साहित्यिक निबंध



पुस्तक: साहित्यिक निबंध
लेखक : डॉ. राजेंद्र कुमार सिंघवी
प्रकाशक: आस्था प्रकाशन, जयपुर।
संपर्क: +91 98293 74781


पुस्तक: साहित्यिक निबंध
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हिन्दी साहित्य तीव्र गति से वैश्विक धरातल पर अपनी पहचान बनाने में सफल रहा है। साहित्य-रचना के मानक अब परम्परागत साँचे में नहीं है, उन पर तात्कालिकता का प्रभाव अधिक है। साहित्य अब भूमण्डलीकरण के साथ अपनी सार्थकता सिद्ध कर रहा है। ऐसी परिस्थिति में आलोचना भी साहित्यिक वातावरण के साथ कदमताल कर रही है, जहाँ किसी सैद्धान्तिक परिमाप से रचना का मूल्यांकन न करके रचनाशीलता की पहचान पर बल है।

वर्तमान परिदृश्य में रचना की भाषायी सर्जनशीलता का बारीकी से विश्लेषण किया जाने लगा है। नये आलोचकों की मान्यता है कि किसी विचार या अनुभव को दूसरे व्यक्ति में इस रूप में संक्रमित करना कि वहाँ उसका नया विकास संभव हो, सर्जन-प्रक्रिया का आरंभिक चरण है। इस अनुभव या विचार का संक्रमण भाषा से ही संभव है। इस हेतु भाषा और अनुभूति के अद्वैत को समझना होगा। अतः आने वाले समय में आलोचना में ‘रूप तत्त्व’ को प्रश्रय मिलता दिखाई दे रहा है। जहाँ रचना को भाषिक-संरचना के आलोक में विवेचित करने का प्रयास हो रहा है। उत्तर संरचनावाद, उत्तर आधुनिकतावाद ने इस दृष्टि को और व्यापकता प्रदान की है। फलतः रचना की आलोचना में भाषा के विविध अंग- शब्द-चयन, छंद, ध्वनि-समूह, बिम्ब-विधान, प्रतीक-योजना, लय, कथन-भंगिमा, वाक्य-वक्रता, पद-विन्यास आदि के विश्लेषण पर ध्यान दिया जाने लगा है।

उत्तर-आधुनिक चिंतन व भारतीय संवैधानिक मूल्यों के निरन्तर प्रसार से अस्मिताओं के आधार पर भाषायी-चिंतन आलोचनात्मक विमर्श के केन्द्र में आया है। स्त्री, दलित, आदिवासी, किसान आदि की सामान्य बोलचाल की शब्दावली को साहित्य में प्रश्रय मिलने लगा है, जिससे उनकी सभ्यता, परम्परा व अनुभूतिजन्य पीड़ा को अभिव्यक्ति मिल सके। आलोचना में विमर्श केन्द्रित मूल्यांकन में भाषा का मूल्यांकन भी संबंधित परिवेश के संदर्भ में किया जाने लगा है।

परम्परागत साहित्य में लोकभाषा को सदैव दूसरे दर्जे पर रखा गया, किन्तु अब लोक भाषा अपना स्वाभाविक आकार गढ़ने लगी है। आँचलिक भाषाओं का साहित्य अब रचनाशीलता में स्थान बना रहा है और परम्परागत प्रतिमानों को ध्वस्त कर रहा है। सुखद पहलू यह है कि आँचलिक भारतीय भाषाओं के साहित्यिक उदय से हिन्दी और समृद्ध हो रही है। लोकगीत, लोक नाट्य, लोक वाणी की स्वीकार्यता से स्वाभाविक प्रस्तुति हो रही है।

समकालीन साहित्य में एक तरफ लोक वृत्त उभर रहा है, वहीं दूसरी तरफ रचनाएँ वैश्विक फलक पर पाँव भी प्रसार रही है। दोनों की दिशा पृथक् होते हुए भी महत्त्व भी है। एक पक्ष अपने अस्तित्व को स्थापित कर हिन्दी को समृद्ध कर रहा है, तो दूसरा पक्ष हिन्दी को वैश्विक परिदृश्य में स्थापित कर रहा है। दोनों की शृंखला नई आलोचना का विवेच्य विषय है। आज के समय में भाषायी प्रतिमान निश्चित नहीं किए जा सकते, क्योंकि उसकी दीवारें ही गिर रही हैं।

