बावजी चतुरसिंहजी के काव्य में लोकनीति (सन्दर्भ- चतुर चिंतामणि)

बावजी चतुरसिंहजी के काव्य में लोकनीति
(सन्दर्भ- चतुर चिंतामणि)

लोकसाहित्य को जीवन के यथार्थ सपंदनों से ही प्रेरणा मिलती है। इसमें लाभ-हानि, यश-अपयश, उपयोगिता-अनुपयोगिता आदि का प्रश्न नहीं रहता। इसमें न भाषा का पांडित्य है, न कल्पना की कलात्मकता, बल्कि जीवन की सहजता की सहज अभिव्यक्ति ही होती है। विद्वानों की दृष्टि में लोक अनंत है, लोक असीम है। इसका भावलोक परत-दर-परत निरंतर खुलता जाता है, जिसके आगे विराम नहीं लगता। विश्वभर में जितने रूप लोक के हैं, उतने ही रूप लोकसाहित्य के हैं। लोकवाणी के भी उतने ही प्रकार हैं। लोक संवेदना की भी उतनी ही व्यापकता, विविधता है। लोक की भाषा ही लोकभाषा है। संपूर्ण लोक की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक संवेदनाएं लोक भाषा में ही अभिव्यक्त और समाहित हैं। लोकसाहित्य लोक भाषा के बहुरंगी रूप-स्वरूप में ही वाणी देता है।

हिन्दी साहित्यकोश में ‘लोक’ को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है- “लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पाण्डित्य की चेतना, पाण्डित्य के अहंकार से शून्य है और जो परम्परा के एक प्रवाह में जीवित रहता है।”1 वस्तुतः लोकतत्त्व की अर्थ-सीमा काफी विस्तृत है। इसके अन्तर्गत उन समस्त आचारों, विचारों, परम्पराओं, संस्कारों, रूढ़िगत बंधनों का समावेश हो जाता है, जिनका स्रोत लोकमानस है। जिनके परिमार्जन में संस्कृति की चेतना उपेक्षित नहीं होती। इसीलिए सांस्कृतिक चेतना के ज्ञान के लिए लोकजीवन को समझना आवश्यक रहता है। लोकजीवन में मानवीय व्यवहार का रेखांकन और उसकी सार्थकता हेतु लोकनीति का प्रभाव रहता है। सफल लोकजीवन हेतु लोकनीति का पालन अनिवार्य है। 

लोकप्रिय संतकवि बावजी चतुर सिंहजी न केवल राजस्थान, वरन भारत के एक लोकप्रिय लोक संत-कवि और निपुण योगी थे। उन्हें राजस्थान के पतंजलि और वाल्मीकि के रूप में याद किया जाता है।2 वीतरागी भक्त एवं महात्मा बावजी चतुरसिंह जी का मेवाड़ की भक्ति-परम्परा में उल्लेखनीय स्थान है। वे मेवाड़ की राज-परम्परा से जुड़े व्यक्तित्व होते हुए भी उदात्त-चिंतन, दार्शनिक दृष्टि एवं नीति-कथन की स्वाभाविकता से जन-सामान्य में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक महान कवि होने के साथ-साथ एक प्रबुद्ध व्यक्तित्व थे। उनका जन्म सोमवार 9 फरवरी, 1880 (वि.सं. माघ कृष्ण 14, 1936) को करजाली हवेली में रानी कृष्णा कुँवर और करजाली के महाराज सूरत सिंह के यहाँ हुआ था।3 उनकी रचनाएँ आध्यात्मिक ज्ञान और लोक व्यवहार का संतुलित मिश्रण हैं। उनकी वाणी में लोकनीति का सटीक चित्रांकन दर्शनीय है। जीवन के रहस्य को सुलझाने में उनके पदों की वक्रता लोकमन के हृदय की अभिव्यक्ति प्रतीत होती है। 

