कबीर का ब्रह्म-रहस्य
(आधारशिला साहित्यम पत्रिका में प्रकाशित)
कबीर की ब्रह्म भावना तत्त्वतः आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक
भावना में कबीर ने साकार का खण्डन किया है। उनकी घोषणा है-
दशरथ सुत तिहुँ
लोक बखाना।
राम नाम का मरम
है आना।।
यह सत्य है कि कबीर तत्त्वतः निर्गुणवादी थे, किन्तु भक्त भी थे। हृदय की सात्विक अनन्यता
शक्ति ही भक्ति है। भक्ति का मूलाधार प्रेम है और प्रेम का आधार सौन्दर्य है। इसी
कारण कबीर के कई पदों में साकार ब्रह्म का भी दर्शन होता है। कबीर ने ब्रह्म के
निरूपण में ‘आधिदैविक’
भावना का भी आश्रय लिया, जिसे तीन वर्गों में प्रस्तुत किया जा सकता है-
1.भावना विनिर्मित :
आचार्य क्षितिमोहन सेन के अनुसार, “कबीर की आध्यात्मिक
क्षुधा विश्वग्रासी है, वह कुछ भी नहीं छोड़ना चाहती। इसलिए वह ग्रहणशील है,वर्जनशील
नहीं।कबीर ने हिन्दू,मुस्लिम,वैष्णव,सूफी,योगी आदि की ब्रह्म भावनाओं को जोर से
पकड़ रखा है। इस भावना में उनके विचार दाम्पत्य और वात्सल्य संबंधों को उजागर करते
हैं। दाम्पत्य भाव को प्रकट करने वाली उक्त पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं –
दुलहिन गावहु
मंगलचार,
हम घर हो आये
राजा राम भरतार।।
इसी प्रकार वात्सल्य भाव इन पंक्तियों में द्रष्टव्य हैं-
हरि जननी में
बालक तोरा,
काहे ने अवगुण
बकसहू मोरा,
सुत अपराध करइ
दिन केते
माता के चित रहइ
न तेते।
कर गहि केश करै
जो घाता
तऊ न हेत उतारै
माता।
कबीर ने अपने को नानापाय का भण्डार कहा है और परमात्मा की
निष्कृत प्रदान कराने वाला अनन्य साधन।
अब हम नाच्यो
बहुत गुपाल।
काम क्रोध को
पहिरी चोलना कण्ठ विषय गले माल।।
इसी प्रकार कबीर की भावना विनिर्मित साकार विग्रह बड़ा ही
विमोहक है। यथा-
कहूँ कबीर को जाने भेऊ, मन मधु सूदन त्रिभुवन देव।
2.बुद्धि विनिर्मित निर्गुण बह्म :
कबीर तत्वतः निर्गुणवादी थे। उनका उपास्य भी वही था। कबीर
कहा करते थे- “निर्गुण राम जपहु
रे भाई।” वे कहते हैं कि –
हम तो एक-एक करि
जाना।
दोय कहें तिन्हीं
को बोजर जिन नाहीं पहिचाना।
एकै पवन पानि
पुनि एकै एक ज्योति संसारा।
एकै छार गटै सब
भाण्डे, एक सिरजन हारा।।
कुछ विद्वानों ने कबीर के एकेश्वरवादी धारणा को देख करके यह
विचार या अभिमत व्यक्त किया कि कबीर इस्लाम के एकेश्वरवाद से प्रभूत रूप से
प्रभावित थे, लेकिन तत्त्वतः
विचार करने पर यह निराधार प्रतीत होता है। कबीर का एकेश्वर वाद मूलतः अद्वैतवादी
है। क्योंकि उपनिषद् में स्पष्ट घोषणा की है कि “एकमेव द्वितीयोनास्ति।” उपनिषिदों के ब्रह्म के अनुसार ही कबीर का ब्रह्म भी
व्यक्तित्व सम्पन्न नहीं, अरूप तथा
सर्वव्यापक है। यथा-
अबरन एक अकल अविनासी घट-घट आप बसै।
कुछ विद्वानों ने बताया कि कबीर ने विष्णु का वर्णन किया है। यह भी
भ्रान्तिमूलक है। कबीर का एक ब्रह्म वही है जिसका वर्णन उपनिषदों और वेदों में हुआ
है। वृहदारण्यकोपनिषद् के अनुसार “वह रूप, रस, गन्ध, स्पर्शहीन है, ठीक इसी प्रकार ब्रह्म के स्वरूप का चित्रण
करते हुए कबीर कहते है।”
जाके मुख माथा
नहीं, नाहीं रूप कुरूप।
पुहुप बास ते
पातरा ऐसा तत्व अनूप।।
ब्रह्म के स्वरूप
