रेणु की कहानियों में लोकतत्त्व

रेणु की कहानियों में लोकतत्त्व

राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित मधुमती, मार्च,2021 अंक में..।



लोक और रेणु एक-दूसरे के पर्याय के रूप में हिन्दी साहित्य में समादृत हैं। नई कहानी के दौर में भी फणीश्वर नाथ रेणु ने लोक जीवन की विशिष्ट, जीवन्त और ग्राम्य-जीवन की सांस्कृतिक पहचान को जिस गहराई से उकेरा, वह अन्यतम है। हिन्दी साहित्य कोश में लोक को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है- लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पाण्डित्य की चेतना, पाण्डित्य के अहंकार से शून्य है और जो परम्परा के एक प्रवाह में जीवित रहता है।1 वस्तुतः लोक तत्त्व की अर्थ-सीमा काफी विस्तृत है। इसके अन्तर्गत उन समस्त आचारों, विचारों, परम्पराओं, संस्कारों, रूढ़िगत बंधनों का समावेश हो जाता है, जिनका स्रोत लोकमानस है। जिनके परिमार्जन में संस्कृति की चेतना उपेक्षित नहीं होती। इसीलिए सांस्कृतिक चेतना के ज्ञान के लिए लोक जीवन को समझना आवश्यक रहता है।

               फणीश्वर नाथ रेणु के कहानी संग्रह- ठुमरी (1959), आदिम रात्रि की महक (1967), अग्निखोर (1973), एक श्रावणी दोपहर की धूप (1984), अच्छे आदमी (1986) प्रकाशित हैं। इनमें सर्वत्र लोक तत्त्व की व्याप्ति दृष्टिगोचर होती है।इन कहानियों में लोक के चित्रण में अगाध मानवीयता, गहन रागात्मकता और अपूर्व रसमयता  से सम्मोहित करने की क्षमता है, जहाँ आनंद-उल्लास के साथ पीड़ा और अवसाद भी कलात्मक लय-ताल के साथ उपस्थित हैं। बिहार का पूर्णिया जिला रेणु के रग-रग में है। वहाँ के पशु, पक्षी, वृक्ष, पर्व, त्योहार, व्रत, संस्कार, गीत, कथा और इन सबके बीच अभाव से जूझते अज्ञान, अंध-विश्वास और रूढ़ियों से बंधे लोग सजीव रूप में उभरे हैं।

               रेणुजी की अगाध आस्था अपने अंचल की सौंधी गंध से रही। उन्होंने उन वृत्तियों को गहराई से देखा, जहाँ परम्पराएँ, विश्वास, प्रथाएँ, रीति-रिवाज, त्योहार, पूजा, अनुष्ठान, व्रत, जादू-टोना आदि वहाँ के लोकमानस में संघटित हैं। इसीलिए उस चित्रण में बिम्बमय दृश्य जगत उपस्थित हो जाता है, जो प्रेमचंद के बाद किसी कथाकार में दिखाई नहीं देती। रेणु ही ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने आँचलिक चित्रण को कथा-साहित्य में पृथक रचना-वितान के रूप में स्थापित किया। उनकी कहानियों की संरचना, प्रकृति, स्वभाव एवं शिल्प की गंध हिन्दी-परम्परा में कुछ अलग ही स्वाद देती है। रेणुजी के व्यक्तित्व और कृतित्व का गहराई से मूल्यांकन करते हुए भारत यायावर लिखते हैं- रेणु हिन्दी के उन कथाकारों में हैं, जिन्होंने आधुनिकतावादी फैशन की परवाह न करते हुए कथा-साहित्य को एक लम्बे अर्से के बाद प्रेमचंद की उस परम्परा से फिर जोड़ा जो बीच में मध्यवर्गीय नागरिक जीवन की केंद्रीयता के कारण भारत की आत्मा से कट गई थी।2

