'अंधा युग और भारतीय मूल्यबोध'


'अंधा युग’ और भारतीय मूल्य बोध
अपनी माटी पत्रिका के जनवरी-मार्च, २०२३ अंक में प्रकाशित...

महाभारत भारतीय इतिहास की शताब्दियों पुरानी वह घटना है, जिसे वेदव्यास ने शब्दबद्ध किया। यह ग्रंथ जिस युग में लिखा गया, वहाँ मूल्य-विहीनता, पतनशीलता, मर्यादा का अतिक्रमण का दृश्य पग-पग पर दिखाई देता है। 'अंधा युग' धर्मवीर भारती रचित गीतिनाट्य महाभारत के अट्ठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु के क्षण तक की घटनाओं पर आधारित है। डॉ. भारती अपने युग की संक्रांतिकालीन बेला के साक्षी रहे हैं। तत्कालीन परिस्थितियाँ जहाँ एक ओर युद्धजनित त्रासदियों की शिकार मानवता है, तो दूसरी ओर अंधकारमय वातावरण में भी जीवन के प्रति उत्कट भाव-प्रवणता। इस संधिकालीन समय में कवि भारती के मन में दुविधा, संशय और भय के साथ-साथ आस्था का स्वर भी अंकुरित होता है। ‘अंधायुग’ डॉ. भारती की एक ऐसी रचना है, जहाँ वे नवीन भाव और विचार बोध को जन्म तो देते हैं, परंतु संपूर्ण कृतित्व में आस्था और अनास्था का द्वंद्व निरंतर जारी रहता है। महाभारत का यह घटना-चक्र संपूर्ण मानवता को संदेश देता है कि मूल्य-विहीन होने पर पतनशीलता निश्चित है। गांधारी, धृतराष्ट्र, विदुर, युयुत्सु, याचक आदि पात्रों की  मनःस्थिति हमारा वर्तमान है जो अभी भी गतिमान है।

डॉ. भारती ने अपनी प्रखर मेधा का परिचय देते हुए ‘अंधायुग’ में महाभारत के मिथकीय आवरण में समकालीन युद्धजनित समस्याओं का बखूबी चित्रण ही नहीं किया, बल्कि निजी अनुभूति को व्यापक सत्य के रूप में प्रकट किया। ‘अंधायुग’ कृति के रचनागत उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए वे लिखते हैं- “......... इस कृति का पूरा जटिल वितान जब मेरे अंतर में उभरा तो मैं असमंजस में पड़ गया। थोड़ा डर भी लगा। लगा कि इस अभिशप्त भूमि पर एक कदम भी रक्खा कि फिर बचकर नहीं लौटूँगा।”1 परन्तु रचनाकार अपने दायित्व से विमुक्त नहीं हो सकता, इसीलिए वे आगे लिखते हैं- “पर एक नशा होता है- अन्धकार के गरजते महासागर की चुनौती को स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों में उतरते जाने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोर कर, बचाकर, धरातल तक ले आने का।”2  कितनी बड़ी विडम्बना है कि उच्च संस्कृतियों और मूल्यों का ताज पहने हुए मानव ही मानव आत्मा के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाता। डॉ. भारती की मान्यता यह रही है, “साहित्य में शब्द तभी समर्थ, प्रेषणीय और प्राणवान बनते हैं, जब उनमें मानवीय मूल्य आन्तरिक रूप से प्रतिष्ठित रहता है।“3 वस्तुतः असंगतियों को अनावृत्त करना ही सृजनधर्मिता है। 

