सांस्कृतिक प्रतिमान और अज्ञेय की दृष्टि (सन्दर्भ:कथेतर गद्य)


            सांस्कृतिक प्रतिमान और अज्ञेय की  दृष्टि

(सन्दर्भ:कथेतर गद्य)

हिंदी विभाग,मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में दिया गया वक्तव्य एवं मधुमती अंक नवम्बर -2018 में प्रकाशित 


             
 सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेयआधुनिक भारतीय साहित्य के महान् रचनाकार और चिंतक थे। कुमार विमल के अनुसार, “अज्ञेय ने अपने कथा-साहित्य के माध्यम से हिन्दी पाठकों को अखिल भारतीय साहित्य और संस्कृति के सार्वदेशिक स्वरूप से परिचित कराया। साथ ही, उन्होंने अपने यात्रा-संस्मरणों और चिंतन-प्रधान लेखन के माध्यम से हिन्दी जगत को अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य रूचि एवं ज्ञान-विस्तार से अवगत कराते हुए भारतीय ज्ञान-गरिमा तथा उसकी कालजयी विशिष्टता का बोध दिया। अज्ञेय जितने समर्थ कवि थे, उतने ही समर्थ गद्यकार भी थे।”1 लगभग छह दशक तक साहित्य-सेवा करने वाले अज्ञेय जीवन के गहनतर स्तरों को उज्ज्वलतर आलोक से प्रतिभासित करने वाले वे अप्रतिम चिंतक हैं।

               किसी भी देश की संस्कृति को प्रणम्य बनाने एवं कालखंड को अमरता प्रदान करने में साहित्यकार की अहम् भूमिका होती है। भारतीय संस्कृति सनातन, समृद्ध और जीवन्त है। इसकी परम विशेषता रही है कि उसने पदार्थ को आवश्यक माना पर उसे आस्था का केन्द्र नहीं, शस्त्र-शक्ति का सहारा लिया, लेकिन उसमें त्राण नहीं देखा, अपने लिए दूसरों का अनिष्ट हो गया, पर उसे क्षम्य नहीं माना। यहाँ जीवन का लक्ष्य विलासिता नहीं, आत्म-साधना रहा, लोभ-लालसा नहीं, त्याग-तितिक्षा रहा।2 इस दृष्टि से अज्ञेय का निबंध-साहित्य, अन्तःप्रक्रियाएँ, यात्रा-साहित्य, संस्मरण, आत्मकथा एवं आलोचनाओं का अवलोकन आवश्यक है। अज्ञेय का गद्य साहित्य भारतीय चिंतन के सांस्कृतिक प्रतिमान, यथा-भारतीयता, मिथकीय सत्ता, रूढियाँ, सौन्दर्य और शिवत्व, नैतिक मूल्य, मानवतावाद, मम और ममेत्तर संबंधए काल चिंतन और एकात्म-दृष्टि पर विशद् दृष्टि प्रदान करता है।

               अज्ञेय की दृष्टि में भारतीयता का पहला लक्षण है- सनातनता और दूसरा है- स्वीकार की भावना। सनातन होने का भाव हमें आत्मगौरव तो देता है, लेकिन समय की धारा के साथ परीक्षण की अपेक्षा भी करता है। उनका कथन है- जिसे हम भारत की आत्मा कहते हैं, वह वास्तव में आत्म और अनात्म का, जीवित और जड़ का एक पुंज है, जिसकी परीक्षा की आवश्यकता है............... जीवित को आगे बढ़ाना होगा। कुछ लोग भारतीयता के समर्थन के नाम पर निरी जड़ता का समर्थन करते हैं; कुछ दूसरे जड़ता के विरोध के नाम पर संस्कृति से ही इनकार करना चाहते हैं।”3 इसी तरह स्वीकार की भावनाभी सनातन भावनाका परिणाम है। परम ब्रह्म की कल्पना ने ऐहिक मानव को नगण्य बना दिया, जिससे स्वीकार की भावना उत्पन्न हुई, जैसे- दुःख के प्रति स्वीकार, दैन्य के प्रति स्वीकार, अत्याचार के प्रति स्वीकार, उत्पीड़न के प्रति स्वीकार- यहाँ तक कि दासता के प्रति स्वीकार,वह दासता दैहिक हो या मानसिक। अज्ञेय ने यहाँ स्पष्ट किया - जो अपने काल में रहकर भी आगे देखे; न इधर अनादि को न उधर अनंत को वरन् उससे आगे के काल को, जो हमारे काल से प्रसूत है और जिसके हम स्पष्ट हैं। वह अपरिबद्ध जिज्ञासा भारतीयता है कि नहीं इस पर विद्वान लोग बहस कर सकते हैं; मैं असंदिग्ध भाव से इतना जानता हूँ और कहना चाहता हूँ कि वह भारतीयता को कल्याणकर बना सकती है।”4

