रामचन्द्र शुक्ल: दृष्टि-सृष्टि (पुस्तक समीक्षा)

 

पुस्तक समीक्षा-
रामचन्द्र शुक्ल: दृष्टि-सृष्टि
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'साहित्य परिक्रमा' में प्रकाशित...

हिन्दी समालोचना को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने का श्रेय निस्संदेह आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को है। उन्होंने प्राचीन भारतीय और नवीन पाश्चात्य काव्य सिद्धान्तों का समन्वय कर अपना तार्किक मत रखते हुए समालोचना के नए सिद्धान्त निर्मित किए। हिन्दी समालोचना के क्षेत्र में एक मान्य, प्रौढ़ मानदण्ड और प्रभावशाली पद्धति की आवश्यकता थी, इसकी पूर्ति शुक्लजी ने की। लेकिन आचार्य शुक्ल का रचनात्मक आकाश कविता, कहानी, निबंध, साहित्येतिहास, साहित्य-शास्त्र एवं अनुवाद आदि क्षेत्रों में विस्तारित है। आचार्य शुक्ल की समग्र साहित्यिक दृष्टि एवं सृष्टि के अवलोकन का प्रयास कृष्ण बिहारी पाठक की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘रामचन्द्र शुक्ल: दृष्टि-सृष्टि’ में हुआ है। उक्त पुस्तक में संकलित आठ निबंधों में कविता संग्रह ‘मधुस्रोत’, निबंध-संग्रह ‘चिन्तामणि’, कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय’, हिन्दी साहित्य का इतिहास एवं तुलसी, सूर, जायसी पर लिखित आलोचनात्मक ग्रंथों के माध्यम से आचार्य शुक्ल की रचनाधार्मिता के मूल्यांकन का सार्थक प्रयास दिखाई देता है।
आचार्य शुक्ल एक आलोचक तो हैं ही वरन एक कवि हृदय भी हैं। आलोचना विधा के महानायक आचार्य शुक्ल का कवि-हृदय भी उन्नत कोटि का रहा है। यद्यपि वे आलोचक तो हैं ही, तथापि उनका विपुल काव्य उनके कवि होने का प्रमाण हैं। उनके विपुल काव्य का संकलन ‘मधुस्रोत’ नामक काव्य-संग्रह में है। मधुस्रोत’ में आचार्य शुक्ल रचित 31 कविताओं का संकलन है। जिसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा 1971 में किया गया। 1901 से 1929 तक लिखित ये कविताएँ तत्कालीन प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं- सरस्वती, आनंदकादंबिनी, बालप्रभाकर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, लक्ष्मी, इन्दु, बाल हितैषी, माधुरी, सुधा आदि में प्रकाशित हुई। ‘मधुस्रोत’ नामक काव्य-संग्रह की सम्यक् विवेचन आचार्य शुक्ल की काव्य-प्रतिभा का निदर्शन, परवर्ती आलोचक का बीजग्रंथ और समय की अनुगूँज में प्रखर व्यक्तित्व का प्रमाण देता है। पुस्तक के प्रथम निबंध में ‘मधुस्रोत’ के साथ-साथ अन्य ग्रंथों के आधार पर उनके प्रकृति-प्रेम को समालोचक की दृष्टि से प्रकट किया है।
आचार्य शुक्ल ने सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार की समीक्षाएँ लिखी। सैद्धान्तिक समीक्षा की दृष्टि से ‘रस-मीमांसा’ स्वयं एक प्रतिमान है, जबकि व्यावहारिक आलोचना का उन्नत रूप ‘तुलसी’, ‘जायसी’ की ग्रंथावली की भूमिकाओं, ‘भ्रमर गीत सार की भूमिका’ तथा ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में दिखाई देता है। सौन्दर्यानुभूति को भी आचार्य शुक्ल ने रसानुभूति के स्तर पर ही देखा है। वे लोक की सामान्य भूमि और सामान्य हृदय की स्थिति की भाँति ही सौन्दर्य के सामान्य आदर्श की स्थिति मानते हुए उसकी अनुभूति को मंगल विधायिनी मानते हैं। आचार्य शुक्ल ने ‘रसवाद’ को आध्यात्मिक भूमि से उतारकर वैज्ञानिक आधार पर प्रतिष्ठित