समीक्षा:भूमण्डलीकरण से बदलता हमारा परिवेश/डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                       
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
कविता को मनुष्यता की मातृभाषा माना जाता है। कविता की जब कभी आलोचना होती है, तब मनुष्य की उपेक्षा संभव नहीं है। इसी कारण कविता को लोकसापेक्ष माना गया है। इसके अभाव में कविता का कोई अस्तित्व नहीं है। बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध कविता के कालखण्ड में विशिष्ट स्थान रखता है। यह समय भारत में आर्थिक उदारवाद का रहा, जिसने न केवल आर्थिक ढाँचे को बल्कि हमारे सामाजिक ताने-बाने को बहुत हद तक प्रभावित किया। कवित हरीश पाठक का कविता संग्रह ‘पहले ऐसा नहीं था’ भूमंडलीकरण जनित आर्थिक परतंत्रता और बाजारवादी शक्तियों के उन परिणामों का संकेत करता है, जो मानव-जीवन को प्रभावित कर रही हैं।


यह सच है कि भूमंडलीकरण से उत्पन्न पूँजीवादी व्यवस्था का जब हमारे जीवन में प्रवेश होता है, तब बाजार का घेरा आम आदमी को अपनी फाँस में ले ही लेता है। ‘वे कह रहे हैं उजाड़कर’, ‘रेत का जहाज’, ‘पहले ऐसा नहीं था’ आदि कविताओं में कवि स्पष्ट संकेत देता है कि सब कुछ उजाड़कर हम बाजार की नुमाइश में शामिल हो रहे हैं - वे कह रहे हैं उजाड़कर। चलो वहाँ दूर चलें / वहँा कपड़ों की चीजों की खूबसूरत अजीज़ों की/ नुमाइश लगी है....। (वे कह रहे हैं उजाड़कर, पृ. 27)

पूंजीवादी व्यवस्था के प्रवेश के साथ ही हमारा जीवन यंात्रिक सभ्यता में बदल दिया गया है। इस सभ्य बाज़ार में मनुष्यों की बजाय वस्तुओं में अधिक निवेश किया गया है। इस स्थिति में हमारे पास अब क्या बचा है? ‘फिर वही जंगल’, ‘अभावस में मर गए हैं पेड़’, ‘धुएँ में’, ‘फिर वहीं जंगल’, नीम का पेड़ आदि कविताओं में कवि का दर्द उभर आया है। - सायरन बज रहा है/ नाला बन रहा है/ उठती हैं इमारतें / सड़क चल रही है / बूढ़ा खाँसता है / आँखें ढूँढ रही  हैं /नीम का पेड़/ और पक्का चबूतरा / खो गया इमारतों की भीड में। (नीम का पेड, पृ. 11)

 आर्थिक उदारीकरण के बाद आवारा पूँजी के प्रभाव में यदि हमने कुछ खोया है तो वह है - रिश्तों की बुनियाद। शहरों में चारों ओर कंक्रीट के जंगल उग गये हैं। मानवीय रिश्ते इतिहास की वस्तु बनते जा रहे हैं। बुजुर्गों से भरी शहरी कॉलोनियाँ उसकी गवाह हैं। ‘घर-सफर’, ‘माँ तुम्हें याद है ना’, ‘मैं उन्हें दुनिया दिखाना चाहता हूँ’, ‘भीतर से बाहर तक’ कविताएँ सामयिक यथार्थ की अभिव्यक्ति करती हैं। जहाँ कवि कह उठता है - बहुत कुछ कहना चाहता है वह / मगर कहे किससे / उसके आस-पास अब/ सब कुछ उजाड़ है। (पहले ऐसा नहीं था, पृ. 22) यह उजाड़ रिश्तों की हकीकत बयां करता है।

