“ रमेश उपाध्याय की कहानियों का सामाजिक यथार्थ ”

यह सामग्री पहली बार 'अपनी माटी डॉट कॉम' पर प्रकाशित हुयी है वहीं से साभार यहाँ भी।

हालांकि इधर रमेश उपाध्याय जैसे सजग हस्ताक्षर के लेखन में 'त्रासदी...माई फुट!', 'प्राइवेट पब्लिक', 'ग्लोबल गाँव के अकेले' और 'हम किस देश के वासी हैं' जैसी और भी कहानियां भी बाद में आयी है है मगर उनके आने से पहले तक के सफ़र पर एक नज़र में डॉ राजेन्द्र सिंघवी ने एक आलेख हमारे पाठकों के हित लिखा है फिलहाल तो उसी का स्वागत है -सम्पादक ,'अपनी माटी डॉट कॉम' 

“ रमेश उपाध्याय की कहानियों का सामाजिक यथार्थ ”
डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी


रमेश उपाध्याय(वरिष्ठ साहित्यकार)


(एक दशक तक पत्रकार रहने के बाद तीन दशकों तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन तथा साहित्य और संस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका ‘कथन’ के साथ-साथ ‘आज के सवाल’ नामक पुस्तक शृंखला का संपादन। संप्रति स्वतंत्र लेखन, विविध विषयों का अध्ययन-मनन और साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन। चौदह कहानी संग्रह, पाँच उपन्यास, तीन नाटक, कई नुक्कड़ नाटक, चार आलोचनात्मक पुस्तकेंऔर अंग्रेजी तथा गुजराती से अनूदित कई पुस्तकें प्रकाशित)



साहित्य संसार के प्रति मानसिक प्रक्रिया अर्थात् विचारों व भावों की अभिव्यक्ति है । यह ‘हित का साधन’ भी करता है, अतः संरक्षणीय भी है । इसे समाज का उत्पादन भी कहा जाता है, जिससे विशाल मानव जाति की आत्मा का स्पन्दन ध्वनित होता है । साहित्य जीवन की व्याख्या भी करता है, इसी कारण उसमें जीवन देने की शक्ति भी आती है । इस प्रकार साहित्य व समाज का अन्योन्याश्रयत्व चिरकाल से रहा है । 

डॉ. रमेश उपाध्याय की कहानियों में सामाजिक यथार्थ की बिम्बमय अभिव्यक्ति हुई है । सामाजिक न्याय की अवधारणा को साहित्य में उठाया और कहा- “हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि भारतीय समाज से कुछ चीज़ें एकदम गायब हैं । उसमें से एक चीज है-बराबरी । ....... अगर हम लम्बी अवधि तक बराबरी को नकारते रहेंगे, तो एक दिन हमारा जनतंत्र खतरे में पड़ सकता  है ।”

(पहल-51, सं. ज्ञानरंजन, पृ.253)

हिन्दी के दलित लेखन में तो यह अक्सर कहा जाता है कि जाति एक वास्तविकता है और उसे स्वीकार करना ही होगा, लेकिन इस बात पर विचार नहीं किया जाता कि यदि जाति-व्यवस्था सामाजिक अन्याय की जड़ है, तो वह समाप्त कैसे होगी? इसीलिए रमेश उपाध्याय कहते हैं- “जो साहित्य सामाजिक अन्याय का विरोधी है, उसे उस भविष्य की चिंता करनी ही चाहिए ।”

(शेष इतिहास, पृ.4)

रमेश उपाध्याय जानते हैं कि नवधनिकों की उपभोक्तावादी अपसंस्कृति का परिणाम यह हुआ है कि सामाजिक विरूपता और आगे बढ़ रही है । शादी का एक दृश्य- “कारों का काफिला होते हुए भी दूल्हा घोड़ी पर चढ़ेगा । नशे में धुत्त लोग घोड़ी के सामने ‘नाच’ नामक उछलकूद करेंगें, जिसमें नृत्य की न कोई लय-ताल होगी न सार्थक भाव मुद्रा । ......... धक्का-मुक्की करते हुए लोग खाने पर इस तरह टूट पडें़गे, जैसे खाना कभी देखा नहीं ।”

(शेष इतिहास, पृ.24)

साहित्य से मनुष्य की भावनाएँ कोमल बनती हैं । उसके भीतर मानवीय गुणों का विकास होता है, शिष्टता और सभ्यता आती है । इससे समाज का विकास होता है । समय के साथ इसमें उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है, जिसके मूल में है- उदारवादी अर्थनीति व भूमण्डलीकरण का दौर । इसका दुष्प्रभाव यह हुआ है कि हम दिन-प्रतिदिन रिश्तों को खोते जा रहे हैं । हमारे पास डिग्रियाँ, पैसा, ऐश्वर्य सब-कुछ हैं, लेकिन रिश्ते टूट रहे हैं । हमारे समाज का आम आदमी पहले तो अपने बच्चों की परवरिश के लिए रिश्तों से दूर भागता है, परन्तु जब बच्चे बड़े होकर उन्हें छोड़ जाते हैं, तब रिश्ते याद आते हैं । बुजुर्गों से भरी कॉलोनियाँ किलकारियों की उम्मीद में तरसती रह जाती  हैं । रमेश उपाध्याय की कहानी ‘शेष इतिहास’ का यह अंश द्रष्टव्य है- “एक गरीब किसान बाप जो दूसरों के खेतों पर मजूरी करता है । एक नंगा भूखा परिवार जो सहुआ से एक बार कर्ज लेकर ब्याज चुकाते-चुकाते ही मर खप जाता है, उसका बेटा जो थोड़ा-सा पढ़ लिख गया है, शहर चला आता है ।” 

