ग्रियर्सन का हिंदी को अवदान

ग्रियर्सन का हिंदी को अवदान
गवेषणा, अक्टूबर-दिसंबर,२०२० अंक में प्रकाशित
         ग्रियर्सन

भारत में भाषाओं के सर्वेक्षण करने वाले प्रथम भाषा-वैज्ञानिक सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन हिन्दी जगत् में अमर हैं। भारत की संस्कृति से अगाध निष्ठा रखने वाले ग्रियर्सन ने नव्य भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया और उन्हें वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया, इस दृष्टि से उन्हें बीम्स, भांडारकर और हार्नली के समकक्ष माना जाता है। ग्रियर्सन 1870 में आई.सी.एस. के रूप में भारत आए और 1899 तक रहे। प्रारंभ में ही भारतीय भाषाओं के प्रति लगाव से इन्होंने अपना अधिकांश अतिरिक्त समय संस्कृत, प्राकृत, पुरानी हिन्दी, बिहारी और बंगला भाषाओं और साहित्य-पठन में व्यतीत किया। वे अधिकारी के रूप में जहाँ भी नियुक्त हुए, उन्होंने वहीं की भाषा, बोली, साहित्य और लोक जीवन को समझने का प्रयास किया। 

सन् 1888 में ऐशियाटिक सोसायटी ऑफ  बंगाल की पत्रिका के विशेषांक के रूप में जॉर्ज ग्रियर्सन का शोध ‘द मॉडर्न वर्नेक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ प्रकाशित हुआ, जिसे सोसायटी ने 1889 में स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रकाशित किया। यद्यपि यह नाम से इतिहास-ग्रंथ प्रतीत होता है, परन्तु सच्चे अर्थ में हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास कहा जा सकता है। इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद डॉ. किशोरी लाल गुप्त ने ‘हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास’ शीर्षक से किया है। इस पुस्तक को समर्पित करते हुए उन्होंने सम्पादकीय टिप्पणी में लिखा- “श्री ग्रियर्सन जी, आपने विदेशी होते हुए भी, हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास लिखा। अनुवाद तो आपका ही है, उसे क्या समर्पित करूँ? हाँ टिप्पणियाँ मेरी हैं, उन्हें स्वीकार करें।”1 

       इस ग्रंथ में ग्रियर्सन ने कवियों और लेखकों का कालक्रमानुसार वर्गीकरण किया। हिन्दी साहित्य के प्रथम काल विभाजन का श्रेय इन्हें ही है, जो इस प्रकार है- 1. चारण काल, 2. धार्मिक पुनर्जागरण, 3. जायसी की प्रेम कविता, 4. कृष्ण संप्रदाय, 5. मुगल दरबार, 6. तुलसीदास, 7. प्रेमकाव्य, 8. तुलसी के अन्य परवर्ती, 9.18वीं शताब्दी, 10. कम्पनी के शासन में हिन्दुस्तान और 11. विक्टोरिया के शासन में हिन्दुस्तान। उक्त काल विभाजन में व्यवस्था का अभाव एक अलग विवेचना का विषय हो सकता है, परन्तु हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य के स्वरूप एवं विकास के संबंध में जिस दृष्टिकोण का परिचय ग्रियर्सन ने दिया है, वह परवर्ती इतिहासकारों के लिए भी पथ प्रदर्शक सिद्ध हुआ। 

इस ग्रंथ का महत्त्व दो दृष्टियों से बहुत अधिक हैं- भाषा-नीति तथा आधार स्रोत। हिन्दी साहित्य का भाषा की दृष्टि से क्षेत्र निर्धारित करते हुए उन्होंने संस्कृत, प्राकृत और उर्दू को पृथक् रखा। उक्त ग्रंथ की भूमिका में लिखा- “ .... मैं आधुनिक भाषा साहित्य का ही विवरण प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। अतः मैं संस्कृत में ग्रंथ-रचना करने वाले लेखकों का विवरण नहीं दे रहा हूँ। प्राकृत में लिखी पुस्तकों को भी विचार के बाहर रख रहा हूँ। भले ही प्राकृत कभी बोलचाल की भाषा रही हो, पर आधुनिक भाषा के अंतर्गत नहीं आती। मैं न तो अरबी-फारसी के भारतीय लेखकों का उल्लेख कर रहा हूँ और न ही विदेश से लायी गयी साहित्यिक उर्दू के लेखकों का ही- मैंने इस अंतिम को, उर्दू वालों को, अपने इस विचार से जानबूझ कर बहिष्कृत कर दिया है, क्योंकि इन पर पहले ही गार्सा द तासी ने पूर्ण रूप से विचार कर लिया है।”2 