युद्ध के उपरांत स्थितियाँ, मनोवृत्तियॉं एवं आत्माएँ सब कुछ विकृत हो जाती हैं, जहाँ जीवन के प्रति कोई आसक्ति शेष नहीं रह जाती। केवल अतीत की त्रुटियों पर क्षोभ से भविष्य की पटकथा लिखना इतना आसान नहीं होता। अनास्था के इस भीषण वातावरण में कवि ने कहा, "यह कथा ज्योति की है, अंधों के माध्यम से"- तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात् अंधकार से प्रकाश की ओर गमन का संदेशवाहक यह भारतीय मूल्य-बोध आने वाले भविष्य का निर्माण कर रहा है जो हमारी आस्थावादी सम्यक दृष्टि का विस्तार है। 'अंधायुग' युद्ध के विरुद्ध एक सशक्त अपील है, क्योंकि युद्ध मानव मूल्यों के नकार का उदाहरण है। मर्यादा का बिखराव,रक्तपात और विनाश युद्ध का अंतिम सत्य है। इसमें दोनों ही पक्षों को अपना आत्म-तत्व खोना पड़ता है और महाभारत के युद्ध का परिणाम भी कवि की दृष्टि में कुछ ऐसा ही रहा-

भय का अंधापन, ममता का अंधापन
अधिकारों का अंधापन जीत गया
जो कुछ सुंदर था, शुभ था, कोमलतम था
वह हार गया... द्वापर युग बीत गया।4

सुंदर, शुभ और कोमलतम की हार मानवता की पराजय है। द्वापर युगीन यह कथा आज के समय को भी ध्वनित करती है। मनुष्य का अवचेतन मन सदैव विवेक पर अधिपत्य कर लेता है, इस कारण निर्णय के क्षण में विवेक और मर्यादा व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं। युद्ध के इस कारण को खोजते हुए गांधारी ने अपने कथन में इस भाव को व्यक्त किया-

हम सबके मन में कहीं एक अंध गह्वर है।
बर्बर पशु, अंधा पशु, वास वही करता है।5

युद्ध के समय सत्य की रक्षा कदापि नहीं हो सकती और अंततः सत्य का विस्थापन गंभीर परिणाम चुकाता है। अश्वत्थामा के अनास्थावादी चरित्र निर्माण के पीछे युधिष्ठिर का वह अर्धसत्य है जिसके कारण उसके पिता की मृत्यु हुई। धर्मराज की उपमा से विभूषित युधिष्ठिर 'नर या कुंजर' अर्थात् मानव और पशु को भी पृथक नहीं कर सके। इसीलिए अश्वत्थामा ने कहा कि मेरे ह्रदय के अंदर जो कुछ भी अच्छा था उसकी भ्रूण-हत्या युधिष्ठिर के अर्धसत्य ने की। अब उसके समक्ष एक ही विकल्प है-

वध, केवल वध, केवल वध,
मेरा धर्म है।6

अश्वत्थामा का प्रतिशोध यहीं तक सीमित नहीं रहता। वह सत्य रूपी संजय और भविष्य रूपी याचक की  हत्या का प्रयास भी करता है। धर्म के पक्ष में खड़ा रहने वाला युयुत्सु अभिशप्त जीवन जीता है, दोनों ही पक्षों से प्रताड़ित होता है और अंततः आत्महत्या करता है। यह विपरीत समय का दर्दनाक सच है। युयुत्सु की आत्महत्या पर कृपाचार्य का यह कथन भयंकर परिणाम की ओर इंगित करता है-

यह आत्महत्या होगी प्रतिध्वनित
इस पूरी संस्कृति में,
दर्शन में,धर्म में, कलाओं में,
शासन व्यवस्था में
आत्मघात होगा बस अंतिम लक्ष्य मानवता का।7

नैतिकता के पतन से मनुष्य स्वार्थी हो जाता है। धृतराष्ट्र महाभारत के ऐसे ही पात्र हैं। उनका अंधापन कुंठा एवं स्वार्थपरता ने मानवीय त्रासदी को आमंत्रित किया। युद्ध के अंत में विदुर के समक्ष जब वह अपने पश्चाताप भरे शब्दों में पीड़ा को प्रकट करते है तो वह स्वयं ही उन कारकों को उजागर कर देते है, जिससे युद्ध की नियति बनी-

