लोकधर्म और कविता का लोकतंत्र

“ लोकधर्म और कविता का लोकतंत्र ”
(संदर्भ-बेघर का बना देश)
                                                     
मनुष्यता की मातृभाषा के रूप में कविता की प्रतिस्थापना ने लोकधर्म को सदैव केन्द्र में रखा है । यह धर्म कविता व मनुष्य के समानान्तर अनादिकाल से आज तक विद्यमान रहा है। इसीलिए जब कभी मनुष्य के स्वाधीन होने का प्रश्न उठा, कविता ने उसे रास्ता दिखाया । मनुष्य ने अपने जीवन में स्वातंत्र्य के मूल अर्थात् लोकतंत्र को पहचाना या नहीं, किंतु कविता की बहुआयामी दृष्टि ने जीवन की वास्तविकता को सदैव प्रस्तुत किया । इसी कारण कविता की आलोचना मनुष्यता के घेरे में ही संभव है । वस्तुतः कविता का कोई देश नहीं होता, वह तो सार्वभौमिक होती है, उसमें मनुष्य की संवेदना अभिव्यक्त होती है । यह संवेदना दूसरे भू-भाग के निवासी को भी समान रूप से प्रभावित करती है । कविता का यह लोकधर्म ही उसकी लोकतंत्रात्मक व्यवस्था का आधार तय करता है । 

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में कविता का स्वर अपने इतिहास से कुछ अधिक मुखर है । कविता की अन्तर्वस्तु में तीव्रगामी बदलाव आया है । कवि के समक्ष जब इस कालखण्ड में विस्मयकारी यथार्थ उपस्थित हुए, तो कविता का स्वर भी लोक की पीड़ा को सामने रखने हेतु आतुर हो गया, यद्यपि व्यवस्था उसके पक्ष में नहीं थी । समकालीन कविता के यथार्थ के बारे में डॉ. परमानंद श्रीवास्तव लिखते हैं,“प्रासंगिकता और सृजनशीलता, प्रतिबद्धता और अजनबीपन, जादुई और क्रांतिकारी, यथार्थ और अयथार्थ, तात्कालिक और मिथकीय, सपाट और काव्यात्मकता के तनाव में आज की कविता हमारे समय का मार्मिक साक्ष्य बन चुकी है । उसके अनुभव संसार और स्थापत्य का सामना हमें आज की जटिल स्थितियों के प्रति जागरूक बना सकता है ।” (समकालीन कविताः नये प्रस्थान, पृ.7) 

भूमंडलीकरण के दौर में पूँजीवादी सभ्यता का जादू जब आम आदमी के सिर पर चढ़कर बोल रहा हो, उसकी मस्तिष्क की खिड़कियाँ बंद हो गई हों, बाजार की चमक में उसकी आँखें विमुग्ध हों; ऐसे समय में लोकधर्म के गुरूत्तर दायित्व को वहन करने हेतु कविता का यथार्थ भी स्पष्ट होना आवश्यक है । स्वप्निल श्रीवास्तव के अनुसार, “खासकर यदि हम यथार्थ की बाद करें, तो आज का यथार्थ मारक और अविश्वसनीय हैं । वह फैंटेसी के आगे का यथार्थ है । आज के यथार्थ का चेहरा रक्त-रंजित और अमानवीय है । यथार्थ हमारे सामने विस्मयकारी दृश्य प्रस्तुत करता है, जो कल्पनातीत है ।” (आलोचना, अप्रेल-जून 2003, पृ.32)

