हल्दीघाटी:राष्ट्रीय गौरव का आख्यान

हल्दीघाटी ; राष्ट्रीय गौरव का आख्यान
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साहित्य परिक्रमा अक्टूबर-दिसंबर, 2022 अंक में प्रकाशित

                           
 मेवाड़ धरा के गौरव, राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक एवं मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले शूरवीर महाराणा प्रताप का व्यक्तित्व सदैव प्रेरणास्पद रहा है। श्याम नारायण पांडेय रचित खंडकाव्य ‘हल्दीघाटी’ प्रताप के जीवन-चरित्र को अमरत्व प्रदान करने वाली कृति है। हल्दीघाटी नामकरण राजस्थान की वीरभूमि के उस स्थल का नाम है, जहाँ राणा प्रताप और अकबर के मध्य भीषण संग्राम हुआ, परन्तु अकबर की मेवाड़ विजय की कामना अधूरी रही। इस कृति पर पांडेय जी को प्रतिष्ठित ‘देब’ पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। अठारह सर्गों में रचित यह रचना वीर रस की ख्यातनाम रचना है। श्याम नारायण पांडेय ने अपनी ओजस्वी प्रस्तुति से इस कृति को जनव्यापी बना दिया।

                           रचना का आरंभ प्रताप और शक्तिसिंह के मध्य आखेट के कारण बाल सुलभ विवाद का चित्रण है, जिसकी परिणति राजपुरोहित की मृत्यु के रूप में होती है। तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य के साथ अकबर की साम्राज्यवादी लालसा और मेवाड़ विजय का स्वप्न कथा की पृष्ठभूमि है। उसी क्रम में मानसिंह का मेवाड़ आगमन, अतिथि के समान आदर परन्तु प्रताप के आत्म स्वाभिमान समक्ष मानसिंह को खाली हाथ लौटना पड़ा, यह प्रतिशोध आगामी घटनाओं का सूचक है। प्रताप द्वारा भीलों की सहायता से सैन्य-गठन और चंद सैनिकों के उत्साह के समक्ष मुगल सेना में प्रताप के नाम से भयानक खौफ़ का चित्रण रोमांच पैदा करता है। हल्दीघाटी में भयानक रण, प्रताप का अप्रतिम शौर्य और चेतक का अद्भुत कौशल युद्ध का दृश्य उपस्थित कर देता है। खंडकाव्य में भामाशाह की दानवीरता, मेवाड़ की शान आदि का भी चित्रण हुआ है। संपूर्ण रचना वस्तुवर्णन, प्रकृति चित्रण, मानवीय वृत्तियों का रेखांकन और वीर रस के परिपाक की दृष्टि से महाकाव्यात्मक गरिमा से ओतप्रोत है, साथ ही ओजगुण युक्त रसात्मक शब्दावली से बिम्ब-विधान का सम्यक चित्रण अद्वितीय है। 
                          ‘हल्दीघाटी’ के नायक राणाप्रताप हैं और प्रतिनायक हैं- अकबर । प्रताप राजपूताना की छोटी-सी रियासत के राणा हैं, जबकि अकबर मुगल साम्राज्य का सम्राट। उसने संपूर्ण भारत पर एकाधिकार कर लिया, परन्तु प्रताप को झुकाने में विफल रहा। यह दंश उसे रह-रहकर सालता रहता। रत्नजटित महलों में अकबर की मनःदशा का चित्रण कवि ने इस प्रकार किया-


स्वर्णिम घर में शीत प्रकाश, जलते थे मणियों के दीप।
धोते आँसू-जल से चरण, देश-देश के सकल महीप ।
तो  भी कहता  था सुल्तान, पूरा  कब होगा अरमान ।
कब  मेवाड़ मिलेगा  आन, राणा  का होना अपमान ।।


                  दूसरी तरफ राणा प्रताप तनिक भी विचलित नहीं और अकबर से किसी प्रकार का भय नहीं। अरावली की उपत्यकाओं में अपना दरबार सजाए हुए हैं । उन्हें पता है कि मानसिंह की अवज्ञा से अब रण अनिवार्य है, परन्तु मातृभूमि की अस्मिता अक्षुण्ण रहे, उसकी रक्षा का प्रण अटल है। अपनी छोटी सी सेना, भील सरदारों के प्रण और स्वाभिमानी गौरव के साथ भावी रण की तैयारियाँ वीरोचित गरिमा के साथ प्रस्तुत हुआ है-

शुचि  सजी शिला  पर राणा भी, बैठा  अहि-सा फुंकार लिए।
फर-फर  झंडा  था  फहर  रहा,  भावी  रण का  हुंकार लिए।
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तरकस  में  कस कस तीर भरे, कंधों  पर कठिन कमान लिए।
सरदार  भील भी  बैठ गए, झुक-झुक रण  के अरमान  लिए।


                प्रताप की प्रतिज्ञा कि उनके जीवित रहते हुए मेवाड़ कभी भी पराधीन नहीं होगा। इसके लिए विशाल मुगल सेना से भिड़ने का अदम्य साहस अकल्पनीय है। राणा का महान् चरित्र तत्कालीन वातावरण में उनके अटल प्रण के साथ प्रकट होकर अथाह ऊर्जा का संचार करता है। माँ भवानी का आशीष लेकर जब हल्दीघाटी के मैदान में भीषण रण हुआ, तब मानसिंह के पैर उखड़ गए। राणा की सेना के अदम्य उत्साह से भीषण प्रहार हुआ, मुगल सेना में हाहाकार मच गया। युद्ध की भीषणता का अनुमान कवि की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- 

