भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य का आतंरिक-प्रवाह
भारत वर्ष भौगोलिक एवं
सांस्कृतिक दृष्टि से विविधता युक्त रहा है, उसी अनुरूप भाषायी विविधता भी विद्यमान रही। एक ओर भारोपीय
परिवार से जन्म लेने वाली भाषाएँ यथा- संस्कृत, हिंदी, मराठी, बांग्ला, उड़िया, असमिया, गुजराती आदि में साहित्य रचना हुई तो दूसरी ओर
द्रविड़ परिवार की भाषाओं- तमिल, तेलगू, मलयालम, कन्नड़ आदि में विपुल साहित्य रचा गया। अपने प्रादेशिक
वैशिष्ट्य एवं सांस्कृतिक पहचान को अक्षुण्ण रखते हुए समग्र साहित्य ने अनंत
विस्तार ग्रहण किया, परन्तु उसके
व्यक्तित्व में एकदूसरे का प्रभाव
अवश्य रहा। यही आत्मतत्त्व भाषायी
विविधता के बाद भी भावात्मक एकता का आधार बना, जो अद्वितीय है। यह गौरव का विषय है कि भारतीय भाषाओं में
रचा गया साहित्य अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए हुए है, यह उसका प्रखर वैशिष्ट्य भी है और प्रादेशिक संस्कृति के
प्रभाव से निर्मित उसका व्यक्तित्व भी। परन्तु एकदूसरे की सीमाएँ कब लयबद्ध हो जाती है, पता ही नहीं चलता, जैसे - बांग्ला, असमिया व उड़िया, तमिल व तेलगू, मराठी व गुजराती, कन्नड़ तथा मलयालम, पंजाबी और सिंधी, विशेष रूप से हिन्दी में इन सभी भाषाओं से गृहीत शब्दावली।
यही तत्त्व भारतीय साहित्य की अन्तः धारा को रसमय बनाए हुए हैं।
आचार्य कहते हैं- संस्कृति
मनुष्य के चित्त की खेती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृति को मनुष्य के
चिन्तन की उपज कहा है। वस्तुतः सम्यक् कृति ही संस्कृति है। बाबू गुलाबराय के
अनुसार, “संस्कृति के मूलाधारों में- आध्यात्मिक दृष्टिकोण,सांस्कृतिक
चेतना, धार्मिकता, सजीव सत्यों का
संकलन, सहन शक्ति, सामाजिक चेतना आदि
है।“1 संस्कृति के मूलभूत
तत्त्व नैतिकता, सदाशयता, सहनशीलता,
शरणागत की रक्षा, आचरण की पवित्रता और समभाव
की उच्चत्ता में इसकी शक्ति निहित है। चिंतन की स्वतंत्रता और उपास्य की अनेकता,
वेश-भूषा और खान-पान की विविध स्वरूप के बावजूद अनेकता में एक
तत्त्व की प्रधानता ही आर्यावर्त की संस्कृति का सबसे बड़ा सम्बल है। हमारा चिंतन
मात्र देह तक सीमित नहीं है। स्थूल जगत् से परे हम यह विचार करते हैं कि मैं कौन
हूँ? हमारा प्रत्यभिज्ञा दर्शन स्वयं की पहचान पर बल देता
है। हम आत्मतत्त्व की खोज में लगे रहे। जयशंकर प्रसाद के शब्दों में हम कह सकते
हैं कि ‘एक तत्त्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन’2
महादेवी वर्मा ने राष्ट्र के
स्वरूप को अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखा, “राष्ट्र केवल
पर्वत-नदी,या समतल का सवाल नहीं होता, उसमे
उस भूमिखंड में निवास तथा विकास करने वाले मानव-समूह का जीवन अविच्छिन्न रूप से
जुड़ा रहता है।“3 राष्ट्रवादी
चिन्तक श्रीराम परिहार लिखते हैं, ”राष्ट्र क्या है? उसकी संस्कृति क्या है? वस्तुतः ये दोनों मिलकर ही
तो समूचे विश्व में अपनी पहचान स्थापित करते हैं, अन्यथा छह
अरब की दुनिया की भीड़ में खोने के अलावा क्या है? राष्ट्र का
निजत्व होता है, गुणधर्म होता है, उसकी
पहचान, आकृति, अस्मिता और भूगोल होता
है।“4 भारतीय राष्ट्रीयता के
