हिंदी का क्रमिक विकास और भारतीय भाषाओं के साथ उसका सम्बन्ध

‘हिन्दी’ शब्द की व्युत्पत्ति का संबंध सिन्धु नदी से है । विदित है कि अधिकांश विदेशी आक्रांता उत्तर-पश्चिम सिंह द्वार से ही भारत में प्रविष्ट हुए । भारत आने वाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए वह ‘सिन्धु’ का देश था । ईरान (फारस) के साथ भारत के प्राचीन काल से ही संबंध थे । फारसी में संस्कृत की ‘स’ ध्वनि ‘ह’ में परिवर्तित हो जाती है अतः ईरानी ‘सिंधु’ को ‘हिन्दु’ कहते थे । कालान्तर में ‘हिन्दु’ से ‘हिन्द’ बना और स्थानवाचक संज्ञा के रूप में ‘हिन्दी’ शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई । आगे चलकर यह शब्द ‘हिन्द की भाषा’ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा ।
वर्तमान में ‘हिन्दी’ को जो स्वरूप हमारे समक्ष विद्यमान है, उसका समय के साथ क्रमिक विकास का आधार है । हिन्दी की आदि जननी संस्कृत है । संस्कृत पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के मार्ग से गुजरती हुई प्रारंभिक हिन्दी का रूप ग्रहण करती है । हिन्दी भाषा के विकास का विशुद्ध आरंभ ‘अपभ्रंश’ से माना जाता है, जो हमारे देश में 500 ई. से लेकर 1000 ई. के मध्य तक समृद्ध रूप में रही । अपभ्रंश से ही आधुनिक आर्य भाषाओं का भी विकास हुआ है, जो इस प्रकार है-
अपभ्रंश के भेद-आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ-
शौरसेनी-पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती
अर्द्ध मागधी-पूर्वी हिन्दी
मागधी-बिहारी, उड़िया, बांग्ला, असमिया
खस-पहाड़ी
ब्राचड़-सिंधी
पैशाची-पंजाबी
महाराष्ट्री-मराठी
अपभ्रंश के बाद हमारे देश में विविध भाषाओं का विकास होने लगा । इन प्रमुख भाषाओं में गुजराती, बांग्ला, उड़िया, असमिया, सिंधी, पंजाबी, मराठी के साथ हिन्दी भाषा समूह का विकास हुआ । वस्तुतः ‘हिन्दी’ शब्द भाषा विशेष का पर्याय नहीं, बल्कि भाषा-समूह का नाम है। हिन्दी जिस भाषा समूह का नाम है, उसमें आज के हिन्दी प्रदेशों की पाँच प्रमुख उपभाषाएँ यथा-राजस्थानी, हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, बिहारी हिन्दी तथा पहाड़ी हिन्दी सम्मिलित हैं । इन पाँच उपभाषाओं की कुल 17 बोलियाँ इसकी संपत्ति है ।
हिन्दी भाषा-समूह व उसकी बोलियों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
उपभाषाबोलियाँ-
पश्चिमी हिन्दी-खड़ी बोली, ब्रज, बांगरू, कन्नौजी, बुंदेली 
पूर्वी हिन्दी -अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी
बिहारी हिन्दी-भोजपुरी, मैथिली, मगही
राजस्थानी हिन्दी-मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी
पहाड़ी हिन्दी-गढ़वाली, कुमाऊँनी आदि ।
इन बोलियों की विशिष्टता है कि किसी निश्चित कालखंड में इन्होंने ‘हिन्दी’ का नेतृत्व किया है, जैसे- आदिकाल में राजस्थानी, भक्तिकाल में अवधी, ब्रज आदि, रीतिकाल में ब्रज तथा आधुनिक काल में खड़ी बोली आदि ।  सुखद पहलू यह है कि अन्य बोलियों ने सहजता से दूसरे का नेतृत्व स्वीकार किया । साथ ही समस्त बोलियों का फलना-फूलना जारी रहा । आज हिन्दी का विशाल साहित्य इन्हीं बोलियों में पल्लवित साहित्य का परिणाम है । इसका क्षेत्र इतना व्यापक रहा कि स्वतंत्रता-संघर्ष में एकमात्र यही भाषा थी, जिसने पूरे भारत को एक सूत्र में बाँध दिया था ।
हिन्दी के व्यापक प्रभाव का प्रमाण कुछ उदाहरणों से पुष्ट होता है । दिल्ली के सहायक रेजिडेंट ‘मेटकॉफ’ ने फोर्ट विलियम कॉलेज के ‘हिन्दुस्तानी’ के विभागाध्यक्ष जॉन गिलक्राइस्ट को एक पत्र लिखा- “भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमायूँ के पहाड़ों से नर्मदा तक, अफगानों, मराठों, राजपूतों, जाटों, सिक्खों और उन प्रदेशों के सभी कबीलों में जहाँ मैंने यात्रा की है, मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी थी । मैं कन्याकुमारी से कश्मीर तक ........ इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जायेंगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे ।”