माडर्न वर्नाक्यूलर लिट्रेचर ऑफ हिन्दुस्तान के दो अध्याय-मुगल दरबार और तुलसीदास में ग्रियर्सन ने तत्कालीन सामाजिक अव्यवस्थाओं, विकृतियों और विसंगतियों का उल्लेख किया, परन्तु अकबर के दरबार की तुलना महारानी एलिजाबेथ से करते हैं। इसके पीछे उनकी दृष्टि यह थी कि इन दोनों ने साहित्यिक प्रतिभाओं का सम्मान किया। वे लिखते हैं- “यह देखा जा सकता है कि अकबर बादशाह का शासनकाल और एलिजाबेथ का शासनकाल प्रायः एक ही है और इन दोनों शासकों के शासनकाल साहित्यिक प्रतिभाओं के एक असाधारण एवं अभूतपूर्व स्फुरण से परिपूर्ण हैं और यदि तुलसीदास और सूरदास की शेक्सपीयर और स्पेंसर के साथ सचमुच तुलना की जाये, तो ये भारतीय कवि बहुत पीछे नहीं रहेंगे।”3

ग्रियर्सन ने रामचरित मानस का श्रेष्ठ अंश किष्किंधा कांड के वर्षा वर्णन को मानते हुए वे लिखते हैं- “यहाँ तुलसीदास ने सन्तुलित और विरोधात्मक वाक्यों की शृंखला प्रस्तुत की है। हर पंक्ति में एक तथ्य का कथन और एक उपमा है, उपमान प्रायः धार्मिक हैं।”4 यहाँ ग्रियर्सन ने उपमानों को धार्मिक माना, जिसे उचित नहीं माना जा सकता, क्योंकि वर्षा-वर्णन में धर्म की व्याख्या नहीं है। फिर भी रस प्रसंग में संशयग्रस्त राम की मनःस्थिति, वर्षा-वर्णन से उम्मीद का अंकुरण, हनुमान की सेवकाई आदि प्रसंग की पहचान उन्होंने की। इसे स्वाकार करना चाहिए कि ग्रियर्सन के बाद ही तुलसी की ओर विद्वान आकृष्ट हुए।

उक्त ग्रंथ के आधार-स्रोत के रूप में गार्सा द तासी, शिवसिंह सेंगर के अतिरिक्त भक्तमाल, गोसाईं  चरित्र, हज़ारा काव्य-संग्रह सहित सत्रह ग्रंथों का मूलाधारों सहित संदर्भ दिया है, जो उनके व्यापक अध्ययन, प्रामाणिकता, तटस्थता आदि का प्रमाण है। उन्होंने ग्रंथ को कालखंड में विभक्त कर गौण कवियों का उल्लेख भी अध्याय विशेष के अंत में किया। विभिन्न युगों की काव्य-प्रवृत्तियों की व्याख्या करते हुए उनसे संबंधित सांस्कृतिक परिस्थितियों और प्रेरणा-स्रोतों के उद्घाटन का प्रयास भी उल्लेखनीय है। भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्ण-युग घोषित करना भी इसी ग्रंथ की देन है।

