हिन्दी की बोलियों का भाषिक स्वरूप


हिन्दी की बोलियों का भाषिक स्वरुप


                                                            

 हिन्दीशब्द की व्युत्पत्ति भारत के उत्तर-पश्चिम में प्रवाहित सिन्धु नदी से संबंधित है। अधिकां भाषाविदों का मत है कि फारसी में संस्कृत की ध्वनि में परिवर्तित हो जाती है। अतः  यह क्रमशः सिंधु>हिंदु>हिंद बना। स्थानवाचक संज्ञा के रूप में हिन्दी शब्द का निर्माण हिन्द से हुआ। कालान्तर में सिन्धु नदी के पूरब में समस्त भारतीय प्रदेश को हिन्दीकहा जाने लगा। वर्तमान में यह शब्द हिन्दी भाषाके नाम से व्यवहृत है। आधुनिक आर्यभाषा हिन्दी मात्र भाषा¬विशेष नहीं है, बल्कि भाषा¬समूह है। हिन्दी के भाषा-समूह में हिन्दी-प्रदेश की पाँच उपभाषाएँ और 18 बोलियाँ सम्मिलित हैं।

               हिन्दी की उपभाषाएँ व बोलियाँ निम्नलिखित हैं-

उपभाषा              बोलियाँ       

1.पश्चिमी हिन्दी       - खड़ी बोली, ब्रज, कन्नौजी, बुन्देली, बांगरू, दक्खिनी।

2.राजस्थानी हिन्दी     - मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी ।

3.पूर्वी हिन्दी          - अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी।

4.बिहारी हिन्दी        - मैथिली, मगही, भोजपुरी ।

5.पहाड़ी हिन्दी         - गढ़वाली, कुमाउँनी ।

 

1.         पश्चिमी हिन्दी :

पश्चिमी हिन्दी उपभाषा का क्षेत्र दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश तक विस्तृत है तथा दक्षिण भारत में प्रायः मुस्लिम परिवारों में इसका एक रूप दक्खिनी हिन्दी व्याप्त है। इस उपभाषा को बोलने वालों की संख्या छह करोड़ से ऊपर है। साहित्यिक दृष्टि से यह बहुत संपन्न उपभाषा है। इसकी बोलियाँ हैं- खड़ी बोली, ब्रज, कन्नौजी, बुन्देली, बांगरू और दक्खिनी। इन बोलियों का परिचय इस प्रकार है-

1. खड़ी बोली (कौरवी)- खड़ी बोली का मूल नाम कौरवीहै। कुरु जनपद की बोली होने के कारण राहुल सांकृत्यायन ने इसे यह नाम दिया। आज इसे साहित्यिक या आधुनिक हिन्दी माना जाता है, किंतु बोली के रूप में यह रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी भाग, अंबाला और पटियाला तक बोली जाती रही है। इसमें हिन्दी का उच्च कोटि का मानक साहित्य विद्यमान है। मूल कौरवी में लोक¬साहित्य उपलब्ध है, जिसमें गीत, नाटक, लोककथाएँ, गप्प, पहेलियाँ आदि विद्यमान है। इसके बोलने वालों की संख्या दो करोड़ के लगभग है। इसकी सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1.            कौरवी में अ, , , , , , , , , औ मूल स्वर हैं। दीर्घ स्वर के बाद मूल व्यंजन के स्थान पर द्वित्व रूप होता है। जैसे- बेट्टा, सज्जा आदि।

2.            ह्रस्व स्वर शब्द के अंत में नहीं आते। जैसे-उच्चारण में निधि को निधी तथा पशु को पशू आदि के रूप में बोलते हैं ।

3.            पश्च ध्वनि पर बलाघात के कारण आदि स्वर लुप्त हो जाता है। जैसे- इकट्ठा>कट्ठा, असाढ़>साढ़ आदि।

4.            औ का ओ उच्चारण ध्वनित होता है- औरत>ओरत, नौ>नो आदि।

5.            कौरवी में मूर्धन्य ध्वनियों की बहुलता है, जैसे- कहाणी, देणा, जाणा आदि।

6.            महाप्राण के अल्पप्राण कर देने की प्रवृत्ति पाई जाती है, जैसे- जीभ>जीब, भूख>भूक, धंधा>धंदा इत्यादि ।

7.            व्याकरणिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

(1) आकारांत पुल्लिंग शब्दों के रूप एकवचन, बहुवचन और तिर्यक् प्रायः एकारांत होते हैं। बहुवचन के तिर्यक् रूप अकारांत व ओकारांत दोनों चलते हैं। स्त्रीलिंग संज्ञाओं के बहुवचन रूप आँकारांत, एँकारांत दोनों प्रचलित हैं।

