आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
सांस्कृतिक एकात्म एवं भारतीय चिंतन
सांस्कृतिक एकात्म एवं भारतीय चिंतन
समवेत के जुलाई-दिसम्बर,2021 अंक में प्रकाशित
एकात्म जीवन-दर्शन भारतीय
संस्कृति का प्राण है। भिन्न-भिन्न विचार समूहों के प्रवाह को गांगेय प्रवाह का
रूप दे देना ही भारतीय संस्कृति के टिकने का सबसे बड़ा आधार रहा है। सर्वव्यापी
भारतीय संस्कृति पर हजारों वर्ष से आक्रमण होते रहे हैं। इस समुन्नत संस्कृति के
देश भारत में भिन्न-भिन्न तेवर के लोग आते रहे, कभी व्यापारी बन, कभी आक्रमणकारी बन तो कभी
राज्याधिकारी बन। उनकी भाषा, खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, तीज-त्योहार और साथ-साथ रहने का प्रभाव यहाँ के लोगों पर पड़ता रहा है, पर यहाँ का जनमानस उनके
मजहब और संस्कृति से अप्रभावित रहा है। शासित होते हुए भी विचार से पूर्ण
स्वतंत्र। उसका बड़ा कारण का यहाँ की संस्कृति का सर्वसमावेशी स्वरूप, सहिष्णुता व समभाव का
संबल। यह आज से नहीं वैदिक काल से चल रहा है।
आचार्य कहते हैं-
संस्कृति मनुष्य के चित्त की खेती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृति को
मनुष्य के चिन्तन की उपज कहा है। वस्तुतः सम्यक् कृति ही संस्कृति है। बाबू
गुलाबराय के अनुसार, “ संस्कृति के मूलाधारों में- आध्यात्मिक दृष्टिकोण,सांस्कृतिक
चेतना, धार्मिकता, सजीव सत्यों का संकलन, सहन शक्ति, सामाजिक चेतना आदि है।“1
संस्कृति के मूलभूत तत्त्व नैतिकता, सदाशयता, सहनशीलता, शरणागत की रक्षा, आचरण की पवित्रता और समभाव की उच्चत्ता में इसकी शक्ति
निहित है। चिंतन की स्वतंत्रता और उपास्य की अनेकता, वेश-भूषा और खान-पान की विविध स्वरूप के बावजूद
अनेकता में एक तत्त्व की प्रधानता ही आर्यावर्त की संस्कृति का सबसे बड़ा सम्बल है।
हमारा चिंतन मात्र देह तक सीमित नहीं है। स्थूल जगत् से परे हम यह विचार करते हैं
कि मैं कौन हूँ? हमारा
प्रत्यभिज्ञा दर्शन स्वयं की पहचान पर बल देता है। हम आत्मतत्त्व की खोज में लगे
रहे। जयशंकर प्रसाद के शब्दों में हम कह सकते हैं कि ‘एक तत्त्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन’।2
महादेवी वर्मा ने राष्ट्र
के स्वरूप को अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखा, “राष्ट्र केवल पर्वत-नदी,या
समतल का सवाल नहीं होता, उसमे उस भूमिखंड में निवास तथा विकास करने वाले मानव-समूह
का जीवन अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहता है।“3 विष्णुपुराण में
वर्णन है कि जिसके मुकुट पर हिमालय है, जिसके चरणों में समुद्र है। उसके मध्य की भूमि भारत देश है।
अथर्ववेद में भारत भूमि की वन्दना की गई है, इसे अपनी पीढ़ी को बताया जाना चाहिए। गांधीजी ने कहा था-
मेरे देश में चाहे अंग्रेज रह जाए, पर अंग्रेजीयत चली जाए, लेकिन दुर्भाग्य से अंग्रेजीयत यहीं रह गई। 15 फरवरी, 1835 को लार्ड मैकाले ने
ब्रिटेन की संसद में कहा कि मुझे पूरे भारत वर्ष में एक भी भिखारी नहीं मिला। जर्मनी
का विद्वान सोपेनहार ने कहा कि मुझे अगला जीवन भारत में मिले, ताकि मैं उपनिषदों का
अध्ययन कर सकूँ।
राष्ट्रवादी चिन्तक
श्रीराम परिहार लिखते हैं, ”राष्ट्र क्या है? उसकी संस्कृति क्या है? वस्तुतः ये दोनों मिलकर ही तो समूचे विश्व में अपनी पहचान
स्थापित करते हैं, अन्यथा छह अरब की
