आचार्य शुक्ल की आलोचना-दृष्टि


हिन्दी समालोचना को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने का श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को है। उन्होंने प्राचीन भारतीय और नवीन पाश्चात्य काव्य सिद्धान्तों का समन्वय कर अपना तार्किक मत रखते हुए समालोचना के नए सिद्धान्त निर्मित किए। हिन्दी समालोचना के क्षेत्र में एक मान्य, प्रौढ़ मानदण्ड और प्रभावशाली पद्धति की आवश्यकता थी, इसकी पूर्ति शुक्लजी ने की। 

आचार्य शुक्ल ने सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार की समीक्षाएँ लिखी। सैद्धान्तिक समीक्षा की दृष्टि से ‘रस-मीमांसा’ स्वयं एक प्रतिमान है, जबकि व्यावहारिक आलोचना का उन्नत रूप ‘तुलसी’, ‘जायसी’ की ग्रंथावली की भूमिकाओं, ‘भ्रमर गीत सार की भूमिका’ तथा ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में दिखाई देता है। 

आचार्य शुक्ल का सैद्धांतिक समीक्षा का आधार भारतीय काव्य-शास्त्रीय सिद्धांत ‘रसवाद’ है। आचार्य शुक्ल ने इसे सर्वथा पूर्ण मानदण्ड माना। प्रसिद्ध आलोचना ग्रंथ ‘रस मीमांसा’ में इसका पर्याप्त विवेचन हुआ है। इसके अतिरिक्त चिन्तामणि भाग-2 में संगृहीत ‘काव्य में रहस्यवाद’ तथा ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ में भी सैद्धांतिक आलोचना का विवेचन मिलता है। आचार्य शुक्ल की सैद्धांतिक आलोचना की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं- 

1. आचार्य शुक्ल ने ‘रसवाद’ को आध्यात्मिक भूमि से उतारकर वैज्ञानिक आधार पर प्रतिष्ठित किया। ‘रस’ को काव्य की आत्मा स्वीकार करके शेष समस्त मान्यताओं को इसी के भीतर समाविष्ट किया। उन्होंने ‘रस-सिद्धांत’ को आधुनिक युग की आकांक्षा के अनुकूल करके पुनः प्रतिष्ठित किया। वे हिन्दी के पहले आलोचक हैं, जिन्होंने भारतीय काव्य शास्त्र की अतल गहराई में प्रवेश करके उसकी महत्ता, सारवत्ता, व्यापकता और उपयोगिता को रेखांकित किया। ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ निबंध में वे घोषणा करते हैं- “शब्द-शक्ति, रस और अलंकार ये विषय-विभाग काव्य समीक्षा के लिए इतने उपयोगी हैं कि इनको अन्तर्भूत बहुत ही सूक्ष्म, मार्मिक और स्वच्छ आलोचना हो सकती है।” 

2. आचार्य शुक्ल के मतानुसार काव्य का आभ्यंतर स्वरूप या आत्मा ‘भाव’ या रस है। अलंकार उसके बाह्य स्वरूप हैं। ‘रीति’ केवल संघटना है, शरीर का अंग-विन्यास है। रस और गुण का संबंध अव्यय-व्यतिरेक संबंध है। ध्वनि भी काव्य की आत्मा नहीं है, क्योंकि इसमें अतिव्याप्ति दोष है। उन्होंने ‘रस’ के महत्त्व को रेखांकित करते हुए स्पष्ट रूप से कहा- “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।” 

3. शुक्ल जी ने ‘रस-व्यंजना’ के लिए कवि, आलंबन तथा सहृदय तीनों की आनुभूतिक एकता को आवश्यक माना। ‘रस मीमांसा’ में वे लिखते हैं-”जहाँ आचार्यों ने पूर्ण रस माना है, वहाँ तीन हृदयों को समन्वय चाहिए। आलम्बन द्वारा भाव की अनुभूति प्रथम तो कवि में चाहिए, फिर उसके वर्णित पात्र में और फिर श्रोता या पाठक में। विभाव द्वारा साधारणीकरण कहा गया है, वह तभी चरितार्थ हो सकता है।” 