लोकधर्म  को चुनौती देने वाले, विस्मयकारी यथार्थ के रूप में जो कारक वर्तमान समय में उपस्थित हुए हैं, उनमें प्रमुख हैं- मुक्त बाजारवाद, विकृत उपभोक्तावाद, राजनीतिक अधिनायकवाद, पूँजीवादी प्रभुता, भ्रष्ट आचरण, श्रम का अपमान, मूल्यों का विघटन, हिंसक वृत्तियों का उभार, जातीय-धार्मिक उन्माद आदि । यद्यपि ये कारक वैश्विक हैं, किंतु उनकी फाँस में आम भारतीय बुरी तरह आ गया है । दूसरी ओर साहित्यिक जगत् वैचारिक अतिवाद से ग्रस्त होकर लोक को पीड़ित करने वाले इन तत्त्वों का सामना करने के बजाय वामपंथी-दक्षिणपंथी खेमे में उलझकर भटकाव की ओर बढ़ रहा है । उपस्थित चुनौतियों का सामना करते हुए आने वाले समय का मार्ग तय करने हेतु कविता का स्वर निराला, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल की भाँति स्पष्ट अभिव्यक्ति का हो, यह आवश्यक है ।

विकट-समय में कविता-जगत् के बड़े हस्ताक्षर कविवर विजेंद्र हमारे समय के अग्रगामी कवि हैं । उनकी उपस्थिति कवि-पीढ़ियों के बौद्धिक रक्त-संचार को चेतनावान बनाने में सक्षम है । ‘त्रास’, ‘जनशक्ति’, ‘कठफूला बाँस’, ‘चैत की लाल टहनी’ जैसी कृतियों से चर्चित विजेंद्रजी द्वारा रचित इस दशक की महत्त्वपूर्ण काव्य-कृतियाँ हैं- ‘घना के पाँखी’, ‘तुम्हारा पहले खिलना’, ‘वसन्त के पार’, ‘कवि ने कहा’, ‘भीगे डैनों वाला गरूण’, ‘बनते-मिटते पाँव रेत में’, ‘मैंने देखा पृथ्वी को रोते हुए’, ‘बेघर का बना देश’ आदि । इसके अतिरिक्त काव्य-नाटक, सौंदर्यशास्त्र और समकालीन समीक्षा पर प्रकाशित आलेख कविता के युगधर्म को स्पष्ट करने में सहायक रहे । 

कविवर विजेंद्र के काव्य पर कालिदास से लेकर वाल्ट व्हिटमेन का प्रभाव दिखाई देता है तो त्रिलोचन का लोकानुराग और मुक्तिबोध की परम्परा का निर्वहन भी है । ज्ञानेंद्रपति लिखते हैं- “विजेंद्र के कवि की बनावट  में परम्परा और समकालीनता के बोध की युगपत् उपस्थिति को पहचानना जरूरी है । एक ओर तो उसकी जड़ें हमारे क्लैसिक्स में है, साथ ही लोक-संस्कृति में; दूसरी ओर उनकी दृष्टि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के विज्ञान से माँजी गई है । जन-हितैषणा उसकी कवि-मुद्रा नहीं, आत्मिक चिंता है ।” (कृति ओर, अंक 68-70, पृ.77) स्वयं विजेंद्र को ‘लोक का जाप’ करना प्रिय रहा है । उनका कथन है- “पिछले दिनों हमारे कुछ साहित्यिक मित्रों ने हमको ‘लोक का जाप’ करने वाला कहकर जो गौरव प्रदान किया है, उसके लिए हम बड़ी विनम्रता से उनके आभारी है । भले ही बहुत देर से कहा । पर दुरूस्त कहा । कैसा सुखद संयोग है कि कुछ दिनों पहले संसद से गाँव की पगडंडियों तक जनता लोक तथा जन का ही जाप करती रही । हमें लगा अब ये दोनों शब्द एक भौतिक शक्ति का रूप ले रहे हैं ।” (कृति और, अंक 62, पूर्व कथन, पृ.19)

अपनी लम्बी काव्य-यात्रा में कविवर विजेंद्र का सद्य-प्रकाशित काव्य-संकलन ‘बेघर का बना देश’ समय के सच का सामना करता हुआ दिखाई देता है । संकलित कविताओं में एक ओर दुखार्तानां, श्रमार्तानां तथा लोकार्तानां श्रेणी के लिए संघर्ष का लोकधर्म है, तो दूसरी ओर समय के साथ उपस्थित विध्वंसकारी शक्तियों का सामना करते हुए कविता के क्षेत्र में लोकतंत्र की प्रतिस्थापना का आग्रह दृष्टिगोचर होता है । कविताओं में नये सौंदर्यशास्त्र के साथ भाषा का नया मुहावरा खोजा गया है, जो अधुनातन है । कविता से विलुप्त होती लय को पुनः केन्द्र में लाने का अभिनव प्रयास इस कविता-संग्रह को विशिष्ट बनाता है । इन कविताओं में परिवेश की खूबियों को भावी संकेत के साथ उकेरा गया है, जहाँ उनके चित्रकार का व्यक्तित्व उभर कर आता है । यह कविता-संग्रह विवेचनीय है । 