लिए वन्देमातरम् का उद्घोष, शंकराचार्य का एकात्मभाव,
विवेकानंद की विराट दृष्टि ने ही तो आने वाली पीढ़ियों को चमत्कृत कर
दिशा दी। भारतीय साहित्य की पारस्परिक अन्तः संबद्धता तथा आधारभूत
एकता को प्रतिबिम्बित करने वाले अनेक तत्त्व दृष्टिगोचर होते हैं, उनमें प्रमुख हैं - भाषाओं का जन्मकाल, विकास के चरण, सांस्कृतिक आन्दोलनों का प्रभाव, प्राचीन ग्रंथों का आधार ग्रहण आदि में समानता।
यह विवेचना का एक पक्ष हो सकता है।
उर्दू और तमिल भाषा को
छोड़कर समस्त भारतीय भाषाओं का जन्मकाल प्रायः समान रहा है, जैसे- कन्नड़ का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ ‘कविराजमार्ग‘ राष्ट्रकूट वंश के नरेश ‘नृपतुंग‘ द्वारा नवीं शती में
रचा गया, गुजराती का आदिग्रंथ शालिभद्र सूरि रचित ‘भरतेश्वर बाहुबलि रास‘ बारहवीं शती की रचना है। मलयालम की प्रथम कृति ‘रामचरितम‘ तेरहवीं शती में रचित हुई, तो मराठी का आदिम साहित्य भी बारहवीं शती का है। तेलगू
साहित्य के प्रथम ज्ञात कवि ‘नन्नय‘ का समय भी ग्यारहवीं शती है। असमिया साहित्य में
हेम सरस्वती की रचनाएँ ‘प्रह्लाद चरित्र‘ तथा ‘हरि गौरी संवाद‘ तेरहवीं शती में रचित हैं। बांग्ला में चर्यागीतों की रचना
का समय दसवीं और बारहवीं शती के मध्य का माना जाता है। उड़िया के व्यास सारलादास का
समय भी चैदहवीं शती का है। इसी प्रकार हिन्दी का आदिकालीन साहित्य भी ग्यारहवीं
शती के आसपास का है। अतः समस्त भारतीय भाषाओं का जन्मकाल एक निश्चित अवधि में हुआ, जो इसका अन्तः वैशिष्ट्य है।
भारत की विभिन्न भाषाओं का
विकास क्रम भी लगभग समान रहा है। सभी भाषाओं का आदिकाल पन्द्रहवीं शती तक का है, पूर्व मध्यकाल सत्रहवीं शती के मध्य तक, जो मुगलशासन के वैभव तक सीमित है। उत्तर मध्यकाल अंग्रेजी शासन की
स्थापना अर्थात् उन्नीसवीं शती के आरंभ तक है। उसके बाद का समय सभी भाषाओं के
साहित्य में आधुनिक काल के रूप में माना गया है। यह समानांतर विकास क्रम यह इंगित
करता है कि इन भाषाओं के विकास के राजनीतिक एवं सास्कृतिक आधार समान रहे हैं।
भारतीय भाषाओं को सर्वाधिक
प्रभावित करने वाला समान कारक रहा- धार्मिक आन्दोलन। बौद्धधर्म के पतन पश्चात् जो
संप्रदाय पल्लवित हुए, उनमें नाथपंथ
उल्लेखनीय है। इसका प्रभाव तिब्बत से लेकर महाराष्ट्र और दक्षिण से पूर्वी घाट के
प्रदेशों तक फैला हुआ था। नाथपंथ के सिन्द्धान्त-
हठयोग, जीवन का साधना पक्ष, आत्माभिव्यक्ति व जीवनशैली का प्रभाव भारतीय भाषाओं के विकास के प्रथम
चरण में व्याप्त रहा। इनके बाद वेदांत दर्शन से प्रभावित इनके उत्तराधिकारी संतसंप्रदाय व नवागत सूफीसंतों का प्रभाव सभी भाषाओं के साहित्य पर रहा।
संत और सूफी काव्य के
उपरांत देश में वैष्णव आन्दोलन का तीव्र वेग से प्रचार हुआ। हिन्दीकाव्य में रामकाव्य और कृष्णकाव्य धारा में
साहित्य रचा गया तो तमिल प्रांत में ‘आलवार साहित्य‘ उल्लेखनीय है। वैष्णव आन्दोलन भी द्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्धैत आदि शाखाओं में विभक्त होकर बंगाल में चैतन्य
संप्रदाय तक पहुँच गया। समस्त भारतीय भाषाओं में राम और कृष्ण की मधुर उपासना के
गीत गाए गए और पूरा भारत वर्ष सगुण ईश्वर लीला गान से गुंजरित हो उठा। उसके बाद