को वर्णित करने के लिए उपनिषदों ने नेति-नेति अथवा निषेधात्मक शैली को अंगीकृत
किया, कबीर ने भी पूर्णतः उनका
अनुगमन किया, यथा-
भारी कहूँ तो अति
डरुँ हलका कहूँ तो झूठ।
मैं का जानौ राम
कौ नैनों कबहूँ न दीठ।।
ब्रह्म के उपनिषदों में वर्णित स्वरूप तथा कबीर द्वारा
वर्णित स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। कबीर का निर्गुण ब्रह्म अखण्ड है। कबीर यह
मानकर चले हैं कि वह अविभाज्य है। कबीर ने भगवान की अभेदता तथा एकरूपता पर बल दिया
है। यहाँ पर कबीर ने तैत्तरीय उपनिषद का अनुगमन किया है।
ओउम् पूर्णमदः
पूर्णमिदम् पूर्णांद पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य
पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते।।
कबीर ने भी उपनिषदों की भाँति ब्रह्म में किसी प्रकार का
कोई भेद नहीं किया और उनकी अद्वैतता की भाँति उनकी पूर्णता को अक्षुण्ण रखा। यह
कबीर का कोई मौलिक योगदान तो नहीं, लेकिन इससे
निर्विराग शक्ति है कि वै अद्वैत ब्रह्म को ही मान्यता प्रदान करने वाले थे।
3.प्रतीक विनिर्मित भावना :
ब्रह्म में अभेदवाद के साथ-साथ कबीर ने उसमें आनन्द तत्व का
समावेश किया है। तैत्तीरीयोपनिषद में ब्रह्म को ‘रसौ वै सः’ का अभिधान रूप प्रदान
किया गया है। इस प्रकार उपनिषद् में ब्रह्म को आनन्दमय ब्रह्म की स्वीकृति प्रदान की
गई है। कबीर का ब्रह्म भी आनन्द रूपी ब्रह्म है। रहस्यवाद के जितने पद तथा साखियाँ
हैं उसमें ब्रह्म के इसी आनन्द तत्व को ध्वनित किया गया है। जैसे-
नैना अन्तर आव
तूँ, ज्योंही नैन
झपेऊँ।
ना हौ देखऊँ और
को ना ताहि देखन देऊँ।।
इस भाँति कबीर ने ब्रह्म को शब्द रूप में अमृत ही दिया है।
उपनिषदों में शब्द ही ब्रह्म का पर्याय बन गया है। कबीर की ‘नाद बिन्दु साधना’ ‘अनहदनाद’ आदि उसी शब्द
ब्रह्म के ही वाचक है। उनका ‘अनहद ढोल’
श्रवण वास्तव में ब्रह्मानुभूति के अनन्तर आत्म
साक्षात्कार के अतिरिक्त और कुछ नहीं। कतिपय विद्वानों की दृष्टि से नाद बिन्दु की
साधना में कबीर नाथ योगियों के ऋणी हैं, लेकिन वास्तविकता उपर्युक्त कथन से परे है। यह निस्सन्देह स्वीकार किया जायेगा
कि कबीर ने नाद-बिन्दु साधना के तत्त्व योगियों से अवश्य लिये हैं, लेकिन उनका
सबसे बड़ा मौलिक योगदान यही है कि उन्होंने उपनिषदीय शब्द-ब्रह्म के साथ एकीकृत कर
दिया।
कबीर का ब्रह्म वर्ण मूलतः वैदिक है। यदि एक ओर उन्होंने
ब्रह्म निरूपण के लिए उपनिषद् की विभिन्न शैलियों को अंगीकृत किया तो दूसरी ओर
बौद्ध-सिद्ध तथा योगियों के शून्यवाद का भी उन पर एक हल्का सा प्रभाव परिलक्षित
होता है। कहीं-कहीं पर इस्लाम के एकेश्वरवाद की भी झलक देखी जा सकती है। योगियों
के द्वैताद्वैत विलक्षण का क्षीण प्रभाव ही उनके काव्य में परिलक्षित हाता है।
सिद्धों के सहज ब्रह्म तथा सूफियों के नूरवाद तथा इश्कवाद का भी उन पर पर्याप्त
प्रभाव था। इस प्रकार से कबीर का काव्य अपने प्रौढ़ भारत के विभिन्न सम्प्रदायों के
विभिन्न भावनाओं को छिपाये हुए है।
सामान्यतः ज्ञान के क्षेत्र में जिसे ‘अद्वैतवाद’ कहते हैं, वही भावना के
क्षेत्र में रहस्यवाद कहलाता है। प्रकृति के कण-कण में अज्ञात सत्ता की झलक और परम