(2) कौरवी में पर सर्ग हैं- ने, कूँ, को, ने, नूँ, से, सेत्ती, ते, सों, का, के, को, में, पे, पै, पर आदि ।

(3) उत्तम पुरुष और मध्यम पुरुष सर्वनामों के रूपों में कोई अन्तर नहीं है, यह मानक हिन्दी के अनुरूप है।

(4) वर्तमान कृदन्त नहीं होता, सामान्य वर्तमान का रूप संभाव्य वर्तमान से बन जाता है; जैसे- मैं जाता हूँ- में जाऊँ हूँ। भूतकालिक वृदंत में यारूप मिलते हैं, जैसे- मिल्या, चल्या।

(5) क्रिया-विशेषण में अब>इब, जब>जिब, जैसे> जुक्कुर, वैसे>उक्कुर, इधर¬उधर>इंगै¬ऊँगे उल्लेखनीय हैं।

2. ब्रज- ब्रज का अर्थ है-गोस्थली। रूढ़ अर्थ में मथुरा और उसके आस¬पास 84 कोस तक के मंडल को ब्रजमंडल कहते हैं, परन्तु भाषा की दृष्टि से यह क्षेत्र इससे अधिक विस्तृत है। इस बोली के प्रभाव क्षेत्र शुद्ध रूप से मथुरा, आगरा और अलीगढ़ जिलों में है तो प्रभावित क्षेत्रों में बरेली, बदायूँ, एटा, मैनपुरी, गुड़गाँव, भरतपुर, धौलपुर, करौली, ग्वालियर तक है। बंगाल में इस भाषा से बनी भाषा का नाम ब्रजबुलिपड़ा। इसको बोलने वालों की संख्या तीन करोड़ है। कृष्णभक्ति काव्य व रीति साहित्य की भाषा ब्रज रही है। खड़ी बोली से पूर्व ब्रजसाहित्य की केन्द्रीय भाषा रही।

               इसकी सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1.            शब्दों के अंत में ह्रस्ब इ और उ होते हैं; जैसे- बाति, बहुरि आदि।

2.            ब्रज में हिन्दी के आकारांत शब्द प्रायः ओकारांत हो जाते हैं और ओकारांत शब्द औकारांत हो जाते हैं। जैसे- रगरा>रगड़ो, सवेरा>सवेरो आदि।

3.            व्यंजन के अल्पप्राण कर देने की प्रवृत्ति ब्रज में है। जैसे- हाथ>हात, बारह>बारा इत्यादि।

4.            पुल्लिंग से स्त्रीलिंग बनाने के लिए आनी, इनी, इनि, न ई प्रत्यय लगाते हैं। जैसे- ग्वाल>ग्वालिनी, छोरा>छोरी।

5.            बहुवचन बनाने के लिए ए, ऐं लगाते हैं। जैसे- गाय>गायें।

6.            ब्रज भाषा के परसर्ग इस प्रकार हैं-

कर्ता-   ने, नैं

कर्म, संप्रदान- को, कौं, कूँ, के, कैं, ,

करण, अपादान- ते, तै, तें, सू, सूँ, से

संबंध-  को, कौ, कि, की

अधिकरण- में, मैं, माँह, पे, पै, , लौं

               ब्रज भाषा लम्बे समय तक साहित्यिक प्रतिनिधित्व करती रही। सूर, केशव, बिहारी, देव, पद्माकर, रसखान, घनानंद, भारतेन्दु, रत्नाकर जैसे अनेक विख्यात कवियों ने इस भाषा को गौरवान्वित किया।

3. कन्नौजी- कान्यकुब्ज या कन्नौज किसी युग में एक जनपद का नाम था। इसे पांचाल प्रदेश भी कहते हैं। इटावा, फर्रूखाबाद, शाहजहाँपुर, हरदोई, पीलीभीत क्षेत्रों की यह प्रमुख बोली है। कन्नौजी और ब्रज में विशेष भिन्नता नहीं है। अवधी के आंशिक प्रभाव से इसमें कुछ बदलाव दिखाई देता है।

4. बुन्देली-यह बुंदेलखंड की बोली है। झाँसी, उरई, जालौन, हमीरपुर, ओरछा¬सागर, होशंगाबाद, बालाघाट, छिन्दवाड़ा के अतिरिक्त ग्वालियर और भोपाल के कुछ भाग में बोली जाती है। इसको बोलने वालों की संख्या लगभग 1.5 करोड़ है। मध्यकाल में यह क्षेत्र साहित्यिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। इसकी भाषागत निम्न विशेषताएँ हैं-

