आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी


आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
(एक आलोचक के रूप में)
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हिंदी आलोचना में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान अद्वितीय है।  भारतेन्दु युग की आलोचना को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने युगानुकूल परिवर्तन को प्रोत्साहन दिया। उनकी मान्यता थी कि काव्य में अन्य भावों के उद्बोधन और मानव-चरित्र के उन्नयन की शक्ति होनी चाहिए। उन्होंने काव्य को नैतिक, उपयोगी, प्रभावपूर्ण, नवीन और सरस विषयों से संपृक्त होने पर बल दिया।

प्राचीन परिपाटी के शास्त्रीय-ग्रंथों यथा-अलंकार, रीति और नायिका भेद के प्रति क्षोभपूर्ण विरक्ति-भावना थी।आचार्य द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से हिन्दी आलोचना को धार दी। उन्होंने भारतेन्दु-युग के लेखकों मिश्र बंधुओं के ‘हिन्दी नवरत्न’ तथा मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ की आलोचना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने अन्य भाषाओं में सुरक्षित ज्ञान-विज्ञान विषयक सामग्री से हिन्दी साहित्य के भण्डार में वृद्धि की। ‘कवि और कविता’, ‘कविता तथा कवि कर्तव्य’ ऐसे निबंध हैं, जिससे उनकी काव्य-विषयक अवधारणा का पता चलता है।

सैद्धान्तिक दृष्टि से वे रसवादी आलोचक माने जाते हैं, परन्तु यह मर्यादित था। ‘रस’ को काव्य की आत्मा मानते हुए भी उन्होंने व्यावहारिक आलोचना में केवल रसवाद का आधार नहीं लिया, वरन् प्रसाद गुण, वैदर्भी रीति, औचित्य सिद्धान्त, विषयानुकूल छन्द-योजना, यथार्थ आधारित कल्पना, व्याकरण-सम्मत भाषा-प्रयोग, वाच्यार्थ प्रधान शब्द-योजना का भी आश्रय लिया। ‘कालिदास और उनकी कविता’ में आलोचक का दायित्व संकेतित करते हुए लिखा- “कवि या ग्रंथकार जिस मतलब से ग्रंथ-रचना करता है, उससे सर्वसाधारण को परिचित कराने वाले आलोचक की बड़ी जरूरत रहती है। ऐसे समालोचकों की समालोचना से साहित्य की विशेष उन्नति होती है और कवियों के गूढ़ाशय मामूली आदमियों की समझ में आ जाते हैं।”

‘सरस्वती’ में द्विवेदी जी ने परिचयात्मक आलोचना को प्रोत्साहन दिया तथा आलोचक के कर्तव्य का निर्धारण करते हुए लिखा- “किसी पुस्तक या प्रबंध में क्या लिखा गया है, किस ढंग से लिखा गया है, वह विशेष उपयोगी है या नहीं है, उससे किसी को लाभ पहुँच सकता है या नहीं पहुँच सकता। लेखक ने कोई नई बात लिखी है या नहीं लिखी है, यही विचारणीय है।”

वस्तुतः आचार्य द्विवेदी नैतिकता के प्रबल पक्षधर, शिष्ट सम्पादक थे। संस्कृत-काव्य शास्त्रीयों के प्रति निष्ठा भाव था, परन्तु रीतियुगीन वासनामय शृंगार से वे विरक्त थे। कट्टर नीतिवादिता से व्यावहारिक आलोचनाएँ की। अतः रस और नीति का द्वंद्व कई स्थलों पर प्रकट हो जाता है। अपनी सम्पादकीय भूमिका और आलोचक के कर्तव्य के रूप में उन्होंने पुनर्जागरणकालीन हिन्दी साहित्य को दिशा प्रदान करने में उल्लेखनीय योगदान दिया।

सांस्कृतिक एकात्म एवं भारतीय चिंतन

 

सांस्कृतिक एकात्म एवं भारतीय चिंतन


समवेत के जुलाई-दिसम्बर,2021 अंक में प्रकाशित

एकात्म जीवन-दर्शन भारतीय संस्कृति का प्राण है। भिन्न-भिन्न विचार समूहों के प्रवाह को गांगेय प्रवाह का रूप दे देना ही भारतीय संस्कृति के टिकने का सबसे बड़ा आधार रहा है। सर्वव्यापी भारतीय संस्कृति पर हजारों वर्ष से आक्रमण होते रहे हैं। इस समुन्नत संस्कृति के देश भारत में भिन्न-भिन्न तेवर के लोग आते रहे, कभी व्यापारी बन, कभी आक्रमणकारी बन तो कभी राज्याधिकारी बन। उनकी भाषा, खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, तीज-त्योहार और साथ-साथ रहने का प्रभाव यहाँ के लोगों पर पड़ता रहा है, पर यहाँ का जनमानस उनके मजहब और संस्कृति से अप्रभावित रहा है। शासित होते हुए भी विचार से पूर्ण स्वतंत्र। उसका बड़ा कारण का यहाँ की संस्कृति का सर्वसमावेशी स्वरूप, सहिष्णुता व समभाव का संबल। यह आज से नहीं वैदिक काल से चल रहा है।