तत्त्व को जानने की जिज्ञासा भावना व्यक्त करना रहस्यवाद का अनिवार्य तत्त्व है।
डॉ.रामकुमार वर्मा के अनुसार- “रहस्यवाद आत्मा
की उस अन्तर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह अनन्त और अलौकिक शक्ति के साथ अपना शांत और
निश्चल संबंध स्थापित करता है और यह संबंध इतना बढ़ जाता है कि फिर दोनों में कोई
अन्तर नहीं रहता।“ रहस्यवाद के लिए तीन बिन्दुओं का होना आवश्यक है-
1.अद्वैतानुभूति- जब तक आत्मा और परमात्मा में एकात्म-भाव स्थापित नहीं होता,
तब तक रहस्यवाद संभव नहीं है।
2.रागात्मकता- ब्रह्म के प्रति
भक्ति-भाव का जन्म होते ही रागात्मक अभिव्यक्ति का जन्म होता है। जब तक यह
भक्ति-भावना जन्म नहीं लेती, तब तक रहस्यवाद
अथवा ब्रह्म के प्रति भावना का कोई औचित्य नहीं होता।
3.शाब्दिक अभिव्यक्ति- शब्द के माध्यम
से ब्रह्म के प्रति भाव प्रकट करना इस कोटि में आता है।
काव्य में ज्ञान, योग और भक्ति का जो संगम है, वह प्रेम आधारित
है। ज्ञान भी प्रेमयुक्त ज्ञान है और योग भी प्रेमयुक्त योग। भक्ति तो पूर्णतः
प्रेम आधारित है। रहस्यवाद के चार चरण हैं- 1. जिज्ञासा, 2. ईश्वर के प्रति दृढ़ता, 3. प्रेम व विरह की
अनुभूति और 4. मिलन।
रहस्यवाद को विद्वानों ने अनेक कोटियों में विभक्त किया है,
परन्तु आचार्य शुक्ल ने इसे दो भागों में
बाँटकर व्यवस्थित रूप दिया- 1. भावात्मक
रहस्यवाद, 2. साधनात्मक
रहस्यवाद।
1.भावात्मक रहस्यवाद :
भावात्मक रहस्यवाद से तात्पर्य है कि जिसमें भावात्मक भूमि
पर अज्ञात सत्ता से संबंध स्थापित किया जाता है। वास्तव में कबीर का भावात्मक
रहस्यवाद सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है, इसमें जो विरह-निवेदन और आत्म समर्पण मिलता है, वह अतुल्य है। रहस्यवाद की विविध स्थितियाँ
कबीर के काव्य में मिलती हैं, उनमें प्रमुख
हैं- ईश्वरोन्मुखता, प्रतिपत्ति,
विरह-निवेदन और चिर-मिलन।
कबीर इस अनन्त जगत के विस्तार में किसी अनन्त सत्ता का आभास
स्वीकार करते हैं। अन्ततः उसकी प्रतिपत्ति होती है। कबीर का विश्वास था कि इस जगत
के गोचर प्रपंच की पृष्ठभूमि में कोई अनुस्यूत सत्ता अवश्य है। अपनी दृढ़ आस्था को
प्रगाढ़ कर, गुरु की कृपा से ज्ञान
प्राप्त किया और ईश्वर की ओर अपना मन मोड़ लिया। वे स्पष्टतः कहते हैं-
पीछे लागा जाय था,
लोक वेद के साथ।
आगे ते सतगुरु
मिला, दीपक दीया हाथ।।
इस ज्ञान-दीपक को उपलब्ध करते ही दरिद्र कबीर वीर हो गया और
गुरु की अनन्त महिमा का भान किया। सहसा गुरु प्रशंसा में उसकी वाणी से कुछ निकल ही
पड़ा-
सतगुरु हमसूँ रीझ
कर कहया एक प्रसंग।
बरसा बादल प्रेम
का भीजी उठा सब अंग।।
गुरु ने कबीर को ज्ञान दिया कि ईश्वर ज्ञान साध्य ही नहीं
प्रेम साध्य भी है। उसके मन में आस्था ही दृढ़ नहीं हुई, परन्तु वह एकाकार होने के लिए तड़प उठा। शास्त्रीय दृष्टि
से अगर देखें तो विरह की पूर्ण एकादश दशायें उपलब्ध हैं। कबीर ने चिन्ता, स्मरण, गुण, कथन, उद्वेग, प्रलाप, मूच्र्छा,
मृत्यु आदि का स्पष्ट तथा प्रांजल रूप में
प्रस्तुतीकरण किया है। स्तम्भ, स्वरभंग, वयवृद्ध, वयवर्ण, पीलापन आदि