1.            उच्चारण की दृष्टि से ब्रज और बुंदेली में अधिक अन्तर नहीं है। महाप्राण व्यंजनों के अल्पप्राणीकरण की प्रवृत्ति अधिक है। उदाहरणार्थ- दही>दई, गधा>गदा, लाभ>लाब इत्यादि।

2.            शब्द के मध्य में का लोप पाया जाता है; यथा- तुम्हारा> तुमाओ, भारी>भाई।

3.            संज्ञा के दो रूप मिलते हैं । जैसे बेटी¬बिटिया, लाठी¬लठिया, घोड़ो¬घुड़वा इत्यादि ।

4.            स्त्रीलिंग रूपों में ठकुरान¬ठकुराईन, बानिन¬बान्नी, तेलिन¬तेलनी आदि रूप प्रयुक्त होते हैं।

5.            संख्यावाचक शब्दों में गेरा (ग्यारह), चउदा (चैदह), सोरा (सोलह), पैलौ (पहला), पाँचमो (पाँचवाँ) आदि उल्लेखनीय हैं।

5. बांगरू (हरियाणवी)- यह आकार बहुला बोली है। यह हरियाणा प्रांत, पटियाला व दिल्ली के आसपास बोली जाती है। इसकी ध्वनियाँ कौरवी के समान है। लोक¬साहित्य इस बोली में मिल जाता है, परन्तु साहित्यिक महत्त्व अधिक नहीं है। कुछ भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1.            संज्ञा¬रूपों में तिर्यक रूप बहुवचन आँकारांत होता है। जैसे- धरां से, छोहरियां ने।

2.            सम्प्रदान में एक अतिरिक्त कारक¬चिह्न की ल्यौं’ (के लिए) और अधिकरण में महँ, माँह प्रयुक्त होता है।

3.            पुल्लिंग और स्त्रीलिंग सर्वनाम के अलग¬अलग रूप दिखाई देते हैं। यथा- योह¬याह, वोह¬वाह आदि।

4.            सहायक क्रिया- सूँ, सै, सैं प्रयुक्त होती हैं । वर्तमान काल -त रूप और -द रूप भी होता है। जैसे- करता सै, करदा सै ।

5.            अव्यय रूप के कतिपय उदाहरण हैं- अठे, आड़ै, (यहाँ), कड़ै (कहाँ), काँही (किधर), कदी (कब), किक्कर (कैसे), जाणूँ (मानो) इत्यादि।

6.            कुछ वाक्य-    कौण जावै से? (कौन जाता है?)

मन्नै करा। (मैंने किया।)

उसने उसते किहा। (उसने उससे कहा)

6. दक्खिनी- दक्खिनी हिन्दी का विकास देश के दक्षिण प्रांतों में हुआ। 14 वीं से 18 वीं शती तक दक्खिन के बहमनी, कुतुबशाही और आदिलशाही आदि राज्यों के सुल्तानों के संरक्षण में हुआ था। यह मूलतः दिल्ली के आसपास की हरियाणवी और खड़ी बोली ही थी, जिस पर ब्रज, अवधी और पंजाबी के साथ¬साथ मराठी, गुजराती और दक्षिण की सहवर्ती भाषाओं- कन्नड़, तेलुगू आदि का प्रभाव पड़ा । इसने अरबी, फारसी तथा तुर्की आदि के भी शब्द ग्रहण किए। यह मुख्यतः फारसी लिपि में लिखी जाती थी। इसके कवियों ने इस भाषा को मुख्यतः हिन्दवी’, ‘हिन्दीऔर दक्खिनीही कहा था। यह आधुनिक हिन्दी और उर्दू की पूर्वगामी भाषा मानी जाती है।

               इस भाषा के अधिकांश भाषी दक्षिण भारत में है, जहाँ वस्तुतः मध्यकालीन व उत्तर मध्यकालीन भारत के तत्कालीन मुस्लिम राज्यों के क्षेत्र हैं। इस पर वहाँ की क्षेत्रीय भाषाओं का असर है। जैसे- आंध्रप्रदेश की उर्दू पर तेलुगू, महाराष्ट्र की उर्दू पर मराठी का ।

 

2.         राजस्थानी हिन्दी :

               राजस्थानी हिन्दी का प्रयोग संपूर्ण राजस्थान तथा मध्यप्रदेश के सीमावर्ती भागों में होता है। राजस्थानी का साहित्यिक रूप डिंगलमें है। आदिकालीन रासोकाव्य, रास काव्य, ढोला मारू का दूहा आदि लोक¬काव्य राजस्थानी में ही लिखित है। मीरा की रचनाएँ भी इसी भाषा में है। राजस्थानी हिन्दी की चार प्रमुख बोलियाँ हैं- मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती और मालवी। संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