आचार्य कहते हैं- संस्कृति मनुष्य के चित्त की खेती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृति को मनुष्य के चिन्तन की उपज कहा है। वस्तुतः सम्यक् कृति ही संस्कृति है। बाबू गुलाबराय के अनुसार, “ संस्कृति के मूलाधारों में- आध्यात्मिक दृष्टिकोण,सांस्कृतिक चेतना, धार्मिकता, सजीव सत्यों का संकलन, सहन शक्ति, सामाजिक चेतना आदि है।“1 संस्कृति के मूलभूत तत्त्व नैतिकता, सदाशयता, सहनशीलता, शरणागत की रक्षा, आचरण की पवित्रता और समभाव की उच्चत्ता में इसकी शक्ति निहित है। चिंतन की स्वतंत्रता और उपास्य की अनेकता, वेश-भूषा और खान-पान की विविध स्वरूप के बावजूद अनेकता में एक तत्त्व की प्रधानता ही आर्यावर्त की संस्कृति का सबसे बड़ा सम्बल है। हमारा चिंतन मात्र देह तक सीमित नहीं है। स्थूल जगत् से परे हम यह विचार करते हैं कि मैं कौन हूँ? हमारा प्रत्यभिज्ञा दर्शन स्वयं की पहचान पर बल देता है। हम आत्मतत्त्व की खोज में लगे रहे। जयशंकर प्रसाद के शब्दों में हम कह सकते हैं कि ‘एक तत्त्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन2

महादेवी वर्मा ने राष्ट्र के स्वरूप को अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखा, “राष्ट्र केवल पर्वत-नदी,या समतल का सवाल नहीं होता, उसमे उस भूमिखंड में निवास तथा विकास करने वाले मानव-समूह का जीवन अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहता है।3 विष्णुपुराण में वर्णन है कि जिसके मुकुट पर हिमालय है, जिसके चरणों में समुद्र है। उसके मध्य की भूमि भारत देश है। अथर्ववेद में भारत भूमि की वन्दना की गई है, इसे अपनी पीढ़ी को बताया जाना चाहिए। गांधीजी ने कहा था- मेरे देश में चाहे अंग्रेज रह जाए, पर अंग्रेजीयत चली जाए, लेकिन दुर्भाग्य से अंग्रेजीयत यहीं रह गई। 15 फरवरी, 1835 को लार्ड मैकाले ने ब्रिटेन की संसद में कहा कि मुझे पूरे भारत वर्ष में एक भी भिखारी नहीं मिला। जर्मनी का विद्वान सोपेनहार ने कहा कि मुझे अगला जीवन भारत में मिले, ताकि मैं उपनिषदों का अध्ययन कर सकूँ।

राष्ट्रवादी चिन्तक श्रीराम परिहार लिखते हैं, ”राष्ट्र क्या है? उसकी संस्कृति क्या है? वस्तुतः ये दोनों मिलकर ही तो समूचे विश्व में अपनी पहचान स्थापित करते हैं, अन्यथा छह अरब की दुनिया की भीड़ में खोने के अलावा क्या है? राष्ट्र का निजत्व होता है, गुणधर्म होता है, उसकी पहचान, आकृति, अस्मिता और भूगोल होता है।“4 भारतीय राष्ट्रीयता के लिए वन्देमातरम् का उद्घोष, शंकराचार्य का एकात्मभाव, विवेकानंद की विराट दृष्टि ने ही तो आने वाली पीढ़ियों को चमत्कृत कर दिशा दी। स्वतंत्रता आन्दोलन की ताकत हमारे पूर्वजों से मिली और इसमें भी राष्ट्रबोध की भूमिका अन्यतम रही।

विश्व साहित्य की प्रथम पुस्तक, जिसे यूनेस्को ने भी स्वीकार किया है, वह है- ऋग्वेद। उसमें कहा गया है- मनुर्भवः, अर्थात् मनुष्य बनो। मनुष्यता का बोध ही भारतीय संस्कृति का मूल है, जो वर्तमान और भविष्य के लिए भी जरूरी है व रहेगी। हमें यह समझना होगा कि भारतवर्ष पूर्वी-पश्चिमी सभ्यताओं का समूह नहीं, वरन मानवता का संस्कार देने के लिए ईश्वरीय योजनानुरूप इस राष्ट्र का उदय हुआ। यजुर्वेद में कहा गया कि हम राष्ट्र के पुरोहित हैं। हम भोग में भी त्याग के समान आचरण करते हैं। विश्व के सभी प्राणी सुखी हों, ऐसी उदात्त भावना है। हम प्रकृति के सहचर हैं, जिससे हम रस ग्रहण कर जीवन को गति प्रदान करते हैं, दूसरी ओर पश्चिमी दृष्टि की धारणा है कि मनुष्य का प्रकृति पर आधिपत्य है और वह भोग के लिए है। भारतीय परम्परा का ज्ञान हमारे साहित्य ने करवाया। राम, कृष्ण, वाल्मीकि, वेदव्यास का व्यक्तित्व हमारी विरासत में साहित्य की देन है। शरीर नश्वर है, कर्म ही जीवन है, ज्ञान, इच्छा और क्रिया का समन्वय होना चाहिए यह सब हमारे साहित्य में लिखा गया और अपने-अपने समय के अनुकूल लिखा गया। शंकराचार्य ने आठ साल की उम्र में वेदों की ऋचाओं का अध्ययन किया और बारह वर्ष की आयु में वेदान्त की पुनर्व्याख्या कर वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना कर दी।