               एक रचनाकार पौराणिक मिथकों का आश्रय ग्रहण करता है और नई रचना को जन्म देता है। मिथकीय सत्ता और मौलिकता की टकराहट अक्सर दिखाई भी पड़ती है। विज्ञान और पुराण की तुलना करते हुए अज्ञेय लिखते हैं- विज्ञान लगातार अनुमान और प्रतिज्ञा के सहारे चलता है, अपने सिद्धान्तों को वह कभी इतना सिद्ध नहीं मानता कि उसमें परिवर्तन की संभावना न रहे।........ इसके विपरीत पुराण सनातन तत्त्व की खोज में रहता है। बदलाव उसमें भी आता है, वह भी स्वीकार करता है, लेकिन इस आग्रह के साथ कि वह परिवर्तन केवल सनातन तत्त्व में किसी परिवर्तन के कारण नहीं।”5 वस्तुतः 'पुरा नवं करोति' अर्थात् पुराण पुराने को झूठा नहीं करता, उसे नया करता है। इसीलिए पौराणिक अनुष्ठान में जो आवृत्ति होती है, वह विज्ञान की भाँति प्रयोग-मूलक नहीं होती, बल्कि उसी मूल घटना को पुनर्जीवित करती है, जो उसका आधार है। अनुष्ठान में पौराणिक घटना का अनुकरण नहीं होता, अभिनय नहीं होता, उसका पुनर्घटन होता है। फलतः नवीकरण में नई अर्थवत्ता जन्म लेती है।

               परम्परा के प्रति विशेष मोह भारतीय मानस की विशिष्टता है। भारतीय समाज के लिए रूढ़िवादीशब्द कालांतर में प्रयुक्त होता रहा और यह उसके लिए गौरवमयी था। प्रगतिशब्द के प्रवेश ने रूढ़िशब्द को लगभग खलनायक बना दिया। साहित्य में भी आज फैशन बन गया है कि रूढ़ियों का तिरस्कार किया जाए और मौलिकता को अपनाया जाए। इस प्रश्न का प्रत्युत्तर देते हुए अज्ञेय ने लिखा- परम्परा स्वयं लेखक पर हावी नहीं होती, बल्कि लेखक चाहे तो परिश्रम से उसे प्राप्त कर सकता है। लेखक की साधना से ही रूढ़ि बनती और मिलती है। रूढ़ि की साधना साहित्यकार के लिए वांछनीय ही नहीं, साहित्यिक प्रौढ़ता प्राप्त करने के लिए अनिवार्य है।”6 यदि लेखक में ऐतिहासिक चेतना होगी, तो उसकी रचना में न केवल अपने युग, अपनी पीढ़ी से संबंध बोल रहा होगा, बल्कि उससे पहले की अनगिनत पीढ़ियों की संलग्नता और एक सूत्रता की भी तीव्र अनुभूति स्पंदित हो रही होगी।

               भारतीय संस्कृति के मूल में अध्यात्मबहुत गहराई से है। धर्म की जितनी व्यापक परिकल्पना भारत में हुई, वैसी अन्यत्र कहीं नहीं है। इसी कारण अज्ञेय मानते हैं कि धर्म की चर्चा जहाँ-तहाँ होगी तो संस्कृति को अनुप्राणित करने वाली मूल भावना अथवा सृष्टि-दर्शन के रूप में ही होगी। भारतीय हिन्दू समाज की विलक्षणता का परिचय देते हुए वे कहते हैं- भारतीय समाज संसार का सबसे बड़ा हिन्दू-समाज है। निःसन्देह इस समाज ने ऐसे भी युग देखे, जब उसके धर्म विश्वासों को राजनैतिक सत्ता का सहारा भी मिला, जब लौकिक और पारलौकिक- या ऐहिक और पारमार्थिक- प्रभुसत्ताओं का योग हुआ। महत्त्व की बात है कि उस परिस्थिति में यह समाज असहिष्णु नहीं हुआ और दूसरे संप्रदायों के विरूद्ध अत्याचार अथवा दमन को उसने अत्याचार और अधर्म समझा। यह केवल अकारण नहीं है, बल्कि भारतीय इतिहास का गौरवमय अध्याय है।”7