1. मारवाड़ी- पश्चिमी राजस्थान को मारवाड़ कहा जाता है। मरुभूमि, मरुदेश, मारूदेश और मरवण इस क्षेत्र के पुराने नाम हैं। वर्तमान में इस बोली का क्षेत्र है- जोधपुर, अजमेर, जैसलमेर, बीकानेर, उदयपुर इत्यादि। इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश के उपनागर भेद से हुआ है। इसको बोलने वालों की संख्या लगभग एक करोड़ है। इसकी विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1. ‘का उच्चारण कुछ अवृत्ताकार है। ऐ, औ कहीं सरल स्वर हैं तो कहीं संयुक्त, जैसे- अइ, अउ ।

                      2. महाप्राण ध्वनियाँ प्रायः अल्पप्राणित रहती हैं, जैसे- हाथ>हात, भूख>भूक आदि।

                      3. च़,छ़ का उच्चारण जैसा होता है, जैसे- सच्चा>सस्सा, छाछ>सास ।

                      4. स का उच्चारण श के समान होता है, जैसे- सात>शात ।

                      5. ळ का उच्चारण अनेक शब्दों में सुनाई पड़ता है। जैसे- बाल>बाळ, जल> जळ इत्यादि।

6. मारवाड़ी में घ और स क्लिक ध्वनि है। आशय यह है कि इनका उच्चारण श्वास भीतर खींचकर किया जाता है।

                      7. संज्ञाएँ प्रायः एकवचन में ओकारान्त तथा बहुवचन में आकारान्त होती हैं।

8. कुछ अनोखे शब्द, जैसे- छव (छह), माची (खाट), करसो (किसान), जीमणो (खाना) आदि प्रयुक्त होते हैं ।

2. जयपुरी- जयपुरी बोली का प्राचीन नाम ढँूढ़ाणी है। यह पूर्वी राजस्थान की प्रतिनिधि बोली है। कोटा¬बूँदी क्षेत्र में बोली जाने वाली हाड़ौती इसी की शाखा है। शौरसेनी अपभ्रंश के उपनागर के रूप से विकसित इस बोली में लोक साहित्य पाया जाता है। दादू, सूर्यमल्ल मिश्रण आदि की रचनाओं पर इसका पर्याप्त प्रभाव है। इसकी सामान्य विशेषताएँ हैं-

                      1. जयपुरी में समानीकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है, जैसे- पंडित>पंडत।

                      2. न का ण हो जाता है। का लोप पाया जाता है।

                      3. आकारांत शब्द ओकारांत हो जाते हैं। परसर्ग इस प्रकार हैं-

                              कर्म-                       नै, कै

                              करण, अपादान-               सू, से

                              सम्प्रदान-                   कनैं

                              संबंध-                      का, के, की

                              अधिकरण-                  मैं, मालैं, ऊपर

4. सहायक क्रिया में छूँ, छाँ का प्रयोग होता है। वर्तमान कालिक क्रियाएँ आँ, ऊँ तथा भूतकालिक क्रिया ओकार है।

3. मेवाती- मेव या मेओ जाति के नाम पर मेवात क्षेत्र का नाम पड़ा है। इस क्षेत्र की बोली का नाम मेवाती है। यह अलवर, भरतपुर के उत्तर¬पश्चिम क्षेत्रों में बोली जाती है। इसकी सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

                      1. परसर्ग इस प्रकार हैं-

                      कर्म¬सम्प्रदान         -      नै और कै (को)

                      करण¬अपादान         -      सें, सैं, और तै

                      संबंध                -      को, का, की

                      अधिकरण                   -      मैं और पै।

                      2. सर्वनाम रूप हैं- मैं, हम, हमा, तू, तम, यो, वो, जो, कौण, के, कोई, कुछ, आपणो आदि।

3. क्रिया रूप बिलकुल सरल हैं¬हूँ, है, हैं, हो (था), हे (थे), ही (थी) के अतिरिक्त थो, था, थी भी प्रचलित हैं।

