रक्रियाएँ, यात्रा-साहित्य, संस्मरण, आत्मकथा एवं आलोचनाओं का अवलोकन आवश्यक है। अज्ञेय का गद्य साहित्य भारतीय चिंतन के सांस्कृतिक प्रतिमान, यथा-भारतीयता, मिथकीय सत्ता, रूढियाँ, सौन्दर्य और शिवत्व, नैतिक मूल्य, मानवतावाद, मम और ममेत्तर संबंधए काल चिंतन और एकात्म-दृष्टि पर विशद् दृष्टि प्रदान करता है।

               अज्ञेय की दृष्टि में भारतीयता का पहला लक्षण है- सनातनता और दूसरा है- स्वीकार की भावना। सनातन होने का भाव हमें आत्मगौरव तो देता है, लेकिन समय की धारा के साथ परीक्षण की अपेक्षा भी करता है। उनका कथन है- जिसे हम भारत की आत्मा कहते हैं, वह वास्तव में आत्म और अनात्म का, जीवित और जड़ का एक पुंज है, जिसकी परीक्षा की आवश्यकता है............... जीवित को आगे बढ़ाना होगा। कुछ लोग भारतीयता के समर्थन के नाम पर निरी जड़ता का समर्थन करते हैं; कुछ दूसरे जड़ता के विरोध के नाम पर संस्कृति से ही इनकार करना चाहते हैं।”3 इसी तरह स्वीकार की भावनाभी सनातन भावनाका परिणाम है। परम ब्रह्म की कल्पना ने ऐहिक मानव को नगण्य बना दिया, जिससे स्वीकार की भावना उत्पन्न हुई, जैसे- दुःख के प्रति स्वीकार, दैन्य के प्रति स्वीकार, अत्याचार के प्रति स्वीकार, उत्पीड़न के प्रति स्वीकार- यहाँ तक कि दासता के प्रति स्वीकार,वह दासता दैहिक हो या मानसिक। अज्ञेय ने यहाँ स्पष्ट किया - जो अपने काल में रहकर भी आगे देखे; न इधर अनादि को न उधर अनंत को वरन् उससे आगे के काल को, जो हमारे काल से प्रसूत है और जिसके हम स्पष्ट हैं। वह अपरिबद्ध जिज्ञासा भारतीयता है कि नहीं इस पर विद्वान लोग बहस कर सकते हैं; मैं असंदिग्ध भाव से इतना जानता हूँ और कहना चाहता हूँ कि वह भारतीयता को कल्याणकर बना सकती है।”4

               एक रचनाकार पौराणिक मिथकों का आश्रय ग्रहण करता है और नई रचना को जन्म देता है। मिथकीय सत्ता और मौलिकता की टकराहट अक्सर दिखाई भी पड़ती है। विज्ञान और पुराण की तुलना करते हुए अज्ञेय लिखते हैं- विज्ञान लगातार अनुमान और प्रतिज्ञा के सहारे चलता है, अपने सिद्धान्तों को वह कभी इतना सिद्ध नहीं मानता कि उसमें परिवर्तन की संभावना न रहे।........ इसके विपरीत पुराण सनातन तत्त्व की खोज में रहता है। बदलाव उसमें भी आता है, वह भी स्वीकार करता है, लेकिन इस आग्रह के साथ कि वह परिवर्तन केवल सनातन तत्त्व में किसी परिवर्तन के कारण नहीं।”5 वस्तुतः 'पुरा नवं करोति' अर्थात् पुराण पुराने को झूठा नहीं करता, उसे नया करता है। इसीलिए पौराणिक अनुष्ठान में जो आवृत्ति होती है, वह विज्ञान की भाँति प्रयोग-मूलक नहीं होती, बल्कि उसी मूल घटना को पुनर्जीवित करती है, जो उसका आधार है। अनुष्ठान में पौराणिक घटना का अनुकरण नहीं होता, अभिनय नहीं होता, उसका पुनर्घटन होता है। फलतः नवीकरण में नई अर्थवत्ता जन्म लेती है।