दुनिया की भीड़ में खोने के अलावा क्या है? राष्ट्र का निजत्व होता है, गुणधर्म होता है, उसकी पहचान, आकृति, अस्मिता और भूगोल होता है।“4 भारतीय राष्ट्रीयता
के लिए वन्देमातरम् का उद्घोष, शंकराचार्य का एकात्मभाव, विवेकानंद की विराट दृष्टि ने ही तो आने वाली
पीढ़ियों को चमत्कृत कर दिशा दी। स्वतंत्रता आन्दोलन की ताकत हमारे पूर्वजों से
मिली और इसमें भी राष्ट्रबोध की भूमिका अन्यतम रही।
विश्व साहित्य की प्रथम
पुस्तक, जिसे यूनेस्को ने
भी स्वीकार किया है, वह है- ऋग्वेद।
उसमें कहा गया है- मनुर्भवः, अर्थात् मनुष्य बनो। मनुष्यता का बोध ही भारतीय संस्कृति का
मूल है, जो वर्तमान और
भविष्य के लिए भी जरूरी है व रहेगी। हमें यह समझना होगा कि भारतवर्ष
पूर्वी-पश्चिमी सभ्यताओं का समूह नहीं, वरन मानवता का संस्कार देने के लिए ईश्वरीय योजनानुरूप इस
राष्ट्र का उदय हुआ। यजुर्वेद में कहा गया कि हम राष्ट्र के पुरोहित हैं। हम भोग
में भी त्याग के समान आचरण करते हैं। विश्व के सभी प्राणी सुखी हों, ऐसी उदात्त भावना है। हम
प्रकृति के सहचर हैं, जिससे हम रस
ग्रहण कर जीवन को गति प्रदान करते हैं, दूसरी ओर पश्चिमी दृष्टि की धारणा है कि मनुष्य का प्रकृति
पर आधिपत्य है और वह भोग के लिए है। भारतीय परम्परा का ज्ञान हमारे साहित्य ने
करवाया। राम, कृष्ण, वाल्मीकि, वेदव्यास का व्यक्तित्व
हमारी विरासत में साहित्य की देन है। शरीर नश्वर है, कर्म ही जीवन है, ज्ञान, इच्छा और क्रिया का समन्वय होना चाहिए यह सब हमारे साहित्य
में लिखा गया और अपने-अपने समय के अनुकूल लिखा गया। शंकराचार्य ने आठ साल की उम्र
में वेदों की ऋचाओं का अध्ययन किया और बारह वर्ष की आयु में वेदान्त की पुनर्व्याख्या
कर वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना कर दी।
भारत की विशालता और
विविधता के बावजूद उसे परस्पर जोड़ने में संस्कृत-साहित्य का अन्यतम महत्त्व हैं।
वेद, उपनिषद, स्मृति, ब्राह्मण ग्रन्थ, रामायण, महाभारत, चरक, सुश्रुत इत्यादि में
सांस्कृतिक चेतना का ऐसा युग-युगीन सेतु बन चुका है, जिसमें पूरा भारत वर्ष एक बना हुआ है। कालिदास
का रघुवंश, महाकाव्य, भवभूति और अश्वघोष का
साहित्य, माघ और भाष का
चिंतन हमें जिस संस्कृति का आसव परोसता है, वही हमारी राष्ट्रीयता का सबसे बड़ी खुराक है। संस्कृति की
इस चेतना को बलवती बनाने में कश्मीर के पंडितों व आचार्यों का सराहनीय महत्त्व है।
आचार्य कल्हण द्वारा लिखित राजतरंगिणी इतिहास का महाभारत के बाद पहला ग्रन्थ माना
जाता है। इसी प्रकार विल्हण का योगदान कम नहीं है। जिस कश्मीर में आतंक का ताण्डव
चक्र रहा है वहां कभी- 8वीं से 12 वीं शती तक भिज्ञा दर्शन
का साम्राज्य था, जिसमें शैवोपासना
की संस्कृति का उज्ज्वल प्रकाश बिखरता रहता था। इसी काल के दसवीं से ग्यारहवीं शती
मे आचार्य अभिनवगुप्त ने ध्वनि में रस और रस में जीवन तलाशने का भगीरथ प्रयास किया
था।
डॉ. विनीता राय लिखती
हैं, “जीवन के मूल्य वास्तव में संस्कृति के अंगभूत हुआ करते हैं। हम अपने मूल्यों
के माध्यम से राष्ट्र और संस्कृति का परिचय देते हैं।“5 विवेकानंद ने 30 वर्ष की उम्र में अपने ज्ञान से दुनिया को पागल
कर दिया था। उन्होंने 1200 वर्ष बाद
शंकराचार्य की परम्परा को संवाहित किया। यह स्पष्ट किया कि मनुष्य श्रेष्ठ है।
मनुष्य का अस्तित्व मानवता की पराकाष्ठा है एवं आत्म तत्त्व को पहचानना है। डॉ.