आज भागदौड़ भरी जिन्दगी में विश्राम नहीं है। मानवीय रिश्ते स्वार्थ में बदल रहे हैं, हिंसक वृत्तियाँ उभर रही हैं। कवि को लगता है कि अब तो सभ्यताओं को भी धर्म का पर्याय बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है, जहाँ प्रेम, भाईचारा नहीं है। आपसी द्वेष की आँच एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच रही है। इसीलिए कवि को अब सावन की मोहक बूँदों में काना सावन नज़र आता है, क्योंकि उसकी स्मृति में इसी दिन पिछले बरस गोलियाँ चली थी, शेष है। एक माँ का यह कथन इस पीड़ा को उजागर कर देता है - सुन / पार साल, कितने घायल हुए थे सावन में / कितनों को गोलियाँ लगी / कितनों पर पेड़ गिर पड़े / कितने धारा में बह गये। (कहाँ जाऊँ खेलने, पृ. 12) कवि यहाँ प्रश्न खड़े करता है। खासकर प्रयोगवादियों से, जिन्होंने कविता को समाज से काटकर व्यक्तिगत स्वार्थ तक सीमित कर दिया। वह पूछता है - कवि, / कितनी नावों में / कितनी बार / सफर किये तुमने। (ऐसा क्यों है कवि, पृ. 78) यह कहकर तत्काल कवियों की शाब्दिक अठखेलियों पर व्यंग्य करता हुआ उस कविता को निरूद्देश्य बताता है जो लोकधर्म की रक्षा न कर सका।



डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी

युवा समीक्षक

हिन्दी प्राध्यापक हैं।

स्पिक मैके,चित्तौड़गढ़ के

उपाध्यक्ष


मो.9828608270
सी-79,प्रताप नगर,
चित्तौड़गढ़
परन्तु, यह कवि अब नई सदी में प्रविष्ट हो रहा  है। वह समाजशास्त्री बनकर कभी नये मूल्यों को स्वीकार कर रहा है, तो कभी एक्टिविस्ट बनकर नया पथ निर्मित कर रहा है। जब तक परिवर्तन नहीं होता, वह चुप बैठना नहीं चाहता। वह कहता है अब ओर किसका इन्तजार किया जाये। क्रांति का आह्वान करता है - उठो / भूखे और पराजित लोगों / सपना उगाते लोगों उठो/ करोड़ों हाथ लहराकर उठो। (अब और किसका इंतजार, पृ. 69) इसके अतिरिक्त ‘चिड़िया ने गीत गाना शुरू ही किया था’, ‘न जाने कितनी नदियों का संगम है’, ‘पसीना एक शब्द है’ आदि कविताओं में श्रम के महत्व को उजागर किया है। साथ ही ‘कुत्ते की दुम एक किवंदन्ती है’, ‘दीवार’ आदि में सामाजिक सक्रियता का पक्ष लिया है। ‘भीतर वहाँ’ में कवि निराश नहीं है। वह जानता है कि जमीन खोदने पर पानी का झरना अवश्य फूटेगा।

कविता की भाषा भावों के अनुरूप हैं। परम्परागत प्रतीकों के माध्यम से सशक्त अभिव्यक्ति ही नहीं है, वरन् सम्बोधन शैली में व्यक्त कविताएँ बरबस आकर्षित करती हैं और कभी-कभी स्वाभाविक पीड़ा को उजागर करती विम्बात्मक शब्दावली चित्रमय दृश्य उत्पन्न कर देती है। यथा- जमीन में बाँस उगने लगे/ टंगने लगीं उन पर रोटियाँ/धँसती दुनिया ‘स्टिल लाइफ’ बन गई। (रेत का जहाज, पृ. 63) साथ ही कविताओं में विद्यमान आंतरिक लय आश्वस्त करती है कि समकालीन कविता में पूर्ण रूप से गद्यकाव्य नहीं बना है।

समग्रतः कवि ने युगानुकूल परिदृश्य को अपनी कविता में बखूबी उकेरा है। उसका समय दो सदियों की संक्रमणकालीन परिस्थितियों का साक्षी है, जिसकी पहचान उसने कर ली है। भूमंडलीकरण के फलस्वरूप बदलते परिवेश को उसने बखूबी व्यक्त किया और उसके भावी दुष्परिणामों का संकेत कर कवि-समय का निर्वाह किया है।

पहले ऐसा नहीं थाः हरीश पाठक,(कविता संग्रह), नमन प्रकाशन,नई दिल्ली-2, पृ. 84, मूल्य-100/-

आत्म-सत्य की लयात्मक अभिव्यक्ति

पुस्तक समीक्षा

आत्म-सत्य की लयात्मक अभिव्यक्ति

(सन्दर्भ : रथ के धूल भरे पाँव)

श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इंदौर द्वारा प्रकाशित 'वीणा' अगस्त,२०२१ अंक में ... 

