मधुमती, अंक जनवरी-2018 में प्रकाशित।
गतांक से निरन्तर.......
कविता में अपने समय की अभिव्यक्ति होना आवश्यक है। धार्मिक-सांस्कृतिक संकट में उसकी भूमिका और महत्त्वपूर्ण हो जाती है। आशीष सिंह ने इस संदर्भ में लिखा- ‘‘वस्तुतः कविता का पहला दायित्व अपने परिवेश को अभिव्यक्ति देना है। शाश्वतता, महानता और ऐतिहासिक की चिन्ता कविता को नहीं, सिद्धांत को जन्म दे सकती है और सिद्धांत कभी कविता नहीं बन सकता। एक समय था जब धर्म कविता के लिए सामयिक विषय था, क्योंकि उस समय व्यक्ति के सामने धार्मिक-सांस्कृतिक संकट नहीं था। कविता ने निःसंकोच धार्मिक तेवर अपनाया और वह कविता महान बनी।’’
बौद्धिक विचारों और वैचारिक मत भिन्नताओं के कारण साहित्यिक मैत्री का ह्वास नहीं होना चाहिए। अपने मित्रों से प्रेम के होते हुए भी असहमति को अनूप शुक्ल ने इस प्रकार प्रकट किया- ‘यद्यपि’ सम ही सम से कीजिए, ब्याह, बैर और प्रीति’ का पाठ हमने भी पढा है, लेकिन परम्परा से यही सीखा है कि मित्रता में पद, या शक्ति, संपदा, बुद्धि और विचारधारा नहीं देखी जाती... इसीलिए, जो इस कारण नाराज रहते हैं कि उनके राजनीतिक, सांप्रदायिक और अतिरंजित विचारों का संज्ञान तक क्यों नहीं लिया जाता? जिन्हें रंग-बिरंगी दुनिया से परहेज है; जो सारी दुनिया को अपने रंग में रंग देना चाहते हैं, वैयक्तिक स्वतंत्रता में जिनका विश्वास केवल खुद के लिए है और अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब अपनी आजादी है, जिनकी जनतांत्रिक मूल्यों में कोई आस्था नहीं है, मनुष्यता को निरर्थक मानते हैं, विचारहीनता को विचारशीलता समझते हैं तथा बुद्धि व दक्षता के बिना भी दुनिया पर परचम फहराने का असंभव स्वप्न देखते हैं... ऐसे भोले व नादान मित्रों से भी हमें बडा प्रेम है।’’
हिन्दी साहित्य में पश्चिमी प्रभाव से कई विचारधाराओं का प्रवेश हुआ, हालाँकि कुछ अन्तराल बाद वे विलुप्त भी होती गईं। वैचारिकता का आवरण फैशन बन कर उपस्थित है। इसी विषय पर रमेश उपाध्याय ने लिखा- ‘‘हिन्दी साहित्य बडा फैशनेबल साहित्य है। नये फैशन अविलंब
अपना लेता है, लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि फैशन बडी तेजी से बदलते हैं और वह एक फैशन को ठीक से अपना भी नहीं पाता कि तब तक दूसरा फैशन आ जाता है। वह ठीक से आधुनिक भी नहीं हो पाया था कि उत्तर-आधुनिकतावाद आ गया, ठीक से यथार्थवादी भी नहीं हो पाया था कि उत्तर-यथार्थवाद आ गया। सच बोलना उसे किसी हद तक आता था, पर अब उत्तर-सत्य आ गया और बेचारा हिन्दी साहित्य पशोपेश में है कि क्या वह जिस तरह हबड-तबड में आधुनिकोत्तर और यथार्थवादोत्तर हुआ, उसी तरह सत्योत्तर भी हो जाये!साहित्य के पाठकों में निरंतर कमी होती जा रही है। अपने अनुभव साझा करते हुए उमाशंकर सिंह परमार ने लिखा- ‘‘एक बडे कवि ने मेरे पास फोन किया कि मेरी कविता फलाँ मैग*ाीन में आई है, पढकर बताइये। मैंने हफ्ते भर के भीतर उन्हें फोन किया और उनकी कविता पर बात की। मैंने कहा कि सर इसी मैग*ाीन में मेरा लेख भी है। आपने देखा? उनका जवाब था- ‘अरे मैंने देखा ही नहीं, आपने बताया ही नहीं, अभी देखता हूँ।’ मेरे कहने का आशय है कि लेखक या कवि केवल अपना पढते हैं आलोचकों में भी कम पढते हैं। यदि आलोचना में उद्धरण अधिक और विचार कम है, यदि बेसिर पैर के प्रसंगहीन स्टेटमेंट और तुलनाएँ अधिक हैं, गहराई से विश्लेषण कम है, तो समझ जाइए, आलोचक ने भी नहीं पढा है।