भारत की विशालता और विविधता के बावजूद उसे परस्पर जोड़ने में संस्कृत-साहित्य का अन्यतम महत्त्व हैं। वेद, उपनिषद, स्मृति, ब्राह्मण ग्रन्थ, रामायण, महाभारत, चरक, सुश्रुत इत्यादि में सांस्कृतिक चेतना का ऐसा युग-युगीन सेतु बन चुका है, जिसमें पूरा भारत वर्ष एक बना हुआ है। कालिदास का रघुवंश, महाकाव्य, भवभूति और अश्वघोष का साहित्य, माघ और भाष का चिंतन हमें जिस संस्कृति का आसव परोसता है, वही हमारी राष्ट्रीयता का सबसे बड़ी खुराक है। संस्कृति की इस चेतना को बलवती बनाने में कश्मीर के पंडितों व आचार्यों का सराहनीय महत्त्व है। आचार्य कल्हण द्वारा लिखित राजतरंगिणी इतिहास का महाभारत के बाद पहला ग्रन्थ माना जाता है। इसी प्रकार विल्हण का योगदान कम नहीं है। जिस कश्मीर में आतंक का ताण्डव चक्र रहा है वहां कभी- 8वीं से 12 वीं शती तक भिज्ञा दर्शन का साम्राज्य था, जिसमें शैवोपासना की संस्कृति का उज्ज्वल प्रकाश बिखरता रहता था। इसी काल के दसवीं से ग्यारहवीं शती मे आचार्य अभिनवगुप्त ने ध्वनि में रस और रस में जीवन तलाशने का भगीरथ प्रयास किया था।

डॉ. विनीता राय लिखती हैं, “जीवन के मूल्य वास्तव में संस्कृति के अंगभूत हुआ करते हैं। हम अपने मूल्यों के माध्यम से राष्ट्र और संस्कृति का परिचय देते हैं।“5  विवेकानंद ने 30 वर्ष की उम्र में अपने ज्ञान से दुनिया को पागल कर दिया था। उन्होंने 1200 वर्ष बाद शंकराचार्य की परम्परा को संवाहित किया। यह स्पष्ट किया कि मनुष्य श्रेष्ठ है। मनुष्य का अस्तित्व मानवता की पराकाष्ठा है एवं आत्म तत्त्व को पहचानना है। डॉ. देवराज ने मानव मूल्यों को सांस्कृतिक पहचान से जोड़ते हुए कहा, ”किसी व्यक्ति की संस्कृति वह मूल्य चेतना है, जिसका निर्माण उसके सम्पूर्ण बोध के आलोक में होता है।“6 यही कारण है कि पश्चिम के विज्ञान और पूर्व के ज्ञान के समन्वय पर बल देने वाला व्याख्यान भारत को दुनिया में सिरमौर बनाता है। 1913 में गीतांजलि पर टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलता है। मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारती राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में जन चेतना को जाग्रत करती है। 1915 में उसने कहा थाकहानी उस शाश्वत वचन को प्रमाणित करती हैं, जिसमें कहा गया है कि रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई। साकेत का यह कथन विचारणीय है- संदेश नहीं मैं यहाँ स्वर्ग का लाया, इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।यह साहित्य समकाल में लिखा गया, जो हमारी परम्परा से प्रभावित था। 1936 में राम की शक्ति पूजाभी अपने अन्दर रामत्व को जगाने का प्रयास है। कामायनी अथवा दिनकर, अज्ञेय अथवा धर्मवीर भारती सबने उस भारतीय परम्परा को आगे बढ़ाया, जिसके सूत्र वैदिक ऋषियों से प्राप्त हुए थे। अतः राष्ट्र को सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नत बनाने में साहित्य का योगदान अतुल्य है।

भारत की संस्कृति का निर्माण, सौ दो सौ वर्ष में नहीं, हिमालय की तरह हजारों वर्ष में हुआ है। उसके निर्माण के कई कारक हैं। साहित्य का अवदान उसमें अन्यतम है। यह साहित्य लोकभाषाओं से संस्कृत भाषा का व्याप्त है। यद्यपि यह कहना अर्धसत्य होगा कि संस्कृति का निर्माण साहित्य ही करता है पर साहित्य का संबल धारण कर संस्कृति शक्तिमान  बनती है। भारत के विभिन्न अंचलों में व्याप्त बोलियों का एक विशाल साहित्य है। उस विशाल लोक साहित्य में संस्कृति की अनेक तरंगे प्रस्फुटित हुई हैं। हिन्दी की तमाम उपबोलियों में, पंजाबी जुबान के साहित्य में, बंगला, उड़िया, असमिया, मलयालम, कन्नड़, तेलगू, तमिल भाषाओं में व्याप्त भारतीय संस्कृति के विविध रंग मिलते हैं- पर उन रंगों का आस्वाद एक जैसा है। राजस्थानी लोकगीतों के प्रवाह में संस्कृति का रत्न छिपा है। कहना न  होगा कि भारत की इन भाषाओं-उपभाषाओं में संस्कृति की समझ बड़ी समृद्ध है। अनेक भावों की अंतर तरंगे अध्यात्म के महाभाव में मिलकर एक महातरंग को जन्म देती हैं। भाषा-उपभाषा में लिखित और मौखिक साहित्य की लिपि भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, उच्चारण में भेद हो सकते हैं, भौगोलिक विभिन्नताएँ हो सकती हैं, कहीं रेगिस्तान, कहीं हरियाली, कहीं मैदान तो कहीं पहाड़ हो सकते है- पर सबका भाव एक ही होता है- जीवन में अध्यात्म का चटकीला रंग। काव्य-महाकाव्य, खंडकाव्य, गद्यकाव्य, चम्पूकाव्य शैली की दृष्टि से भले ही पृथक-पृथक हों पर भाव की दृष्टि से उनकी एकात्मकता की संस्कृति का प्राण-तत्त्व बनता है।