कविता मनुष्यता की मातृभाषा है, इसीलिए व्यक्ति का ‘आत्म’ जब व्यक्त होता है तो ‘मानवता’ का चित्त भी समय के सच के साथ मुखरित होता है। वर्तमान समय विस्मयकारी दृश्य के साथ ‘मनुष्य’ को आतंकित कर रहा है, जो फैंटेसी से भी आगे का यथार्थ है। इसका चेहरा रक्तस्नात और हृदयहीन है, जो मारक और अविश्वसनीय रूप में हमारे समय का सच है। नई सदी ने भूमंडलीकरण की पदचाप के साथ गंतव्य आरंभ किया। देखते-देखते मात्र दो दशकों में अर्थ-जगत की व्याधियाँ मानव-जीवन के फलक को लील गई, तब कला-जगत अपनी संवेदना को कहाँ तक बचाता?  अजित कुमार राय का काव्य-संग्रह ‘रथ के धूल भरे पाँव’ में इसी आत्म-सत्य की अभिव्यक्ति हुई है।

कवि का यह आत्म-सत्य जीवन का वह रजत-पाश है, जो मध्यमवर्गीय जीवन की करुण गाथा है। यह वर्ग अपने अतीत के मूल्यों से मुक्त नहीं होना चाहता और स्वप्नों के खंडहरों को पुननिर्मित भी नहीं कर सकता। शीर्षक ‘रथ’ अतीत का वह मोहभरा आकर्षण है, जो भारतीय वैभव का पुरूषार्थ है; जहाँ अदम्य उत्साह की गर्जना है तो ‘धूल भरे पाँव’ वर्तमान समय की मूल्यहीनता और वैचारिक भटकाव का बिम्ब है। यह बिम्ब काव्य-संग्रह की चवहत्तर कविताओं में रह-रहकर उद्दीप्त होता है। सुखद पहलू यह है कि कवि ने उन कारकों को पहचान लिया है और अपने शब्द बाणों से सांस्कृतिक संघर्ष की औपनिवेशिक मनोवृत्ति पर जमकर प्रहार किया है। 

कवि का रचना समय दो सदियों का संधिकाल है। वह उस समय का साक्षी है, जहाँ संवेदना और मूल्यों की परिधि में भारतीय समाज पल्लवित है। यह कवि का बचपन है। तरुणाई में स्नेह का विस्तार मिला, पर संस्कार ने जीवन-वृत्त का निर्धारण किया। इस बीच जीवन की गति के साथ विषाद भरा यथार्थ से साक्षात्कार और फिर उससे संघर्ष करते-करते हृदय की स्फोट ध्वनियाँ निकल पड़ी और कविता बन गई। संकलन की प्रथम कविता ‘नरमेध’ कवि का आत्म-बिम्ब है, जिसे उन्होंने ‘एक नया दलित सौन्दर्य-शास्त्र’ कहा। ‘नरमेध’ स्वयमेव भीषण आक्रोश को प्रकट कर देने वाला शब्द है, जहाँ शिक्षक को बंधुआ मजदूर बनाकर बाजारवादी शक्तियों के हाथों में फेंक दिया है। शिक्षा के निजीकरण की भयानक आत्मपीड़ा संभवतः कवि की अनुभूत अभिव्यक्ति जान पड़ती है। इसीलिए वह कहता है-

“हे संस्था के पुरोहितो!
आज राजनीति के ‘पाठ्यक्रम’ रोज बदलते हैं,
समय के ‘पंचांग’ पिघलते हैं,
सत्ता की संपूर्ण सुविधाओं पर कुंडली मार बैठे
अजगर ‘मनुष्य’ को निगलते हैं।
हम संस्था के ‘अंडे’ को मुर्गी सा सेते हैं-
किन्तु जब उसमें ‘पंख’ आते हैं
तो वह हमारी ‘पकड़’ से बहुत दूर निकल जाती है।”
(नरमेध,पृ.30) 

इस वेदना में ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं जीवन की समग्रता में मनुष्यों के स्थान पर वस्तुओं में निवेश कर दिया। इस लम्बी कविता में ‘जूते’ की तरह शिक्षक बदलना, कंधे पर पैर रखकर चलना आदि ऐसे अनेक बिम्ब सच्चाई के निकट ले जाने में सक्षम हैं।

आत्म की अभिव्यक्ति के साथ कविता का संवेदना तत्त्व संपूर्ण जगत से जुड़ता है। सारी जटिलताओं के होते हुए भी कविता हमारी संवेदना के निकट होती है, यही राग तत्त्व है। इससे कवि की पीड़ा साधारणीकृत हो जाती है और जगत की पीड़ा उसकी वाणी बन जाती है। किसान और स्त्री वर्तमान समय के सबसे नरम शिकार बने हैं, जो बाजारवादी शक्तियों के हाथ का खिलौना बन गए हैं। उपभोग की पराकाष्ठा ने नारी को बाजार में ‘विज्ञापन’ के रूप में खड़ा कर दिया है-

