आदिम जाति की धड़कन 'शाका'

आदिम जाति की धड़कन 'शाका'


डॉ. अब्दुल रशीद अगवान रचित ‘शाका’ उपन्यास एक ऐसे गाँव की कहानी है, जहाँ मानव-सभ्यता का उदय हुआ। लेखक के दृष्टिकोण से दक्षिणी तुर्किये में 'फर्टाइल क्रिसेंट'  में जो पुरातत्वीय साक्ष्य मिले हैं, उनके आधार पर वैज्ञानिक जानकारी और कल्पना के अद्भुत मिश्रण में ढले इस उपन्यास में आज से लगभग 11500 साल पहले बसे एक मानव-ग्राम के दर्शन होते हैं और वहाँ बसी आदिम जाति की धड़कनों को सुना जा सकता है। उपन्यास के फलक में यह स्पष्ट किया गया है कि धरती के औसत ताप में कम अंतराल में ही बड़े उतार-चढ़ाव और फिर लघु-हिमयुग के प्रकोप से आदिम जाति लुप्त होने लगी। उसके बाद ग्रीष्म युग के आरंभ पर इस विनाश से बचे बहुते से लोग तूरा-पर्वत के दक्षिण में गुफाओं में या चट्टानों पर वास बना कर रहने लगे। उन्हीं में से कुछ लोग एक ऊँचे पठार पर बस गये और वहाँ एक बस्ती का जन्म हुआ जिसे ‘शाका’ कहा जाता था। इससे पहले आदिम जाति ने कभी शाका जैसा कोई वास नहीं बनाया था। इसीलिए यह शाका आदिम जाति का पहला ग्राम था और यह उस क्षेत्र की आदिम जाति का केंद्र बन गया।

यहाँ बसे लोगों ने खेती और पशु-पालन की शुरुआत की। शाका का एक और महत्व यह भी है कि यहां विश्व की पहली वेधशाला निर्मित हुई। इस शाका ने बड़े उतार-चढ़ाव देखे और आदिम जाति ने सभ्यता की नींव रखी। शाका में ऐसा क्या हुआ कि वहां जंगलों में भटकते मानव समुदाय को ठहराव मिला और उसने वासों में रहना शुरू कर दिया? क्या शाका में पशुपालन और खेती की शुरुआत हुई? उत्सव और मेलों के लिए लोग शाका में बार-बार क्यों आते थे? क्या शाका के लोग इतनी प्रगति कर चुके थे कि उन्होंने दुनिया की पहली वेधशाला बना डाली। शाका के उत्थान और पतन की कहानी में वर्तमान सभ्यता के लिए भी बहुत से सबक छिपे हैं। यह कहानी इसी शाका और उसके एक साहसी युवक नील के बारे में है।

‘जीवन चुनता है जीवन को’ वाक्य के दार्शनिक आधार पर लिखित इस उपन्यास का केन्द्रीय भाव इस रूप में प्रकट होता है कि स्थान, जाति, लिंग, धर्म, बनावट, सौन्दर्य आदि के निर्माण में हमारा कोई हाथ नहीं होता, यह नियति का विधान है और मनुष्य का जीवन भी इसी पर आधारित है तथ्यात्मक कथानक और अपूर्व रोमांच में यथार्थ और कल्पना का सम्यक मिश्रण करते हुए लेखक ने आदिम युग में मानवीय जीवन के विविध पहलुओं को उभारते हुए नील और बाला के प्रेम-साहचर्य, शाका निवासियों के जातीय गौरव, विजातीय विवाह की तार्किकता जैसे प्रश्नों पर मौलिक ढंग से विचार किया है

इसमें आदिमानव की जीवनचर्या, शिकार, पशुपालन, व्यापार, उपचार आदि का उल्लेख इसे समकाल की परिस्थितियों से अवगत कराता है, वहीं आधुनिक सभ्यता के समक्ष खड़े जातीय गौरव, वैमनस्य और वैज्ञानिक दृष्टि जैसे कई प्रश्नों का समाधान भी देता हैनील, बाला, अब्रा, कोको, शकवीर जैसे पात्र आज भी हमारे समाज के अंग हैं पात्रानुकूल भाषा के साथ आडम्बरहीनता, अनावश्यक ठहराव व वैचारिक आग्रह से मुक्त, उद्देश्यनिष्ठ रचना है, जिसमें पाठक को नए कलेवर में रोमांचक यात्रा का एहसास कराती हैशीर्षक कृति की मूल संवेदना को उजागर करता है, भूमिका से ही कथानक के रोमांच का आभास हो जाता है। इससे कृति का महत्त्व बढ़ गया है। अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक ब्लू रोज पब्लिशर्स, इंडिया/यूके द्वारा इसे सुन्दर ढंग से प्रकाशित किया गया है और संतोष का विषय है कि कृति का मूल्य पुस्तक के आकार अनुसार है।


पुस्तक  : शाका  

लेखक   : डॉ. अब्दुल रशीद अगवान

प्रकाशक  : ब्लू रोज पब्लिशर्स, इंडिया/यूके, पृष्ठ- 292

मूल्य    : 365/-


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