4. काव्य में विभावादि का रूप-विधान कल्पना द्वारा होता है। इसी से रस उद्बोधन होता है। आचार्य शुक्ल के मतानुसार ‘प्रत्यक्ष’ और ‘स्मृत’ रूप विधान द्वारा भी रस की अनुभूति होती है। वे मानते हैं कि रसानुभूति प्रत्यक्ष या वास्तविक अनुभूति से सर्वथा पृथक् कोई अन्तर्वृत्ति नहीं है, बल्कि उसी का एक उदात्त और अवदात्त स्वरूप है। 

5. सौन्दर्यानुभूति को भी आचार्य शुक्ल ने रसानुभूति के स्तर पर ही देखा है। वे लोक की सामान्य भूमि और सामान्य हृदय की स्थिति की भाँति ही सौन्दर्य के सामान्य आदर्श की स्थिति मानते हुए उसकी अनुभूति को मंगल विधायिनी मानते हैं। चिन्तामणि भाग-1 में शुक्ल जी का कथन है- “तुलसी और सूर ऐसे सगुणोपासक भक्त राम और कृष्ण की सौन्दर्य-भावना में मग्न होकर ऐसी मंगलदशा का अनुभव कर गये हैं, जिसके सामने कैवल्य या मुक्ति की कामना का कहीं पता नहीं लगता।” 

6. आलम्बन के लोकधर्मी स्वरूप और रस-सिद्धान्त के प्रति अटूट निष्ठा के कारण ही आचार्य शुक्ल ने उन सारे काव्य-सिद्धान्तों का विरोध किया, जो इससे भिन्न मान्यताओं पर आधारित थे। उन्होंने रहस्यवाद, छायावाद, अभिव्यंजनावाद, अन्तश्चेतनावाद, व्यक्तिवैचित्र्यवाद, प्रतीकवाद, आदि का विरोध किया। प्राचीन भारतीय सिद्धान्तों में वक्रोक्तिवाद और चमत्कारवाद का भी विरोध किया। आधुनिक सिद्धान्तों में प्रेषणीयता का सिद्धान्त, भाव-प्रेरित कल्पनावाद, सामान्यीकृत अनुभूतिवाद का उन्होंने समर्थन किया। 

7. आचार्य शुक्ल की धारणा है कि लोक की समस्त अनुभूतियाँ सुख-दुःखात्मक होती हैं। मानव-जीवन में अनुभूत समस्त भाव सुख-दुःख मूलक ही हैं। सुखात्मक भावों में राग या प्रेम प्रधान है तो दुःखात्मक भावों में शोक या करुणा। अतः जीवन में प्रवृत्त करने वाले बीजभाव प्रेम तथा करुणा ही हैं। 

8. आचार्य शुक्ल ने काव्य भाषा की चार मुख्य विशेषताएँ मानी हैं- लाक्षणिकता, रूप व्यापार सूचक शब्दों का प्रयोग, नाद-सौष्ठव तथा रूप गुण बोधक शब्दों का प्रयोग। वे अलंकारों को कविता का साधन मानते हैं, साध्य नहीं। छन्द-विधान को वे नाद-सौन्दर्य की प्रेषणीयता में सहायक मानते हैं। 

आचार्य शुक्ल ने जिन सैद्धान्तिक मान्यताओं का आलोचना कर्म के लिए निरूपण किया, उन्हें वे व्यवहार में भी लाए। मनोवैज्ञानिक आधार पर विकसित एवं पुष्ट इसी रस-दृष्टि के आधार पर जायसी, सूर और तुलसी की अनन्य समीक्षाएँ की। 