               परम्परा के प्रति विशेष मोह भारतीय मानस की विशिष्टता है। भारतीय समाज के लिए रूढ़िवादीशब्द कालांतर में प्रयुक्त होता रहा और यह उसके लिए गौरवमयी था। प्रगतिशब्द के प्रवेश ने रूढ़िशब्द को लगभग खलनायक बना दिया। साहित्य में भी आज फैशन बन गया है कि रूढ़ियों का तिरस्कार किया जाए और मौलिकता को अपनाया जाए। इस प्रश्न का प्रत्युत्तर देते हुए अज्ञेय ने लिखा- परम्परा स्वयं लेखक पर हावी नहीं होती, बल्कि लेखक चाहे तो परिश्रम से उसे प्राप्त कर सकता है। लेखक की साधना से ही रूढ़ि बनती और मिलती है। रूढ़ि की साधना साहित्यकार के लिए वांछनीय ही नहीं, साहित्यिक प्रौढ़ता प्राप्त करने के लिए अनिवार्य है।”6 यदि लेखक में ऐतिहासिक चेतना होगी, तो उसकी रचना में न केवल अपने युग, अपनी पीढ़ी से संबंध बोल रहा होगा, बल्कि उससे पहले की अनगिनत पीढ़ियों की संलग्नता और एक सूत्रता की भी तीव्र अनुभूति स्पंदित हो रही होगी।

               भारतीय संस्कृति के मूल में अध्यात्मबहुत गहराई से है। धर्म की जितनी व्यापक परिकल्पना भारत में हुई, वैसी अन्यत्र कहीं नहीं है। इसी कारण अज्ञेय मानते हैं कि धर्म की चर्चा जहाँ-तहाँ होगी तो संस्कृति को अनुप्राणित करने वाली मूल भावना अथवा सृष्टि-दर्शन के रूप में ही होगी। भारतीय हिन्दू समाज की विलक्षणता का परिचय देते हुए वे कहते हैं- भारतीय समाज संसार का सबसे बड़ा हिन्दू-समाज है। निःसन्देह इस समाज ने ऐसे भी युग देखे, जब उसके धर्म विश्वासों को राजनैतिक सत्ता का सहारा भी मिला, जब लौकिक और पारलौकिक- या ऐहिक और पारमार्थिक- प्रभुसत्ताओं का योग हुआ। महत्त्व की बात है कि उस परिस्थिति में यह समाज असहिष्णु नहीं हुआ और दूसरे संप्रदायों के विरूद्ध अत्याचार अथवा दमन को उसने अत्याचार और अधर्म समझा। यह केवल अकारण नहीं है, बल्कि भारतीय इतिहास का गौरवमय अध्याय है।”7

               भारतीय संस्कृति में मानसिक-आध्यात्मिक शक्तियों के अस्तित्व का योग अथवा तपस के मूल्य का आग्रह रहा है, जबकि पश्चिम में ‘अधिक मांग, अधिक सुख’। जहाँ पूर्व की खोज शांति की अथवा आनंद की खोज है, वहाँ पश्चिम का आग्रह सुख अथवा परितृप्ति का है। भारतीय संस्कृति में व्यक्ति और समूह के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर है। भारत का धार्मिक समाज व्यक्ति से कर्म के क्षेत्र में निर्धारित प्रकार के आचरण की अपेक्षा करता है, पर विश्वासों के मामले में उसे पूरी छूट देता है, यह अत्यन्त महत्त्व की बात है। अज्ञेय का मत है कि यही बात है जिससे संघर्ष कम से कम हो जाता है और अपराध-भाव को उदित होने का अवसर नहीं मिलता। निःसंदेह भारतीय स्थिति में पाखण्ड की संभावना बनी रहती है,पर इस प्रकार का पाखंड कम खतरनाक होता है। विश्वास की कठिन लाचारी की स्थिति में एक दूसरे प्रकार का अवचेतन पाखंड उत्पन्न हो जाता है; दमित अंतर्विरोध से तीव्र हिंसाएँ, वैर-भाव और विनाशक प्रवृत्तियाँ उभरती हैं।”8

               मानव मूल्यों का स्रष्टा है। क्योंकि मानव अपने से बड़े मानव मूल्यों को सामने ला रहा है, तो उसके वरण का संकल्प भी लेता है। यही नैतिक उत्तरदायित्व है, इसलिए जब कोई तात्कालिक सुविधावादी निर्णय लेता है तो उसे अनैतिक माना जाता है। इतिहास में कई संस्कृतियाँ उठीं और समृद्धि के शिखर तक पहुंची, फिर नियति को प्राप्त होकर मर गई। आज भी ऐसे छोटे-छोटे समाज मूल्यों की लड़ाई लड़ते दिखाई देते है। क्या उनकी यह निष्ठा है जड़ता? इस संदर्भ में अज्ञेय का निष्कर्ष है कि श्रद्धा का विरोध किए बिना, विज्ञान को अमान्य किए बिना, परलोक की शरण लिए बिना, इहलोक की उपेक्षा किए बिना, व्यक्ति के सहज बोध की टेक लिए बिना, नैतिकता का स्रोत मानव में पाना संभव है और उचित है।”9