स्त्रियों के ग्लैमरस चित्र?
क्या स्त्री चित्रों के फ्रेम से बाहर आना चाहेगी,
क्षण-प्रतिक्षण बदलती जीवन्त-मुद्राओं
एवं नई भंगिमाओं के साथ?
चन्द्रमा दूर से ही अच्छा लगता है।
नारी-सौन्दर्य को ‘नजर’ लग गई है,
विज्ञापन बाजार की।
(स्त्री-विमर्श, पृ.54)

यही स्वर किसान का प्रतिवेदन, दासता, बाजार-भाव, होम लोन, दूसरा विस्थापन आदि कविताओं में हैं, जहाँ कवि ने आने वाले समय के भीषण यथार्थ को पहचान लिया है और सावचेत करते हुए लिखा-
वस्त्र बदलती स्त्री एक दिन खुद
वस्त्र की तरह बदल दी जाएगी।
(बाजार-भाव, पृ.72)

नई सदी की सर्वाधिक ज्वलंत चुनौती वैश्वीकरण है, जिसमें सांस्कृतिक मूल्यों का विलोपन अधिक है। विकृत उपभोक्तावादी दृष्टि का प्रसार है। इसका सर्वाधिक प्रभाव चेतनावान संवेदनशील कला जगत पर पड़ता है। अपने मूल तत्त्व से वह विमुख नहीं हो सकता, अतः विद्रोही स्वर में प्रतिरोध करता है। बहुलतावादी भारतीय समाज में सांस्कृतिक मूल्यहीनता को वह स्वीकार नहीं कर सकता, वह कह उठता है-

आम्रवन की नीलिमा क्या हो गई?
मंजरी की गंध मल्टीफ्लेक्स में क्यों खो गई?
वृश्चिकों के बिस्तरे पर जाग करके भोर में,
जिसे बाबा ने सँजोया था समय के शोर में।
वृत्त बदला बिन्दु में, मन व्यास मेरा हो गया है।
आँवले की छाँव में भोजन कसैला हो गया है।।
(संस्कृति के सीमांत, पृ.86)

अतिक्रमण, पृथ्वी की कक्षा के बाहर, बढ़ने दो अक्षरों का आकार, अस्तित्व की प्रज्ञा आदि कविताएँ हमारे मन पर औपनिवेशिक प्रभाव को व्यक्त करती हैं, जो हमें मानसिक दासता से मुक्त नहीं होने का संकेत देती है। गांधी आज हमारी चेतना में नहीं है, पश्चिमी चकाचैंध में हम अपना सर्वस्व लुटा चुके हैं। हम स्मृति और इतिहास की संधि-रेखा पर हैं। कवि जड़ों की ओर लौटने का आह्वान करते हैं-

स्मृति और इतिहास की संधि-रेखा पर
पड़ी गांधी की लाश कौन उठाए?
‘राजघाट’ पर बार-बार दफनाई जाती हैं
गांधी की लाश।
कब होगा हमारे भीतर
उनका पुनर्जन्म?
(अस्तित्व की प्रज्ञा, पृ.57)

काव्य-संग्रह में उन सभी अवांछित विद्रुपताओं का उल्लेख हुआ है, जो नई सदी की वास्तविकता है। भारतीय-सांस्कृतिक मूल्यों का स्खलन, भाषा, विचार, जीवन-शैली में बदलाव के परिणामों को भी कवि ने पहचाना है। वह केवल आक्रोश व्यक्त कर चुप नहीं रहता, बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन के लिए मुखर भी हो उठता है और कहता है-

कृष्ण केवल ‘बाँसुरी’ नहीं बजाता
वह ‘चक्र’ उठाना भी जानता है।
(नरमेध, पृ.26)

महाराणा सुनो, सेतुबंध, कालांकित कविता में कवि की सकारात्मक दृष्टि है तो कई स्थलों पर  स्पष्टवादिता से कवि ने अपने समय के यथार्थ को स्वर दिए हैं। विश्व शांति का मिथक, नोटबंदी पर गुलाबी नोट, तीन तलाक को तलाक, जे.एन.यू. में खड़े होकर, सर्जिकल स्ट्राइक-1, सर्जिकल स्ट्राइक-2 राष्ट्रवाद के मंच पर राष्ट्रपति, अभयारण्य बकरों के लिए आदि कविताओं में कवि के विचार बिना किसी आग्रह के प्रकट हुए हैं। निर्भीकता और ईमानदारी से अपनी बात कहने का साहस यहाँ दिखाई देता है। जिन विषयों पर समकालीन कवि मौन हैं, वहाँ उनकी लेखनी चली है। युग-धर्म को निर्वाह की दृष्टि से यह उत्तम है। सामयिक घटनाओं पर कवि का राष्ट्रनायकों को सम्बोधन ‘युगचारण’ की भूमिका में दिखाई देता है।