नवनीत पांडे ने नंद किशोर आचार्य के संवाद के एक अंश को उद्धृत करते हुए हिन्दी साहित्य से जन की दूरी का कारण वर्तमान उच्च शिक्षा को बताया है। कथन है- ‘‘हिन्दी साहित्य को जन-पाठक विमुख करने में हिन्दी के शिक्षकों, प्रोफेसरों की बात नहीं, साहित्य पढाने, शोध कराने वालों की बात कर रहा हूँ, जो साहित्य के जिज्ञासुओं की जगह, नौकरी के लिए फौज तैयार करते हैं। वे कोर्स से बाहर न खुद पढते हैं, न किसी को प्रेरित करते हैं। उन्हें मालूम ही नहीं, नया कहाँ, किसके द्वारा लिखा जा रहा है।’’
‘गोदान’ उपन्यास भारतीय ग्रामीण जीवन का जीवन्त दस्तावेज है। यह आज भी प्रासंगिक है और इसमें उठाए गए प्रश्न ज्यों के त्यों हैं। आधुनिक संदर्भों में इस उपन्यास के प्रमुख पात्र ‘होरी’ और ‘गोबर’ के बहाने अनूप शुक्ल ने वर्तमान नगरीय और ग्रामीण जीवन की तुलना करते हुए लिखा- ‘‘शहर वाले इस चिन्ता में बहुत दुबले रहते हैं कि सारे गाँव वाले शहर में आ आकर जनसंख्या विस्फोट किए डाल रहे हैं, जबकि शहर की सुविधाओं पर अभी अभी या पहले कभी आकर बसे शहरियों का ही हक है.... अरे भाई, कभी गाँव के नजरिए से भी देखो, तो पता चलेगा कि लमही में प्रेमचंद का होरी आज भी वैसे ही गंदगी और गरीबी में जीवन बिता रहा है, जैसा पिछली शताब्दी में बिना रहा था... और उसके लडके गोबर ने शहरी सपनों के साथ जीने का फैसला किया है, तो शहर के ‘गोबरमय होने के अंदेशे में तुम खामखाह दुबले हो रहे हो... सौ बातों की एक बात तो यह है कि ‘गोबर’ शहर आ चुका है... अब गोबर से मुक्ति चाहिए... तो गाँव को शहर बनाओ, गाँव को शहर की सुविधाओं से सजाओ... ऐसे गोबर वापस नहीं जाने वाला।’’
‘त्रिलोचन’ की जन्मशती पर साहित्य जगत में विशेष चर्चा न होने की पीडा उजागर करते हुए डॉ. विजेन्द्र ने उनका मूल्यांकन करते हुए लिखा- ‘‘त्रिलोचन की कविता में लडता हुआ समाज और सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध साफ दिखाई पडता है। लगता है वह जनता से सीधे संवाद कर रहे हों। निराला के बाद इतनी ठेठ खडी बोली का तेवर अन्य किसी कवि में दुर्लभ है। त्रिलोचन जो देखते हैं, वह लिखते हैं। यह खूबी अंग्रेजी के महाकवि वर्ड्सवर्थ में ही मिलती है। सही अर्थ में वे निराला के उत्तराधिकारी कवि हैं। उनकी कविता में निराला की कविता का ही विकास है, लेकिन त्रिलोचन की सबसे बडी सीमा है उनका सॉनेट में उलझ जाना। अगर वह सॉनेट में नहीं उलझते तो वह बहुत बडे फलक की प्रदीर्घ कविताएँ लिख सकते थे, जो मुक्तिबोध की लम्बी कविताओं से कम महत्त्वपूर्ण न होती।’’
हिन्दी का प्रमुख गुण है- इसकी समाहार शक्ति। परिणाम स्वरुप अनेक विदेशी शब्द हिन्दी में स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त होते हैं। उर्दू- फारसी शब्दों में नुक्ता लगाने की परम्परा है। देवनागरी लिपि में भी नुक्ता का प्रयोग किया जाने लगा है। इसी आधार पर देवेन्द्र आर्य की टिप्पणी रोचक है- ‘‘भाषा से अधिक भावना पाक साफ होनी चाहिए। जो लोग भावना से अधिक भाषा की पाकीजगी में ही उलझे रहते हैं, वे शायरी नहीं, शायरी का कारोबार करते हैं।.... हिन्दी