बावजी चतुरसिंह जी ने राजस्थानी की उपबोली लोकभाषा ‘मेवाड़ी’ में अपने विचार प्रकट किए। उन्होंने  स्थानीय जनता की मातृभाषा में मानवता के आध्यात्मिक, सामाजिक और  सुधारवादी ज्ञान का प्रचार किया तथा गद्य और पद्य दोनों लिखे, जिन्हें समाज के सभी वर्गों द्वारा बड़ी श्रद्धा के साथ पढ़ा जाता है। लगभग सात वर्षों (1922-1929) की छोटी अवधि के दौरान रचित साहित्यिक रचनाओं में- अलख पच्चीसी, तुही अष्टक, अनुभव प्रकाश, चतुर प्रकाश, हनुमत्पंचक, अंबिकाष्टक, शेष-चरित्र, चतुर चिंतामणि, शिव महिम्ना स्तोत्र, चन्द्रशेखर स्तोत्र, श्री गीताजी, मानव मित्रः राम चरित्र, परमार्थ विचार, हृदय रहस्य, बाळकं री वार, बाळकं री पोथी, सांख्यकारिका, तत्त्व समास, योग-सूत्र आदि उल्लेखनीय हैं। इन कृतियों में ‘चतुर चिंतामणि’ के दोहे जन सामान्य में विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इसमें छियालीस पद और तीन सौ चवहत्तर दोहे विनय, ज्ञान, नीति, वैराग्य एवं उपदेश आधारित हैं। कहीं-कहीं वीर रसात्मक पद भी आए हैं। 

‘चतुर चिंतामणि’ के पदों का लोकनीति की दृष्टि से विवेचन द्रष्टव्य है- 
लोकजीवन में धर्म की महिमा अनिर्वचनीय है। भारतीय जनमानस आध्यात्मिक मूल्यों को  सर्वोच्च स्थान देता है। कई बार वह धर्म के मूल मंतव्य को न समझकर रूढ़िवादी हो जाता है। अतः जीवन में  ज्ञान के साथ विवेक का होना आवश्यक है। इसके अभाव मानव का व्यवहार एकांगी हो जाता है। बावजी चतुरसिंह जी ने जनसामान्य को सन्देश देते हुए कहा कि संसार में अनेक धर्म हैं, सभी की उपासना पद्धति, कार्य-व्यवहार और व्यवहार पद्धति में भिन्नता है। लेकिन उक्त भिन्नता के बाद भी सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य है-ईश्वर को जानना। यह उद्देश्य विवेक होने पर ही प्राप्त हो सकता है-
धरम धरम सब एक है, पण वरताव अनेक।
ईश जाणणो धरम है, जीरो पंथ विवेक॥4
यह विचार आज के समाज के लिए विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, जहाँ धर्म और पंथ की उपासना पद्धतियाँ उसके मूल उद्देश्य से दूर हो गयी है। विवेक जीवन का अनिवार्य तत्त्व है। इसके  अभाव में किसी भी धर्म का पालन किया जाए तो उद्देश्य प्राप्त नहीं होगा। वे कहते हैं कि विद्यारूपी लता जीवन रूप वृक्षी से लिपटी हुई है। विद्यार्जन करना वृक्ष को जल सींचने के समान है। जिस प्रकार जल सींचने पर वृक्ष पर फल आते हैं। उसी प्रकार पढ़ने पर ही जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति होती है। जीवन में सुख-दु:ख रूपी फल विद्यार्जन के आधार पर ही प्राप्त होती हैं-

विद्या विद्या वेल जुग, जीवन तरु लिपटात॥
पढिबौ ही जल सचिबौ, सुख दुख को फल पात॥5

लोक जीवन में मनुष्य जीवन की सफलता में उसके स्वभाव का बहुत योगदान है। बावजी चतुर सिंह जी कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न होता है। उसकी महानता उसके द्वारा किए गए कार्यों से प्रकट होती है। कवि ने तुलना करते हुए लिखा कि जिस प्रकार रँहट और चरखी दोनों घूमते हैं, लेकिन रँहट के घूमने से पानी फसल तक पहुँचता है और खेत हरा-भरा हो जाता है। दूसरी ओर चरखी के घूमने से गन्ने के छिलकों का ढेर तैयार हो जाता है-

रेंठ फरै चरक्यो फरै, पण फरवा में फेर।
वो तो वाड़ हरयौ करै, यो छूता रो ढेर।।6

अपने स्वभाव के साथ वाणी की महता लोक में व्यक्ति की उपस्थिति महनीय बनाती है। इसे रेखांकित करते हुए वे कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को बोलने से पहले यह तय करना चाहिए कि उसे किसी से क्यों बोलना है? कब बोलना है? कौन सी बात बोलनी है? व किसकी बात क्यों बोलनी है? इन सभी बातों का पहले मन में अच्छी तरह से विचार कर लेना चाहिए। फिर सारयुक्त बात करने से व्यक्ति की बात का महत्त्व बढ़ जाता है-