विक्षुब्ध लोक के जीवन में बदलाव लाने हेतु कवि ने ‘लोक का जाप’ किया है । कवि का निष्कर्ष यह है कि प्रगतिशील लोकतांत्रिक भारत में श्रम का अभी तक सम्मान नहीं हुआ है। सामंती व्यवस्था भले ही न रही हों, लेकिन मनोवृत्ति में कुछ खास बदलाव नहीं आया है । ‘अँधेरे की दस्तकें’ में कवि ने श्रम का प्रतिष्ठा प्रदान करते हुए फसलों भरी पगडंडियों से गुजरने को तीर्थयात्रा बताया है । वहीं ‘विरल क्षणों का गाान’ में कवि पसीने की हर बूंद का हिसाब माँग रहा है-

देखा है मैंने/झौंपड़ियाँ उजड़ते/फिर राख के
ढेरों पर उठी भव्य इमारतें/तुम्हें देना होगा हिसाब
पसीने की हर बूँद का/लूट-खसोट की इस आँच में/
झुलसा है गरीब ही ।     (पृ.110)

‘तलछट’ कविता में पुलिस के डंडे खाते निर्दोष किसानों को कनपटी से बहते खून को पौंछते देखता है जो अपनी जमीन का हक माँग रहे हैं । दूसरी ओर बहुमूल्य खनिज सम्पदा के लुटेरों को ‘पसीना’ में अनअघाये दस्यू कहकर पसीना को आत्मा का सत बताया है । समाज की कुत्सित मनोवृत्ति को उजागर करते हुए कवि ने निरन्तर दमन के बाद भयानक परिणामों की ओर संकेत किया है । श्रमनिष्ठ समाज का शोषण एक दिन प्रतिशोध लेने को विवश कर देता है, जिसे समय पर पहचानना जरूरी है । यदि सामंती मनोवृत्ति में परिवर्तन नहीं आता है, तो कवि स्पष्ट रूप से कह देता है-

पृथ्वी के गर्भ में लावा/उबाल खाता मैग्या/फूट कर 
जब निकलेगा एक दिन/नहीं रोक पायेंगे सैलाब
आदिवासियों का/उफनता ज्वार/पछाड़ें खाता सागर/
वे होने को हैं तत्पर/धनुष-बाण उठाने को/
आने लगी हैं ध्वनियाँ/वृक्ष वन घासों से/मरेंगे,
मारेंगे/ जमीन नहीं छोड़ेंगे ।
(सामंत अभी जीवित है, पृ.100)

समाजशास्त्रीय विश्लेषण में जिन वंचित वर्गों की समस्याओं को उठाया गया, उनमें किसान को अभी तक न्याय नहीं मिला । कवि की दृष्टि में कविता में ‘धरती जोतने वालों से संवाद’ नहीं हो रहा है । लड़ना ही उनकी नियति बन चुकी है । कवि ने किसान की अन्तर्व्यथा को, उसकी गरीबी को, उसके खुश्क चेहरे को देखने का तथा उसकी पीड़ा को व्यक्त करने का कार्य ‘मेरे चुप रहने की परीक्षा’, ‘अपराध गरीबी का’, ‘धरती जोतने वालों से संवाद’, ‘देखता हूँ खुश्क चेहरा’ आदि कविताओं में किया है । कवि की दृष्टि है कि भूमि को उर्वर बनाये रखने का अदम्य कार्य करता हुआ किसान भूखा है, आत्महत्या करता है । श्रम से प्रेम करने वाला अभावग्रस्त है । उसकी पसीनों की बूंदों की चमक के साथ किसानों की व्यथा को स्वर देते हुए कवि कहता है-