को उर्दू से अगर सिर्फ नुक्ता अलग करता है तो इसके पालन में ढिलाई बरतनी होगी, जब तक कि नुक्ते के इस्तेमाल से दूसरा लफ्ज न बन रहा हो। बेशक नुक्ता उर्दू का सौन्दर्य है, परन्तु सौन्दर्य विकास में बाधक न बने, इस पर भी विचार आवश्यक है। उर्दू लिखते वक्त बिना जेर, पेश लगाए भी आप नही पढवाना चाहते हैं, जो आप लिख रहे हैं और लोग वही पढते भी हैं। नुक्ते भाषा के सौन्दर्य से अधिक भाषायी कुंठा का सबब न बनने पाए, वरना भाषा को मजहब से जोडने की मुहिम कभी नाकाम नहीं होगी।’’
सम्पादक का कार्य केवल रचना का चयन कर प्रकाशन करना ही नहीं है, वरन् आवश्यक सुधार अथवा विकास की संभावना को दृष्टिगत रखकर लेखक को अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराना भी है। संपादन प्रक्रिया के बारे में राजेश ‘उत्साही’ लिखते हैं- ‘‘संपादन के काम को लोग जितना आसान समझते हैं, उतना होता नहीं है। आमतौर पर अवधारणा यह है कि संपादक का काम केवल रचना चुनना है, जबकि व्यावहारिक रूप से अच्छे संपादक रचना को पढते हैं; उसमें सुधार या विकास की गुंजाइश हो तो चिह्नित करते हैं, लेखक से चर्चा कर उसमें आवश्यक परिवर्तन भी करते हैं। मुश्किल यह है कि अपनी रचनाओं या लिखे हुए को प्राप्त प्रतिक्रियाओं के आधार पर परिमार्जित करने वालों की संख्या सौ में से दस से अधिक नहीं होती।... एक लेखक जब प्राप्त प्रतिक्रियाओं पर विचार करता है और अपनी रचना में बदलाव करता है, तो यह प्रक्रिया आगे की रचनाओं में स्वतः ही आती है। अच्छा लिखने के लिए इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि शब्द चयन कैसा हो, भाषा कैसी हो। उसमें जो मूल्य आ रहे हैं, उनसे क्या ध्वनित होता है, वे किन बातों की वकालत करते हैं या कि किन धारणाओं को पोषित करते हैं।’’
पाश्चात्य जीवन शैली ने हमारी दिनचर्या को बहुत सीमा तक प्रभावित किया है। पीढीगत अन्तर बहुत अधिक दिखाई देने लगा है। सोमेश्वर देवडा ने अपनी पीडा को व्यक्त करते हुए लिखा- ‘‘आने वाले १०/१५ साल में एक पीढी, संसार छोडकर जाने वाली है... कडवा है, लेकिन सत्य है। इस पीढी के लोग बिल्कुल अलग ही हैं... रात को जल्दी सोने वाले, सुबह जल्दी जागने वाले, भोर में घूमने निकलने वाले। आँगन और पौधों को पानी देने वाले, देवपूजा के लिए फूल तोडने वाले, पूजा-अर्चना करने वाले, प्रतिदिन मंदिर जाने वाले। रास्ते में मिलने वालों से बात करने वाले, उनका सुख-दुःख पूछने वाले, दोनों हाथ जोडकर प्रणाम करने वाले, पूजा होये बगैर अन्न ग्रहण न करने वाले।’’
मनुष्यता की सार्थकता विषय पर अपना चिंतन प्रस्तुत करते हुए अशोक जमनानी लिखते हैं कि ऋग्वेद का मंत्र जब कहता है ‘मनुर्भव’ अर्थात् मनुष्य बनो, तब सहज ही यह प्रश्न उठता है कि क्या हम मनुष्य नहीं हैं? भारत की चिंतन-परम्परा का विस्तार अद्भुत है और यही चिंतन इस प्रश्न के मर्म तक पहुँचने में सहायक बनता है।... हम यह याद रखें कि मनुष्य देह हमें मिला हुआ सर्वोत्तम उपहार है। इसे संवेदनशीलता का सौंदर्य देना है ताकि यह शिवपथ पर चलकर चेतना के सत्य का साक्षात्कार कर सके और मनुष्य होने का संपूर्ण अर्थ पा सके।’’
एफ-६-७, रजत विहार, निम्बाहेडा, चित्तौडगढ-३१२६०१
मो. ९८२८६०८२७०
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