जायसी की समीक्षा करते हुए शुक्लजी ने उनके संक्षिप्त जीवन-वृत्त के साथ ही प्रेमगाथा परम्परा, पद्मावत की कथा और उसका ऐतिहासिक आधार, पद्मावत की प्रेम-पद्धति, वियोग और संयोग-पक्ष, प्रेम-तत्त्व और उसकी ईश्वरोन्मुखता, प्रबन्ध-कल्पना, वस्तु-वर्णन, भाव-व्यंजना, अलंकार, स्वभाव-चित्रण, रहस्यवाद, मत और सिद्धान्त, सूक्तियाँ तथा भाषा संबंधी विशेषताओं का गंभीर और विशद विवेचन किया है। उन्होंने पद्मावत को समासोक्तिमूलक काव्य कहा, क्योंकि इसमें घटनाक्रम के बीच-बीच में प्रस्तुत के साथ अप्रस्तुत की व्यंजना है। पद्मावत में निरूपित प्रेम के स्वरूप पर आचार्य शुक्ल का मत है कि जायसी एकांतिक प्रेम की गूढ़ता और गंभीरता के बीच-बीच में जीवन के और-और अंगों के साथ भी उस प्रेम के संपर्क का स्वरूप कुछ दिखाते गये हैं। इससे उनकी प्रेम-गाथा पारिवारिक और सामाजिक जीवन से विच्छिन होने से बच गयी है। 

गोस्वामी तुलसीदास को लोकमंगल का कवि निरूपित करते हुए उनकी लोकधर्मिता, मर्यादाप्रियता और शील-साधना का विस्तार से विवेचन किया। शुक्लजी के मतानुसार रामचरितमानस में तुलसी ने प्रत्येक मानव-स्थिति में अपने को डालकर उसके अनुरूप भाव का अनुभव किया है। इससे तुलसी की हृदय की विशालता, भाव-प्रसार की शक्ति और मर्मस्पर्शी स्वरूपों की उद्भावना की क्षमता प्रकट होती है। तुलसी की भाषा को शुक्लजी ने ‘चलती हुई मुहावरेदार’ बताया व वाक्य रचना को दोष रहित कहा। अलंकारों का भी उन्होंने रूप, गुण, क्रिया एवं भाव को उत्कर्ष देने के लिए किया।
भ्रमरगीतसार की भूमिका में ‘सूर’ की सारगर्भित समीक्षा शुक्लजी ने की। सूर के विरह-वर्णन की उन्होंने प्रशंसा की। उद्धव-गोपी-संवाद में गोपियों की भाव-प्रेरित-वक्रता की सराहना की, लेकिन सूरदास में उन्हें लोक-संग्रह’ की वृत्ति का अभाव खटकता है। वस्तु-गांभीर्य और वर्ण्य-विषय की परिमिति की ओर भी शुक्लजी का ध्यान गया है। लेकिन आचार्य शुक्ल मानते हैं कि रति-भाव के भीतर जितनी मानसिक वृत्तियों और अन्तर्दशाओं का अनुभव एवं प्रत्यक्षीकरण सूरदास ने किया है और बाल-वृत्तियों की जैसी स्वाभाविक व्यंजना सूर के काव्य में हुई है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। 

आचार्य शुक्ल के व्यक्तित्व को समस्त ख्यातिलब्ध आलोचकों ने स्वीकार किया। ‘नया साहित्यः नये प्रश्न’ ग्रंथ में आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने लिखा- “ शुक्लजी की समीक्षा-दृष्टि अतिशय मार्मिक थी, परिणामस्वरूप उनकी समीक्षाओं ने जो साहित्यिक चेतना उत्पन्न की, वह पर्याप्त विशद और स्वस्थ थी। एक नया मानदण्ड शुक्लजी ने संस्थापित कर दिया, जिसके आधार पर हिन्दी-समीक्षा उत्तरोत्तर उन्नति कर रही है।” निश्चय ही आचार्य शुक्ल ऐसे समर्थ आलोचक हैं, जिनकी आलोचना में रस-दृष्टि एवं लोक मंगल का अद्भुत समन्वय दिखाई पड़ता है। डॉ.नगेन्द्र के मतानुसार- “आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के विषय में कदाचित् यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि उनके समान मेधावी आलोचक किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा में नहीं है। 

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@डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी

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