ईरानी संस्कृति से अनेक आकर्षक तत्त्व- वैभवविलास, अलंकरण, सज्जा, रागरंग, भोग आदि विकसित हुए, जिसे दरबारी संस्कृति कहा जा सकता है। साहित्य
भी इससे प्रभावित हुआ और शृंगारिक विलास युक्त रचनाएँ विकसित हुईं। हिन्दी साहित्य
का रीतिकाल इसी से प्रभावित है। इसके पश्चात् अंग्रेजों का आगमन, स्वतंत्रता आन्दोलन आदि में सभी भाषाओं के
रचनागत विषय में आधारभूत समानता विद्यमान रही।
यह अचरज का विषय है कि भारत
की भाषाओं का परिवार एक नहीं होते हुए भी उनके साहित्य की आधारभूमि समान रही है।
भारतीय भाषाओं के साहित्य पर प्राचीन ग्रंथ- रामायण, महाभारत, उपनिषद् पुराण, भागवत् का आधार रहा है, परवर्ती संस्कृत ग्रंथों ने भी साहित्य की धारा
को प्रभावित किया। उसमें कालिदास, बाण, भवभूति, जयदेव आदि का साहित्य केन्द्र में रहा। प्राकृत, अपभ्रंश-साहित्य पूर्व में ही सभी भारतीय भाषाओं
के उत्तराधिकार में था। काव्यशास्त्र से संबंधित ग्रंथों ने सभी का पोषण किया, जैसे- भरत का ‘नाट्य शास्त्र‘, आनंदवर्द्धन का ‘ध्वन्यालोक‘, मम्मट का ‘काव्यप्रकाश‘, विश्वनाथ का ‘साहित्य दर्पण‘ आदि ग्रंथ सभी भाषाओं के मूल में रहे।
विश्व साहित्य की प्रथम पुस्तक, जिसे यूनेस्को
ने भी स्वीकार किया है, वह है- ऋग्वेद। उसमें कहा गया है-
मनुर्भवः, अर्थात् मनुष्य बनो। मनुष्यता का बोध ही भारतीय
संस्कृति का मूल है, जो वर्तमान और भविष्य के लिए भी जरूरी
है व रहेगी। हमें यह समझना होगा कि भारतवर्ष पूर्वी-पश्चिमी सभ्यताओं का समूह नहीं,
वरन मानवता का संस्कार देने के लिए ईश्वरीय योजनानुरूप इस राष्ट्र
का उदय हुआ। यजुर्वेद में कहा गया कि हम राष्ट्र के पुरोहित हैं। हम भोग में भी
त्याग के समान आचरण करते हैं। विश्व के सभी प्राणी सुखी हों, ऐसी उदात्त भावना है। हम प्रकृति के सहचर हैं, जिससे
हम रस ग्रहण कर जीवन को गति प्रदान करते हैं, दूसरी ओर
पश्चिमी दृष्टि की धारणा है कि मनुष्य का प्रकृति पर आधिपत्य है और वह भोग के लिए
है। भारतीय परम्परा का ज्ञान हमारे साहित्य ने करवाया। राम, कृष्ण,
वाल्मीकि, वेदव्यास का व्यक्तित्व हमारी
विरासत में साहित्य की देन है। शरीर नश्वर है, कर्म ही जीवन
है, ज्ञान, इच्छा और क्रिया का समन्वय
होना चाहिए यह सब हमारे साहित्य में लिखा गया और अपने-अपने समय के अनुकूल लिखा
गया। शंकराचार्य ने आठ साल की उम्र में वेदों की ऋचाओं का अध्ययन किया और बारह
वर्ष की आयु में वेदान्त की पुनर्व्याख्या कर वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना कर दी।
भारत की विशालता और विविधता के
बावजूद उसे परस्पर जोड़ने में संस्कृत-साहित्य का अन्यतम महत्त्व हैं। वेद, उपनिषद,
स्मृति, ब्राह्मण ग्रन्थ, रामायण, महाभारत, चरक, सुश्रुत इत्यादि में सांस्कृतिक चेतना का ऐसा युग-युगीन सेतु बन चुका है,
जिसमें पूरा भारत वर्ष एक बना हुआ है। कालिदास का रघुवंश, महाकाव्य, भवभूति और अश्वघोष का साहित्य, माघ और भाष का चिंतन हमें जिस संस्कृति का आसव परोसता है, वही हमारी राष्ट्रीयता का सबसे बड़ी खुराक है। संस्कृति की इस चेतना को
बलवती बनाने में कश्मीर के पंडितों व आचार्यों का सराहनीय महत्त्व है। आचार्य
कल्हण द्वारा लिखित राजतरंगिणी इतिहास का महाभारत के बाद पहला ग्रन्थ माना जाता