               सामान्य मत यह है कि जो सुन्दर है, वह शिवेतर हो ही नहीं सकता, परन्तु व्यापक दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि दोनों परस्पराश्रित है। अज्ञेय का विचार है- जो यह मानते हैं कि जो सुन्दर है वह शिव भी होता है, वे भी कदाचित् अलग से ऐसा दावा करने में संकोच करेंगे। ऐसा ही होता तो आचार्यों को एक अलग उद्देश्य के रूप में शिवेतरक्षयचर्चा करना क्यों आवश्यक जान पड़ता? जो सुन्दर है वह अनैतिक नहीं होगा यह एक बात है, पर उससे शिवेतर क्षय की माँग करना एक अतिरिक्त शक्ति या प्रभाव की माँग करता है। एक प्रकार से यह साहित्य में लक्षित होने वाले संस्कार के समांतर समालोचना का संस्कार करना है।”10

               अरे यायावर रहेगा यादमें लेखक के भारतीय यात्रानुभवों का मार्मिक आलेखन है तो एक बूँद सहसा उछलीमें विश्व-भ्रमण का संवेदनात्मक दस्तावेज। मम और ममेतर संबंध को प्रकट करती उनकी यायावरी और उससे भावात्मक लगाव सजीव बिम्ब के साथ प्रकट होती है। इस पंक्तियों में यायावर की दृष्टि का अवलोकन होता है-

- मुझको दीख गयाः
हर आलोक छुआ अपनापन
है उन्मोचन
 नश्वरता के दाग से   
                                                                                      (एक बूंद सहसा उछली)

               रमेश चन्द्र शाह ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा- नश्वरता के विचार से आक्रांत पश्चिम की यह यात्रा पश्चिम के सांस्कृतिक-केन्द्रों, धर्म-केन्द्रों और स्नायु केन्द्रों का ही नहीं, पश्चिम के अभिजन और समूह जन का भी साक्षात्कार कराने वाली है।”11

               वर्तमान मशीनी युग की पीड़ा और बदलते मूल्यों की चर्चा अज्ञेय के अन्तःप्रक्रिया साहित्य- भवंती, अंतरा और शाश्वती में गहराई से हुई है। अस्मिता की रक्षा के लिए प्रत्येक जाति संघर्ष करती है, परन्तु भारतीय बुद्धिजीवी का नज़रिया विरोधाभासी है। वे लिखते हैं- नव स्वतंत्र अफ्रीकी देशों का साहित्यकार अपनी अस्मिता की आक्रोश भरी खोज को श्यामत्व (नेग्रिट्यूड) का नाम देता है और हमारे आलोचक प्रशंसा में आपे से बाहर हो जाते हैं, पर भारतीय साहित्यकार भारतीयता की बात करता है तो वे ही आलोचक लट्ठ लेकर उसके पीछे पड़ जाते हैं । भारतीय अस्मिता के नाम से उन्हें चिढ़ है।”12

               अज्ञेय ने मार्क्सवाद को एक सीमा तक ही महत्त्व दिया। वे उसे पूर्ण जीवन-दर्शन नहीं मानते ।13 वे मनुष्य की निर्भयता, विवेक और स्वतंत्रता के विश्वासी हैं। वे वैदिक आर्यों की अभीता नो स्यामअथवा एषा में प्राण या विभेः' को मनुष्य की चरम आकांक्षा का प्रतीक मानते हैं। वे संपूर्ण सत्य को ग्रहण करना चाहते हैं और उसे रागदीप्त करके कला का रूप देना चाहते हैं। अज्ञेय ने आत्मनेपदमें संस्कृति के विकास के लिए मानसिक स्वतंत्रता को अनिवार्य बताया। मनुष्यता की स्थापना उनका अभीष्ट रहा, क्योंकि इतिहास मानवीय क्रियाकलापों का ही विवरण है। राजनीतिक संस्थाएँ भी मनुष्य निर्मित हैं, परन्तु विडम्बना है कि मनुष्य के निर्माण ने ही मनुष्य को महत्त्वहीन बना दिया है। इस प्रकार अज्ञेय ने भारतीय चिंतन परम्परा के उन सांस्कृतिक मूल्यों की समसामयिक संदर्भों में व्याख्या करते हुए तथाकथित प्रगति उन्मुख बुद्धिजीवियों को प्रत्युत्तर दिया और सिद्ध किया कि ये प्रतिमान विज्ञान, तर्क, आस्था और भविष्य-दृष्टि से परिपूर्ण है।