परम्परा समाज को जोड़ती है और परम्परा में जब अपसंस्कृति का मिश्रण होता है तो आडम्बर स्थान लेते हैं । आडम्बर रूढ़ि का रूप ग्रहण कर समाज को जर्जर बना देते हैं, अतः समयानुकूल परिवर्तन के लिए तैयार रहना चाहिए । डॉ. उपाध्याय की कहानी ‘शंख ध्वनि की कथा’ बताती है कि कोरे उपदेश से क्रांति संभव नहीं है । ‘राष्ट्रीय राजमार्ग’ कहानी में बताया गया कि दलित के लिए आरक्षण की सुविधा के बावजूद गरीब होने के कारण उसके लिए नौकरी प्राप्त करना दुर्लभ है और आरक्षण का लाभ भी अमीर ही उठा ले जाते हैं ।” यहाँ तक कि संस्कृति का आधार भी अर्थतंत्र हो गया है । ‘अर्थतंत्र’ कहानी में राघवन कहता है- “हमारे सामाजिक संबंध ही नहीं, सूक्ष्म और कोमल भावनाएँ भी बदल गई है । प्रेम, करूणा, सहानुभूति, सेवा और पूजा, प्रार्थना तक में अर्थतंत्र घुस गया है ।

आधुनिक युवा संक्रांतिकालीन वेला से गुजर रहा है । माता-पिता की असीम इच्छाएँ उसे कई बार विचलित कर देती हैं दूसरी ओर वह पारिवारिक सामंजस्य भी नहीं बिठा पा रहा है । रमेश उपाध्याय का मत है कि युवा पीढ़ी को अपने विचारों का गुलाम न बनाएँ । वह आपसे उतना ही स्नेह करता है, जितना आप उससे । ‘अर्थतंत्र’ कहानी में सतीश का कथन- “मैं अपना हिस्सा तो चाहता था, लेकिन परिवार से अपना संबंध समाप्त करके नहीं । अभी मैं दूर मद्रास में रहता हूँ, लेकिन यह अहसास बना रहता है कि दिल्ली में मेरा घर है ।” 

समाज का महत्त्वपूर्ण घटक ‘व्यक्ति’ वर्तमान समय में किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में है । तेल बिन्दु की भाँति समस्त जल पर छाना चाहता है । एकांगी दृष्टि के कारण वह एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा है । परिणाम स्वरूप वह स्वयं सहज नहीं, समाज सहज नहीं और जीवन में समरसता की जगह बिखराव आ रहा है । डॉ. रमेश उपाध्याय की दृष्टि में इसका समाधान साहित्य में ही है । वे लिखते हैं- “यह सच है कि सिर्फ साहित्य से दुनिया को नहीं बदला जा सकता, लेकिन मानवता के भविष्य से संबंधित नये प्रश्नों को उठाना, उनसे टकराना और उनके उत्तर खोजना उस सृजनशील कल्पना के बिना संभव नहीं है, जो साहित्य में है।”

(सम्पादकीय, कथन- जुलाई-सितम्बर,2007)

समाज की बुनियादी इकाई परिवार है। डॉ. रमेश उपाध्याय कहते हैं- “परिवार साहित्य का सबसे बड़ा सरोकार है । ......... परिवार को अच्छे ढंग से चलाने के लिए आवश्यक है कि  काम कर सकने लायक लोगों को काम मिले, बच्चों को स्वस्थ, सुपोषित, सुशिक्षित और सुसंस्कृत बनाने के साधन मिलें और वृद्धों को मानवीय गरिमा के साथ जीने के साधन उपलब्ध हों ।
   
(डॉक्यूड्रामा और अन्य कहानियाँ, पृ.47)

परिवार के केन्द्र में नारी की भूमिका को विस्मृत नहीं किया जा सकता । उसे ममता, समता व क्षमता की त्रिवेणी माना गया है । ममता से वह नई पीढ़ी का निर्माण करती है, समता से परिवार का संचालन करती है और क्षमता से विपरीत परिस्थितियों में घर की रक्षक बन जाती है । वर्तमान में उसका शोषण किसी से छिपा नहीं है । 'दर्म्यानासिंह'  कहानी में मीनाक्षी कहती है- “दरअसल इस समाज-व्यवस्था में हम स्त्रियों की बड़ी भीषण समस्या है । पूँजीवाद और सामंतवाद दोनों मिलकर हमें ऐसा पीसते हैं कि मित्रता, प्रेम, परिवार हर चीज़ में हमारा शोषण, दमन और अपमान होता है । 

रमेश उपाध्याय सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत कर चुप नहीं हो जाते, बल्कि समाधान की दिशा में काम करते हैं । वे कहते हैं- “यथार्थवाद के प्रथम दौर (प्रगतिशील साहित्यिक आन्दोलन) में हिन्दी कहानी समाज की एक तस्वीर पेश करती थी और पाठक को इस नतीजे पर पहुँचाती थी कि यह समाज अच्छा नहीं है, इसलिए इसे बदला जाना चाहिए । यथार्थवाद का दूसरा दौर (जनवादी साहित्यिक आन्दोलन) में कहानी समाज की ऐसी तस्वीर तो दिखाती ही है, साथ ही समाज के मूल ढाँचे को भी उघाड़कर सामने लाने की कोशिश करती है ताकि वह अपने पाठकों को यह सोचने के लिए प्रेरित कर सके कि समाज को किस तरह बदला जा सकता है।

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