अपनी संस्कृति का सीधा संवाद साहित्य से होता है। नदी, नारी और संस्कृति का प्रवाह शाश्वत होता है। नारी का एक प्रकृष्ट रूप माँ होती है। वह शास्त्र से बड़ी और गुरु से भी अधिक पूज्य होती है। शास्त्र जब निःशब्द हो जाते है तब माँ की बात ही अंतिम होती है। वह संस्कृति की प्रतीक होती है। नदी भी उसी का रूप है। न नारी वृद्ध होती है और न संस्कृति। इन दोनों का अविरल प्रवाह साहित्य में दिखता है। पं. विद्यानिवास मिश्र साहित्य और संस्कृति के अन्तः सम्बन्ध को इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं- इस देश की संस्कृति सीता है, जो धरती से जनक के हल के नोक से पैदा हुई हैं। इस देश की संस्कृति गंगा है, जिन्हें भगीरथ ने अपने परिश्रम से पहाड़ खोदकर निकाला था। इस देश की संस्कृति गौरी है, जिन्होंने अपने प्रियतम को सौन्दर्य से नहीं तम से प्राप्त किया था। इस देश की संस्कृति असंख्य ग्रामीण बन्धु और वनवासी हैं, जो असंख्य बाधाओं को राम की धनुही से तोड़ने का विश्वास रखते है।“7

 भारतीय चिंतन परम्परा व्यापक दृष्टिकोण पर आधारित है। हमारे जीवन का कोई पक्ष ऐसा नहीं है, जिस पर हमारी परंपरा ने विचार नहीं किया। हमारे शास्त्रों ने जीवन के उज्ज्वल उदात्त पक्ष को ग्रहण करने पर सदैव बल दिया। यह प्रयास भारतीय साहित्य में निरंतर विद्यमान रहा कि नवनीत छूट न जाए, उसी के कारण वैश्विक पटल पर भारतीय साहित्य अप्रतिम गहराई के साथ खड़ा है।

सहायक ग्रन्थ सूची

1.भारतीय संस्कृति की रूपरेखा, बाबू गुलाबराय, ज्ञानगंगा प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2008, पृष्ठ-26

2.कामायनी, जयशंकर प्रसाद, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2014, पृष्ठ-1

3.धर्मयुग, फरवरी,1987, (सं.) धर्मवीर भारती, पृष्ठ-7

4.राष्ट्रबोध, संस्कृति एवं साहित्य, (सं.) डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, सं. 2019 पृष्ठ-33

5.मूल्य और मूल्य संक्रमण, डॉ. विनीता राय, अनिल प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2005 पृष्ठ-15

6.संस्कृति का दार्शनिक विवेचन, डॉ. देवराज, सू.प्र.विभाग,उ.प्र.,लखनऊ सं.1957, पृष्ठ-175

7.राष्ट्रबोध, संस्कृति एवं साहित्य, (सं.) डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, सं. 2019 पृष्ठ-34

 

 

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पुस्तक: काव्य सिद्धांत


पुस्तक : काव्य-सिद्धांत
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भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य में प्राचीन काल से काव्यशास्त्रीय मीमांसा अपार निधि के रूप में विद्यमान रही है। साहित्य रचना के प्रतिमान निर्माण में मानकता का पैमाना परिष्कृत रूप से प्रत्येक कालखंड में सामने आता रहा है, परिणाम स्वरूप मौलिक मतों का जन्म हुआ और नवीन साहित्यिक समीक्षाओं के आधार पर बिंदु भी तय हुए। काव्य सिद्धांतों का अभिनव स्वरूप आलोचना के क्षेत्र में व्यापक रूप में गतिमान है।

भारतीय काव्य सिद्धांतों का उत्स संस्कृत भाषा में प्रस्तुत काव्य शास्त्रीय ग्रंथ हैं जहाँ काव्य की परिभाषा, भेद, अंग, हेतु, प्रयोजन के साथ काव्यात्मा की विशेष चर्चा हुई। इसका प्रतिफल यह हुआ कि रस, अलंकार, ध्वनि, रीति, वक्रोक्ति एवं औचित्य जैसे काव्य सिद्धांत वर्तमान में भी समीचीन प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार पश्चिमी परंपरा में भी कला विषयक अनेक मान्यताओं, वादों, अवधारणाओं आदि का जन्म हुआ, जिससे वैश्विक साहित्य प्रभावित हुआ।

समकालीन साहित्य समालोचना में जहाँ भारतीय काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों का मूल आधार है, वहीं पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय मान्यताओं का भी पूरा प्रभाव है। युगीन अपेक्षाओं ने नए विमर्श खड़े किए तो कतिपय अवधारणाओं ने साहित्य के लेखन को प्रासंगिक दिशा भी दी।इस तरह आलोचना का क्षेत्र भी समृद्ध हुआ।

प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांतों के मूलभूत विचारों को सरलतम ढंग से प्रस्तुत किए जाने का विनम्र प्रयास है। विश्वविद्यालय स्तरीय पाठ्य सामग्री एवं लोकसेवा आयोग द्वारा जारी पाठ्यक्रम को केंद्र में रखकर उक्त पुस्तक को प्रस्तुत किया गया है। उक्त लेखन में अनेक सहायक ग्रंथों का अध्ययन का निकष है, अतः विद्यार्थियों के लिए नवीन प्रस्थान बिंदु भी निर्मित होंगे, ऐसा विचार है।

यह पुस्तक स्नातकोत्तर स्तर के विद्यार्थियों, प्रतियोगी परीक्षार्थियों, शोधार्थियों एवं शिक्षकों के लिए विशेष उपयोगी है। इसमें विषय सामग्री का सरलतम शब्दावली में विवेचन, पर्याप्त उदाहरण एवं अभ्यास प्रश्नों के साथ प्रस्तुतीकरण है। पुस्तक के अंत में पारिभाषिक शब्द एवं स्मरणीय तथ्य भी तत्काल जिज्ञासा पूर्ति में सहायक है। संदर्भ ग्रंथ लेखकों का आभार प्रकट करते हुए चाणक्य प्रकाशन, जयपुर का विशेष धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने एक उपयोगी पुस्तक का प्रकाशन किया। 


@ डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी
पुस्तक: काव्य-सिद्धांत
प्रकाशक: चाणक्य प्रकाशन, जयपुर।
आमंत्रण मूल्य: ₹ 195.00
संपर्क: 9079692820

भारत की यात्रा कराती है यह पुस्तक

 भारत की यात्रा कराती है यह पुस्तक

राजस्थान पत्रिका 24 अक्टूबर,2021 के अंक में प्रकाशित  

प्रकृति और जीवन का सौंदर्य चराचर जगत का नैसर्गिक आनंद है। यायावर मन यदि इसे यात्रावृत्त रूपी साहित्यिक विधा में प्रकट करता है, तब उसका मन एकांत से प्रकृति का साहचर्य प्राप्त कर स्व से विराट तक गतिमान हो जाता है। जहां उसे नदी के प्रवाह, आकाश के मेघ, सागर की लहरें, पहाड़ों की शृंखलाएँ, भव्य इमारतें एवं अन्य कलाओं से उसका साक्षात्कार अनुभूति का चरम मान होता है। रचनाकार की यह दृष्टि अपनी आयत्त अनुभूतियों के माध्यम से निस्संदेह सार्वजनीन हो जाती है।

 

डॉ.राजेश कुमार व्यास एक कला प्रेमी, रसज्ञ कवि होने के साथ-साथ समकालीन यात्रावृत्त लेखकों में उभरता हुआ नाम है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित 'आंख भर उमंग' कृति एक दशक की यात्राओं का भाव भरा प्रस्फुटन है, जिसे लेखक ने बड़े मनोयोग से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। यह यात्रा चंबल के जंगलों, नालंदा के खंडहर, नर्मदा की धाराओं, पहाड़ों की नैसर्गिक छटाओं के साथ-साथ भारत की लोक संस्कृति, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक अन्तर्यात्राओं को भी समाहित करती है, जहां प्रकृति,वास्तु शिल्प, इतिहास एवं कला का वैभव चाक्षुष बिम्ब के रूप में व्यक्त होता है।

 

पहाड़ों की यात्रा में रोमांच के साथ प्राकृतिक सुषमा का मोहक दृश्य लेखनी की गति को भी मंत्रमुग्ध कर देता है। भीमताल की यात्रा करते हुए वे लिखते हैं, " गाड़ी पहाड़ से नीचे उतर रही है। पेड़ों का झुरमुट... और बीच में इकट्ठा जल। बरखा के पानी को जैसे धरित्री ने अपनी छोटी सी अंजुरी में बहुत जतन से समेट लिया है।" यह भावमयी क्षिप्रता आकर्षण पैदा करती है।


यात्रा के साथ साथ लोक संस्कृति से तादात्म्य हमारी आंतरिक लय को भी गतिमान कर देता है। 'दहकते अंगारों पर सबद नाद' शीर्षक यात्रावृत्त में जसनाथी नृत्य का वर्णन करते हुए लेखक स्वयं चमत्कृत होकर लिखते हैं, "लाल दहकते अंगारों पर जसनाथी नृत्य। तेज होते वाद्यों की गति और शब्द नाद के साथ नर्तक अपनी धुन में मगन। औचक एक नर्तक अंगारे को हाथों में उठा मुँह में डाल रहा है तो दूसरा उसे अपनी हथेली में ले मजीरे की तरफ फोड़ रहा है।" यह वर्णन पाठक को भी रोमांचित कर देता है।

 

डॉ. व्यास प्रकृति के चितेरे हैं। ऐसी स्थिति में पदार्थवादी दुनिया के प्रति विकर्षण स्वाभाविक है। कश्मीर की वादियों में विचरते हुए अपने मन की थाह लेते हुए कह उठते हैं, "शहरीपन से आए बदलावों पर जब भी विचारता हूँ, मन जैसे बुझ जाता है। ढूंढने लगता हूँ, इस गडरिए जैसी उस मस्ती को जो अब न जाने कहाँ लोप हो गई है।"

इसी तरह कवि मन, कला हृदय लेखक ने गाँव, नगर, दुर्ग, नदियों, पहाड़ों, मंदिरों से लेकर खेत खलिहानों तक की यात्रा को जीवंत रूप में प्रवाहमयी शैली के साथ प्रस्तुत किया है। उल्लेखनीय है कि यात्रावृत्त रिपोर्ताज शैली में ना लिखकर भाव-भरी रसात्मक शैली में प्रांजल शब्दावली के साथ है, जिसमें पाठक लेखक के साथ ठहरता हुआ यात्रा करता है। लघु आकार में अनावश्यक अलंकरण से बच पाना लेखक की उदारता का प्रमाण है। पाठकों की सीमाओं का ध्यान रखना भी लेखक की सिद्धहस्तता को प्रकट करता है। छिहत्तर यात्रावृत्त को 250 पृष्ठों में समाहित कर संपूर्ण भारत की परिक्रमा का प्रयास प्रशंसनीय है।

 