हयरुण्ड गिरे, गजमुण्ड गिरे, कट-कट अवनि पर शुण्ड गिरे।
लड़ते-लड़ते  अरिझुण्ड गिरे, भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे।
क्षण महाप्रलय की बिजली-सी, तलवार हाथ की तड़प-तड़प।
हय-गज-रथ, पैदल भगा-भगा, लेती थी बैरी वीर हड़प।।


             हल्दीघाटी का युद्ध यदि राणा प्रताप के तेज को कालजयी बनाता है तो स्वामिभक्त चेतक के अद्भुत रण-कौशल को भी अमर कर देता है। चेतक का शौर्य कवि की दृष्टि में विस्मयकारी था। रण-क्षेत्र में स्वामी के आदेश पर चौकड़िया भरकर अरि मस्तक को रौंद रहा था। हवा से बातें करने वाला चेतक दुश्मनों पर कहर बनकर टूट रहा था, कवि ने चेतक के कौशल को इन शब्दों में प्रकट किया है-

रणबीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से, हवा का पड़ गया पाला था।
गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था।


                इस खंडकाव्य में राजपूती आन-बान का और मेवाडी मान का शानदार चित्रण हुआ है। अकबर का संदेश लेकर अब मानसिंह आया, तब प्रताप को पता था कि वह छली है, उसके संदेश में केवल मिथ्याभिमान है, परन्तु आज वह अतिथि है। अतिथि का स्वागत मेवाड़ की सनातन परम्परा से ही होना चाहिए। वे अमरसिंह से कहते हैं, कि मानसिंह का मेवाड़ की धरती पर यथोचित गरिमा से सम्मान करो। अमरसिंह ने भी वैसी ही तैयारियाँ की। भोजन की थाली और उसमें सज्जित व्यंजन का रसात्मक वर्णन अवलोकनीय है-

घी से सनी सजी रोटी थी, रत्नों के बरतन में।
शाक खीर नमकीन मधुर, चटनी चमचम कंचन में।
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तरह-तरह के खाद्य-कलित, चांदी के नये कटोरे।
भरे खराये घी से देखे, नीलम के नव खोरे।

                   
                   वीर रसात्मक इस खंडकाव्य में प्रकृति का मनोरम चित्रण भी हुआ है। वन में राणा-प्रताप जब युद्ध की तैयारियों में व्यस्त थे, तब उसी अनुरूप कवि ने वन की निर्जनता, पेड़ों की सघनता, पेड़ों के झुरमुट में सूर्य की रश्मि-रेखा और उसके साथ दृश्य-विधान का मनोहारी अंकन द्रष्टव्य है-

तरु-वेलि-लता-मय, पर्वत पर निर्जन वन था।
निशि बसती थी झुरमुट में, वह इतना घोर सघन था।
पत्तों से छन-छनकर भी, आती दिनकर की लेखा।
वह भूतल पर बनती थी, पतली-सी स्वर्णिम रेखा।


                 प्रस्तुत कृति में शक्तिसिंह का पश्चात्ताप और प्रताप के प्रति भ्रातृत्व का उमड़ता प्यार कारुणिक दृश्य उपस्थित करता है। शक्तिसिंह की आँखों में जब असीम अश्रुधारा बहने लगती है, तब प्रताप का हृदय द्रवित होकर ममत्व से भर जाता है। वे विगत घटनाक्रम को भूल भाई को गले लगा लेते हैं, ऐसे क्षण प्रकृति भी मुग्ध होती है और पेड़ फूल बरसाने लगते हैं। कवि की पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-

उसे उठाकर लेकर गोद, गले लगाया सजल-समोद।
मिलता था जो रज में प्रेम, किया उसे सुरभित सामोद।।
लेकर वन्य-कुसुम की धूल, बही हवा मंधर अनुकूल।
दोनों के सिर पर अविराम, पेड़ों ने बरसाये फूल।।


                हल्दीघाटी की वर्णन-वैभव चामत्कारिक है। श्रोता अथवा पाठक प्रत्येक पंक्ति पर रोमांचित होता है। उसे साक्षात् मेवाड़ी धरा के गौरव का आभास होता है। वस्तु, प्रकृति, चरित्र, युद्ध, शौर्य आदि का वर्णन बिम्बात्मक है। यह बिम्बविधान दृश्यात्मक एवं रसात्मक है। वीर, रौद्र, भयानक एवं करुण रस की व्यंजना प्रसाद गुण में कर कवि ने इसे जन-जन का कंठहार बना दिया। पात्र एवं घटना के अनुकूल शब्द-चयन, शब्दों में आंतरिक गुंजन और उसके साथ आनुप्रासिक तारतम्य अद्भुत है। कवि का भावात्मक लगाव हृदय के मस्तक पर चढ़कर प्रकट हुआ है। अतः यह रचना हमारी आन-बान-शान की प्रतीक बनकर रगों में दौड रही है। कवि अपनी श्रद्धा इस धरती के प्रति प्रकट करता है-

यह एकलिंग का आसन है।
इस पर न किसी का शासन है।
नित सिहक रहा कमलासन है।
यह सिंहासन, सिंहासन है।।

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