विगत दो दशकों से हमारे सामाजिक जीवन में भी व्यापक बदलाव आए हैं। वैश्विक समाज सूचना क्रांति से बहुत छोटा प्रतीत होने लगा है। परम्परागत विचार, प्रतिबद्धताएँ एवं मूल्य लगभग अप्रासंगिक होते गए व उन्मुक्त सोच की तरफ दुनिया बढ़ रही है। साहित्य भी इससे अलग नहीं है। आलोचना भी तात्कालिक समस्याओं के संदर्भ में होने लगी है, जिसे किसी घेरे में बन्द भी नहीं रखा जा सकता है। आज सोश्यल मीडिया पर हर व्यक्ति अपने विचार प्रकट करने के लिए स्वतंत्र है, अतः वहाँ साहित्यिक प्रतिमान स्थिर रहें, यह संभव भी नहीं है। देश-विदेश में घटित किसी भी घटना पर किसी रचना का जन्म और उस पर त्वरित प्रतिक्रियाओं से आलोचना के संदर्भ भी बदलते जा रहे हैं।

विगत शताब्दी की आलोचनाओं में पहले उद्देश्य निर्धारित होता था, उसके बाद सिद्धान्त निर्मित किए जाते, फिर उन सिद्धांतों के आधार पर कृति की परख की जाती थी। इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर अनेक आलोचना प्रणालियों का जन्म हुआ, लेकिन विगत कुछ वर्षों से यह तकनीक भी अब स्वरूप बदल रही है। आलोचना में किसी निश्चित फलक का उपयोग दिखाई नहीं देता।

आलोचना की समकालीन परिस्थितियाँ बदलते हुए परिवेश के अनुरूप ही हैं। जहाँ ठहराव और अवकाश तो बिल्कुल भी नहीं है। अब सिद्धांतों की कसौटी पर कृति को कसने के स्थान पर सर्वप्रथम कृति के मूल कथ्य को ध्यान में रखकर सिद्धांत निर्मित किए जाते हैं, फिर एक सिरे से पुस्तक की व्याख्या या समीक्षा कर दी जाती है। सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों को समझकर रचना की संपूर्णता को परखने की प्रवृत्ति अब लुप्त होती जा रही है। कतिपय आलोचनाएँ अपवाद हो सकती हैं, किन्तु यही सामान्य प्रवृत्ति दिखाई दे रही है।

आलोचना की मात्रा तो बहुत अधिक है, परन्तु उसके लेखन के प्रतिमान निश्चित नहीं हैं। रचना के तथ्यों का आलोचक वर्णन करके आगे बढ़ जाता है, जहाँ रचना की प्रशंसा तो है, परन्तु मूल्यांकन नहीं। यह कटु सत्य है कि आलोचना अब रचना केन्द्रित होने के स्थान पर रचनाकार केन्द्रित होने लगी है। आलोचक भी इसी भ्रम में हैं कि उसकी चर्चा से लेखक स्थापित हो रहे हैं और उपेक्षा से वे नगण्य, तो स्पष्टतः आलोचना के मूल्य ही विस्थापित हो रहे हैं।

एक प्रश्न उठता है कि क्या पुराने प्रतिमानों के आधार पर नई रचनाओं की समीक्षा संभव है? इस दृष्टि से तो सही उत्तर यही होगा कि पुराने प्रतिमानों के आलोक में अद्यतन रचना का मूल्यांकन संभव नहीं है। लेकिन रचना के बदलते स्वरूप के साथ आलोचना के नवीन प्रतिमान तय किए जाने अपेक्षित हैं, जो चिंता का विषय भी है। आज अनेक विमर्श केन्द्रित रचनाएँ सामने आ रही हैं, परन्तु नई आलोचना प्रणालियाँ विकसित नहीं होने से प्रतिमान भी स्थापित नहीं हो पा रहे हैं।

समकालीन रचनाओं का मूल्यांकन सम-सामयिक संदर्भों में ही किया जा सकता है और रचनाशीलता के समानांतर ही आलोचना के प्रतिमानों का निर्माण होता है। प्रत्येक समय की चुनौतियाँ होती है और उसके समाधान तात्कालिक रचनाओं में तलाशने का कार्य आलोचक का है। आलोचक ही अपनी प्रखर दृष्टि से पुराने प्रतिमानों को नया रूप दे सकता है और समय के अनुकूल प्रतिमान निर्मित भी कर सकता है।

हिन्दी आलोचना में आज सर्वाधिक आवश्यकता समकालीन रचनाशीलता की प्रवृत्तियों की पहचान कर आलोचना के प्रतिमान निर्मित किए जाने की है, ताकि आलोचना की भावी दिशा सही गंतव्य की ओर बढ़ सके। इससे भारतेन्दुकाल से जन्मी, शुक्ल काल में विकसित और शुक्लोत्तर काल में चरम तक पहुँची हिन्दी आलोचना वैश्विक साहित्यिक आलोचना के समकक्ष स्तर को प्राप्त कर सके। गंभीरता, अध्ययन-निष्ठता, पैनी दृष्टि और साहित्यिक वातावरण इस दृष्टि से निर्मित करना वर्तमान समय की प्रमुख आवश्यकता प्रतीत हो रही है।