संदर्भ ग्रंथ सूची-
1. कुमार विमल, अज्ञेय गद्य रचना-संचयन, साहित्य अकादेमी नई दिल्ली, 2015, भूमिका, पृ.9
डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी, साहित्य का सांस्कृतिक पक्ष, आर्यावर्त संस्कृति संस्थान, दिल्ली, 2018, भूमिका-पृ.1
3. कुमार विमल, अज्ञेय गद्य रचना-संचयन, साहित्य अकादेमी नई दिल्ली, 2015, भूमिका, पृ.547
4. वही, पृ. 546-547
5. वही, पृ. 531
6. वेबपेज- www.hindisamay.com
7. कुमार विमल, अज्ञेय गद्य रचना-संचयन, साहित्य अकादेमी नई दिल्ली, 2015, भूमिका, पृ.893
8. वही, पृ.629
9. वही, पृ.642
10.वही, पृ.617
11. रमेशचन्द्र शाह, अज्ञेय, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, 2014 पृ.49
12. वेबपेज- www.hindisamay.com
13. डॉ. रामचंद्र तिवारी, हिन्दी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1999, पृ.669
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आचार्य शुक्ल का ‘मधुस्रोत’: साहित्यिक सौन्दर्य


        
आचार्य शुक्ल का मधुस्रोत’: साहित्यिक सौन्दर्य



 आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिन्दी आलोचना के आधार स्तंभ है। रसवादी आलोचना को विस्तारित कर हिन्दी के भावी पथ को निर्मित करने में उन्होंने अपूर्व योगदान दिया। काव्यके प्रति आचार्य शुक्ल की आलोचना दृष्टि परवर्ती रचनाकारों के लिए सदैव आदर्श रही। कविता की आलोचना के महानायक आचार्य शुक्ल का कवि-हृदय भी उन्नत कोटि का रहा है। यद्यपि वे कविता के आलोचक थे, तथापि उनकी कविताएँ कई स्थलों पर उनकी काव्यालोचनाओं की पूरक भी बन गई हैं। मधुस्रोतनामक काव्य-संग्रह की सम्यक् विवेचन आचार्य शुक्ल की काव्य-प्रतिभा का निदर्शन, परवर्ती आलोचक का बीजग्रंथ और समय की अनुगूँज में प्रखर व्यक्तित्व का प्रमाण देता है।

                        'मधुस्रोतमें आचार्य शुक्ल रचित 31 कविताओं का संकलन है। जिसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा  द्वारा 1971 ई. (वि.सं.2028) में किया गया। 1901 ई. से 1929 ई. तक लिखित ये कविताएँ तत्कालीन प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं- सरस्वती, आनंदकादंबिनी, बालप्रभाकर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, लक्ष्मी, इन्दु, बाल हितैषी, माधुरी, सुधा आदि में प्रकाशित हुई। ब्रज और खड़ी बोली में रचित इन कविताओं में अपने समय की साहित्यिक चेतना का निर्वाह है, वहीं ब्रज से खड़ी बोली का काव्य-भाषा के रूप में विकास का प्रमाण भी है। 1904ई. में रचित बसंतमें ठेठ ब्रजभाषा का संस्कार है, तो 1913 ई. में प्रकाशित विरह सप्तकमें ब्रज और खड़ी बोली का मिश्रित रूप प्रकट होता है। इसके बाद की रचनाओं में खड़ी बोली का प्रयोग है। 1929 ई. में रचित मधुस्रोतमें परिष्कृत खड़ी बोली है, जिसे आधुनिक काव्यभाषा का रूप माना जा सकता है।

                       आचार्य शुक्ल ने कविता को हृदय की मुक्तावस्थाकहा है। कविता क्या है?’ निबंध में वे कहते हैं- जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।”1 कविता के मर्म को उद्घाटित करने वाली इन पंक्तियों में आचार्य शुक्ल की आलोचक-दृष्टि प्रकट होती है, वहीं इसका रूप-विधान मधुस्रोतमें दिखाई पड़ता है। मधुस्रोतमें संकलित कविताओं का वर्गीकरण वण्र्य-विषय के आधार पर निम्नानुसार किया जा सकता है-

1.प्रकृति प्रेम- मनोहर छटा’, ‘प्रेम-प्रताप’, ‘विरह-सप्तक’, ‘प्रकृति-प्रबोध’, ‘हर्षोद्धार, आमंत्रण’, ‘वसन्त-पथिक’, ‘रूपमय हृदयआदि।
2.लोक-संस्कृति-हृदय का मधुर भार’, ‘शिशिर-पथिक’, ‘मधुस्रोतआदि।
3.कर्म-सौन्दर्य-गोस्वामीजी और हिन्दू जाति’, ‘आशा और उद्योग’, ‘पाखंड-प्रतिषेधआदि।
4. राष्ट्र प्रेम- भारत और वसन्त’, ‘रानी दुर्गावती’, ‘भारत’, ‘फूट’, ‘देशद्रोही को दुत्कार आदि।
5.श्रद्धा भाव-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’, ‘भारतेन्दु जयन्ती’, ‘श्री युत बाबू देवकीनंदन खत्री का वियोग’, याचना आदि।
6.विविध-बाल विनय’, ‘विनती’, ‘अन्योक्तियाँ’’, ‘वन्दना’, ‘हमारी हिन्दी’, ‘सुमन-संगीत’, झलक 1-2-3 इत्यादि।