               भारतीय संस्कृति में मानसिक-आध्यात्मिक शक्तियों के अस्तित्व का योग अथवा तपस के मूल्य का आग्रह रहा है, जबकि पश्चिम में ‘अधिक मांग, अधिक सुख’। जहाँ पूर्व की खोज शांति की अथवा आनंद की खोज है, वहाँ पश्चिम का आग्रह सुख अथवा परितृप्ति का है। भारतीय संस्कृति में व्यक्ति और समूह के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर है। भारत का धार्मिक समाज व्यक्ति से कर्म के क्षेत्र में निर्धारित प्रकार के आचरण की अपेक्षा करता है, पर विश्वासों के मामले में उसे पूरी छूट देता है, यह अत्यन्त महत्त्व की बात है। अज्ञेय का मत है कि यही बात है जिससे संघर्ष कम से कम हो जाता है और अपराध-भाव को उदित होने का अवसर नहीं मिलता। निःसंदेह भारतीय स्थिति में पाखण्ड की संभावना बनी रहती है,पर इस प्रकार का पाखंड कम खतरनाक होता है। विश्वास की कठिन लाचारी की स्थिति में एक दूसरे प्रकार का अवचेतन पाखंड उत्पन्न हो जाता है; दमित अंतर्विरोध से तीव्र हिंसाएँ, वैर-भाव और विनाशक प्रवृत्तियाँ उभरती हैं।”8

               मानव मूल्यों का स्रष्टा है। क्योंकि मानव अपने से बड़े मानव मूल्यों को सामने ला रहा है, तो उसके वरण का संकल्प भी लेता है। यही नैतिक उत्तरदायित्व है, इसलिए जब कोई तात्कालिक सुविधावादी निर्णय लेता है तो उसे अनैतिक माना जाता है। इतिहास में कई संस्कृतियाँ उठीं और समृद्धि के शिखर तक पहुंची, फिर नियति को प्राप्त होकर मर गई। आज भी ऐसे छोटे-छोटे समाज मूल्यों की लड़ाई लड़ते दिखाई देते है। क्या उनकी यह निष्ठा है जड़ता? इस संदर्भ में अज्ञेय का निष्कर्ष है कि श्रद्धा का विरोध किए बिना, विज्ञान को अमान्य किए बिना, परलोक की शरण लिए बिना, इहलोक की उपेक्षा किए बिना, व्यक्ति के सहज बोध की टेक लिए बिना, नैतिकता का स्रोत मानव में पाना संभव है और उचित है।”9

               सामान्य मत यह है कि जो सुन्दर है, वह शिवेतर हो ही नहीं सकता, परन्तु व्यापक दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि दोनों परस्पराश्रित है। अज्ञेय का विचार है- जो यह मानते हैं कि जो सुन्दर है वह शिव भी होता है, वे भी कदाचित् अलग से ऐसा दावा करने में संकोच करेंगे। ऐसा ही होता तो आचार्यों को एक अलग उद्देश्य के रूप में शिवेतरक्षयचर्चा करना क्यों आवश्यक जान पड़ता? जो सुन्दर है वह अनैतिक नहीं होगा यह एक बात है, पर उससे शिवेतर क्षय की माँग करना एक अतिरिक्त शक्ति या प्रभाव की माँग करता है। एक प्रकार से यह साहित्य में लक्षित होने वाले संस्कार के समांतर समालोचना का संस्कार करना है।”10

               अरे यायावर रहेगा यादमें लेखक के भारतीय यात्रानुभवों का मार्मिक आलेखन है तो एक बूँद सहसा उछलीमें विश्व-भ्रमण का संवेदनात्मक दस्तावेज। मम और ममेतर संबंध को प्रकट करती उनकी यायावरी और उससे भावात्मक लगाव सजीव बिम्ब के साथ प्रकट होती है। इस पंक्तियों में यायावर की दृष्टि का अवलोकन होता है-