 पुस्तक: आँख भर उमंग

लेखक: डॉ. राजेश कुमार व्यास

प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत

पृष्ठ संख्या: 250

आमंत्रण मूल्य: 310/-

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चिंतामणि में विचार-प्रवाह



चिंतामणि में विचार­प्रवाह 
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हिंदी निबंध साहित्य के क्षितिज पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल का पदार्पण एक युगांतरकारी परिवर्तन का श्रीगणेश था। आचार्य शुक्ल ने ‘चिंतामणि‘ में जिस मौलिक सर्जना के साथ निबंध लिखे, उसकी शैलीगत नवीनता, विषय की गरिमा और गांभीर्य अद्वितीय है । अपनी सूक्ष्म­व्यापक निरीक्षण क्षमता से आचार्य शुक्ल ने मनोविज्ञान को साहित्य के धरातल पर उतार कर यह सिद्ध कर दिया कि नवीन भावों की उद्भावना करने वाले निबंध ही श्रेष्ठ कोटि के कहे जा सकते हैं।

आचार्य रामंचद्र शुक्ल के निबंधों का संग्रह ‘चिंतामणि’ के दो भागों में सुरक्षित है। चिंतामणि भाग­एक में संगृहीत सत्रह निबंध मनोविकार व समीक्षात्मक श्रेणी के हैं, जबकि चिंतामणि भाग­दो में काव्यशास्त्र से संबंधित तीन गवेषणात्मक निबंध हैं । इस प्रकार आचार्य शुक्ल द्वारा लिपिबद्ध बीस निबंधों का विषय­क्षेत्र मनोविकार, काव्यशास्त्र एवं आलोचना के परिक्षेत्र में है । ये निबंध हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं । अपनी मौलिक उद्भावनाओं और बलवती विचार शैली के कारण वे निबंध क्षेत्र के एकमात्र अधिपति हैं । हिन्दी साहित्य को अभी उनके जैसा दूसरा श्रेष्ठ निबंधकार नहीं मिला है। 

चिंतामणि भाग­-एक में भाव या मनोविकार संबंधी कुल दस निबंध हैं, जो इस प्रकार हैं­ भाव या मनोविकार, उत्साह, श्रद्धाभक्ति, करुणा, लज्जा और ग्लानि, लोभ और प्रीति, घृणा, ईर्ष्या, भय, क्रोध इत्यादि । इन निबंधों को लिखते समय शुक्ल जी की दृष्टि साहित्य पर रही है, फलतः मनोवैज्ञानिक आधार को साहित्यिक धरातल पर ले आने से यह भ्रम स्वाभाविक है कि ये निबंध मनोवैज्ञानिक है, किंतु गहराई से चिंतन करने पर यह प्रकट होता है कि आचार्य शुक्ल रचित उक्त मनोविकार संबंधी निबंध मानव मन के भावों से संबंधित होने पर भी विशुद्ध रूप से मनोवैज्ञानिक विवेचन से संबंधित है । साहित्य का सीधा संबंध मानव एवं उसके मनोभावों से है। साहित्य में व्यक्त भाव जगत् का सामाजिक मूल्यांकन और परीक्षण व्यक्ति को केन्द्र में रखकर ही संभव है। अतः आचार्य शुक्ल के मनोविकार संबंधी निबंध मनोविज्ञान के नहीं, बल्कि हिन्दी साहित्य की अनमोल विरासत है। 

चिंतामणि के भाव या मनो विकार संबंधी निबंधों में विविध सूत्रात्मक परिभाषाएँ प्रकट होती हैं, जो आलोचकों के लिए गंभीर विवेचना का अवसर प्रदान करती हैं । जैसे-
अनुभूति के द्वंद्व ही से प्राणी के जीवन का आरंभ होता है । उच्च प्राणी मनुष्य भी केवल एक जोड़ी अनुभूति लेकर इस संसार में आता है।
(भाव या मनोविकार)

दुःख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनन्द वर्ग में उत्साह का है।  (उत्साह)

श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। (श्रद्धा­भक्ति)

दूसरों के दुःख से दुखी होने का नियम जितना व्यापक है, दूसरों के सुख से सुखी होने का नियम उतना ही व्यापक नहीं है।
(करुणा)

जहाँ लोभ सामान्य या जाति के प्रति होता है, वहाँ वह लोभ ही रहता है, जहाँ पर किसी जाति के एक ही विशेष व्यक्ति के प्रति होता है, वहाँ प्रीति का पद प्राप्त करता है।
(लोभ और प्रीति)

घृणा निवृत्ति का मार्ग दिखलाती है और क्रोध प्रवृत्ति का।
(घृणा)

ईर्ष्या का अनन्य अधिकार मनुष्य जाति पर ही है ।
(ईर्ष्या)

सामाजिक जीवन में क्रोध की आवश्यकता है। 
(क्रोध)

चिंतामणि में आचार्य शुक्ल ने अपने मौलिक चिंतन के बल पर भारतीय एवं पाश्चात्य समीक्षात्मक सिद्धान्तों का समन्वय करके समृद्ध और समर्थ बनाया। समालोचन का प्रारंभ उन्होंने जायसी, सूरदास और तुलसीदास की कृतियों की समीक्षा के दौरान लंबी भूमिकाओं के रूप में किया। आचार्य शुक्ल के समीक्षा सिद्धान्तों में प्रमुख हैं- लोकमंगल, प्रकृति का आलंबन रूप, रसवाद साधारणीकरण, देशप्रेम, विश्वधर्म, विषयानुरक्ति, मौलिकता, वैयक्तिकता, बौद्धिकता, विचार प्रधानता आदि। 