                      4. भविष्यत् काल- ग रूप है।

                      5. अक (कि), जै (यदि), जैते (ताकि), पण (परन्तु), चय (चाहे) कुछ विशिष्ट अव्यय हैं।

4. मालवी- प्रतापगढ़¬उज्जैन¬इन्दौर के आस पास का क्षेत्र मालवा कहलाता है और मालवी यहाँ की बोली है। पश्चिम में चम्बल, दक्षिण में नर्मदा और पूर्व में बेतवा इसकी प्राकृतिक सीमाएँ हैं। यह बोली एक तरह से दक्षिणी¬पूर्वी राजस्थानी का प्रतिनिधित्व करती है। इसका स्थान बुंदेली और मारवाड़ी के मध्य का माना जा सकता है।इसकी सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1. यह ओकार बहुला है। इ और उ का अ कर देने की प्रवृत्ति है। जैसे- पंडत, दन, मट्टी, मानस आदि।

                      2. आदि अक्षर का दीर्घीकरण होता है, जैसे- लकड़ी>लाकड़ी, चमड़ी> चामड़ी, कपड़ा>कापड़ा ।

                      3.परसर्ग निम्न हैं-

                      कर्ता-   ने            कर्म- के, की, से

                      करण- से, ती, सूँ       अपादान- से, ती, सूँ

                      संबंध- को, का, की     अधिकरण- में, पै।

                      4.सर्वनाम-     हूँ और म (मैं के लिए)

                                             व (वह के लिए)

                                             वी (वे के लिए)

                                             को या कुण (कौन के लिए)

                                             का (करा)

                                             थारी, म्हारी, (तुम्हारी, मेरी)

                                             कीने, कणी ने (किसने)

5. सहायक क्रिया का वर्तमान कालिक रूप- हूँ, है, हो; भूतकालिक रूप- था, थी, थो; भविष्यत् काल में गो, गी, गा प्रयुक्त होते हैं ।

 

3.         पूर्वी हिन्दी :

               प्राचीन भारत में उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल के नाम से विख्यात क्षेत्र पूर्वी हिन्दी का है। कानपुर से मिर्जापुर, लखीमपुर से दुर्ग¬बस्तर की सीमा तक में फैले हुए क्षेत्र की यह उपभाषा है। इसमें अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी बोली जाती है। इन तीनों बोलियों में जितना घनिष्ट संबंध है, उतना अन्य बोलियों में नहीं है। संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

1. अवधी- अवध (अयोध्या) प्रांत की बोली होने के कारण इसका नाम अवधी पड़ा है। इसके अन्य नाम पूर्वी, कोसली और बैसवाड़ी भी हैं। इसका विस्तार क्षेत्र- लखीमपुर, खीरी, गोंडा, बहराइच, बाराबंकी, लखनऊ, फैजाबाद, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, रायबरेली, जौनपुर, मिर्जापुर, इलाहाबाद, फतेहपुर, उन्नाव तक फैला हुआ है। अवधी बोलने वालों की संख्या दो करोड़ के लगभग है। इस में जायसी, कुतुबन, उसमान, तुलसी आदि विख्यात साहित्यकार हुए हैं। रामचरित मानसइसी भाषा में लिखा गया ग्रंथ है। अवधी की भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1. , , उ के ह्रस्व और अतिह्रस्व- दो¬दो रूप मिलते हैं। अ किसी शब्द के अन्त में नहीं आता। ऐ, औ का उच्चारण अई, अउ के रूप में होता है।

2. ण ध्वनि नहीं है। ड, ढ शब्द के आरंभ में होते हैं, मध्य और अंत में नहीं। ड़ और ढ़ मध्य अथवा अंत में आते हैं।

               3. महाप्राण ध्वनियाँ बहुत स्पष्ट हैं।

4. अवधी के संज्ञापद स्वरान्त हैं, जो कि अकारांत, आकारांत और ईकारान्त रूप में है। जैसे- लड़का>लरिका, लरिकवा, लरिकौना।

               5.अवधी में परसर्ग निम्नवत् हैं-

               कर्म, सम्प्रदान   - का, काँ, कु, कूँ कै, कहँ, कहूँ

               करण, अपादान  - से, सन, सेन, सेनी, सों, सेती, ते

               सम्बन्ध       - क, की, के, केर

               अधिकरण      - में, माँ, माझ, मह, महुँ

6. आकारान्त विशेषण नहीं के बराबर हैं। उनका लिंग¬वचन के अनुसार रूप नहीं बदलता। जैसे- मीठ फल, मीठ रोटिन इत्यादि।

7. संख्यावाचक शब्दों के कतिपय उदाहरण- दो>दुई, तीन>तीनि, छह> छा, ग्यारह>एगारा, सोलह>सोरा, पचपन>पंचावन आदि।

8. साधारणतया उत्तम पुरूष एकवचन मैंऔर मध्यम पुरूष एकवचन तूके रूपों का व्यवहार नहीं होता। मैं के स्थान पर हमका प्रयोग होता है।