विचारधारा रचना तथा आलोचना की रीढ़ होती है, जिसके आधार पर उसकी महत्ता, उपयोगिता एवं प्रासंगिकता सिद्ध होती है। हिन्दी आलोचना अपने आरंभ से किसी न किसी आधार को लेकर चली है, चाहे वह सैद्धांतिक हो या व्यावहारिक; किसी वाद के सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में हो अथवा विमर्श केन्द्रित अवधारणाओं पर आधारित। यह क्रम बीसवीं सदी के अंतिम दशक तक किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा। यहाँ तक कि आलोचक को भी किसी निश्चित पक्ष का विचारक मानकर निर्णय किया जाता रहा। नई सदी की आलोचना उत्तर-आधुनिक दौर में हैं, जहाँ विचारधाराओं से मुक्ति की बात कही जा रही है। यहाँ तक कि विचारधारा शब्द आलोचना में शत्रुता अथवा आतंक का प्रतीक समझा जाने लगा है।

विचारधारा साहित्यिक कृति का आन्तरिक पक्ष है, जिससे उसका व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित होता है। यह एक प्रकार का दृष्टिकोण भी है, जो समय और परिस्थिति के संघर्ष में जन्म लेता है। इसे लेखक की चेतना का आधार कहना समीचीन होगा। विचारधारा के अभाव में वह कृति के साथ कभी न्याय नहीं कर पाएगा। वैसे विचारधारा किसी न किसी रूप में रचना में विद्यमान रहती है, जिसका सही मूल्यांकन विचारधारा के अनुसार ही हो सकता है। लेकिन वैचारिक आग्रह की प्रबलता में लेखक को अन्य पक्ष के मतों का भी सम्मान करना चाहिए। वैचारिक आग्रह कहीं दुराग्रह के कारण अच्छी कृति का भी उपहास न उड़ाए, यह आवश्यक है। विचारधारा स्वयं की दृष्टि है, दूसरों पर थोपने का विषय नहीं। हिन्दी आलोचना में अब पूर्ण गंभीरता नए परिवेश के अनुरूप आवश्यक है, जहाँ परम्परागत मूल्यों का आश्रय व विरासत के साथ नवीन प्रतिमानों का निर्धारण भी हों।

प्रस्तुत पुस्तक 'साहित्यिक निबंध' विगत पाँच वर्षों में लिखित एवं प्रतिनिधि साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित मेरे 26 आलोचनात्मक आलेखों का संकलन है। इसमें मौलिक दृष्टि से रचना की अन्तः प्रक्रियाओं के सूत्रों की तलाश करते हुए समकालीन सन्दर्भ में उसकी प्रासंगिकता को प्रकट करने का प्रयास है। आशा है शोधार्थियों और विद्यार्थियों के लिए यह विशेष उपयोगी रहेगी। पुस्तक को सुंदर कलेवर में प्रस्तुति का श्रेय श्री राजकुमार जी शर्मा, आस्था प्रकाशन, जयपुर को है। मेरी ओर से विशेष आभार। 

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'अंधा युग और भारतीय मूल्यबोध'


'अंधा युग’ और भारतीय मूल्य बोध
अपनी माटी पत्रिका के जनवरी-मार्च, २०२३ अंक में प्रकाशित...

महाभारत भारतीय इतिहास की शताब्दियों पुरानी वह घटना है, जिसे वेदव्यास ने शब्दबद्ध किया। यह ग्रंथ जिस युग में लिखा गया, वहाँ मूल्य-विहीनता, पतनशीलता, मर्यादा का अतिक्रमण का दृश्य पग-पग पर दिखाई देता है। 'अंधा युग' धर्मवीर भारती रचित गीतिनाट्य महाभारत के अट्ठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु के क्षण तक की घटनाओं पर आधारित है। डॉ. भारती अपने युग की संक्रांतिकालीन बेला के साक्षी रहे हैं। तत्कालीन परिस्थितियाँ जहाँ एक ओर युद्धजनित त्रासदियों की शिकार मानवता है, तो दूसरी ओर अंधकारमय वातावरण में भी जीवन के प्रति उत्कट भाव-प्रवणता। इस संधिकालीन समय में कवि भारती के मन में दुविधा, संशय और भय के साथ-साथ आस्था का स्वर भी अंकुरित होता है। ‘अंधायुग’ डॉ. भारती की एक ऐसी रचना है, जहाँ वे नवीन भाव और विचार बोध को जन्म तो देते हैं, परंतु संपूर्ण कृतित्व में आस्था और अनास्था का द्वंद्व निरंतर जारी रहता है। महाभारत का यह घटना-चक्र संपूर्ण मानवता को संदेश देता है कि मूल्य-विहीन होने पर पतनशीलता निश्चित है। गांधारी, धृतराष्ट्र, विदुर, युयुत्सु, याचक आदि पात्रों की  मनःस्थिति हमारा वर्तमान है जो अभी भी गतिमान है।