                       संकलित कविताओं के वर्ण्य-विषय पर टिप्पणी करते हुए डॉ.रामचंद्र तिवारी ने लिखा- प्रकृति के रम्य चित्रों से अलग अन्य कविताओं का महत्त्व इस दृष्टि से भी मान्य है कि उनमें शुक्लजी के समय के इतिहास की अनुगूँजे सुनाई पड़ती हैं और उनके प्रति उनकी निजी प्रतिक्रियाओं की झलक भी मिलती है।”2 इससे स्पष्ट होता है कि आचार्य शुक्ल की कविताओं में भारतेन्दु युगीन प्रवृत्ति- प्रकृति-प्रेम, ग्राम्य-संस्कृति, ब्रजभाषा प्रयोग;  द्विवेदी- युगीन प्रवृत्ति- राष्ट्र प्रेम, इतिवृत्तात्मकता, खड़ी बोली प्रयोग और परवर्ती काव्य-प्रवृत्ति- परिनिष्ठित काव्य भाषा का रचनागत निर्वाह स्पष्टतः प्रकट होता है। इसी दृष्टि से आचार्य शुक्ल की रचनाओं का काव्य संग्रह मुधस्रोतके साहित्यिक सौन्दर्य का अवगाहन करना समीचीन होगा।

                      प्रकृति-प्रेमकवियों का सदैव प्रिय विषय रहा है। आचार्य शुक्ल की कविताओं में प्रकृति की रम्य छटा सहज प्रसन्न शैली में व्यक्त हुई है। रीतिकालीन काव्य में प्रकृति उद्दीपन रूप में प्रकट हुई, परन्तु आचार्य शुक्ल ने इसे आलंबन रूप में ही ग्रहण किया। वे प्रकृति की सत्ता को स्वतंत्र मानते थे। प्रकृति के शुद्ध रूप की उपासना के कारण उन्होंने आरोपित भावों को स्वीकार नहीं किया। मनोहर छटा’, ‘आमंत्रण’, ‘रूपमय हृदयआदि कविताओं में प्रकृति का रम्य चित्रण इसी रूप में बिम्बित है। प्रकृति के आलम्बन रूप का दृश्य-विधान इन पंक्तियों में अवलोकनीय हैं-

नव दल-गुंथित पुष्प हास यह!
शशि रेख सुस्मित विभास यह!
नभ चुवित नग निविड़-नीलिमा उठी अवनि उर की उमंग सी।
कलित विरल घन पटल-दिगंचल-प्रभा पुलकमय राग-रंग सी।3
                                              (रूपमय हृदय)

                        इसी प्रकार मनोहर छटामें प्रकृति को चित्रकार की गति के रूप में अंकित कर उसमें पल्लवित जीवन और सूर्य, चंद्र, नभ, जल, पर्वत आदि की भूमिका को भी चित्रित करते हुए कवि ने कहा-

नीचे पर्वत थली रम्य रसिकन मन मोहन ।
ऊपर निर्मल चन्द्र नवल आभायुत सोहत।।4
  (मनोहर छटा)

                       प्राकृतिक सुषमा के साथ लोक संस्कृति की शाश्वत सौन्दर्य कवि को मुग्ध करता है। ग्राम्य-जीवन में उसे सनातन संस्कृति के प्राण दिखाई देते हैं, जहाँ समस्त चराचर जगत के प्रति स्निग्ध स्नेह भाव है। नगर से दूर, कृत्रिम सभ्यता से विरत ग्राम्य-जीवन के खुले द्वार का रेखांकन कवि को आकर्षित करता है। हरे-भरे खेत, पेड़-पौधों पर लहराते पत्ते, गाँवों के खपरैल वाले घर और श्वेत छज्जे आदि भारतीय ग्राम्य-जीवन के बिम्ब हैं। यथा-

नगर से दूर कुछ गाँव की सी बस्ती एक,
हरे भरे खेतों के समीप अति अभिराम ।
जहाँ पत्राजाल अंतराल से झलकते हैं,
लाल खपरैल, श्वेत छज्जो के सँवारें धाम।।5
  (हृदय का मधुर भार)

                       ग्राम्य-संस्कृति में कवि का मन इतना रम गया है कि वहाँ की सुषमा उन्हें देवलोक के समान प्रतीत होती है। यहाँ प्रकृति का खुला प्रसार है, जहाँ पशु, पक्षी, मानव सब एकात्म भाव से रहते हैं। ग्रामको खुला स्वप्न मानते हुए कवि मनुष्य जीवन में इसे मधु के समान मानकर प्रेरणा लेने का भी आह्वान करता है, यथा-