मेरे मन ने सारे भाव किए थे विकसित
मेरी सब वृत्तियॉं उसी से परिचालित थीं!
मेरा स्नेह, मेरी घृणा, मेरी नीति, मेरा धर्म
बिल्कुल मेरा ही वैयक्तिक था।
उसमें नैतिकता का कोई बाह्य मापदंड था ही नहीं।8

अश्वत्थामा का प्रतिशोध ब्रह्मास्त्र का संधान हमें उस परमाणु त्रासदी का चित्र बताता है जहाँ अज्ञेय के शब्दों में मानव का रचा हुआ सूरज मानव को भाप बनकर सोख जाता है। व्यास की यह चेतावनी विष्णु यथार्थ को प्रकट करती है-

ज्ञात क्या तुम्हें है परिणाम इस ब्रह्मास्त्र का?
यदि यह लक्ष्य सिद्ध हुआ ओ नरपशु!
तो आगे आने वाली सदियों तक
पृथ्वी पर रसमय वनस्पति नहीं होगी
शिशु होंगे पैदा विकलांग और कुष्ठग्रस्त
सारी मनुष्य जाति बौनी हो जायेगी
जो कुछ भी ज्ञान संचित किया है मनुष्य ने
सतयुग में, त्रेता में, द्वापर में
सदा-सदा के लिए होगा विलीन वह
गेहूं की बालों में सर्प फूफकारेंगे
नदियों में बह-बह कर आयेगी पिछली आग।9

‘अंधायुग’ में प्रभु अपने अवसान के क्षणों में जब ध्वंस का दायित्व अपने ऊपर लेते हैं तो भविष्य की कल्पना भी रखते हैं। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी का कथन है- “आस्था का प्रश्न संजय, युयुत्सु और अश्वत्थामा के माध्यम से कवि ने प्रस्तुत किया है और अनास्था को आस्था की भूमिका के रूप में स्वीकार किया है।”10 विदुर का निवेदन इसी का प्रमाण है-

यह कटु निराशा की / उद्धत अनास्था है / क्षमा करो प्रभु।
यह कटु अनास्था भी अपने / चरणों में स्वीकार करो।
आस्था तुम लेते हो / लेगा अनास्था कौन?”11

मनुष्य के समस्त अनैतिक क्रियाकलापों का परिणाम और नैराश्य का फल प्रभुता की मृत्यु के रूप में प्राप्त होता है। ‘अंधायुग’ में ‘कृष्ण’ का चरित्र जिस रूप में प्रकट हुआ है, उस बारे में कतिपय आलोचकों का मत है कि भारती जी ने भारतीय संस्कृति में कृष्ण के प्रति आस्था को कम कर दिया है, किंतु गहराई से दृष्टिपात करें तो यह प्रकट होता है कि कृष्ण की मृत्यु अश्वत्थामा के अनास्था भाव को समाप्त कर देती है। 'अंधा युग' में प्रभु श्री कृष्ण की मृत्यु और उसके उपरांत अश्वत्थामा का आत्मबोध हमें आश्वस्त करता है कि भारतीय मूल्यों की आस्थावादी दृष्टि का फलक भविष्य को संचित करने वाला है, क्योंकि कृष्ण भविष्य के रक्षक हैं, अनासक्त है। यदि अपने आत्मत्याग से ही शांति की स्थापना होती है तो वह इस हेतु भी उपस्थित हैं। यह विचार महान भारतीय सनातन परंपरा का उद्घोष करता है। स्वयं अश्वत्थामा का कथन प्रमाणित करता है-


सुनो, मेरे शत्रु कृष्ण सुनो!
मरते समय क्या तुमने इस नरपशु अश्वत्थामा को
अपने ही चरणों पर धारण किया
अपने ही शोणित से मुझ को अभिव्यक्त किया?12