डॉ. भारती ने अपनी प्रखर मेधा का परिचय देते हुए ‘अंधायुग’ में महाभारत के मिथकीय आवरण में समकालीन युद्धजनित समस्याओं का बखूबी चित्रण ही नहीं किया, बल्कि निजी अनुभूति को व्यापक सत्य के रूप में प्रकट किया। ‘अंधायुग’ कृति के रचनागत उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए वे लिखते हैं- “......... इस कृति का पूरा जटिल वितान जब मेरे अंतर में उभरा तो मैं असमंजस में पड़ गया। थोड़ा डर भी लगा। लगा कि इस अभिशप्त भूमि पर एक कदम भी रक्खा कि फिर बचकर नहीं लौटूँगा।”1 परन्तु रचनाकार अपने दायित्व से विमुक्त नहीं हो सकता, इसीलिए वे आगे लिखते हैं- “पर एक नशा होता है- अन्धकार के गरजते महासागर की चुनौती को स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों में उतरते जाने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोर कर, बचाकर, धरातल तक ले आने का।”2  कितनी बड़ी विडम्बना है कि उच्च संस्कृतियों और मूल्यों का ताज पहने हुए मानव ही मानव आत्मा के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाता। डॉ. भारती की मान्यता यह रही है, “साहित्य में शब्द तभी समर्थ, प्रेषणीय और प्राणवान बनते हैं, जब उनमें मानवीय मूल्य आन्तरिक रूप से प्रतिष्ठित रहता है।“3 वस्तुतः असंगतियों को अनावृत्त करना ही सृजनधर्मिता है। 

युद्ध के उपरांत स्थितियाँ, मनोवृत्तियॉं एवं आत्माएँ सब कुछ विकृत हो जाती हैं, जहाँ जीवन के प्रति कोई आसक्ति शेष नहीं रह जाती। केवल अतीत की त्रुटियों पर क्षोभ से भविष्य की पटकथा लिखना इतना आसान नहीं होता। अनास्था के इस भीषण वातावरण में कवि ने कहा, "यह कथा ज्योति की है, अंधों के माध्यम से"- तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात् अंधकार से प्रकाश की ओर गमन का संदेशवाहक यह भारतीय मूल्य-बोध आने वाले भविष्य का निर्माण कर रहा है जो हमारी आस्थावादी सम्यक दृष्टि का विस्तार है। 'अंधायुग' युद्ध के विरुद्ध एक सशक्त अपील है, क्योंकि युद्ध मानव मूल्यों के नकार का उदाहरण है। मर्यादा का बिखराव,रक्तपात और विनाश युद्ध का अंतिम सत्य है। इसमें दोनों ही पक्षों को अपना आत्म-तत्व खोना पड़ता है और महाभारत के युद्ध का परिणाम भी कवि की दृष्टि में कुछ ऐसा ही रहा-

भय का अंधापन, ममता का अंधापन
अधिकारों का अंधापन जीत गया
जो कुछ सुंदर था, शुभ था, कोमलतम था
वह हार गया... द्वापर युग बीत गया।4

सुंदर, शुभ और कोमलतम की हार मानवता की पराजय है। द्वापर युगीन यह कथा आज के समय को भी ध्वनित करती है। मनुष्य का अवचेतन मन सदैव विवेक पर अधिपत्य कर लेता है, इस कारण निर्णय के क्षण में विवेक और मर्यादा व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं। युद्ध के इस कारण को खोजते हुए गांधारी ने अपने कथन में इस भाव को व्यक्त किया-