               9. विभिन्न कालों के कृदन्त रूप द्रष्टव्य हैं-

                              वर्तमान       भूत           भविष्यत्

                              देखत         देखा          देखब

                              खात          खाया         खाब

                              रहत          रहा           रहब

               10. पूर्वकालिक क्रियाओं में- कइके, पढ़िके, खाइके आदि रूप मिलते हैं।

11. कुछ निराले शब्द हैं- करिआ (काला), कंडा (उपला), आँचर (स्तन), मरसेरू (पति), बसही (पत्नी), सार (साला), गरू (भारी), तरखले (नीचे), पातर (पतला) इत्यादि।

2. बघेली- अवधी और छत्तीसगढ़ के मध्य बघेली बोली जाती है। बघेलखंड में बघेल राजपूत राजाओं का प्रभाव था। जो रीवां, शहडौल, सतना, मैहर तक विस्तृत था। इस क्षेत्र में बघेली बोली जाती है। कुछ विद्वान इसे अवधी की उपबोली भी मानते हैं। कभी¬कभी इसे दक्षिणी अवधी भी कहा जाता है। इस बोली में लोक¬साहित्य की रचना हुई है। सामान्य भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

               1. अवधी का बघेली में हो जाता है। जैसे- आबा (आवा¬अवधी, आया¬हिन्दी)।

               2. विशेषणों में हाप्रत्यय लग जाता है, जैसे- मरकहा।

               3. परसर्ग इस प्रकार हैं-

               कर्म, सम्प्रदान   -      कहा

               करण, अपादान  -      तार

               शेष अवधी की भाँति हैं।

4. सर्वनामों में मुझे के स्थान पर म्वा, मोहि; तुझे के स्थान पर त्वां, तोहि; उसको के लिए वाहि तथा इसको के लिए याहि विशिष्ट हैं।

               5. बघेली की शब्दावली में आदिवासी जनजातियों की बोलियों के तत्त्व भी दिखाई देते हैं।

3. छत्तीसगढ़ी- वर्तमान छत्तीसगढ़ की यह बोली है, इसका ऐतिहासिक नाम दक्षिण कोसल था। यह क्षेत्र विलासपुर, रायगढ़, सरगुजा, खैरागढ़, दुर्ग, राजनांदगाँव, बस्तर, जगदलपुर, कांकेर तक फैला हुआ है। यह अवधी से काफी मिलती.जुलती है। अर्द्धमागधी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से इस बोली का उद्भव हुआ। इस बोली में लोक¬साहित्य उपलब्ध होता है। इसको बोलने वालों की संख्या लगभग एक करोड़ है। इसकी सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1. महाप्राणीकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है। जैसे- इलाका>इलाखा, कचहरी>कछेरी, जन>झन इत्यादि।

               2. ‘का उच्चारण मिलता है- सीता>छीता।

               3. परसर्ग निम्नवत् हैं-

               कर्म, सम्प्रदान         -      का, , ला

               करण, अपादान         -      ले, से

               सम्प्रदान                    -      बरे, खातिर

               सम्बन्ध              -      के

               अधिकरण                   -      में, माँ, ऊपर

               4. बहुवचन प्रायः मनशब्द लगाने से बनता है। जैसे- हम मन (हम लोग)।

5. संज्ञार्थक क्रिया¬देखल, करब के अतिरिक्त देखब, करन भी होती है। शिष्ट और अशिष्ट प्रयोगों में भी अन्तर होता है। जैसे- हन (शिष्ट), हवन (अशिष्ट) ।

 

4.         बिहारी हिन्दी :

               बिहारी हिन्दी की तीन प्रमुख बोलियाँ हैं- भोजपुरी, मगही और मैथिली । इनका एक वर्ग मानकर इन्हें बिहारी हिन्दी नाम दिया गया है। इन बोलियों में वैषम्य अधिक है। इनके अधिकांश तत्त्व पूर्वी हिन्दी में भी पाए जाते है। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