1894 से 1927 तक ग्रियर्सन ने ‘लिग्विंस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’ अर्थात् भारतीय भाषाओं के सर्वेक्षण का कार्य किया। ग्यारह बड़े-बड़े वोल्यूम में यह विशाल ग्रंथ भारत सरकार के केन्द्रीय प्रकाशन विभाग, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित किया गया। पहला खंड बड़े महत्त्व का है, इसमें तुलनात्मक भाषा-विज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है। इस ग्रंथ की भूमिका में उन्होंने लिखा- “It is a comparative vocabulary of 168 selected words. In about 368 different languages and dialects. …… gramophone records are available in this country and in Paris.”5  ​इस भाग के अंत में ग्रियर्सन ने लिखा है कि भारत वस्तुतः विरोधी तत्त्वों की भूमि है और भाषाओं के संबंध में विचार करते समय तो यह तत्त्व और भी दृष्टिगोचर होते हैं। यहाँ अनेक ऐसी भाषाएँ हैं जिनके ध्वनि-संबंधी-नियमों के कारण केवल गौण और साधारण विचारों को ही प्रकट किया जा सकता है। वस्तुतः 179 भाषाओं और 544 बोलियों के इस देश में ध्वनिगत भिन्नताओं का होना कोई आश्चर्य नहीं है। ग्रियर्सन ने इस खंड की भूमिका में देश का भाषिक प्रशिक्षण और उसकी क्षमता को भी स्वीकार किया है। 

इसमें भारतीय भाषाओं, उप-भाषाओं और बोलियों के उदाहरण भी संकलित हैं। तिब्बती, चीनी, बर्मी, ईरानी भाषा-परिवारों को सम्मिलित कर उन्होंने भारतीय आर्य भाषाओं के इतिहास का सबसे अधिक प्रामाणिक और क्रमबद्ध वर्णन किया। इस अथक परिश्रम का संकेत भूमिका में उल्लिखित इस टिप्पणी से मिल जाता है- “ Finish a work extending over thirty years, that after writing this Preface, the pen will be laid down …. I plead guilty to a vain boast whom I claim that what has been done in it for India has been done for no other country in the world.”6 ग्रियर्सन की यह मान्यता थी कि मैं इसको एक ऐसे सामग्री संग्रह के रूप में भेंट कर रहा हूँ जो नींव का काम दे सके। जिन लेखकों का नाम हम जानते तक नहीं, किन्तु वे जनता के हृदयों में जीवित वाणी बनकर बचे हुए हैं, क्योंकि उन्होंने जन की सत्य और सुन्दर भावना को प्रभावित किया।

ग्रियर्सन की एक मौलिक कृति है- ‘बिहार पीजेण्ट्स लाइफ’ बिहार के ग्रामीण जीवन का चित्रण उन्होंने इसमें किया, वह अद्वितीय है। उस समय हिन्दी अथवा भारतीय भाषाओं में संकलन का कार्य नगण्य था। यह पुस्तक एक प्रकार से हिन्दी भाषी समाज का कोश माना जा सकता है, जहाँ हिन्दी प्रदेश को जोड़ने में हिन्दी की महत्ता प्रकट होती है। इस पुस्तक में ग्रियर्सन ने बिहार के प्राकृतिक वैभव का वर्णन नहीं करके वहाँ के कृषि उत्पाद के उपकरणों, मिट्टी के प्रकारों, गंगा की पवित्रता और सामाजिक रिवाजों का चित्रण है। ग्रियर्सन इस पुस्तक में लिखते हैं- “ मुकदमों और दो परस्पर विरोधी दलों के बीच पंचैती के समय ‘गंगा की सौगंध’ का प्रमाण दिया जाता था। गंगा जल को एक पात्र में (ताँबा) रखकर और तुलसी-दल सहित कहा जाता है, “बेटा का सिर पर हाँथ धै कँ।” इसी तरह ‘वसंता भवानी’, ‘कुल देवता’, ‘गंगा माई’ आदि शब्द भारतीय सांस्कृतिक आदर्श की अभिव्यंजना करते हैं तो सांस्कृतिक व्याप्ति की गहराई को भी प्रतिबिम्बित करते हैं। ग्रियर्सन ने आँचलिक शब्दों का प्रयोग करते हुए उनके सामाजिक सरोकारों को भी पहचाना। कई पर्यायवाची शब्द भी पहचाने। जैसे- पत्नी के लिए इस्तिरी, माउग, मौगी, बहू, बह, बौह, जन्नी आदि। यहाँ तक कि इन शब्दों का उन्होंने क्षेत्रानुसार वर्गीकरण भी किया। जैसे, बहू और बौह केवल चम्पारण में प्रचलित हैं। जोरू, कबिला, जनाना, मेहरारू शब्द केवल मुस्लिम समुदाय में हैं तो इस्त्री, पत्नी, बहू जैसे शब्द पूरे बिहार में प्रचलित रहे हैं। ग्रियर्सन ने लोक साहित्य अध्ययन में परम्परा से प्रचलित और लोकप्रिय गीतों का भी उल्लेख किया। ‘बिजमेल के गीत’, सहलेस और दीना-भद्री के कथा-गीतों के धार्मिक महत्त्व को उजागर किया। 