क्यू कीसू बोलू कठै, कूण कई कीं वार।
ई छै वातां तोल नै, पछै बोलणो सार॥7

लोकनीति में आत्मसम्मान को मानव का सबसे बड़ा धन माना गया है। बावजी चतुर सिंह जी ने नीतिगत संदेश दिया है कि बिना मान-मनुहार के पराये घर में पाँव नहीं रखना चाहिए, अन्यथा उसका सम्मान नहीं रहता। अपने इस विचार को रेल के इंजन और सिग्नल से जोड़ते हुए कहा कि  रेलगाड़ी के इंजन सिग्नल मिलने पर ही वह आगे बढ़ता है, उसी प्रकार आमंत्रण उपरान्त ही हमें पराये घर जाना चाहिए, तब हमारा सत्कार होगा।

पर घर पग नी मेळणों, वना मान मनवार। 
अंजन आवै देखनैं, सिंगल रो सतकार॥8

मन की बात हर किसी को कहने से प्रतिष्ठा को आघात पहुँचता है। उन्होंने संदेश दिया है कि अपने मन की बात हर किसी को नहीं बतानी चाहिए। जिस प्रकार पोस्टकार्ड हर किसी को अपना भेद बता देता है, और अपना मूल्य कम कर देता है, पर लिफाफा संबंधित व्यक्ति को ही अपनी बात कहता है। इससे उसकी महत्ता अधिक है। आशय यह है कि अपने मन की बात संबंधित या विश्वसनीय व्यक्ति को ही कहनी चाहिए। इस लोकनीति की व्यंजना कवि ने इस प्रकार की है-

कारट तो केतो फरै, हरकीनै हकनाक।
जीरो है वींनै कहै, हियै लिफाफो राख॥9

बिना नियोजित पहल से काम की सफलता प्राप्त नहीं होती। इस हेतु पहले उद्देश्य का निर्धारण होना चाहिए, बाद में योजना बनाकर कार्य को करना चाहिए। बावजी चतुरसिंह जी  कहते हैं कि इधर-उधर भटकने मात्र से भोग की प्राप्ति नहीं होती। उसके लिए पहले मूल स्थान अर्थात् ठिकाने का पता होना चाहिए। समझदार व्यक्ति पाँव रखने से पहले रास्ते को ध्यान से देखते हैं। अर्थात् किसी भी कार्य को करने से पहले उद्देश्य निर्धारित होना चाहिए, तब ही उसकी सफलता सुनिश्चित हो सकती है-

वी भटका भोगै नहीं, ठीक समझलै ठौर।
पग मेल्यां पेलां करै, गेला ऊपर गौर॥10


संतुलित आचरण सार्थक व्यक्तित्त्व का निर्माण करता है। लोकजीवन में किसी के प्रति अधिक मोह और किसी की उपेक्षा ठीक नहीं है क्योंकि किसी भी वस्तु की सार्थकता उसकी पर्याप्तता में है, कम या अधिकता में नहीं। वे कहते हैं कि कम देना भी अच्छा नहीं और अधिक देने से बेकार जाता है। जिस प्रकार अग्नि में कम ईंधन देने से पूरी तरह जल नहीं पाएगी और अधिक देने पर बेकार जाएगा। अतः आहार समुचित दिया जाना चाहिए-

ओछो भी आछो नहीं, वत्तो करै कार।
दैणों छावै देखनै, अगनी मुजब अहार॥11

लोक में वही व्यक्ति समझदार है जो मर्यादानुकुल आचरण करता है। वे कहते हैं कि जो अपनी मर्यादा से अनभिज्ञ रहते हैं, वे कई-कई बार व्यर्थ ही अपना समय गँवा देते हैं, दूसरी ओर समझदार व्यक्ति आँखों के इशारों से ही समझ लेता है और तदनुरूप अपना व्यवहार तय कर लेता है। अत: परिस्थिति एवं समय को शीघ्र भाँप लेना समझदार व्यक्ति का गुण है-

अपनी आण अजाणता, कईक कोरा जाय।
समझदार समझै सहज, आँख इशारा माँय॥12

मूर्ख व्यक्ति की संगत आपके पथ को भी विचलित कर सकती है, अतः लोक मान्यता यह है कि मूर्ख व्यक्ति की बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति मूर्ख व्यक्ति से पूछकर कार्य करता है, वह स्वयं भी अज्ञानी रह जाता है और अपना काम भी बिगाड़ देता है। कारण यह है कि मूर्ख व्यक्ति को कभी सही रास्ते की पहचान नहीं रहती है। अतः उसकी बात नहीं माननी चाहिए-