यही आस्था भाव कवि को सृजनात्मक धर्म की ओर प्रेरित तो करता है, पर अंतस् में निहित व्याकुलता द्वंद्व को जन्म देती है। जो कवि संक्रमणकालीन परिस्थितियों और विसंगतियों का द्रष्टा हो, वह अपने भावों को निश्चित रूप से इन्हीं शब्दों में प्रकट करेगा। शत्रु के मन से घृणा भाव की समाप्ति आस्थावादी दृष्टि का विस्तार करती है। मानवता के नए वितान की रचना करती है। जैसा कि अश्वत्थामा ने कहा-

जैसे सड़ा रक्त निकल जाने से
फोड़े की टीस पटा जाती है
वैसे ही मैं अनुभव करता हूँ विगत शोक
यह जो अनुभूति मिली है
क्या यह आस्था है?13

कवि की मानवतावादी चेतना भी क्रियात्मक एवं रचनात्मक शक्ति रखती है। कुंठा, आकुलता, हिंसा, विकृति, रक्तपात और बर्बरता में भी कृष्ण का यह आश्वासन सृजन का संदेश देता है, यथा-

मर्यादायुक्त आचरण में / नित नूतन सृजन में /
निर्भयता के / साहस के / ममता के / रस के /
क्षण में / जीवन और सक्रिय हो उठूंगा मैं बार-बार।14

अंत में अश्वत्थामा का आस्थावादी होना मानवता की विजय है। कृष्ण मृत्यु को वरण करके भी भारतबोध की मूल्य चेतना को जीवित रखने में सफल रहे हैं। आस्था और अनास्था के द्वंद्व में भी कवि का समष्टि भाव ही अधिक मुखर रहा है। ‘अंधायुग’ में युयुत्सु का चरित्र आस्था के प्रति अनास्था भाव को प्रकट करने वाला है, वहीं कृष्ण की मृत्यु पर अश्वत्थामा का आस्थावान् बन जाना अपूर्व है । डॉ. धर्मवीर के काव्य में युगीन विद्रुपताओं, वेदना व पीड़ा की गाथाओं, युद्ध जनित विषमताओं, मानवता को त्रास पहुँचाने वाली कई घटनाओं के चित्रण के बावजूद वे अपनी आस्था का स्वर तलाश करते हैं। ‘अंधा युग’ की संपूर्ण रचना-प्रक्रिया में आस्था और अनास्था के द्वंद्व में आस्थावादी दृष्टि का आकर्षण- पाठकों को सदैव आकर्षित करता है और भावी मूल्यों के निर्माण की प्रेरणा भी देता है। युद्ध की विभीषिका से त्रस्त मानवता,परमाणु बमों की भयंकरता, मनुष्यता की पीड़ा, मानव मूल्यों की मर्यादा आदि के माध्यम से 'अंधा युग' को न केवल वर्तमान में बल्कि आने वाले समय में भी उपयोगी माना जाएगा।

संदर्भ
1.अंधायुग, डॉ. धर्मवीर भारती, किताब महल, इलाहाबाद, सं. 1999, भूमिका, पृ.3
2.पूर्ववत्, पृ.3
3.मानव मूल्य और साहित्य, डॉ. भारती,  भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली-32, सं. 2006, पृ.177
4.अंधायुग, डॉ. धर्मवीर भारती, किताब महल, इलाहाबाद,सं. 1999, पृ.11
5.पूर्ववत्, पृ.19
6.पूर्ववत्, पृ.36
7.पूर्ववत्, पृ.85
8.पूर्ववत्, पृ.16
9.पूर्ववत्, पृ.73
10.हिन्दी नव लेखन, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सं.1960, पृ.60
11.अंधायुग, डॉ. धर्मवीर भारती, किताब महल, इलाहाबाद, सं. 1999, पृ.19
12.पूर्ववत्, पृ.95
13.पूर्ववत्, पृ.95
14.पूर्ववत्, पृ.99

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