ग्रियर्सन के इस प्रयास का परिणाम यह हुआ कि लोक-साहित्य की ओर भारतीय विद्वानों का ध्यान गया। माना जाता है कि इसी प्रभाव से रवीन्द्रनाथ ठाकुर के मन में बांग्ला के लोकगीतों का संकलन करने की बात मन में आई और वे कलकत्ता के पार्श्ववर्ती गाँवों की यात्रा पर निकले।यह बिहारी लोक जीवन का विश्वकोश है। नागरी और रोमन दोनों लिपियों में उपलब्ध इस ग्रंथ में सचित्र व्याख्या होने से उपयोगी बन गया है। सन् 1885 में बंगाल सेक्रेटरिएट प्रेस द्वारा यह पुस्तक प्रकाशित की गई। लोक-साहित्य के क्षेत्र में ग्रियर्सन द्वारा लिखित शोध पत्र है, जो 1884 में ‘सम बिहारी फोक सोंग्स’ तथा 1886 में ‘सम भोजपुरी सोंग्स’ के नाम से प्रकाशित हुए। द्वितीय शोध आलेख भोजपुरी लोकगीतों का प्रथम संग्रह माना जाता है। इसके अतिरिक्त 1885 में ‘द सांग ऑफ आल्हाज मैरेज’ आलेख ‘इंडियन एंटीक्वेटी’ पत्रिका में छपा। 1889 में ‘टू वर्शन्स ऑफ़ दि सांग ऑफ गोपीचंद’  को संकलित किया। उन्होंने ग्राम-गीतों को भी साहित्य का हिस्सा माना। इतिहास लेखन की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया कि अगणित एवं अज्ञात कवियों द्वारा विरचित स्वतंत्र महाकाव्यों एवं ग्राम गीतों जैसे- कजरी, जँतसार आदि अन्य गीत, जो संपूर्ण उत्तरी भारत में प्रचलित हैं, मैंने इसमें सम्मिलित करने से अपने को रोका है।

ग्रियर्सन ने तुलसीदास का वैज्ञानिक अध्ययन किया। तुलसी की उदार दृष्टि से वे सम्मोहित थे। वे लिखते हैं कि तुलसी ने चिर सौरभ की माला गूँथी और जिस देवता की भक्ति वे करते थे, उसके चरणों पर उसे दीनता पूर्वक चढ़ा दी। ‘द मॉडर्न वर्नेक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ में तुलसी के बारे में उनका कथन है- “As a father and mother delight to hear the lisping practice of their little one.”7 तुलसीदास के बारे में ग्रियर्सन की स्पष्ट मान्यता है कि ''भारत के इतिहास में तुलसीदास का महत्व जितना भी अधिक आँका जाता है वह अत्यधिक नहीं है। इनके ग्रंथ के साहित्यिक महत्व को यदि ध्यान में न रखा जाए, तो भी भागलपुर से पंजाब और हिमालय से नर्मदा तक के विस्तृत क्षेत्र में, इस ग्रंथ का सभी वर्ग के लोगों में समान रूप से समादर पाना निश्चय ही ध्यान देने के योग्य है। ...पिछले तीन सौ वर्षों में हिंदू समाज के जीवन, आचरण और कथन में यह घुल-मिल गया है और अपने काव्यगत सौंदर्य के कारण वह न केवल उनका प्रिय एवं प्रशंसित ग्रंथ है, बल्कि उनके द्वारा पूजित भी है और उनका धर्म ग्रंथ हो गया है। यह दस करोड़ जनता का धर्मग्रंथ है और उनके द्वारा यह उतना ही भगवत्प्रेरित माना जाता है, अँग्रेज पादरियों द्वारा जितना भगवत्प्रेरित बाइबिल मानी जाती है।''8 