1.भोजपुरी- बिहार प्रांत में भोजवंशी राजाओं ने भोजपुर बसाया था। इसी के आधार पर इस बोली का नाम भोजपुरी पड़ा। भोजपुरी बोली उत्तर में नेपाल की सीमा से लेकर दक्षिण में छोटा नागपुर तक बोली जाती है। भोजपुरी बोलने वालों की संख्या 3.5 करोड़ मानी जाती है। यहाँ तक कि भारत के बाहर सूरीनाम, फिजी, मारीशस, गयाना, त्रिनिदाद आदि में यह प्रयुक्त होती है। सिनेमा जगत में भी भोजपुरी बोली में बहुत फिल्में बनती हैं। हिंदी प्रदेश की बोलियों में यह सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाती है। कवि ठाकुर का विदेशियाअत्यन्त लोकप्रिय है। इसे भोजपुरी का शेक्सपीयर और भोजपुरी का भारतेन्दु माना जाता है। कबीर, धरमदास, धरणीदास ने भी अपने काव्य भोजपुरी में लिखे हैं। सामान्य भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1. , , उ के अति ह्रस्व रूप होते हैं। अ थोड़ा वृत्ताकार रूप में उच्चारित होता है। ऐ, औ का उच्चारण अइ, अउ करके होता है। जैसे- पइसा, मइला।

2. स्वरों का अनुनासिकीकरण कुछ अधिक शब्दों में मिलता है, यथा- पांपर (पापड़), हींसा (हिस्सा)। दीर्घीकरण के भी उदाहरण हैं- खंड>खांड, तवा>तावा।

3. ‘ध्वनि नहीं है। शब्दों के मध्य में आने वाला प्रायः लुप्त हो जाता है। जैसे- लइका (लड़का), धइ (धरि)।

               4. ‘को उच्चारित किया जाता है। जैसे- पीतल>पीतर, नारियल>नारियर।

               5. संज्ञा के तीन रूप अवधी की भाँति ही हैं- छोरा, छोरवा, छोरउ आ।

6. एकवचन और बहुवचन के रूपों में प्रायः कोई भेद नहीं है। लोगन, जन, सम शब्द लगाकर बहुवचन का संकेत दिया जाता है।

               7. परसर्ग इस प्रकार हैं-

               कर्ता          -      कोई परसर्ग नहीं

               कर्म          -      के, ले, ला, लागि, खातिर

               करण         -      से, सें

               सम्बन्ध       -      , कर, के, केर

               अधिकरण            -      में, पर, परि ।

8. आकारान्त विशेषण बहुत ही कम हैं। स्त्रीलिंग ईकारान्त हो जाता है। प्रायः विशेषण स्वतंत्र नहीं होते ।

               9. संख्यावाची विशेषणों का उच्चारण अवधी के समान होता है।

2.मगही- यह बोली प्राचीन मगध प्रांत की है। वर्तमान में यह पटना, गया, हजारीबाग, भागलपुर एवं मुंगेर क्षेत्र में बोली जाती है। यह भोजपुरी के निकट है। भोजपुरी से भिन्न इसमें निम्नांकित तत्त्व हैं-

               1. सम्प्रदान कारक में ला, लेल तथा अधिकरण कारक में मोंअतिरिक्त परसर्ग हैं।

               2. ‘रौ आसर्वनाम की जगह आपप्रयुक्त होता है।

3. सहायक क्रिया हिन्दी की तरह रूपात्मक है, पर उसका रूपान्तर भोजपुरी की तरह बाटेऔर भइलकी तरह होता है। इन रूपों में क, , थ विकल्प रूप से जोड़े जाते हैं। जैसे- या हकी (मैं हूँ), ह लीख, हलथिन (वे थे), हलक (था), हम हली (मैं था) आदि।

4. कतिपय शब्द- रस्सै¬रस्सै (धीरे¬धीरे), बेरासी (बयासी), अरमेना (मनोरंजन), औराह (शरारती), चिकसा (आटा), चेंगा (लड़का), जनिऔरी (स्त्री) इत्यादि।

3.मैथिली- मिथिला का सम्बन्ध मिथ (युग्म) से है। यह वैशाली, विदेह तथा अंग जनपदों का संयुक्त प्रान्त है। मागधी अपभ्रंश से यह बोली हिन्दी और बंगला के संधि क्षेत्र में विकसित हुई। वर्तमान में मैथिली दरभंगा, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया, उत्तरी मुंगेर और उत्तरी भागलपुर में बोली जाती है। इसको बोलने वालों की संख्या 1.5 करोड़ है। 92वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के द्वारा मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान दिया गया है। यह हिन्दी क्षेत्र की बोलियों में से 8वीं अनुसूची में स्थान पाने वाली एकमात्र बोली है। मैथिली साहित्य के विद्यापति प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। इन्हें मैथिल कोकिल, अभिनव जयदेव आदि नामों से जाना जाता है ।