कहीं हृदय अपना समेटकर,
कोश-कीट बन जाय न तू नर।
इसी हेतु अविरल मधुधारा,
द्वार-द्वार पर टकराती है।
$  $  $
तुम भी ग्राम! खुले सपने हो,
रूप रंग में वही बने हो।6
   (मधुस्रोत)

                        आचार्य शुक्ल ने अपने निबंध उत्साहमें कर्म सौन्दर्य के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- कर्म में आनन्द अनुभव करने वालों ही का नाम कर्मण्य है। धर्म और उदारता के उच्च कर्मों के विधान में ही एक ऐसा दिव्य आनंद भरा रहता है कि कर्ता को वे कर्म ही फल-स्वरूप लगते है। अत्याचार का दमन और क्लेश का शमन करते हुए चित्त में जो उल्लास और तुष्टि होती है, वही लोकोपकारी कर्म-वीर का सच्चा सुख है।”7 वस्तुतः कर्म सौन्दर्य वह बीज है जो क्षात्रधर्मकी प्रतिष्ठा करता है। आचार्य शुक्ल ने अपने युग की ध्वनि को पहचान लिया था और स्वाधीनता आन्दोलन में रचनाकार की भूमिका को भी निर्धारित कर दिया।

                        भारत और बसंतमें वंदे मातरम् का शंखनाद, ‘रानी दुर्गावतीमें नारी के शौर्यपूर्ण चरित्र का गुणगान, ‘देशद्रोही को दुत्कारमें अभिव्यक्त विचार स्वाधीनता आन्दोलन की छाया में पल्लवित हुए। राष्ट्रधर्म से विमुख लोगों को कवि ने अपने हृदय से ही निकालने की घोषणा कर दी है-

जा दूर हो अधम सन्मुख से हमारे,
हैं पाप-पुंज तब पूरित अंग सारे,
जो देश से न हट तो हृद-देश से ही,
देते निकाल हम आज तुझे भले ही।8
(देशद्रोही को दुत्कार)

                     आचार्य शुक्ल ने राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि मानकर अन्याय का प्रतिकार करने का आह्वान किया। अपने युग की पदचाप अनुसार उन्होंने निष्काम भाव से आगे बढ़ने का निश्चय किया। शत्रु चाहे कितना भी शक्तिशाली हो, कवि अपना उद्योग छोड़ने को तैयार नहीं। अन्यायी को दण्ड देने का भाव प्रकट करती उक्त पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-

देश, दुःख अपमान जाति का बदला मैं अवश्य लूँगा।
अन्यायी के घोर पाप का, दण्ड उसे अवश्य दूँगा ।
यद्यपि मैं हूँ एक अकेला, बैरी की सेना भारी ।
पर उद्योग नहीं छोडूँगा, जगदीश्वर हैं सहकारी।।9
(आशा और उद्योग)

                        तुलसी की भक्ति को स्पष्ट करते हुए आचार्य शुक्ल ने लिखा- वह केवल व्यक्तिगत एकांत साधना के रूप में नहीं है, व्यवहार क्षेत्र के भीतर लोक-मंगल की प्रेरणा करने वाली है।”10 वस्तुतः शील-निरूपण की दृष्टि से उन्होंने तुलसी को हिन्दी का श्रेष्ठ कवि माना। आचार्य शुक्ल ने लोगमंगल की साधनावस्थाको आगे बढ़ाया। तुलसी ने प्रभु श्री राम के लोकरक्षक रूप का चित्रण किया तो आचार्य शुक्ल ने भी उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हुए नैराश्य के वातावरण में प्रभु के लोक रक्षक  रूप का वर्णन किया-

जिस दंडक वन में प्रभु  की, को दंड-चंड-ध्वनि भारी।
सुनकर कभी हुए थे कंपित, निशिचर अत्याचारी।
वहीं शक्ति वह झलक उठी, झंकार सहित भयहारी।
दहल उठा अन्याय, उठो फिर मरती जाति हमारी ।।11
(गोस्वामी और हिन्दू जाति)