भारतीय जनजीवन और साहित्य में तुलसी के प्रभाव को ग्रियर्सन ने अच्छी तरह से समझ लिया था। उन्होंने लिखा- “ वेद और उपनिषद पंडितों के बीच चर्चा के विषय हो सकते हैं, पुराणों में कुछ लोगों की निष्ठा हो सकती है, परन्तु तुलसीकृत  रामायण भारत वर्ष की अपार जनता के शिक्षित एवं अशिक्षित वर्गों के आचार का मूलाधार है।"9 उक्त कथन में रामचरित मानस की महत्ता के साथ तत्कालीन जन-भावना की उक्त रचना के प्रति श्रद्धाभाव प्रकट होता है। इससे रामचरित मानस का औदात्य स्वतः स्पष्ट हो जाता है। ग्रियर्सन की दृष्टि में तुलसी की लोकप्रियता का बड़ा कारण शैवमत और उससे जनित अश्लीलता का खंडन था। और दूसरा कारण है- तुलसी की विनम्रता। तुलसी की विनम्रता में अटल दृढ़ता भी है, जो रत्नावली के प्रतिबोध और उसके बाद के निर्णय से प्रकट हो जाता है।

ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक में तुलसीदास और रत्नावली के संवाद का उल्लेख करते हुए दोनों के चरित्र को भी उजागर किया। तुलसी की दृढ़ता और रत्नावली की सहज चतुराई का टिप्पणी सहित उल्लेख किया-"कई वर्षों बाद तुलसीदास चित्रकूट से लौटते हुए अपने ससुराल पहुँचे। स्मार्त वैष्णव के अनुसार तुलसीदास अपना भोजन स्वयं बनाते थे। उन्हें पत्नी तुरंत नहीं पहचानी। एक-दो बार उनका कंठ-स्वर फूटा, गोस्वामीजी पहचान में आ गए। “मिर्च लाऊँ, अचार लाऊँ, कपूर लाऊँ, सबका एक ही उत्तर” मेरे थैले में थोड़ी सी है।”10 ग्रियर्सन ने लिखा है  कि रत्नावली रातभर यही सोचती रही कि क्या किया जाए कि पति और परमेश्वर दोनों मिल जाएँ। प्रातःकाल कई बार के अनुनय-विनय के बाद रत्नावली बोली-

खरिया खरी कपूर लो, उचित न प्रिय तिय त्याग।
कै खरिया मोहि मेलि कै अचल करौ अनुराग।।11

यहाँ रत्नावली ने चतुराई से अपने मंतव्य को तुलसी के पास पहुँचाते हुए कहा कि है प्रिय, यदि तुम्हारे थैले में खड़िया से लेकर कपूर तक सभी वस्तुएँ हो सकती हैं तो अपनी पत्नी का त्याग उचित नहीं है। मुझे भी अपने थैले में रख लें या परित्याग कर के सर्वशक्तिमान प्रभु में अपने को निःशेष भाव से समर्पित कर दे। फिर भी तुलसी नहीं माने। यह संवाद भावपूर्ण तो है लेकिन चरित्र का उद्घाटन भी करता है। जिसे ग्रियर्सन की सूक्ष्म अन्वेषण दृष्टि ने पहचानते हुए वर्णित किया।