               रेणु मनुष्य के राग-विराग, प्रेम-विरह, दुःख-करुणा, उल्लास-अवसाद, हर्ष-पीड़ा को साथ लेकर चलते हैं, इससे लौकिक यथार्थ जीवन्त हो जाता है। डॉ. सुवास कुमार का कथन है- रेणु की छाती में हर वक्त गाँव धड़कता था और उसकी धड़कन को उन्होंने अपनी रचनाओं में कागजों पर उतार दिया है।3 इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि हिन्दी कहानी को सबसे अधिक विश्वसनीय पात्र रेणुजी ने ही दिए हैं। ये पात्र भारत के सुदूर ग्राम्य-जीवन के प्रतिनिधि हैं, जिनकी अपनी दुनियाँ है, अपना परिवेश है और उसमें भी पूर्ण रागात्मकता महकती दिखाई देती है। रेणुजी की लेखनी में लोकतत्त्व शब्द, चित्र और चेतना की एकात्म मनोभूमि पर प्रकट होकर बाँध लेता है।

               लोक जीवन में पारस्परिक आत्मीयता महत्त्वपूर्ण कारक है। हर्ष और विषाद के क्षणों में वह मनुष्य की संवेदना को जीवंत रखती है। ग्राम्य जीवन में प्रतिदिन के असूया भाव भी क्षणिक ही होते हैं। लालपान की बेगमकहानी में बिरजू की माँ अपनी बैलगाड़ी में जंगी की पतोहू, लरैन की बीवी को जगह देती है, वह आत्मीय दृष्टि लोक-जीवन की धरोहर है। बिरजू की माँ का यह कथन- अरी टीशनवाली, तो रोती है काहे।” ..... “आज जा झट से कपड़ा पहनकर। सारी गाड़ी पड़ी हुई है। बेचारी .... आ जा जल्दी।4 इसी मर्म को प्रकट करता है।

               उत्तर औपनिवेशिक समाज में धीरे-धीरे यह आत्मीय तत्त्व अलग राह पकड़ रहा है। इस दर्द से रेणु परिचित हैं। रसप्रियाकहानी में मिरदंगिया के माध्यम से बखूबी प्रकट किया है। नाच-गान को आधुनिक समाज में अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता, जो कि लोक संस्कृति का प्रमुख हिस्सा है। इसका रेखांकन इस कहानी में रेणु ने रेखांकित किया- किसन कन्हैया भी नाचते थे। नाच तो एक गुण है। ... अरे, जाचक कहो या दस दुआरी। चोरी, डकैती और आवारागर्दी से अच्छा है। अपना-अपना गुनदिखाकर लोगों को रिझाकर गुजारा करना।5

               लोकजीवन के नायक धीरोदात्त या धीर ललित नहीं हो सकते। उनके गुण-अवगुण यथार्थ के धरातल पर ही रहेंगे, जहाँ निश्छलता, स्वाभिमान आदि भाव जन्म से ही कूट-कूट कर भरे हैं। तीसरी कसम का नायक हिरामन चालीस साल का देहाती युवक है, काला-कलूटा है, बचपन में गौने से पहले ही उसकी दुल्हिन मर गई। अब दूसरी शादी में भाभी का लिहाज, ग्रामीण जीवन की मर्यादा महत्त्वपूर्ण है, जहाँ वह अपने प्रेम को फलित नहीं कर पाता। तीसरी कसम  उर्फ मारे गए गुलफामका यह दृश्य अंचल की कारुणिक रेखा खींचता है- उसने उलटकर देखा, बोरे भी नहीं, बाँस भी नहीं, बाघ भी नहीं- परी ... देवी ... मीता .... हीरादेवी .... महुवा घटवारिन- को-ई नहीं। मरे हुए मुहूर्तों की गूंगी आवाजें मुखर होना चाहती हैं। हिरामन के होठ हिल रहे हैं। शायद वह तीसरी कसम खा रहा है- कंपनी की औरत की लदनी...।6

               जनश्रुतियाँ, गीत, मुहावरे आदि लोक के अविभाज्य अंग हैं। रेणु ने इससे आगे राग-विराग का इस्तेमाल कथा के बुनने में किया है। हीरा बाई के साथ हिरामन का रागात्मक भाव आँचलिक गीत में प्रकट हो जाता है-

सजनवा बैरी हो गय हमारो! सजनवा .....!