                         आचार्य शुक्ल ने काव्य में रहस्यवाद को उचित नहीं माना। काव्य दृष्टि और रहस्यवाद के संबंध में उनके विचार हैं- अब विचारने की बात है कि किसी अगोचर और अज्ञात के प्रेम में आँसुओं की आकाश-गंगा में तैरने, हृदय की नसों का सितार बजाने, प्रियतम असीम के संग नग्न प्रलय-सा ताण्डव मरने या मुँदे नयन-पलकों के भीतर किसी रहस्य का सुखमय चित्र देखने को ही- भीतक तो कोई हर्ज न था- कविता कहना, कहाँ तक ठीक है? छोटे-छोटे कनकौवों पर भला कविता कब तक टिक सकती है? असीम और अनन्त की भावना के लिए अज्ञात  या अव्यक्त की ओर झूठे इशारे करने की कोई जरूरत नही।”12

                       यद्यपि काव्य में रहस्यवादपुस्तिका 1929 ई. में प्रकाशित हुई, किन्तु उनके काव्य में रहस्यवाद पर आलोचनात्मक आक्रमण पहले ही आ गया था। रूपमय हृदयमें ज्ञात के  महत्त्व को स्थापित किया तो हृदय के मधुर भारमें रहस्यके वर्णन का विरोध किया। इसके बाद पाखंड-प्रतिषेधमें काव्य में रहस्यवाद के विरूद्ध आक्रामक प्रहार किया और तत्कालीन छायावादी कवियों पर पैनी शाखा में कटाक्ष भी किया-

काव्यमें रहस्यकोई वादहै न ऐसा, जिसे,
लेकर निरालाकोई पंथ ही खड़ा करे।
यह तो परोक्ष रूचि-रंग की ही झाई है, जो
पड़ती है व्यक्त में अव्यक्त-बिम्बता धरे ।।13
(पाखंड-प्रतिषेध)

                        मर्यादावादी आचार्य शुक्ल ने इसी कविता में विलियम ब्लेक के कल्पनावादपर भी कठोर टिप्पणी करते हुए आंग्ल की भूमि बीच ब्लेक ने जो ढोंग रचारहस्य-कल्पना का विरोध किया। यद्यपि यह अलग विषय है कि सुधापत्रिका में प्रकाशन के बाद ठीक अगले अंक मार्च, 1928 ई. में पं.मातादीन शुक्ल ने उक्त कविता के विरोध में पाखंड-परिच्छेदकविता लिखी, जिसमें रहस्यवाद को महिमा मंडित किया गया। निरालाने भी अपने व्यंग्य-बाणों से आचार्य शुक्ल को निशाना बनाया। यहाँ यह उल्लेख करना उचित होगा कि आचार्य शुक्ल रहस्यवादी कविताओं में भाव और व्यंजना की अत्यधिक कृत्रिमता से खिन्न थे और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रत्यक्ष संघर्ष में बाधा मानते थे। उनकी रहस्यवाद के विषय में कठोर टिप्पणियों को इसी भाव से देखना चाहिए, क्योंकि छायावादी कवियों से उनके संबंध अत्यधिक मधुर थे।

                       हिन्दी की समृद्धि में अपना योगदान देने वाले भारतेन्दु को नए पंथ का द्वार खोलने वालाबताया, तो बाबू देवकीनंदन खत्री को हिन्दी के पाठक बढ़ानेका श्रेय देते हुए श्रद्धा भाव से कविताएँ लिखी। बाबू देवकीनंदन खत्री की मृत्यु पर उन्होंने श्रद्धा-सुमन इस प्रकार अर्पित किए-

ऐयारी के बल कितनों को पकड़ पकड़ कर,
फुसला लाया हिन्दी के जो नूतन पथ पर,
हुआ गुप्त वह उस तिलस्म में चरपट जाकर,
कहीं न जिसका भेद कभी हैं खुला किसी पर।
अहो! देवकीनंदन जी हा। चल दिए ।
छोड़ जगत् जंजाल, शोक उनको लिए ।।14
(श्रीयुत बाबू देवकीनंदन खत्री का वियोग)

                       आचार्य शुक्ल की आलोचना भाषा में शब्द, नाद और बिम्ब का अपूर्व संयोजन दिखाई देता है। यह उनकी काव्यात्मक भाषा से प्रभावित प्रतीत होता है। इस संदर्भ में डॉ.रामस्वरूप चतुर्वेदी ने आचार्य शुक्ल की भाषा का विश्लेषण करते हुए लिखा- सावधान शब्द-प्रयोग, नाद-सौंदर्य और बिम्ब-विधान साधारणतः काव्यभाषा के ये गुण रामचंद्र शुक्ल की आलोचना भाषा में पाए जाते हैं। यथा, एक उदाहरण द्रष्टव्य है- पर्वतों की दरी कंदराओं में, प्रभात के प्रफुल्ल पद्मजाल में, छिटकी चांदनी में, खिली कुमुदिनी में हमारी आँखें कालिदास, भवभूति आदि की आँखों में जा मिलती है। पलाश, इंगुटी, अंकोट के वनों में अब भी खड़े हैं, सरोवरों में कमल अब भी खिलते हैं, तालाबों में कुमुदिनी अब भी चाँदनी के साथ हँसती है, वनीर शाखाएँ अब भी झुककर तीर का नीर चूमती है, पर हमारी आँखें उनकी ओर भूलकर भी नहीं जाती, हमारे हृदय से मानो उनका कोई लगाव ही नहीं रह गया।”14 उपर्युक्त पंक्तियों के भाव आचार्य शुक्ल की मधुस्रोतकविता में इस प्रकार ढले-