इसी तरह एनीबेसेंट ने कहा था, “हिन्दी जानने वाला संपूर्ण भारतवर्ष में मिल सकता है और भारत भर में यात्रा कर सकता है ।” एशियाटिक रिसर्च के लेखक एच.टी.कोलब्रुक ने लिखा- “जिस भाषा का व्यवहार भारत में प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है और जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है ।” भारतीय भाषा विशेषज्ञ जार्ज ग्रियर्सन ने भी हिन्दी को भारत की सामान्य भाषा माना है ।
हिन्दी का राष्ट्रीय स्वरूप निर्मित करने में हिन्दी अहिन्दी भाषा समूह के अध्येताओं का बड़ा योगदान रहा है। बुंदेली से मैथिलीशरण गुप्त, भोजपुरी क्षेत्र से जयशंकर प्रसाद, अवधी से निराला, ब्रज से महादेवी तो मगही से दिनकर ने इस ओर प्रस्थान किया, वहीं प्रेमचंद उर्दू से हिन्दी की ओर प्रविष्ट हुए । बंगाल से क्षिति मोहन सेन, महाराष्ट्र से माचवे, तेलगु से सुंदर रेड्डी तो पंजाबी से यशपाल के आगमन ने हिन्दी को सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय गौरव दिलाया ।
किंतु सन् 1956 ई. में भाषायी आधार पर प्रांतों के उदय से, कुछ अंग्रेजी परस्त मानसिकता ने तो कुछ राजनीतिक स्वार्थ से हिन्दी का विरोध हुआ । इस विवाद का सर्वाधिक लाभ ‘अंग्रेजी’ को हुआ, जिसने राजकाज की भाषा में अपना स्थान और मजबूत कर लिया । कुछ अवसरवादी और सुविधाभोगी ताकतें अपने अस्तित्व को कायम रखने हेतु अंग्रेजी को प्रश्रय देती रहीं, परिणाम यह हुआ कि शासन-संचालन से लेकर आम जीवन में प्रभुता का वरण कर यह हमारे मानस-पटल पर छा गई । आज ‘सीसेट’ परीक्षा में हिन्दी-अंग्रेजी विवाद इसी की देन है ।
गौर करें तो स्पष्ट होगा कि देश की एक अरब जनता की आज भी शासन में भागीदारी नहीं है, क्योंकि वे अंग्रेजी नहीं जानते । बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से खर्चीली पढ़ाई कराने में वे सक्षम भी नहीं है, अतः उच्च पदों पर उनका आना एक स्वप्न ही है । विगत वर्ष में आयोजित सिविल सर्विस परीक्षा में कुल 1122 अभ्यर्थी चयनित हुए । उनमें हिन्दी माध्यम के 26 तथा अन्य भारतीय भाषाओं के 27 अभ्यर्थी चयनित हुए । यह स्थिति तो किसी गुलाम देश की भी नहीं हो सकती । यह प्रश्न मात्र हिन्दी का ही नहीं, बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं के अस्तित्व का है । यह कैसे संभव है कि 2 प्रतिशत अंग्रेजी जानने वाला समूह 98 प्रतिशत शेष समूह पर अपनी नीतियाँ थोपे और लोकतंत्र के स्वाभाविक अधिकार पर अंकुश लगाए ।
मेरा मानना है कि अपभ्रंश से जनित अधिकांश आर्य भाषाओं का हिन्दी से खून का रिश्ता है, तो दक्षिण की भाषाओं ने अपना विराट साहित्यिक गौरव बनाये रखा है । अब प्रश्न हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के संघर्ष का नहीं रहना चाहिए, क्योंकि हिन्दी के साथ यदि अन्य बोलियों का साहित्य फल-फूल सकता है तो अन्य भाषाओं का क्यों नहीं? मेरा मानना है कि पारस्परिक सामंजस्य से तो सभी भारतीय भाषाओं का स्नेहपरक आदान-प्रदान इन्हें समृद्ध बनाएगा और क्षेत्रीय परिधि राष्ट्रीय स्तर तक फैलेगी ।
अब समय आ गया है कि अंग्रेजी वर्चस्व को चुनौती देने के लिए हिन्दी के नेतृत्व में समस्त भारतीय भाषाओं को एकजुटता दिखाते हुए अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करना होगा । उच्च संवैधानिक संस्थाओं यथा-कार्यपालिका, न्यायपालिका या व्यवस्थापिका में भारतीय भाषाओं को यथोचित स्थान दिलाने के लिए सर्वप्रथम अंग्रेजी मानसिकता से बाहर आना होगा ।
अंग्रेजी यदि तकनीक की भाषा है, यह दिखावा है । रूस, जापान, चीन ने अपना तकनीकी विकास अपनी भाषा में किया है, अतः यह भ्रम है कि अंग्रेजी के ज्ञान के अभाव में हम पिछड़ जाएँगे । वस्तुतः यह भाव ही हमें अंग्रेजी का पिछलग्गु बना रहा है और स्वयं की भाषाओं का साहित्य, संस्कृति एवं गौरव को धीरे-धीरे हमारी पीढ़ियों के दायरे से बाहर कर रहा हैं । आशा है हिन्दी व गैर हिन्दी समूह इस प्रश्न पर अवश्य विचार करेगा । 
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