               सामान्य भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार हैं।

               1. सभी शब्द स्वरान्त होते हैं। के उच्चारण में बांग्ला का प्रभाव दिखाई देता है।

               2. , , , औ के ह्रस्व और दीर्घ पृथक्¬प्रथक् उच्चारण हैं।

               3. एकवचन से बहुवचन बनाने के लिए प्रत्यय जोड़ते हैं- खेतन, तलाबन इत्यादि।

               4. परसर्ग निम्नवत् हैं-

               कर्म, सम्प्रदान   -      के, कें, ले, लैं, खातिर

               करण, अपादान  -      से, सें, सैं, सौं,

               संबंध         -      के, कर, केर

               अधिकरण            -      माँ, में, मों

               5. सर्वनामों के तिर्यक रूप मोहि, तोहि, ओहि, एहि, जाहि, काहि आदि हैं।

               6. क्रिया रूप जटिल हैं। कर्ता और कर्म रूप आदरसूचकता के अनुसार बदल जाते हैं।

 

5.पहाड़ी हिन्दी :

               इस उपभाषा के अंतर्गत गढ़वाली और कुमाउँनी हैं। इन बोलियों पर मूलतः तिब्बती, चीनी और खस जाति की भाषाओं का प्रभाव रहा है। ब्रज और अन्य भारतीय भाषाओं का व्यापक प्रभाव पड़ने से ये हिन्दी के बहुत निकट आ गई। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

1. कुमाउँनी- कुमाउँ का पुराना नाम कूर्मांचल था। इसके अंतर्गत नैनीताल, अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिले आते हैं। इसको बोलने वालों की संख्या 14 लाख है। गुमानी पंत, सिवदत्त सत्ती इस बोली के प्रमुख साहित्यकार हैं। इस पर राजस्थानी और भोट बोलियों का प्रभाव रहा है। सामान्य भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

               1. अल्पप्राणीकरण इस बोली की प्रमुख विशेषताएँ है, जैसे- सीख>सीक, हाथ>हात।

               2. उच्चारण में ण, ळ का प्रयोग राजस्थानी के प्रभाव से है।

               3. परसर्ग इस प्रकार हैं-

कर्म, सम्प्रदान   -      कन, कणि, कैं, हाणि

करण, अपादान  -      , ले, हे, वै, थे

               अधिकरण            -      में, मों, पर

4. ओकार एकवचन संज्ञाओं का रूप आकारांत हो जाता है। अनेक शब्दों के रूप दोनों वचनों में एक जैसे होते हैं।

               5. संख्यावाची शब्दों में दुई (दो), ग्यार (ग्यारह), चउद (चैदह) आदि उल्लेखनीय है।

               6. सहायक क्रिया है, उसी से भूतकालिक छियो (था) और भविष्यत् रूप छिलो (होगा) बनते हैं।

2. गढ़वाली- उत्तराखंड की यह बोली है। टिहरी, गढ़वाल, चमौली, अल्मोड़ा आदि में बोली जाती है।  इसको बोलने वालों की संख्या 15 लाख है। इस पर पंजाबी, वैशाली एवं राजस्थानी का प्रभाव रहा है। सामान्य भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1. ए और ओ ध्वनियाँ क्रमशः याऔर वाका रूप ले लेती है। अल्पप्राणीकरण और महाप्राणीकरण एक सामान्य घटना है- दूध>दूद, बहुत>भौत।

               2. स्वरों को अनुनासिक कर देने की प्रवृत्ति है- छायाँ, पैंसा, सांत आदि।

               3. सहायक क्रिया है। सर्वनाम राजस्थानी की तरह हैं।

               4. परसर्ग निम्नवत् हैं-

               कर्ता          -      ,

               कर्म, सम्प्रदान   -      कूँ, कुणी

               करण, अपादान  -      सें, तीं, चैं,

               सम्बन्ध       -      रा, रे, री, के, को, की

               अधिकरण            -      मूँ, माँ

 

               उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी बोलियों का उद्भव प्राकृत¬अपभ्रंश के विभिन्न भेदों से हुआ है। शौरसेनी अपभ्रंश से उद्भूत होने के कारण कौरवी, ब्रज, बाँगरू, कन्नौजी, जयपुरी, मारवाड़ी, मालवी, मेवाती, आपस में सम्बद्ध हैं। इसी प्रकार अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी एक¬दूसरे से मिलती है। यही स्थिति भोजपुरी, मैथिली और मगही की है। पहाड़ी बोलियों में भी इसी प्रकार की समानता है। हिन्दी प्रदेश एक ऐसा भूखंड है, जहाँ बोलियों के बीच कोई स्पष्ट सीमा रेखा नहीं है, इस कारण ये बोलियाँ ही हिन्दी का एक स्वरूप तय करती है। ये परस्पर शृंखला की कड़ियों की भाँति है।

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