‘चिंतामणि: एक’ में संकलित इन समीक्षात्मक निबंधों में शुक्लजी का मत है कि ब्रह्म के सत्, चित् और आनंद तत्त्वों में से काव्य और भक्ति को ‘आनंद’ तत्त्व ग्रहण करना चाहिए। इसके समर्थन में उन्होंने कहीं आनंद की साधनावस्था के सौंदर्य का उद्घाटन किया तो कहीं सिद्धावस्था का। उनकी दृष्टि में लोकमंगलकारी और आनंदमयी सौन्दर्य का चित्रण विश्व कल्याण की भावना को पुष्ट करता है। 

‘चिंतामणि­ भाग-दो’ में उनके तीन समीक्षात्मक निबंध हैं- 1. काव्य में प्राकृतिक दृश्य, 2. काव्य में रहस्यवाद और 3. काव्य में अभिव्यंजनावाद। इन तीनों निबंधों में काव्य रचना संबंधी महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ स्थापित की गई हैं। काव्य में प्राकृतिक दृश्य वर्णन में वे बिम्ब ग्रहण पद्धति को श्रेष्ठ मानते हैं, क्योंकि यही प्रकृति का वास्तविक एवं हृदयग्राही स्वरूप प्रस्तुत करती है। इस दृष्टि से उन्होंने शुद्ध भारतीय परम्परा के प्राचीन संस्कृत कवियों वाल्मीकि, भवभूति, कालिदास के प्रकृति वर्णन को हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठतम कवियों तुलसीदास, सूरदास के प्रकृति वर्णन से अच्छा बताया। 

आचार्य शुक्ल ने काव्य में रसात्मक अनुभूति को आवश्यक बताया, क्योंकि यह मानव में रागात्मक वृत्ति का पोषण करती है। ‘कविता’ को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा- “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द­विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।”

आचार्य शुक्ल ने इन निबंधों में लोक के कल्याण पर सर्वत्र ध्यान दिया है। उनका विचार है कि जो राष्ट्र दूसरों का गला घोंटकर स्वयं समृद्ध बनने की लालसा रखते हैं, वे कभी भी समाज के कल्याण के कारक नहीं बन सकते, अपितु सदैव विश्व में विषमता के कारण बने रहेंगे। इसी तरह शुक्ल जी का देश प्रेम तीन रूपों में व्यंजित हुआ है- वर्तमान के प्रति क्षोभ, अतीत के प्रति श्रद्धा तथा भविष्य के प्रति विश्वास। उन्होंने विश्व धर्म को गृह, कुली, समाज एवं लोक धर्म से श्रेष्ठ मानते हुए लिखा- “ जिनकी आत्मा समस्त भेदभाव से परे अत्यंत उत्कर्ष पर पहुँची हुई होती है वे सारे संसार की रक्षा चाहते हैं।” यह धारणा आज कितनी समीचीन है, जबकि सारा संसार वैमनस्य की आग में झुलस रहा है। 

‘चिंतामणि’ में संगृहीत निबंधों में व्यक्तित्व की भूमिका गौण है। आचार्य शुक्ल ने शुद्ध विचारात्मकता को निबंधों की कोटि में स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार के निबंधों को वे तत्त्व चिंतन अथवा दर्शन के क्षेत्र में रखते थे। उनके मतानुसार गंभीर विचार और व्यक्तित्व के संयोग से साहित्यिक सौन्दर्य की सृष्टि होती है, जिसके अभाव में कोई रचना निबंध नहीं होती। एक ही बात को भिन्न दृष्टि से देखना व्यक्तिगत विशेषता को मूल आधार है और शुक्लजी की दृष्टि में निबंधकार की यह सबसे बड़ी विशेषता है।

निबंधकार जिस भी विषय पर अपनी लेखनी चलाता है, उसमें वह अपनी संपूर्ण मानसिकता के साथ तन्मय हो जाता है। वह अर्थगत विशेषता और भावाभिव्यंजना से विशिष्ट शैली का निर्माण करता है। शुक्लजी शब्द आडम्बर युक्त रचना को हेय मानते हैं, जो अर्थ संबंध का निर्वाह करने में अक्षम है और भाषा केवल तमाशा बनकर रह जाती है। 

आचार्य शुक्ल के निबंधों पर क्लिष्टत्व दोष का आरोप लगाया जाता है, किंतु स्वस्थ मन से विचार किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका दृष्टिकोण वस्तुवादी है। उनके निबंधों में विषय और व्यक्तित्व का अद्भुत समन्वय मिलता है। संघटित विचार परंपरा, वैचारिक प्रौढ़ता व गांभीर्य, भाव­-भाषा में औदात्य और कसावट इनकी व्यक्तिगत विशिष्टता है।

 हिन्दी शब्द कोश को समृद्ध करने के उद्देश्य से अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय गढे़ हैं, यथा स्थान मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग कर भाषायी निखार लोने का प्रयास किया है, वहीं विश्व साहित्य से भारतीय साहित्य की तुलना कर अपना निर्णय दे दिया है, अतः निबंध­ साहित्य में वे मूर्धन्य स्थान पर है।