हम सबके मन में कहीं एक अंध गह्वर है।
बर्बर पशु, अंधा पशु, वास वही करता है।5

युद्ध के समय सत्य की रक्षा कदापि नहीं हो सकती और अंततः सत्य का विस्थापन गंभीर परिणाम चुकाता है। अश्वत्थामा के अनास्थावादी चरित्र निर्माण के पीछे युधिष्ठिर का वह अर्धसत्य है जिसके कारण उसके पिता की मृत्यु हुई। धर्मराज की उपमा से विभूषित युधिष्ठिर 'नर या कुंजर' अर्थात् मानव और पशु को भी पृथक नहीं कर सके। इसीलिए अश्वत्थामा ने कहा कि मेरे ह्रदय के अंदर जो कुछ भी अच्छा था उसकी भ्रूण-हत्या युधिष्ठिर के अर्धसत्य ने की। अब उसके समक्ष एक ही विकल्प है-

वध, केवल वध, केवल वध,
मेरा धर्म है।6

अश्वत्थामा का प्रतिशोध यहीं तक सीमित नहीं रहता। वह सत्य रूपी संजय और भविष्य रूपी याचक की  हत्या का प्रयास भी करता है। धर्म के पक्ष में खड़ा रहने वाला युयुत्सु अभिशप्त जीवन जीता है, दोनों ही पक्षों से प्रताड़ित होता है और अंततः आत्महत्या करता है। यह विपरीत समय का दर्दनाक सच है। युयुत्सु की आत्महत्या पर कृपाचार्य का यह कथन भयंकर परिणाम की ओर इंगित करता है-

यह आत्महत्या होगी प्रतिध्वनित
इस पूरी संस्कृति में,
दर्शन में,धर्म में, कलाओं में,
शासन व्यवस्था में
आत्मघात होगा बस अंतिम लक्ष्य मानवता का।7

नैतिकता के पतन से मनुष्य स्वार्थी हो जाता है। धृतराष्ट्र महाभारत के ऐसे ही पात्र हैं। उनका अंधापन कुंठा एवं स्वार्थपरता ने मानवीय त्रासदी को आमंत्रित किया। युद्ध के अंत में विदुर के समक्ष जब वह अपने पश्चाताप भरे शब्दों में पीड़ा को प्रकट करते है तो वह स्वयं ही उन कारकों को उजागर कर देते है, जिससे युद्ध की नियति बनी-

मेरे मन ने सारे भाव किए थे विकसित
मेरी सब वृत्तियॉं उसी से परिचालित थीं!
मेरा स्नेह, मेरी घृणा, मेरी नीति, मेरा धर्म
बिल्कुल मेरा ही वैयक्तिक था।
उसमें नैतिकता का कोई बाह्य मापदंड था ही नहीं।8

अश्वत्थामा का प्रतिशोध ब्रह्मास्त्र का संधान हमें उस परमाणु त्रासदी का चित्र बताता है जहाँ अज्ञेय के शब्दों में मानव का रचा हुआ सूरज मानव को भाप बनकर सोख जाता है। व्यास की यह चेतावनी विष्णु यथार्थ को प्रकट करती है-

ज्ञात क्या तुम्हें है परिणाम इस ब्रह्मास्त्र का?
यदि यह लक्ष्य सिद्ध हुआ ओ नरपशु!
तो आगे आने वाली सदियों तक
पृथ्वी पर रसमय वनस्पति नहीं होगी
शिशु होंगे पैदा विकलांग और कुष्ठग्रस्त
सारी मनुष्य जाति बौनी हो जायेगी
जो कुछ भी ज्ञान संचित किया है मनुष्य ने
सतयुग में, त्रेता में, द्वापर में
सदा-सदा के लिए होगा विलीन वह
गेहूं की बालों में सर्प फूफकारेंगे
नदियों में बह-बह कर आयेगी पिछली आग।9

‘अंधायुग’ में प्रभु अपने अवसान के क्षणों में जब ध्वंस का दायित्व अपने ऊपर लेते हैं तो भविष्य की कल्पना भी रखते हैं। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी का कथन है- “आस्था का प्रश्न संजय, युयुत्सु और अश्वत्थामा के माध्यम से कवि ने प्रस्तुत किया है और अनास्था को आस्था की भूमिका के रूप में स्वीकार किया है।”10 विदुर का निवेदन इसी का प्रमाण है-

यह कटु निराशा की / उद्धत अनास्था है / क्षमा करो प्रभु।
यह कटु अनास्था भी अपने / चरणों में स्वीकार करो।
आस्था तुम लेते हो / लेगा अनास्था कौन?”11