गेला नै जातो कहै, जावै आप अजाण।
गेला नै रवै नहीं, गेला री पैछाण॥13

जीवन की सार्थकता के लिए उद्देश्यनिष्ठ कार्यपद्धति अपेक्षित है, क्योंकि यह जीवन एक सड़क की भाँति है, जिस पर हम गाते हुए, रोते हुए, लड़ते हुए और प्यार करते हुए निकल रहे हैं। अब हमें इस सड़क पर अपने मनुष्य जीवन का अवलोकन भी कर लेना चाहिए कि हमने क्या किया? यह जीवनरूपी सड़क बिना उद्देश्य के पूरी न हो जाय, इस पर अवश्य विचार करना चाहिए।

गाता रोता नीकळ्या, लड़ता करता प्यार।
अणी सड़क रै ऊपरै, अब लख मनख अपार॥14

लोक में नीति के प्रसार हेतु नैतिक जीवन होना चाहिए। मनीषी का जीवन नश्वर है। संसार में जीवन की नश्वरता का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि गोखड़े (गवाक्ष) आदि यहीं खड़े रह गए, लेकिन उनमें से जो झाँकने वाले थे, वे सब चले गए। इसी प्रकार ताँगे यहीं खड़े रह गए और उसको हाँकने वाले सब चले गए। भाव यह है कि संसार की संपदा यहीं रह जाएगी और मनुष्य को एक दिन संसार से विदा होना ही है-

गोखड़िया खड़िया रया, कड़िया झांकणहार।
खड़खड़िया पड़िया रया, खड़िया हाकणहार॥15

संसार में जीवन शाश्वत नहीं है। लोकमन की इसी अभिव्यक्ति को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि जब रेल दौड़ती है तो वृक्ष उसके साथ दौड़ते हुए दिखाई देते हैं, किन्तु अंततः वे वहीं रह जाते हैं। इसी प्रकार मनुष्य जीवन के साथ शरीर का संबंध है। एक दिन यह शरीर भी चला जाएगा। उसकी स्थिति सूर्य की भाँति है जो सुबह उगता है और सायं को अस्त हो जाता है। यह शरीर भी उसी भाँति जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त करता है-

रेल दौड़ती ज्यूं घणा, रूख दोड़ता पेख।
तन नै जातो जाण यू, दन नै जातो देख॥16

समग्रतः कहा जा सकता है कि चतुर चिंतामणि में  लोक व्यवहार की विसंगतियों पर प्रहार के साथ मानव-कल्याण का सन्देश सटीक दृष्टान्तों से दिया गया है। ये पद लोकनीति की दृष्टि से मानव-मूल्यों का गहन संवर्धन करते हैं। सामान्य लोकजीवन पर आधारित इन दोहों में मानव, संसार और जीवन के उद्देश्य को सैद्धांतिक तरीकों से समझने में मिलती है। इनकी सार्थकता वर्तमान में अधिक प्रासंगिक प्रतीत होती है। उनकी रचनाओं में ईश्वर ज्ञान और लोक व्यवहार का सुन्दर मिश्रण है। कठिन से कठिन ज्ञान तत्व को हमारे जीवन के दैनिक व्यवहारों के उदाहरणों से समझाते हुए सुन्दर लोक भाषा में इस चतुराई से ढाला है कि उनके विचार समकालीन सन्दर्भों में भी प्रासंगिक हैं

सन्दर्भ-
1. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1, पारिभाषिक शब्दावली, ज्ञानमंडल, वाराणसी, सं.1968, पृ. 591
2. बावजी चतुर सिंहजी, कन्हैयालाल राजपुरोहित, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, सं.1996, पृ. 96 
3. गुमान ग्रंथावली, संस्करण. देव कोठारी, एलके व्यास, और डीएन देव, साहित्य संस्थान, राजस्थान  विद्यापीठ, उदयपुर, सं.1990, पृ. 281 
4. चतुर चिंतामणि, संपादक डॉ. मोतीलाल मेनारिया, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, सं. 2000, पृ. 40
5. वही, पृ. 28
6. वही, पृ. 43
7. वही, पृ. 44
8. वही, पृ. 40
9. वही, पृ. 43
10. वही, पृ. 43
11. वही, पृ. 44
12. वही, पृ. 43
13. वही, पृ. 36
14. वही, पृ. 34
15. वही, पृ. 35
16. वही, पृ. 34

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