देवराज ने मानव मूल्यों को सांस्कृतिक पहचान से जोड़ते हुए कहा, ”किसी व्यक्ति की
संस्कृति वह मूल्य चेतना है, जिसका निर्माण उसके सम्पूर्ण बोध के आलोक में होता है।“6
यही कारण है कि पश्चिम के विज्ञान और पूर्व के ज्ञान के समन्वय पर बल देने वाला
व्याख्यान भारत को दुनिया में सिरमौर बनाता है। 1913 में गीतांजलि पर टैगोर को नोबेल पुरस्कार
मिलता है। मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारती राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में जन
चेतना को जाग्रत करती है। 1915 में ‘उसने कहा था’ कहानी उस शाश्वत वचन को
प्रमाणित करती हैं, जिसमें कहा गया
है कि ‘रघुकुल रीत सदा
चली आई, प्राण जाई पर वचन
न जाई। साकेत का यह कथन विचारणीय है- ‘संदेश नहीं मैं यहाँ स्वर्ग का लाया, इस भूतल को ही स्वर्ग
बनाने आया।’ यह साहित्य समकाल
में लिखा गया, जो हमारी परम्परा
से प्रभावित था। 1936 में ‘राम की शक्ति पूजा’ भी अपने अन्दर रामत्व को
जगाने का प्रयास है। कामायनी अथवा दिनकर, अज्ञेय अथवा धर्मवीर भारती सबने उस भारतीय परम्परा को आगे
बढ़ाया, जिसके सूत्र
वैदिक ऋषियों से प्राप्त हुए थे। अतः राष्ट्र को सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नत बनाने
में साहित्य का योगदान अतुल्य है।
भारत की संस्कृति का
निर्माण, सौ दो सौ वर्ष
में नहीं, हिमालय की तरह
हजारों वर्ष में हुआ है। उसके निर्माण के कई कारक हैं। साहित्य का अवदान उसमें
अन्यतम है। यह साहित्य लोकभाषाओं से संस्कृत भाषा का व्याप्त है। यद्यपि यह कहना
अर्धसत्य होगा कि संस्कृति का निर्माण साहित्य ही करता है पर साहित्य का संबल धारण
कर संस्कृति शक्तिमान बनती है। भारत के
विभिन्न अंचलों में व्याप्त बोलियों का एक विशाल साहित्य है। उस विशाल लोक साहित्य
में संस्कृति की अनेक तरंगे प्रस्फुटित हुई हैं। हिन्दी की तमाम उपबोलियों में, पंजाबी जुबान के साहित्य
में, बंगला, उड़िया, असमिया, मलयालम, कन्नड़, तेलगू, तमिल भाषाओं में व्याप्त
भारतीय संस्कृति के विविध रंग मिलते हैं- पर उन रंगों का आस्वाद एक जैसा है।
राजस्थानी लोकगीतों के प्रवाह में संस्कृति का रत्न छिपा है। कहना न होगा कि भारत की इन भाषाओं-उपभाषाओं में
संस्कृति की समझ बड़ी समृद्ध है। अनेक भावों की अंतर तरंगे अध्यात्म के महाभाव में
मिलकर एक महातरंग को जन्म देती हैं। भाषा-उपभाषा में लिखित और मौखिक साहित्य की
लिपि भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, उच्चारण में भेद हो सकते हैं, भौगोलिक विभिन्नताएँ हो सकती हैं, कहीं रेगिस्तान, कहीं हरियाली, कहीं मैदान तो कहीं पहाड़
हो सकते है- पर सबका भाव एक ही होता है- जीवन में अध्यात्म का चटकीला रंग।
काव्य-महाकाव्य, खंडकाव्य, गद्यकाव्य, चम्पूकाव्य शैली की
दृष्टि से भले ही पृथक-पृथक हों पर भाव की दृष्टि से उनकी एकात्मकता की संस्कृति