मनुष्य के समस्त अनैतिक क्रियाकलापों का परिणाम और नैराश्य का फल प्रभुता की मृत्यु के रूप में प्राप्त होता है। ‘अंधायुग’ में ‘कृष्ण’ का चरित्र जिस रूप में प्रकट हुआ है, उस बारे में कतिपय आलोचकों का मत है कि भारती जी ने भारतीय संस्कृति में कृष्ण के प्रति आस्था को कम कर दिया है, किंतु गहराई से दृष्टिपात करें तो यह प्रकट होता है कि कृष्ण की मृत्यु अश्वत्थामा के अनास्था भाव को समाप्त कर देती है। 'अंधा युग' में प्रभु श्री कृष्ण की मृत्यु और उसके उपरांत अश्वत्थामा का आत्मबोध हमें आश्वस्त करता है कि भारतीय मूल्यों की आस्थावादी दृष्टि का फलक भविष्य को संचित करने वाला है, क्योंकि कृष्ण भविष्य के रक्षक हैं, अनासक्त है। यदि अपने आत्मत्याग से ही शांति की स्थापना होती है तो वह इस हेतु भी उपस्थित हैं। यह विचार महान भारतीय सनातन परंपरा का उद्घोष करता है। स्वयं अश्वत्थामा का कथन प्रमाणित करता है-


सुनो, मेरे शत्रु कृष्ण सुनो!
मरते समय क्या तुमने इस नरपशु अश्वत्थामा को
अपने ही चरणों पर धारण किया
अपने ही शोणित से मुझ को अभिव्यक्त किया?12

यही आस्था भाव कवि को सृजनात्मक धर्म की ओर प्रेरित तो करता है, पर अंतस् में निहित व्याकुलता द्वंद्व को जन्म देती है। जो कवि संक्रमणकालीन परिस्थितियों और विसंगतियों का द्रष्टा हो, वह अपने भावों को निश्चित रूप से इन्हीं शब्दों में प्रकट करेगा। शत्रु के मन से घृणा भाव की समाप्ति आस्थावादी दृष्टि का विस्तार करती है। मानवता के नए वितान की रचना करती है। जैसा कि अश्वत्थामा ने कहा-

जैसे सड़ा रक्त निकल जाने से
फोड़े की टीस पटा जाती है
वैसे ही मैं अनुभव करता हूँ विगत शोक
यह जो अनुभूति मिली है
क्या यह आस्था है?13

कवि की मानवतावादी चेतना भी क्रियात्मक एवं रचनात्मक शक्ति रखती है। कुंठा, आकुलता, हिंसा, विकृति, रक्तपात और बर्बरता में भी कृष्ण का यह आश्वासन सृजन का संदेश देता है, यथा-

मर्यादायुक्त आचरण में / नित नूतन सृजन में /
निर्भयता के / साहस के / ममता के / रस के /
क्षण में / जीवन और सक्रिय हो उठूंगा मैं बार-बार।14

अंत में अश्वत्थामा का आस्थावादी होना मानवता की विजय है। कृष्ण मृत्यु को वरण करके भी भारतबोध की मूल्य चेतना को जीवित रखने में सफल रहे हैं। आस्था और अनास्था के द्वंद्व में भी कवि का समष्टि भाव ही अधिक मुखर रहा है। ‘अंधायुग’ में युयुत्सु का चरित्र आस्था के प्रति अनास्था भाव को प्रकट करने वाला है, वहीं कृष्ण की मृत्यु पर अश्वत्थामा का आस्थावान् बन जाना अपूर्व है । डॉ. धर्मवीर के काव्य में युगीन विद्रुपताओं, वेदना व पीड़ा की गाथाओं, युद्ध जनित विषमताओं, मानवता को त्रास पहुँचाने वाली कई घटनाओं के चित्रण के बावजूद वे अपनी आस्था का स्वर तलाश करते हैं। ‘अंधा युग’ की संपूर्ण रचना-प्रक्रिया में आस्था और अनास्था के द्वंद्व में आस्थावादी दृष्टि का आकर्षण- पाठकों को सदैव आकर्षित करता है और भावी मूल्यों के निर्माण की प्रेरणा भी देता है। युद्ध की विभीषिका से त्रस्त मानवता,परमाणु बमों की भयंकरता, मनुष्यता की पीड़ा, मानव मूल्यों की मर्यादा आदि के माध्यम से 'अंधा युग' को न केवल वर्तमान में बल्कि आने वाले समय में भी उपयोगी माना जाएगा।

संदर्भ
1.अंधायुग, डॉ. धर्मवीर भारती, किताब महल, इलाहाबाद, सं. 1999, भूमिका, पृ.3
2.पूर्ववत्, पृ.3
3.मानव मूल्य और साहित्य, डॉ. भारती,  भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली-32, सं. 2006, पृ.177
4.अंधायुग, डॉ. धर्मवीर भारती, किताब महल, इलाहाबाद,सं. 1999, पृ.11
5.पूर्ववत्, पृ.19
6.पूर्ववत्, पृ.36
7.पूर्ववत्, पृ.85
8.पूर्ववत्, पृ.16
9.पूर्ववत्, पृ.73
10.हिन्दी नव लेखन, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सं.1960, पृ.60
11.अंधायुग, डॉ. धर्मवीर भारती, किताब महल, इलाहाबाद, सं. 1999, पृ.19
12.पूर्ववत्, पृ.95
13.पूर्ववत्, पृ.95
14.पूर्ववत्, पृ.99

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रामचन्द्र शुक्ल: दृष्टि-सृष्टि (पुस्तक समीक्षा)

 

पुस्तक समीक्षा-
रामचन्द्र शुक्ल: दृष्टि-सृष्टि
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'साहित्य परिक्रमा' में प्रकाशित...