किया। ‘रस’ को काव्य की आत्मा स्वीकार करके शेष समस्त मान्यताओं को इसी के भीतर समाविष्ट किया। उन्होंने ‘रस-सिद्धांत’ को आधुनिक युग की आकांक्षा के अनुकूल करके पुनः प्रतिष्ठित किया। वे हिन्दी के पहले आलोचक हैं, जिन्होंने भारतीय काव्य शास्त्र की अतल गहराई में प्रवेश करके उसकी महत्ता, सारवत्ता, व्यापकता और उपयोगिता को रेखांकित प्रस्तुत पुस्तक के दो आलेख- आलोचना के भारतीय संदर्भ एवं समालोचना के सांस्कृतिक प्रतिमान में उक्त दृष्टि का सम्यक विवेचन समाहित है।
आचार्य शुक्ल का सैद्धांतिक समीक्षा का आधार भारतीय काव्य-शास्त्रीय सिद्धांत ‘रसवाद’ है। आचार्य शुक्ल ने इसे सर्वथा पूर्ण मानदण्ड माना। प्रसिद्ध आलोचना ग्रंथ ‘रस मीमांसा’ में इसका पर्याप्त विवेचन हुआ है।इसके अतिरिक्त चिन्तामणि भाग-2 में संगृहीत ‘काव्य में रहस्यवाद’ तथा ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ में भी सैद्धांतिक आलोचना का विवेचन मिलता है। आचार्य शुक्ल की सैद्धांतिक आलोचना को संकलित अन्य विविध निबंधों में मूल्यांकित करते हुए भारतीय काव्यशास्त्र की महनीयता को भी उजागर किया है। आचार्य रामंचद्र शुक्ल के निबंधों का संग्रह ‘चिंतामणि’ के दो भागों में सुरक्षित है। चिंतामणि भाग-एक में संगृहीत सत्रह निबंध मनोविकार व समीक्षात्मक श्रेणी के हैं, जबकि चिंतामणि भाग-दो में काव्यशास्त्र से संबंधित तीन गवेषणात्मक निबंध हैं। इस प्रकार आचार्य शुक्ल द्वारा लिपिबद्ध बीस निबंधों का विषय-क्षेत्र मनोविकार, काव्यशास्त्र एवं आलोचना के परिक्षेत्र में है। ये निबंध हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। अपनी मौलिक उद्भावनाओं और बलवती विचार शैली के कारण वे निबंध क्षेत्र के एकमात्र अधिपति हैं। लेखक ने भी इसी मत का समर्थन करते हुए इसे समालोचना का लक्षण-ग्रंथ कहा है।
आचार्य शुक्ल ने काव्य भाषा की चार मुख्य विशेषताएँ मानी हैं- लाक्षणिकता, रूप व्यापार सूचक शब्दों का प्रयोग, नाद-सौष्ठव तथा रूप गुण बोधक शब्दों का प्रयोग। वे अलंकारों को कविता का साधन मानते हैं, साध्य नहीं। छन्द-विधान को वे नाद-सौन्दर्य की प्रेषणीयता में सहायक मानते हैं। आलेख ‘भाषासृष्टि-भाषा-दृष्टि’ में लेखक ने शुक्ल जी के लेखन का मूल्यांकन उनके द्वारा निर्मित कसौटी पर ही किया। इससे उनकी आलोचनात्मक दृष्टि और रचनात्मक सृष्टि का पता चलता है।

इसके अतिरिक्त आचार्य शुक्ल की कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय’ के बहाने शुक्ल जी की नैसर्गिक प्रतिभा एवं बहुआयामी व्यक्तित्व को चित्रांकित करने का प्रयास उल्लेखनीय है। राजस्थान साहित्य अकादमी,उदयपुर के सहयोग से मधुशाला प्रकाशन प्रा. लि. भरतपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक का आवरण पृष्ठ सहृदय चित्रकार चेतन औदीच्य की तूलिका से हुआ है, जिसमें गहन सौन्दर्य-बोध बिम्बित होता है। 150 पृष्ठीय पुस्तक का आमंत्रण मूल्य 300/- रखा गया है, जो उचित है। समग्रतः यह पुस्तक विद्यार्थियों एवं शोधार्थियों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है जो आचार्य शुक्ल की दृष्टि व सृष्टि को समझना चाहते हैं।









पुस्तक: रामचन्द्र शुक्ल: दृष्टि-सृष्टि
लेखक: कृष्ण बिहारी पाठक
प्रकाशक: मधुशाला प्रकाशन प्रा. लि. भरतपुर
पृष्ठ: 150
मूल्य: 300/-

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