सात्विक भाव उत्पन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त प्रेम और विरह की इतनी अंतर्दशाएं
कबीर के इस रहस्यवाद में उपलब्ध होती हैं कि उन्हें बाँधा नहीं जा सकता।
कबीर की आत्मा प्रियतम के मिलन के लिए तड़पती है, लेकिन उस निर्दय का दर्शन नहीं होता। रात-रात
भर जाग करके कबीर की आत्मा उस प्रियतम की प्रतीक्षा करती थी, यथा-
अंखड़ियां झाईं
पड़ी पन्थ निहारि-निहारि।
जिभड़ियां छाला
पड़ा राम पुकारि-पुकारि।।
रात-रात जागरण के कारण कबीर के पड़ौसी उनका उपहास करते हैं
और कहते हैं कि कबीर की आँख आ गयी है कबीर तंग आकर कह उठते हैं-
आंखड़ियां प्रेम
कसाइया, लोग कहैं दुखंड़िया।
साईं अपने कारणे,
रोई-रोई रातड़िया।।
कबीर की आत्मा को उस निष्ठुर प्रियतम के बिना न तो दिन चैन है न तो रात नींद-
तलफै बिनु बालम
मोर जिया।
दिन नहीं चैन रैन
नहीं निदिया रोई-रोई के भोर किया।।
अन्ततोगत्वा ये रुदन, ये पीड़ा कब तक चलती। कबीर की आत्मा खींझ उठती है और अपनी
खीझ अभिव्यक्त करते हैं-
या विरहिणी कूँ
मीच दे या आपा दिखराय।
आठ पहर का दाझड़ा
मोसो सहा न जाय।।
कबीर को अन्त में उस निष्ठुर से मिलने का एक उपाय सूझ ही
जाता है-
यह तन जारौं मसि
करौं, ज्यों धुवाँ जाई
सरग्गि।
गति ते वै राम
दया करे बरसि बुझावे अग्गि।।
भावात्मक रहस्यवाद की चरम स्थिति में आत्मा का परमात्मा से
मिलन होता है। यहाँ कबीर में अद्वैत की भूमिका दिखाई पड़ती है। इसमें कबीर का
व्यक्तित्व समर्पण की पराकाष्ठा है, जहाँ पर आत्मा-परमात्मा का अभेद, उनके सार्थक्य को विस्मृत कर देता है, यथा-
धीरे-धीरे सब गये,
सुत-वित कामिणी काम।
एकमेक ह्वै मिलि
रह्या, दास कबीरा राम।।
इस संबंध में डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत ने लिखा कि कबीर में
प्रेम प्रेरित भावनात्मक रहस्यवाद का अनुभूतिमय प्रकाशन है। रहस्यवाद की
अभिव्यक्ति अनुभूति के आश्रय से होती है और अनुभूति भावना प्रधान है। अतः कबीर के
काव्य में भावना प्रेम की प्रधान वृत्ति के रूप में प्रकट हुई है।
2.साधनात्मक रहस्यवाद :
कबीर ज्ञानी थे। उन पर नाथ, सिद्ध और हठयोग परम्परा का विशेष प्रभाव भी रहा। परमात्मा
और जीवात्मा की एकता के लिए उन्होंने योग साधना के आठों ही अंगों का उल्लेख भी
किया। इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, ब्रह्मरन्ध्र, सहस्रार, अनहदनाद आदि का
वर्णन कबीर-काव्य में है। कबीर के काव्य में जहाँ-जहाँ उपर्युक्त स्थितियाँ
प्राप्त होती है, वहाँ-वहाँ
साधनात्मक रहस्यवाद का स्वरूप स्पष्ट रूप से उभर जाता है।
कबीर के काव्य में योग-साधना से सम्बद्ध अनेक शब्दावलियों
जैसे- सुरति, विरति, इड़ा, पिंगला, सुष्मना, कुंडलियाँ, ब्रह्मरत, चक्रसत आदि का
प्रयोग हुआ है। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि कबीर की योग सम्बन्धी अनुभूतियों और
साधनाओं का अच्छा ज्ञान है। कबीर बड़े आत्मविश्वास के साथ योग साधना से मिलने वाले
आनन्द का वर्णन करते हैं-
गंग जमुन के
अंतरै, सहज सुन्नि त्यौं
घाट।
कहा कबीरा मठ रचा,
मुनिजन जोवैं बाट।।
कई बातें ऐसी हैं जो यह सोचने को प्रवृत्त करती हैं कि कबीर