दिक् दिक् की आँखें मतवाली
धरती हैं किंशुक की लाली
जहाँ जहाँ ये रूप खड़े हैं
जहाँ जहाँ ये दृश्य अड़े हैं
कालिदास, भवभूति आदि के
हृदय वहाँ पर मिल जाते हैं।15
(मधुस्रोत)

                        हिन्दी की आरंभिक खड़ी बोली में भाषा सहनता एवं सुबोध प्रस्तुति में भी बिम्ब-विधान आकर्षित करता है। प्रकृति की रमणीयता का चाक्षुष-बिम्बमय वर्णन द्रष्टव्य है-

भूरी, हरी घास आस पास, फूली सरसों हैं,
पीली पीली बिन्दियों का चारों ओर है पसार;
कुछ दूर विरल, सघन फिर, और आगे,
एक रंग मिला चला गया पीत पारावर ।16
(हृदय का मधुर भार)

                       ब्रज से खड़ी बोली की ओर आगे बढ़ते हुए, काव्य में गेयता का ध्यान रखते हुए आचार्य शुक्ल ने अपने युग की आवश्यकतानुरूप काव्य लिखा। उनकी विशिष्टता यह है कि हिन्दी कविता को संस्कृत काव्य-परम्परा के अनावश्यक निर्वाह और पाश्चात्य शैली के अंधानुकरण से मुक्त करने का प्रयास किया। हिन्दी में मौलिक लेखन का पंथ-निर्मित कर आगे की राह को सुगम किया। मधुस्रोतका भाव एवं कला सौन्दर्य निर्धारित प्रतिमानों से भिन्न तत्कालीन आवश्यकता के परिप्रेक्ष्य में विवेचनीय है। इसी दृष्टि से आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कवि-हृदय भी मूल्यांकित होना वांछनीय है।

संदर्भ-ग्रंथ -

1.      आचार्य रामचंद्र शुक्लः चिन्तामणि भाग प्रथम, अशोक प्रकाशन, दिल्ली-6, सं.2004 पृ.सं.70
2.      रामचंद्र तिवारीः भारतीय साहित्य के निर्माता- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली-1, सं.             2005,पृ.सं.29
3.       रामचंद्र शुक्लः मधुस्रोत, नागरी प्रचारिणी ग्रंथमाला 79, ना.प्र.सभा, वाराणसी, सं.2028 वि., पृ.57
4.       वही, पृ.सं.23
5.       वही, पृ.सं.30
6.        वही, पृ.सं.5
7.        आचार्य रामचंद्र शुक्लः चिन्तामणि भाग प्रथम, अशोक प्रकाशन, दिल्ली-6, सं.2004, पृ.सं.8
8.         रामचंद्र शुक्लः मधुस्रोत, नागरी प्रचारिणी ग्रथमाला 79, मा.प्र.सभा, वाराणसी, सं.2028 वि., पृ.सं.71
9.         वही, पृ.सं.76
10.      उद्धृत, रामचंद्र तिवारीः भारतीय साहित्य के निर्माता- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, साहित्य अकादेमी, नई                  दिल्ली-1, सं.2005, पृ.सं.29
11.       रामचंद्र शुक्लः मधुस्रोत, नागरी प्रचारिणी ग्रंथमाला 19, ना.प्र.सभा, वाराणसी, सं.2028 वि., पृ.सं.98
12.    नामवर सिंहः रामचंद्र शुक्ल संचयन, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली-1, सं.2017 पृ.सं.56-57
13.    रामचन्द्र शुक्लः मधुस्रोत, नागरी प्रचारिणी ग्रंथमाला 79, ना.प्र.सभा, वाराणसी, सं.2028 वि0, पृ.सं.93
14.    रामस्वरूप चतुर्वेदीः आचार्य शुक्ल की आलोचना भाषा, आलेख, आलोचना अप्रेल-जून 1985, पृ.सं.115
15.    रामचन्द्र शुक्लः मधुस्रोत, नागरी प्रचारिणी ग्रंथमाला 79, ना.प्र.सभा, वाराणसी, सं.2028 वि.,पृ.सं.5
16.   वही, पृ.सं.30
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(डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी)
        

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