अंकुरित बीज में/चमकता किसान का पसीना/गहरे
आघातों के दुख में/तपा हृदय का शांत विक्षोभ/
मल मूत्र में जन्म लेते शिशु का रूदन/हत्यारों के 
काँपते हाथ/गरीबी में नहीं देता कोई भी साथ ।
(देखता हूँ खुश्क चेहरा, पृ.83)

समाजवाद की कल्पना और उसके आने की आशा अब स्वप्न प्रतीत होने लगी है । समय की गति के साथ शैतानी पूँजीवादी समाज यांत्रिक-सभ्यता के साथ उपस्थित हुआ है, जिसमें लोक के श्रमनिष्ठ प्रहरी श्रमिक, किसान, दलित, आदिवासी वर्ग सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। ‘बे-घरों के घर’ कविता में कवि का ध्यान रामचरण पर जता है जो बापू के जन्मदिन पर राजभवन पथ पर पतला चिथड़ा बिछाकर दिनभर की थकान के बाद सोने की तैयारी कर रहा है । कवि का ‘रामचरण’ भगवत रावत की ‘बैलगाड़ी’ में बैठा हुआ मनुष्य है, जो महानगरीय भीड़ में सभ्यता का आखिरी इंसान प्रतीत होता है । 

पूँजीवादी यांत्रिक सभ्यता ने पूरी दुनिया को ‘शापिंग काम्पलेक्स’ में बदल दिया है । कुमार अंबुज ने जिसे मनुष्यों की बजाय वस्तुओं में बहुत अधिक निवेश माना है । (वागर्थ, जनवरी, 2005) यह सत्ता निर्मम होती है, जहाँ आम आदमी को हर बार बेघर होना पड़ता है- 

गहन दुख में भी/सत्ता का वर्चस्व निर्मम/
सालता हरदम/गड्ढों से भरा गँदला जल/
रम्मन, खुदा बख्श, अलीहसन/जो हुए हैं
बेघर हर बार ।
(दिखाओ मुझे कविता, पृ.81)

पूँजी के प्रभाव का चित्र कवि ने ‘रहने दो अंधेरे’ में खींचते हुए लिखा-

क्या करूँ/इन गगन चुंबी कोठियों का/ आ रही
गंध पकवान की/पसलियाँ दिखती कमेरे इंसान की/
टोटा पड़ा रोटियों का/बेलबूटे, पच्चीकारी, शब्दकारी,
शिल्पकारी में/दिखती नहीं धरती की गहन पीड़ा ।
(पृ.70)

वैश्विक स्तर पर आर्थिक उदारीकरण आधारित नई विश्व-व्यवस्था, उच्च तकनीक, जनसंचार का प्रसार, विश्व ग्राम के जन्नत की हकीकत को पूरी दुनिया देख रही है । कभी-कभी यह महसूस होता है कि यह साम्राज्यवादी शक्तियों का नव-उपनिवेशवादी संस्करण तो नहीं है । ‘शांतिदूत’ में कवि उनकी मनोवृत्ति को समझ जाता है जो स्वर्णभरी मुद्राओं की जेबें भरकर आता है और हमें पीड़ाओं को गर्व में धकेल जाता है । इन शोषकों के माथे पर मनुष्य की विनाश लीलाएँ हैं और शब्दों में ध्वंस की राख झड़ती है । 

‘अनार का पेड़ आँगन में’, ‘भू तत्त्वीय आसमान’, ‘दैत्य को पछाड़ो’ आदि कविताओं में कविवर विजेंद्र ने नव उपनिवेशवादी शक्तियों के दुष्चक्र को उजागर किया है । यही नहीं कवि को अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक आदि गरीबों के शत्रु प्रतीत होते हैं, उन्हें पछाड़ने का आह्वान करता है-