ओ धूमिल!
धूमिल नहीं हुआ है संसद का रक्त-चरित्र।
देवदूतों की भाषा है अब भी पवित्र।
मुकुट की रोटियाँ 
रोटियों की मुकुट के लहू से गुंथी है।।
(दूसरा विस्थापन, पृ.192)

कविता में बिम्ब और लय की उपस्थिति आवश्यक है। मुक्त छंद का आशय ‘आन्तरिक लय’ की भी समाप्ति कर देना नहीं है, अन्यथा कविता का मूल ‘संगीत-तत्त्व’ ही नष्ट हो जाएगा। कवि ने सभी कविताओं में लयात्मक स्वर और बिम्ब विधान पूर्ण उत्कर्ष के साथ आए हैं। संगीतमय स्वर-साधना के साथ शब्दों का संयोजन और लयात्मक अभिव्यक्ति का लालित्य दर्शनीय है-

शीशे की रंगीन गोलियों का वह टूटा प्रिज्म कहाँ ? 
लट्टू नहीं, नाचती धरती का वह ग्लोबल रिद्म कहाँ !
खलिहानों के गंध - पिरामिड टूट गया।
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पेड़ों पर वह ओल्हा पाती, शाख आज भी काँप रही है ।
मर - मर कर जीने का दर्शन कहाँ कबड्डी भाँप रही है ?
आज कैरियर सपने सारे लूट गया।
(छन्दांतर47)
           
कवि ने कविता को ‘असाध्यवीणा’ माना है, वह स्वयं प्रियंवद केशकाम्बली की तरह सर्जना के किरीटी-तरु को समर्पित है, अतः शब्द-स्वर की वीणा बोल उठी है। पाठक अपनी-अपनी दृष्टि से उसे तौल रहा है। अपने आत्मसत्य की लयात्मक अभिव्यक्ति देते हुए कवि को किसी वाद की परिधि में नहीं है। वैचारिक संतुलन के साथ दासता का प्रतिनिधि नहीं होना अच्छा संकेत है, इससे चाहे वह किसी धारा में न बहे, स्वतंत्र दीप की भांति टिमटिमाता अवश्य रहेगा और अंधकार की चीरने में सफल भी होगा।

पुस्तक का कलेवर प्रसिद्ध कवि विजेन्द्र ने तैयार किया है, भूमिका वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति ने लिखी है। इससे कृति का महत्त्व बढ़ गया है। बोधि प्रकाशन ने इसे सुन्दर ढंग से मुद्रित किया है और संतोष का विषय है कि कृति का मूल्य पुस्तक के आकार अनुसार है।पुस्तक की समस्त कविताएँ पाठकों को बहा जाने में सक्षम है।

पुस्तक : रथ के धूल भरे पाँव
लेखक : अजित कुमार राय
आवरण : विजेंद्र
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर, पृ.192, मूल्य-250/-



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साहित्य मंच का आयोजन


साहित्य मंच : गांधी और हिन्दी 
02 अक्टूबर,2019


साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली और हिंदी विभाग डॉ. भीमराव अंबेडकर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, निंबाहेड़ा (राजस्थान) के संयुक्त तत्त्वावधान में महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती के अवसर पर  'गांधी और हिंदी' विषयक साहित्य-मंच का आयोजन दिनांक 2 अक्टूबर,2019 को अपराह्न  2:00 बजे महाविद्यालय सभाकक्ष में  किया गया।समारोह के अध्यक्ष डॉ.इंदु शेखर तत्पुरुष,सदस्य, हिंदी परामर्श मंडल साहित्य अकादेमी,नई दिल्ली, मुख्य अतिथि डॉ.उमेश कुमार सिंह,पूर्व निदेशक मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी, भोपाल, विशिष्ट अतिथि डॉ. नरेंद्र मिश्र, सह आचार्य ,हिंदी विभाग,जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर तथा महाविद्यालय प्राचार्य डॉ. कमल नाहर ने मां सरस्वती की प्रतिमा एवं महात्मा गांधी के छवि  चित्र पर माल्यार्पण के साथ दीप प्रज्वलन कर शुभारंभ किया।

महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ.कमल नाहर ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि साहित्य अकादमी ने हिंदी जगत के प्रतिष्ठित विद्वानों के विचारों का अवगाहन करने का महाविद्यालय को परम अवसर दिया है ।साहित्य मंच के माध्यम से 'गांधी और हिंदी' को समझने का हमारे पास आज  बेहतर अवसर है। साहित्य मंच के आयोजन सचिव डॉ. राजेंद्र कुमार सिंघवी अपने आरंभिक वक्तव्य में विषय की  रूपरेखा को स्पष्ट करते हुए कहा कि गांधीजी का मूल्यांकन हिंदी भाषा और साहित्य के आलोक में करना कार्यक्रम के आयोजन का अभीष्ट है। हिंदी भाषा और लिपि के प्रति गांधीजी का दृष्टिकोण, यथार्थपरक विवेचना तथा तत्कालीन परिस्थितियों में प्रासंगिकता का मूल्यांकन अपेक्षित है।इसी तरह हिंदी साहित्य की  विविध विधाओं पर गांधी जी के दर्शन का प्रभाव किस सीमा तक पड़ा, उसकी विशद विवेचना साहित्य मंच के इस आयोजन का उद्देश्य है ।उद्देश्य की प्रतिपूर्ति होगी,ऐसी आशा है




डॉ. उमेश कुमार सिंह ने 'हिंदी भाषा और गांधी दृष्टि' विषय पर अपने आलेख पाठ में हिंदी भाषा के स्वरूप के प्रति गांधीजी के मंतव्य, राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति गांधी जी जी के विचार तथा स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया। उन्होंने अनेक उद्धरणों के साथ राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति महात्मा गांधी के विचारों को प्रकट किया। डॉ.सिंह के अनुसार गांधी यद्यपि भाषा वैज्ञानिक नहीं थे,परंतु भारत की आत्मा के लिए उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सर्वाधिक उपयुक्त माना। इसी कारण हिंदी ने देश की एकता को  सूत्र में बांधकर विदेशी शक्तियों से लोहा लिया।


डॉ. नरेंद्र मिश्र ने 'हिंदी साहित्य पर गांधी के प्रभाव' की विवेचना करते हुए बताया कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ से आजादी और उसके बाद तक हिंदी काव्य और गद्य साहित्य पर गांधीजी के विचार छाए रहे, जिसके परिणामस्वरूप हिंदी काव्य की राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा समृद्ध हुई । हिन्दी के अनेक साहित्यकार गांधीजी से प्रभावित होकर देश की  आज़ादी के लिए जनता को जागृत करने में लग गए । कथा साहित्य में प्रेमचंद और जैनेंद्र ने गांधी के विचारों को मूर्त रूप देते हुए समाज सुधार की और विशिष्ट कार्य किया। उन्होंने हिंदी साहित्य में गांधी से प्रभावित विभिन्न साहित्यिक कृतियों की कृतियों की चर्चा भी की।

अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ. इंदु शेखर तत्पुरुष ने  गांधी और हिंदी दोनों को एक-दूसरे का पर्याय बताया। उनकी दृष्टि में हिंदी के गौरव को गांधी ने सदैव स्वीकार किया । दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार सभा की स्थापना और उसके लिए सार्थक प्रयास करने की दृष्टि से उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। गांधी की भाषा में आंतरिक विनय हमेशा रहा , जो कि वर्तमान समय में  भाषायी विनम्रता का संदेश प्रदान करता है।गांधी के विचार साहित्य में आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं ।

आलेख पाठ के पश्चात पश्चात के पश्चात उपस्थित श्रोताओं ने संवाद परिचर्चा में भाग लिया और कई प्रश्नों के समाधान प्राप्त किए। मंच की ओर से अनेक नई जानकारियां प्रदान की गई। आभार प्रो. भगवान साहू ने ज्ञापित किया ज्ञापित किया ने ज्ञापित किया। साहित्य मंच के आयोजन में चित्तौड़गढ़ जिले के अनेक साहित्य प्रेमी, शोधार्थी, नगर के गणमान्य नागरिक एवं महाविद्यालय संकाय सदस्य उपस्थित रहे।
-डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी
आयोजन सचिव 


मंचस्थ अतिथि
डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष



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