हिन्दी समालोचना को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने का श्रेय निस्संदेह आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को है। उन्होंने प्राचीन भारतीय और नवीन पाश्चात्य काव्य सिद्धान्तों का समन्वय कर अपना तार्किक मत रखते हुए समालोचना के नए सिद्धान्त निर्मित किए। हिन्दी समालोचना के क्षेत्र में एक मान्य, प्रौढ़ मानदण्ड और प्रभावशाली पद्धति की आवश्यकता थी, इसकी पूर्ति शुक्लजी ने की। लेकिन आचार्य शुक्ल का रचनात्मक आकाश कविता, कहानी, निबंध, साहित्येतिहास, साहित्य-शास्त्र एवं अनुवाद आदि क्षेत्रों में विस्तारित है। आचार्य शुक्ल की समग्र साहित्यिक दृष्टि एवं सृष्टि के अवलोकन का प्रयास कृष्ण बिहारी पाठक की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘रामचन्द्र शुक्ल: दृष्टि-सृष्टि’ में हुआ है। उक्त पुस्तक में संकलित आठ निबंधों में कविता संग्रह ‘मधुस्रोत’, निबंध-संग्रह ‘चिन्तामणि’, कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय’, हिन्दी साहित्य का इतिहास एवं तुलसी, सूर, जायसी पर लिखित आलोचनात्मक ग्रंथों के माध्यम से आचार्य शुक्ल की रचनाधार्मिता के मूल्यांकन का सार्थक प्रयास दिखाई देता है।
आचार्य शुक्ल एक आलोचक तो हैं ही वरन एक कवि हृदय भी हैं। आलोचना विधा के महानायक आचार्य शुक्ल का कवि-हृदय भी उन्नत कोटि का रहा है। यद्यपि वे आलोचक तो हैं ही, तथापि उनका विपुल काव्य उनके कवि होने का प्रमाण हैं। उनके विपुल काव्य का संकलन ‘मधुस्रोत’ नामक काव्य-संग्रह में है। मधुस्रोत’ में आचार्य शुक्ल रचित 31 कविताओं का संकलन है। जिसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा 1971 में किया गया। 1901 से 1929 तक लिखित ये कविताएँ तत्कालीन प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं- सरस्वती, आनंदकादंबिनी, बालप्रभाकर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, लक्ष्मी, इन्दु, बाल हितैषी, माधुरी, सुधा आदि में प्रकाशित हुई। ‘मधुस्रोत’ नामक काव्य-संग्रह की सम्यक् विवेचन आचार्य शुक्ल की काव्य-प्रतिभा का निदर्शन, परवर्ती आलोचक का बीजग्रंथ और समय की अनुगूँज में प्रखर व्यक्तित्व का प्रमाण देता है। पुस्तक के प्रथम निबंध में ‘मधुस्रोत’ के साथ-साथ अन्य ग्रंथों के आधार पर उनके प्रकृति-प्रेम को समालोचक की दृष्टि से प्रकट किया है।
आचार्य शुक्ल ने सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार की समीक्षाएँ लिखी। सैद्धान्तिक समीक्षा की दृष्टि से ‘रस-मीमांसा’ स्वयं एक प्रतिमान है, जबकि व्यावहारिक आलोचना का उन्नत रूप ‘तुलसी’, ‘जायसी’ की ग्रंथावली की भूमिकाओं, ‘भ्रमर गीत सार की भूमिका’ तथा ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में दिखाई देता है। सौन्दर्यानुभूति को भी आचार्य शुक्ल ने रसानुभूति के स्तर पर ही देखा है। वे लोक की सामान्य भूमि और सामान्य हृदय की स्थिति की भाँति ही सौन्दर्य के सामान्य आदर्श की स्थिति मानते हुए उसकी अनुभूति को मंगल विधायिनी मानते हैं। आचार्य शुक्ल ने ‘रसवाद’ को आध्यात्मिक भूमि से उतारकर वैज्ञानिक आधार पर प्रतिष्ठित किया। ‘रस’ को काव्य की आत्मा स्वीकार करके शेष समस्त मान्यताओं को इसी के भीतर समाविष्ट किया। उन्होंने ‘रस-सिद्धांत’ को आधुनिक युग की आकांक्षा के अनुकूल करके पुनः प्रतिष्ठित किया। वे हिन्दी के पहले आलोचक हैं, जिन्होंने भारतीय काव्य शास्त्र की अतल गहराई में प्रवेश करके उसकी महत्ता, सारवत्ता, व्यापकता और उपयोगिता को रेखांकित प्रस्तुत पुस्तक के दो आलेख- आलोचना के भारतीय संदर्भ एवं समालोचना के सांस्कृतिक प्रतिमान में उक्त दृष्टि का सम्यक विवेचन समाहित है।