हिंदी निबंध साहित्य में शुक्लजी सर्वोच्च पीठ के योग्य समर्थ अधिकारी हैं । आलोचक जयनाथ नलिन ने उनके बारे में लिखा है­ “विचारात्मक निबंधकार के रूप में रामचंद्र शुक्ल की रचनाएँ अमर हैं। ‘चिंतामणि’ हिन्दी का ही नहीं, भारतीय गद्य­ साहित्य का गौरव है । चिंतामणि के निबंध किसी भी देश के सर्वश्रेष्ठ विचारात्मक निबंधों की पहली पंक्ति में पूरे आत्मविश्वास और गौरव से बैठ सकते हैं । शुक्लजी का एक­एक निबंध हिन्दी गद्य शैली के विकास की शानदार मंजिल है, एक­-एक पैरा प्रगति और प्रौढ़ता के पथ पर बढ़ता हुआ है, एक­एक पंक्ति गंभीर चिंतन की साँस है और एक­-एक शब्द अभिव्यंजना की सार्थकता है । भावों, वृत्तियों और विचारों का इतना सूक्ष्म विवेचन कहीं और नहीं मिलता। इतनी बारीक और गहरी लकीरें परिभाषात्मक सीमा तक हमने उनके सिवा कहीं नहीं देखी। उक्त टिप्पणी आचार्य शुक्ल और चिंतामणि के गौरव को अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त है । उनकी यशोकीर्ति अमर रहेगी और हिन्दी के भावी निबंधकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी । 

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डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी

सामान्य हिंदी : तेरहवाँ संस्करण


सामान्य हिंदी : तेरहवाँ संस्करण
प्रकाशक : राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर

सांस्कृतिक अंतर्धारा की कृति : रस निरंजन

पुस्तक समीक्षा
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(अमर उजाला, 11जुलाई, 2021 में प्रकाशित)

सांस्कृतिक अंतर्धारा की कृति : रस निरंजन
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कलाएँ निरंजन हैं, जो अनादि-अनंत रूप में निर्विकार भाव से रस की सृष्टि करती है। ध्वनि, संगीत, लय, रंग, रूप आदि के समाहार के साथ कला में सामंजस्य भाव निहित होता है। संगीत, नृत्य, नाट्य आदि कलाओं ने सौंदर्य की सर्जना के साथ मानव-मन की अनुभूतियों को सदैव जीवंत किया है। इसी कारण सांस्कृतिक प्रतिमान की निर्मिति में कला का योगदान अतुल्य है। बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास की कलाओं पर एकाग्र कृति 'रस निरंजन' कलाओं के आंतरिक सौंदर्य को अभिव्यक्त करती हुई सांस्कृतिक अंतर्धारा में उसकी उपस्थिति की बड़ी गहराई से चर्चा करती है।

रस निरंजन निबंध-संग्रह के चार खंड यथा- राग-रंजन में संगीत, नर्तन में नृत्य, चाक्षुष यज्ञ में नाट्य एवं षडंग में चित्रकला के विविध पक्षों पर आधारित कुल इकतीस निबंध संकलित हैं। राग-रंजन में लेखक ने संगीत और कला के अंतर्नाद को समृद्ध विरासत से जोड़ते हुए माना है कि भारतीय संगीत उदात्त है, जो शास्त्रीय और लोक संगीत के मेल से बना है। इसमें आध्यात्मिक शक्ति व  लोक रागों की मिठास के साथ शास्त्रीय रागों में भी लोक की उपस्थिति सुरों के माधुर्य के साथ मौजूद है।

'नर्तन' में नृत्य की विशिष्टता उजागर हुई है। लेखक ने लयबद्ध प्रतिक्रिया को नृत्य माना है, जिसमें नाट्य और नृत का संयोग है। यह विश्लेषण सम्मोहक है कि नटराज की नृत्यशाला यह संपूर्ण ब्रह्मांड है। सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह में नटराज के नृत्य की उपस्थिति है। नृत्य के अनंत व्योम को रूपायित करते हुए वे कहते हैं कि भारतीय दृष्टि जीवन को उसकी समग्रता में देखती है। भरतनाट्यम, कथक आदि इसके उदाहरण हैं।

रंगकर्म को लेखक ने चाक्षुष यज्ञ की संज्ञा दी है। आशय यह है कि नाट्य की सार्थकता मंचन से अधिक दर्शकों के आनंद की होती है। लेखक ने आलोचना को विमर्श की श्रेणी में रखने की बात कही है। 'आंखों का अनुष्ठान' लेख में इस पक्ष की गंभीर विवेचना की गई है। वे मानते हैं कि लोक नाटक जहां अनुरंजनकारी होते हैं, वहीं ये सांस्कृतिक दस्तावेज भी हैं। अतः इनकी आंतरिक गुणवत्ता का सम्मान होना चाहिए। इसी तरह षडंग के अंतर्गत अनीश कपूर, एलिस बोनर, जगदीप स्वामीनाथन, हिम्मत शाह, युसूफ, अखिलेश, कंटेगरी कृष्ण हेब्बार, अकबर पदमसी, विनय शर्मा की कलात्मक विशेषताओं को रेखांकित किया है। लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि जिस समग्रता के साथ कला के विविध रूपों की उपस्थिति इनकी चित्रकारी में  है, वह संपूर्ण कला के नाद को समझने में मदद करती है।

डॉ. राजेश कुमार व्यास ने अपनी आंतरिक अनुभूतियों को उकेरते हुए जिस सरल शब्दावली में विवेचना के साथ कला की सैद्धांतिकी पर चर्चा की है, वह अतुल्य है। बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा पुस्तक का आमंत्रण मूल्य मात्र ₹10 रखा है, जो साहित्यिक गरिमा से लगाव को उद्घाटित करता है। अल्पावधि में पाँचवाँ संस्करण प्रकाशित होना पुस्तक की पाठकीयता का प्रमाण है।पुस्तक का आवरण रस के आंतरिक स्वरूप को निरंजन दृष्टि से देखने की  ध्वनि व्यंजित करता है। 


पुस्तक : रस निरंजन ( निबंध-संग्रह)
लेखक : डॉ. राजेश कुमार व्यास 
प्रकाशक :बोधि प्रकाशन, जयपुर 
आमंत्रण मूल्य : 10/-
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