अरे, चिठिया हो तो सब कोई बाँचे; चिठिया हो तो

हाय! करमवा, हो करमवा ...........7

 

               लोक के वातावरण को रेणु ने बड़ी अंतरंगता से उकेरा है। सुरेन्द्र चौधरी का मत है- अन्य लेखकों की तुलना में रेणु का वातावरण अपेक्षाकृत अधिक संवेद्य, सहज और स्पर्शयुक्त है। प्रतीक, स्थितियों और अन्यपदेश के प्रयोग के बिना भी उनकी कहानियों के वातावरण को पहचाना जा सकता है। अपने वातावरण को कथा के रूपकके लिए प्रयोग में लाने के उदाहरण इन कहानियों में कम ही मिलेंगे।8 स्पष्टतया रेणु की कहानियों का वातावरण लोक संपृक्त होने से रहस्यहीन और प्रत्यक्ष है। जिस वातावरण को रेणु प्रस्तुत करते हैं वह हमारे आसपास का प्रतीत होता है, इसीलिए सदैव अलग-सी ताजगी के साथ स्मृतियों को हरा कर देता है।

ग्रामीण समाज में लोक परम्पराएँ अत्यधिक लगाव से फलित होती हैं। ग्रामीणों का परम्पराओं से बिना तर्क के स्वीकार्य भाव विद्यमान रहता है। सिरपंचमी का सगुनकहानी में खेतों की जुताई से पूर्व का दृश्य मोहक बिम्ब उपस्थित करता है- लुहरसार से लौटकर बैलों को नहलाकर सींग में तेल लगाया जाता है। हल के हरेस पर चावल के आटे की सफेदी की जाती है। औरतें उस पर सिन्दूर से माँ लक्ष्मी के दोनों पैरों की उंगलियाँ अंकित करती हैं। गाँव से बाहर परती जमीन पर गाँव भर के किसान अपने हल-बैल और बाल बच्चों के साथ जमा होते हैं। नई खुरकों से सवा हाथ जमीन छीलकर केले के पत्ते पर अक्षत-दूध और केले का मोती प्रसाद चढ़ाया जाता है। धूप-दीप देने के बाद हल में बैलों को जोतकर पूजा के स्थान से जुताई का श्रीगणेश किया जाता है।9

इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोक संस्कृति में मानव जीवन के मूल्यों की निरन्तर सुरक्षा होता है, जबकि सभ्य समाज मानव जीवन के आदर्श, सिद्धांत और मूल्य के प्रति उदासीन हो जाते हैं। आत्मसाक्षीकहानी का नायक गनपतछद्म राजनीतिज्ञों की चालों का शिकार हो जाता है। जब भोले-भाले ग्रामीणों की जमीन पर कुछ लोग कब्जा करना चाहते हैं तो वह ग्रामीणों के लिए अपने मूल्यों की ओर पुनः लौट जाता है। वह कहता है- मैं जमीन वापस दे दूँगा लोगों को। दस जन की दी हुई चीज धर्मदाहोती है। इसे अकेला भोगने वाला कभी सुख-चैन से नहीं रह सकता।10

लोक संस्कृति का परिवेश नैसर्गिक होता है। उसकी संरचना और संस्कारशीलता को अपनी आधारशिला, आत्मीयता, अन्तःचेतना तथा ऊर्जा में पल्लवित होने देना ही उसके संरक्षण में सहायक है। इस नैसर्गिकता में परम्परा में व्याप्त तत्त्वों को महत्त्व दिया जाता है। रेणु की कहानियों को आँचलिकसम्बोधन इसीलिए मिला कि वहाँ नैसर्गिक परिवेश का चित्रण है। लाल पान की बेगमकहानी का यह दृश्य द्रष्टव्य है- जंगी की पुतोहू का गौना तीन ही मास पहले हुआ है। गौने की रंगीन साड़ी से कड़वे तेल और लठवा-सिन्दूर की गंध आ रही है।11