- मुझको दीख गयाः
हर आलोक छुआ अपनापन
है उन्मोचन
 नश्वरता के दाग से   
                                                                                      (एक बूंद सहसा उछली)

               रमेश चन्द्र शाह ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा- नश्वरता के विचार से आक्रांत पश्चिम की यह यात्रा पश्चिम के सांस्कृतिक-केन्द्रों, धर्म-केन्द्रों और स्नायु केन्द्रों का ही नहीं, पश्चिम के अभिजन और समूह जन का भी साक्षात्कार कराने वाली है।”11

               वर्तमान मशीनी युग की पीड़ा और बदलते मूल्यों की चर्चा अज्ञेय के अन्तःप्रक्रिया साहित्य- भवंती, अंतरा और शाश्वती में गहराई से हुई है। अस्मिता की रक्षा के लिए प्रत्येक जाति संघर्ष करती है, परन्तु भारतीय बुद्धिजीवी का नज़रिया विरोधाभासी है। वे लिखते हैं- नव स्वतंत्र अफ्रीकी देशों का साहित्यकार अपनी अस्मिता की आक्रोश भरी खोज को श्यामत्व (नेग्रिट्यूड) का नाम देता है और हमारे आलोचक प्रशंसा में आपे से बाहर हो जाते हैं, पर भारतीय साहित्यकार भारतीयता की बात करता है तो वे ही आलोचक लट्ठ लेकर उसके पीछे पड़ जाते हैं । भारतीय अस्मिता के नाम से उन्हें चिढ़ है।”12

               अज्ञेय ने मार्क्सवाद को एक सीमा तक ही महत्त्व दिया। वे उसे पूर्ण जीवन-दर्शन नहीं मानते ।13 वे मनुष्य की निर्भयता, विवेक और स्वतंत्रता के विश्वासी हैं। वे वैदिक आर्यों की अभीता नो स्यामअथवा एषा में प्राण या विभेः' को मनुष्य की चरम आकांक्षा का प्रतीक मानते हैं। वे संपूर्ण सत्य को ग्रहण करना चाहते हैं और उसे रागदीप्त करके कला का रूप देना चाहते हैं। अज्ञेय ने आत्मनेपदमें संस्कृति के विकास के लिए मानसिक स्वतंत्रता को अनिवार्य बताया। मनुष्यता की स्थापना उनका अभीष्ट रहा, क्योंकि इतिहास मानवीय क्रियाकलापों का ही विवरण है। राजनीतिक संस्थाएँ भी मनुष्य निर्मित हैं, परन्तु विडम्बना है कि मनुष्य के निर्माण ने ही मनुष्य को महत्त्वहीन बना दिया है। इस प्रकार अज्ञेय ने भारतीय चिंतन परम्परा के उन सांस्कृतिक मूल्यों की समसामयिक संदर्भों में व्याख्या करते हुए तथाकथित प्रगति उन्मुख बुद्धिजीवियों को प्रत्युत्तर दिया और सिद्ध किया कि ये प्रतिमान विज्ञान, तर्क, आस्था और भविष्य-दृष्टि से परिपूर्ण है।

संदर्भ ग्रंथ सूची-
1. कुमार विमल, अज्ञेय गद्य रचना-संचयन, साहित्य अकादेमी नई दिल्ली, 2015, भूमिका, पृ.9
डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी, साहित्य का सांस्कृतिक पक्ष, आर्यावर्त संस्कृति संस्थान, दिल्ली, 2018, भूमिका-पृ.1
3. कुमार विमल, अज्ञेय गद्य रचना-संचयन, साहित्य अकादेमी नई दिल्ली, 2015, भूमिका, पृ.547
4. वही, पृ. 546-547
5. वही, पृ. 531
6. वेबपेज- www.hindisamay.com
7. कुमार विमल, अज्ञेय गद्य रचना-संचयन, साहित्य अकादेमी नई दिल्ली, 2015, भूमिका, पृ.893
8. वही, पृ.629
9. वही, पृ.642
10.वही, पृ.617
11. रमेशचन्द्र शाह, अज्ञेय, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, 2014 पृ.49
12. वेबपेज- www.hindisamay.com
13. डॉ. रामचंद्र तिवारी, हिन्दी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1999, पृ.669
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1 comment:

Rohit Saxena said...

दुख की छाया एक तरह की तपस्या ही है
उससे आत्मा शुद्ध होती है।

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