ग्रियर्सन ने तुलसी की भाषा पर भी विचार किया। बिहारी और देव की भाषा से इसे भिन्न बताया। ‘कवितावली’ पर विचार करते समय उन्होंने इसमें काव्य-सौन्दर्य के चमत्कार के साथ नाद-सौन्दर्य को तुलसीकृत काव्य का ऐश्वर्य माना। तुलसी की भक्ति पर विचार करते हुए ग्रियर्सन ने उनकी विनयशीलता को रेखांकित किया। आचार्य शुक्ल ने भी आगे चलकर तुलसीदास की भक्ति को लोक धर्मरक्षक बताया। ग्रियर्सन के शब्दों में- “उन्होंने अत्यन्त सरल एवं उदात्त धर्म तथा ईश्वर में अखंड विश्वास का उपदेश दिया। अनैतिकता के उस युग में, जब मुगल साम्राज्य संगठित और परिपुष्ठ हो रहा था, उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म की सर्वाधिक विशिष्टता थी उसकी कठोर नैतिकता, जिसे उसकी पूरी अर्थ-व्यंजकता के साथ ग्रहण किया गया था।"12 आचार्य शुक्ल पर इस ग्रियर्सन के इस विचार का गहरा प्रभाव पड़ा था।

ग्रियर्सन ठेठ हिन्दुस्तानी को साहित्यिक उर्दू तथा हिन्दी की जननी मानते थे। इतिहास को लिखते समय शिवसिंह सरोज को आधार माना, जिसका उल्लेख आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी किया है। इसके अतिरिक्त आचार्य शुक्ल के अनुसार - “मैथिल कोकिल विद्यापति की ‘कीर्तिलता’ और कीर्तिपताका’ नामक दो ग्रंथों का परिचय साहित्य जगत् को करवाने वाले ग्रियर्सन ही थे।”13

इस प्रकार ग्रियर्सन ने जिस तटस्थता व प्रामाणिक स्रोतों के आधार पर हिन्दी भाषा तथा साहित्य का अवगाहन किया, वह अतुल्य है। लगभग तीस वर्षों की अनवरत साधना से हिन्दी भाषा का स्वरूप निर्धारित किया और उसके साहित्य को भारतीय आस्था की दृष्टि से देखा। यहाँ तक कि लोक-संस्कृति में डूबकर उसे भी गौरवान्वित किया। हिन्दी साहित्य का इतिहास और भाषा-सर्वेक्षण ने ‘नींव के पत्थर’ की तरह कार्य किया, जिस पर आज हिन्दी का महल खड़ा है। डॉ. नगेन्द्र के मतानुसार- “वस्तुतः उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण में, जबकि हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में आलोचना एवं अनुसंधान की परम्पराओं का श्रीगणेश भी सूक्ष्म एवं प्रामाणिक ऐतिहासिक व्याख्या प्रस्तुत कर देना, ग्रियर्सन की अद्भुत प्रतिभा-शक्ति एवं गहन अध्ययनशीलता को प्रमाणित करता है; यह दूसरी बात है कि उनका ग्रंथ अंगरेजी में रचित होने के कारण हिन्दी के अध्येताओं की दृष्टि का केन्द्र नहीं बन सका, जिससे परवर्ती युग के अनेक इतिहासकार, जो उनकी धारणाओं और स्थापनाओं को पल्लवित करके हिन्दी माध्यम से प्रस्तुत कर सके और उस यश के भागी बने, जो वस्तुतः ग्रियर्सन का दाय था।”14

संदर्भ ग्रंथ सूची-
1. द मॉडर्न व वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान (अनुवाद-किशोरी लाल गुप्त), हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 1957, भूमिका
2. पूर्ववत्, पृ.41
3. ग्रियर्सनः भाषा और साहित्य चिन्तन, अरुण कुमार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018 पृ.77
4. पूर्ववत्, पृ.83
5 Linguistic survey of India Vol-1, G.A. Grierson, Govt. press, Kolkata, reprint Motilal Banarsidas, patna, 1966, Preface.
6 पूर्ववत्, Preface.
7. Notes on Tulsi Das, Grierson, उद्धृत, तुलसीदास: रचना एवं सन्दर्भ, सं. भगवती प्रसाद सिंह, राजकमल प्रकाशन, 1975, पृ.1    
8. ग्रियर्सनः भाषा और साहित्य चिन्तन, अरुण कुमार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018 पृ.75
9. पूर्ववत, पृ.76
10. पूर्ववत, पृ.76
11. पूर्ववत, पृ.72
12. पूर्ववत, पृ.73
13. द मॉडर्न व वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान (अनुवाद-किशोरी लाल गुप्त), हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 1957, पृ.15 
14. हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, 2009, पृ.27
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