वह बहुत ताकतवर है/क्रूर कुचाली और महाकपटी /
विश्व बैंक उसका घातक अस्त्र है । अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष
उसका कुचक्र/विश्व व्यापार संगठन उसका इंद्रजाल/
वह किसी का मित्र नहीं है। जो भी उसके पंजे से
दबा है/वह सबसे बड़ा शत्रु है/पूरी दुनिया के गरीबों का ।
(दैत्य को पछाड़ो, पृ.64)

कविवर विजेंद्र की कविता सीधे जनपद से आती है, फलतः कविता में ग्रामीण जीवन की सौंधी महक विद्यमान है । जहाँ कवि का बचपन बीता, सुख-दुःख का साक्षी बना और संघर्ष की प्रेरणा बनी । ‘फरीदाबाद की भोर’ में कवि को अब फलदार दरख्त, नदी, ताल, प्रपात, दूब, नीम आदि नज़र नहीं आते । मनुष्य की उद्दाम लालसाओं का शिकार यह ग्रामीण जीवन भी हो गया है । ‘तलछट’ में कवि के मन की अन्तर्व्यथा उजागर हुई है, जहाँ जीवन में न केवल संघर्ष रहा है, बल्कि स्वाधीन भारत में लोगों की दुर्दशा का जीवन्त चित्रण भी है । ‘सुबह’ कविता में कवि को जीवन के रहस्य गुफाओं में नहीं, बल्कि लड़ते हुए आदमी की क्रियाओं में दिखाई देते हैं । साथ ही कवि ने आशा नहीं छोड़ी है, वह घोषणा करता है- 

वो समय जरूर आयेगा, जरूर/दुनिया
के लोग जानेंगे/दुनिया में लोग कितने त्रस्त हैं ।
कितने भूखे-प्यासे/कुपोषण से मरते हुए ।
(बेघर का बना देश, पृ.46)

कवि की जिजीविषा, अदम्य साहस और सतत् संघर्ष का स्वर ‘खुलेंगे कपाट’, ‘सुबह’, ‘धातुक खनक’ में दिखाई देता हे । इसके साथ ही आने वाले समय को आशावादी दृष्टि से देखने वाली कविताएँ ‘इतनी धुमैली रोशनी में’, ‘सोचने से पहले देखो’, ‘पवन गीता का अवसान’ आदि हैं । ‘तमस द्रव्य ऊर्जा’ में कवि प्रत्येक क्षण में जीवन के नये प्रतिरूप का दर्शन करता है। जहाँ कभी जन्म रूकता नहीं, निर्द्वन्द्व आगे बढ़ता है । ‘खुलेंगे कपाट’ में कवि मुक्ति के स्वर तलाश रहा है- 

सुनूँगा हर बार/ लहरों में बजती/तारों की घंटियाँ/
मेरे पाँव सने दलदल में/हाथों में कालोंच/नमक
के पानी में घुलने का सन्नाटा/जल पाँखियों
की प्रजनन आतुर चीखें/ मेरी मुक्ति के लिए
खुलेंगे जंग लगे कपाट ।
(पृ.75)

कविवर विजेंद्र ने अपने आंतरिक उद्गारों को प्रकट करने से पूर्व कविता से संवाद स्थापित किया है । उनकी अभिव्यक्ति में कविता लोकतंत्र की पर्याय बनकर उभरती है । वह संघर्ष की गाथा के रूप में कविता को ही स्वीकार करता है । कवि ने स्वयं के जन्म के साथ शब्द के जन्म को स्वीकार कर अपनी रगों में कविता की जड़ों को तलाश करने का प्रयत्न ‘मेरा जन्म’ कविता में किया है । साथ ही ‘कविताएँ जो मुझे प्रिय हैं’ में कवि की उत्कट इच्छा है कि वह लोक से जुड़ा रहे, क्योंकि यह लोक से जुड़ाव ही उसे गतिशील बनाये रख सकता है । ‘तलछट’ कविता में कवि अपने आँसू दिखाना नहीं चाहता, बल्कि अपना एक ध्वनि-राग बनाना चाहता है जो अपनी धरती और देश को बचाये रखे । कवि सरस्वती से आह्वान करता है-