है। इसी प्रकार विल्हण का योगदान कम नहीं है। जिस कश्मीर में आतंक का ताण्डव चक्र
रहा है वहां कभी- 8वीं से 12 वीं शती
तक भिज्ञा दर्शन का साम्राज्य था, जिसमें शैवोपासना की
संस्कृति का उज्ज्वल प्रकाश बिखरता रहता था। इसी काल के दसवीं से ग्यारहवीं शती मे
आचार्य अभिनवगुप्त ने ध्वनि में रस और रस में जीवन तलाशने का भगीरथ प्रयास किया
था।
डॉ. विनीता राय लिखती हैं, “जीवन के मूल्य
वास्तव में संस्कृति के अंगभूत हुआ करते हैं। हम अपने मूल्यों के माध्यम से
राष्ट्र और संस्कृति का परिचय देते हैं।“5 विवेकानंद ने 30 वर्ष की उम्र में अपने ज्ञान से
दुनिया को पागल कर दिया था। उन्होंने 1200 वर्ष बाद
शंकराचार्य की परम्परा को संवाहित किया। यह स्पष्ट किया कि मनुष्य श्रेष्ठ है। मनुष्य
का अस्तित्व मानवता की पराकाष्ठा है एवं आत्म तत्त्व को पहचानना है। डॉ. देवराज ने
मानव मूल्यों को सांस्कृतिक पहचान से जोड़ते हुए कहा, ”किसी
व्यक्ति की संस्कृति वह मूल्य चेतना है, जिसका निर्माण उसके
सम्पूर्ण बोध के आलोक में होता है।“6 यही
कारण है कि पश्चिम के विज्ञान और पूर्व के ज्ञान के समन्वय पर बल देने वाला
व्याख्यान भारत को दुनिया में सिरमौर बनाता है। 1913 में
गीतांजलि पर टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलता है। मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारती
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में जन चेतना को जाग्रत करती है। 1915 में ‘उसने कहा था’ कहानी उस
शाश्वत वचन को प्रमाणित करती हैं, जिसमें कहा गया है कि
‘रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न
जाई। साकेत का यह कथन विचारणीय है- ‘संदेश नहीं मैं यहाँ
स्वर्ग का लाया, इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।’ यह साहित्य समकाल में लिखा गया, जो हमारी परम्परा से
प्रभावित था। 1936 में ‘राम की शक्ति
पूजा’ भी अपने अन्दर रामत्व को जगाने का प्रयास है। कामायनी
अथवा दिनकर, अज्ञेय अथवा धर्मवीर भारती सबने उस भारतीय
परम्परा को आगे बढ़ाया, जिसके सूत्र वैदिक ऋषियों से प्राप्त
हुए थे। अतः राष्ट्र को सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नत बनाने में साहित्य का योगदान
अतुल्य है।
भारत की संस्कृति का निर्माण, सौ दो सौ वर्ष
में नहीं, हिमालय की तरह हजारों वर्ष में हुआ है। उसके
निर्माण के कई कारक हैं। साहित्य का अवदान उसमें अन्यतम है। यह साहित्य लोकभाषाओं
से संस्कृत भाषा का व्याप्त है। यद्यपि यह कहना अर्धसत्य होगा कि संस्कृति का
निर्माण साहित्य ही करता है पर साहित्य का संबल धारण कर संस्कृति शक्तिमान
बनती है। भारत के विभिन्न अंचलों में व्याप्त बोलियों का एक विशाल
साहित्य है। उस विशाल लोक साहित्य में संस्कृति की अनेक तरंगे प्रस्फुटित हुई हैं।
हिन्दी की तमाम उपबोलियों में, पंजाबी जुबान के साहित्य में,
बंगला, उड़िया, असमिया,
मलयालम, कन्नड़, तेलगू,
तमिल भाषाओं में व्याप्त भारतीय संस्कृति के विविध रंग मिलते हैं-
पर उन रंगों का आस्वाद एक जैसा है। राजस्थानी लोकगीतों के प्रवाह में संस्कृति का
रत्न छिपा है। कहना न होगा कि भारत की इन