               लोककला आदिकाल से लोक जीवन का अभिन्न अंग रही है। इसका सृजन भी सामूहिक रूप से होता है। यह मात्र सौन्दर्यानुभूति नहीं होती, बल्कि उसका संबंध जीन जीवन और विश्वास पर आधारित होता है, जिसमें आस्था भाव अधिक होता है, तर्क व प्रमाण आधारित विज्ञान कम। इसीलिए हिरामन जब महुआ घटवारिन गाता है तो वह डूब जाता है। तीसरी कसमकहानी का यह दृश्य यही इंगित करता है- महुआ घटवारिन गाते समय उसके सामने सावन-भादों की नदी उमड़ने लगती है; अमावस्या की रात और घने बादलों में रह-रहकर बिजली चमक उठती है। उसी चमक में लहरों से लड़ती हुई बारी-कुमारी महुआ की झलग उसे मिल जाती है। सफरी मछली की चाल और तेज हो जाती है। उसको लगता है, वह खुद सौदागर का नौकर है।12

रेणु की कहानियों के पात्र लोक जीवन के यथार्थ चरित्र हैं। स्वयं रेणु का जीवन भी देसी पृष्ठभूमि से है। किसानी कर्म हों या ग्राम्य-जीवन की उल्लासमयता, उसे रेणु ने अनुभूत कर उकेरा है। हिरामन का गाड़ी चलाना महत्त्वूपर्ण है। वह गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता। यह समझना आधुनिक आदमी के वश में नहीं है। कृषि कर्म में गाड़ी का क्या महत्त्व है, वह एक लोक-जीवन को जीने वाला व्यक्ति ही समझ सकता है। इसी तरह रसप्रियाके मिरदंगिया द्वारा मृदंग बजाने का गौरव का चित्रण रेणु ही कर सकते हैं। पंचलाइटके गोधन और मुनरी, ‘अच्छे लोगके उजागिर और बिरौलीवाली, ‘भित्ति चित्र की मयूरीकी फुलपतिया सब ऐसे ही पात्र हैं, जिनमें लोक की रागात्मकता, यथार्थ रूप में बिम्बित होती है।  

               वस्तुतः रेणु एक ऐसे कथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहाँ लोक के आदर्श और लोक के यथार्थ दोनों समंजित रूप में प्रकट होते हैं। जीवन के केन्द्रीय तत्त्व और मूल्य कहीं पर विचलित नहीं होते। तमाम विसंगतियों के बावजूद उन्हें यह लगता है कि लोक जीवन में अभी भी मूल्य शेष हैं, जिन्हें वे लगभग हर कहानी में सहेजते नज़र आते हैं। लोक जीवन के हृदय को अनुभूत कर सच्चाई के साथ उसका मोहक सौन्दर्य और कटु यथार्थ साथ-साथ रखते हैं। पाठक उनके साथ यात्रा करता हुआ चला जाता है। अन्ततः ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तविक भारत की आत्मा का चित्र यदि रेणु की कहानियों में तलाश करें तो वह अवश्य दिखाई देगा।

संदर्भ-

1.            हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1, पारिभाषिक शब्दावली, ज्ञानमंडल, वाराणसी, सं.1968, पृ. 591

2.            फणीश्वर रेणु की श्रेष्ठ कहानियाँ, भारत यायावर, नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया, नई दिल्ली, सं.2004, भूमिका।

3.            आँचलिकता, यथार्थवाद और फणीश्वरनाथ रेणु, डॉ. सुवास कुमार, साहित्य सहचर प्रकाशन, दिल्ली, सं.1992, पृ.27

4.            प्रतिनिधि कहानियाँ, फणीश्वरनाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.2015, पृ.60

5.            पूर्ववत्, पृ.12

6.            पूर्ववत्, पृ.145

7.            पूर्ववत्, पृ.125

8.            फणीश्वरनाथ रेणु, विनिबंध, सुरेन्द्र चौधरी, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, सं.2002, पृ.35

9.            ठुमरी, फणीश्वरनाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.2020, पृ.84

10.         प्रतिनिधि कहानियाँ, फणीश्वरनाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.2015, पृ.102

11.         पूर्ववत्, पृ.60

12.         पूर्ववत्, पृ.131

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