आचार्य शुक्ल का सैद्धांतिक समीक्षा का आधार भारतीय काव्य-शास्त्रीय सिद्धांत ‘रसवाद’ है। आचार्य शुक्ल ने इसे सर्वथा पूर्ण मानदण्ड माना। प्रसिद्ध आलोचना ग्रंथ ‘रस मीमांसा’ में इसका पर्याप्त विवेचन हुआ है।इसके अतिरिक्त चिन्तामणि भाग-2 में संगृहीत ‘काव्य में रहस्यवाद’ तथा ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ में भी सैद्धांतिक आलोचना का विवेचन मिलता है। आचार्य शुक्ल की सैद्धांतिक आलोचना को संकलित अन्य विविध निबंधों में मूल्यांकित करते हुए भारतीय काव्यशास्त्र की महनीयता को भी उजागर किया है। आचार्य रामंचद्र शुक्ल के निबंधों का संग्रह ‘चिंतामणि’ के दो भागों में सुरक्षित है। चिंतामणि भाग-एक में संगृहीत सत्रह निबंध मनोविकार व समीक्षात्मक श्रेणी के हैं, जबकि चिंतामणि भाग-दो में काव्यशास्त्र से संबंधित तीन गवेषणात्मक निबंध हैं। इस प्रकार आचार्य शुक्ल द्वारा लिपिबद्ध बीस निबंधों का विषय-क्षेत्र मनोविकार, काव्यशास्त्र एवं आलोचना के परिक्षेत्र में है। ये निबंध हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। अपनी मौलिक उद्भावनाओं और बलवती विचार शैली के कारण वे निबंध क्षेत्र के एकमात्र अधिपति हैं। लेखक ने भी इसी मत का समर्थन करते हुए इसे समालोचना का लक्षण-ग्रंथ कहा है।
आचार्य शुक्ल ने काव्य भाषा की चार मुख्य विशेषताएँ मानी हैं- लाक्षणिकता, रूप व्यापार सूचक शब्दों का प्रयोग, नाद-सौष्ठव तथा रूप गुण बोधक शब्दों का प्रयोग। वे अलंकारों को कविता का साधन मानते हैं, साध्य नहीं। छन्द-विधान को वे नाद-सौन्दर्य की प्रेषणीयता में सहायक मानते हैं। आलेख ‘भाषासृष्टि-भाषा-दृष्टि’ में लेखक ने शुक्ल जी के लेखन का मूल्यांकन उनके द्वारा निर्मित कसौटी पर ही किया। इससे उनकी आलोचनात्मक दृष्टि और रचनात्मक सृष्टि का पता चलता है।

इसके अतिरिक्त आचार्य शुक्ल की कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय’ के बहाने शुक्ल जी की नैसर्गिक प्रतिभा एवं बहुआयामी व्यक्तित्व को चित्रांकित करने का प्रयास उल्लेखनीय है। राजस्थान साहित्य अकादमी,उदयपुर के सहयोग से मधुशाला प्रकाशन प्रा. लि. भरतपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक का आवरण पृष्ठ सहृदय चित्रकार चेतन औदीच्य की तूलिका से हुआ है, जिसमें गहन सौन्दर्य-बोध बिम्बित होता है। 150 पृष्ठीय पुस्तक का आमंत्रण मूल्य 300/- रखा गया है, जो उचित है। समग्रतः यह पुस्तक विद्यार्थियों एवं शोधार्थियों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है जो आचार्य शुक्ल की दृष्टि व सृष्टि को समझना चाहते हैं।









पुस्तक: रामचन्द्र शुक्ल: दृष्टि-सृष्टि
लेखक: कृष्ण बिहारी पाठक
प्रकाशक: मधुशाला प्रकाशन प्रा. लि. भरतपुर
पृष्ठ: 150
मूल्य: 300/-

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