भाषाओं-उपभाषाओं में संस्कृति की समझ बड़ी समृद्ध है। अनेक भावों की अंतर तरंगे
अध्यात्म के महाभाव में मिलकर एक महातरंग को जन्म देती हैं। भाषा-उपभाषा में लिखित
और मौखिक साहित्य की लिपि भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, उच्चारण
में भेद हो सकते हैं, भौगोलिक विभिन्नताएँ हो सकती हैं,
कहीं रेगिस्तान, कहीं हरियाली, कहीं मैदान तो कहीं पहाड़ हो सकते है- पर सबका भाव एक ही होता है- जीवन में
अध्यात्म का चटकीला रंग। काव्य-महाकाव्य, खंडकाव्य, गद्यकाव्य, चम्पूकाव्य शैली की दृष्टि से भले ही
पृथक-पृथक हों पर भाव की दृष्टि से उनकी एकात्मकता की संस्कृति का प्राण-तत्त्व
बनता है।
अपनी संस्कृति का सीधा संवाद
साहित्य से होता है। नदी, नारी और संस्कृति का प्रवाह शाश्वत होता
है। नारी का एक प्रकृष्ट रूप माँ होती है। वह शास्त्र से बड़ी और गुरु से भी अधिक
पूज्य होती है। शास्त्र जब निःशब्द हो जाते है तब माँ की बात ही अंतिम होती है। वह
संस्कृति की प्रतीक होती है। नदी भी उसी का रूप है। न नारी वृद्ध होती है और न
संस्कृति। इन दोनों का अविरल प्रवाह साहित्य में दिखता है। पं. विद्यानिवास मिश्र
साहित्य और संस्कृति के अन्तः सम्बन्ध को इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं-
“इस देश की संस्कृति सीता है, जो धरती से जनक
के हल के नोक से पैदा हुई हैं। इस देश की संस्कृति गंगा है, जिन्हें
भगीरथ ने अपने परिश्रम से पहाड़ खोदकर निकाला था। इस देश की संस्कृति गौरी है,
जिन्होंने अपने प्रियतम को सौन्दर्य से नहीं तम से प्राप्त किया था।
इस देश की संस्कृति असंख्य ग्रामीण बन्धु और वनवासी हैं, जो
असंख्य बाधाओं को राम की धनुही से तोड़ने का विश्वास रखते है”।“7
भारतीय
चिंतन परम्परा व्यापक दृष्टिकोण पर आधारित है। हमारे जीवन का कोई पक्ष ऐसा नहीं है,
जिस पर हमारी परंपरा ने विचार नहीं किया। हमारे शास्त्रों ने जीवन
के उज्ज्वल उदात्त पक्ष को ग्रहण करने पर सदैव बल दिया। यह प्रयास भारतीय साहित्य
में निरंतर विद्यमान रहा कि नवनीत छूट न जाए, उसी के कारण
वैश्विक पटल पर भारतीय साहित्य अप्रतिम गहराई के साथ खड़ा है।
सहायक ग्रन्थ सूची
1. बाबू गुलाबराय, भारतीय संस्कृति की रूपरेखा, ज्ञानगंगा प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2008, पृष्ठ-26
2. जयशंकर प्रसाद, कामायनी, राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2014, पृष्ठ-1
3. धर्मवीर भारती (सं.), धर्मयुग,
फरवरी,1987, पृष्ठ-7
4. डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष (सं.), राष्ट्रबोध, संस्कृति एवं साहित्य, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, सं. 2019
पृष्ठ-33
5. डॉ. विनीता राय, मूल्य और मूल्य संक्रमण, अनिल प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2005
पृष्ठ-15
6. डॉ. देवराज, संस्कृति का दार्शनिक विवेचन, सू.प्र.विभाग,उ.प्र.,लखनऊ सं.1957,
पृष्ठ-175
7. डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष (सं.),राष्ट्रबोध,
संस्कृति एवं साहित्य, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, सं. 2019 पृष्ठ-34
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