ओ कविता की देवी/तुम सोई हो कहीं/निविड़
अँधेरी छाँह में/या कहीं धरती की कोख में/
तुम जागो/कवि छंद खो चुका हैं/भूखा है
झूठे यश को/मुट्ठी भर सिक्कों में/बेचता 
ईमान को । /
(मुझे जगाने दो सरस्वती को, पृ.15)

कविताओं की भाषा में विविधता है । परम्परागत प्रतीकों के स्थान पर कवि ने अपने लक्ष्य की पहचान करने वाले उदाहरण प्रस्तुत किए हैं । नये सौंदर्य का बोध कराने वाली भाषा चलताऊ भाषा से बिल्कुल अलग है । आक्रोश के क्षणों में बिम्बवान स्वाभाविक पीड़ा को उजागर करती तिक्त शब्दावली भी कविता की अर्थवत्ता बढ़ा देती है । जहाँ कहीं कवि भाव-विभोर है, तो संबोधन शैली में आत्म-साक्षात्कार भी बिम्बमय हो गया है, जैसे-

ओह! कितना गहन है अवसाद/सुनता हूँ
अँधेरे के छलकते से प्यालों में तिरती रात
की ग्रेनाइट छायाएँ । (पृ.113)

अथवा
प्रतिमानों के भगनावशेष में/सिर धुन रही कविता/
खण्डहरों में चीखते पत्थर/रहूँगा अभी सहने को ।
(पृ.79)

समकालीन कविता में ‘लय’ की जिस तरह उपेक्षा हुई है, उसे न्यायोचित नहीं कहा जा सकता । कवि और आलोचक बोधिसत्व की यह टिप्पणी द्रष्टव्य है, “छंद और रस का जितना नाश तथाकथित राजनैतिक कवियों ने किया उतना और किसने किया होगा । इस पूरी पीढ़ी ने कुल पच्चीस छंदबद्ध कविताएँ भी न लिखी होंगी । इस पीढ़ी के द्वारा किया गया हिंदी काव्य का काव्यात्मक अपकार अगले कई सालों में शायद ही मिटाया जा सके ।” (वागर्थ, दिसम्बर 2012) लेकिन कविवर विजेंद्र के शब्द हैं कि कविता में काव्यलय को मैं बहुत महत्त्वपूर्ण मानता हूँ । यह दृष्टि उनकी प्रत्येक कविता में दिखाई देती है, जहाँ आन्तरिक लय विलुप्त नहीं हुई है । कतिपय पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

समझते हम पशु जिन्हें
कहने लगे हालात अपने
सुनकर लगा दिया कँपने ।
(पृ.86)

इसी तरह-
चाहिए अन्न हर पेट को
रोशनी हर आँख को
आकाश हर पाँख को ।(पृ.94)

समग्रतः विजेंद्र रचित कविताओं का स्वर व्यवस्थागत विद्रुपताओं पर आक्रोश व्यक्त कर चुप रहना नहीं है, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए नए आयाम प्रस्तुत करना रहा है । आज जब हिन्दी कविता को लोक की सामुदायिक भावना से तोड़ने और छिन्न भिन्न करने की कोशिश की जा रही है और जब हिंदी कविता में जब जनमानस की अभिव्यक्ति नहीं है, तब कविवर विजेंद्र की कविताएँ आश्वस्त करती हैं कि ये मात्र बौद्धिक जुगाली या वैचारिक समस्याओं का अरण्यरोदन करने वाली नहीं, बल्कि लोकधर्म की रक्षा करने वाली और कविता के भीतर लोकतंत्र की स्थापना करने वाली है ।

                               डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी
प्राध्यापक ‘हिन्दी’
महाराणा प्रताप
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
चित्तौडगढ़(राजस्थान)
मो. 09828608270


4 comments:

Unknown said...

Sir ji namskaar aapki sameeksha achhi lagi. Kya aap vijendra ji par kaam kar rahe hai.

Unknown said...

Sir ji namskaar aapki sameeksha achhi lagi. Kya aap vijendra ji par kaam kar rahe hai.

Unknown said...

आप की समीक्षा काबिलेतारीफ है

डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी said...

धन्यवाद, राय साहब।

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