जिस जुलाहा वंश में पालित हुए थे, वह इसी प्रकार के
नाथ मतावलम्बी गृहस्थ योगियों का मुसलमानी रूप था। लेकिन कबीर की बाद की रचनाओं में स्पष्ट झलकता
है कि योग-साधना की शारीरिक क्रियाओं के प्रति उन्हें अरूचि हो गई थी। अतः बाद में
कबीर भाव-योग साधना का उपदेश देते हैं। यह भाव-योग इन्द्रियों को अंतर्मुखी करने तथा
इन्द्रियों के स्वामी मन को अंकुश में लाकर भक्ति की स्थिति तक पहुँचाने का साधन
हैं। कबीर तन के योग की अपेक्षा मन के योग पर बल देते हुए कहते हैं-
तन का जोगी सब
करै, मन का बिरला होय।
सब विधि सहजै
पाइये तै तन जोगी होय।।
कबीर की योग साधना का अंतिम पड़ाव सिद्धों का सहजयोग साधना
का वह रूप है जिसमें साधक को प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। उनका मन रात-दिन सहज रूप
में साधना में लीन रहता है। कबीर की मौलिकता यह है कि वह साधना को सहज दिनचर्या का
अंग बना लेने का आदेश देते हैं-
सहज सहज सब कोय
कहै, सहज न चिन्हे
कोय।
जिहि सहजै सो हरि
मिलै, सहज कहावै सोय।।
कबीर शास्त्रीय ज्ञान का खण्डन करके आत्म ज्ञान की स्थापना
करते हैं। आत्मज्ञान ही ईश्वर भक्ति के निकट ले जाने का साधन है। उनकी दृष्टि में
ज्ञान की आवश्यकता इसलिए है कि संसार की नश्वरता और मानसिक संस्कारों का ज्ञान हो
सके। कबीर के साधना मार्ग में ज्ञान और भक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों को समझने के
लिये उनका यह एक पद ही पर्याप्त है-
संतो भाई आई
ग्यान की आंधी रे।
भ्रम की टाटी सभै
उड़ानी माया रहै न बाँधी रे।।
दुचिते की दुई
थुनि गिरानी मोह बलैडा टूटा।
त्रिसना छानि परि
घर उपरि दूरमति भाँडा फूटा।।
आँधी पाछे जो जल
बरसै तिहिं तेरा जन झीना।
कहे कबीर मनि भया
प्रगासा उदय भानु जब चिन्हा।।
इस पद में ध्यान देने योग्य बात यह है कि ज्ञान की यह आँधी
भक्ति रूपी जल दृष्टि के पहले आती है जिसका तात्पर्य यह है कि ज्ञान की सहायता से
मत का भ्रम, द्वंद्व, मोह, तृष्णा और कुबुद्धि का नाश होता है। जिससे मन स्वच्छ हो जाता और भाव भगति की
प्राप्ति हो जाती है।
इस प्रकार कबीर की साधना में योग के क्षेत्र में भक्ति का
बीज है, ज्ञान के जल का सींचन है,
फलतः साधना का अंकुरण है। कबीर का ब्रह्म
निर्गुण, वर्णनातीत और शब्दातीत
है। ऐसे ब्रह्म की साधना में ज्ञान का माध्यम अनिवार्य था, अतः कबीर ने उसका आश्रय लिया। उन्होंने ज्ञान के माध्यम से
सत्य को पहचाना और ईश्वर भक्ति में लीन हुए।
सहायक ग्रन्थ सूची :
1.
कबीर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
2. कबीर
ग्रंथावली, श्याम सुन्दर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी।
3.
कबीरवाणी पीयूष,जयदेव सिंह तथा वासुदेवसिंह, वि.वि.प्रकाशन, वाराणसी।
4. कबीर मीमांसा,
रामचन्द्र तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज।
5. कबीर की
विचारधारा, गोविन्द त्रिगुणायत, साहित्य निकेतन, कानपुर।
6. कबीर साहब का
बीजक, महाराज विश्वनाथ सिंह, वेंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई।
7.
कबीर का रहस्यवाद, रामकुमार वर्मा, साहित्य सदन, प्रयागराज।
============
No comments:
Post a Comment