का प्राण-तत्त्व बनता है।
अपनी संस्कृति का सीधा
संवाद साहित्य से होता है। नदी, नारी और संस्कृति का प्रवाह शाश्वत होता है। नारी का एक
प्रकृष्ट रूप माँ होती है। वह शास्त्र से बड़ी और गुरु से भी अधिक पूज्य होती है।
शास्त्र जब निःशब्द हो जाते है तब माँ की बात ही अंतिम होती है। वह संस्कृति की
प्रतीक होती है। नदी भी उसी का रूप है। न नारी वृद्ध होती है और न संस्कृति। इन
दोनों का अविरल प्रवाह साहित्य में दिखता है। पं. विद्यानिवास मिश्र साहित्य और
संस्कृति के अन्तः सम्बन्ध को इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं- “इस देश की संस्कृति सीता
है, जो धरती से जनक
के हल के नोक से पैदा हुई हैं। इस देश की संस्कृति गंगा है, जिन्हें भगीरथ ने अपने
परिश्रम से पहाड़ खोदकर निकाला था। इस देश की संस्कृति गौरी है, जिन्होंने अपने प्रियतम
को सौन्दर्य से नहीं तम से प्राप्त किया था। इस देश की संस्कृति असंख्य ग्रामीण
बन्धु और वनवासी हैं, जो असंख्य बाधाओं
को राम की धनुही से तोड़ने का विश्वास रखते है”।“7
भारतीय चिंतन परम्परा व्यापक दृष्टिकोण पर
आधारित है। हमारे जीवन का कोई पक्ष ऐसा नहीं है, जिस पर हमारी परंपरा ने विचार नहीं किया। हमारे
शास्त्रों ने जीवन के उज्ज्वल उदात्त पक्ष को ग्रहण करने पर सदैव बल दिया। यह
प्रयास भारतीय साहित्य में निरंतर विद्यमान रहा कि नवनीत छूट न जाए, उसी के कारण वैश्विक पटल
पर भारतीय साहित्य अप्रतिम गहराई के साथ खड़ा है।
सहायक ग्रन्थ सूची
1.भारतीय
संस्कृति की रूपरेखा, बाबू गुलाबराय, ज्ञानगंगा प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2008,
पृष्ठ-26
2.कामायनी,
जयशंकर प्रसाद, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2014, पृष्ठ-1
3.धर्मयुग, फरवरी,1987,
(सं.) धर्मवीर भारती, पृष्ठ-7
4.राष्ट्रबोध, संस्कृति
एवं साहित्य, (सं.) डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, सं. 2019 पृष्ठ-33
5.मूल्य और मूल्य संक्रमण, डॉ. विनीता राय, अनिल प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2005
पृष्ठ-15
6.संस्कृति का दार्शनिक विवेचन, डॉ. देवराज, सू.प्र.विभाग,उ.प्र.,लखनऊ सं.1957,
पृष्ठ-175
7.राष्ट्रबोध,
संस्कृति एवं साहित्य, (सं.) डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, सं. 2019
पृष्ठ-34
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पुस्तक: काव्य सिद्धांत
पुस्तक : काव्य-सिद्धांत
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भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्य में प्राचीन काल से काव्यशास्त्रीय मीमांसा अपार निधि के रूप में विद्यमान रही है। साहित्य रचना के प्रतिमान निर्माण में मानकता का पैमाना परिष्कृत रूप से प्रत्येक कालखंड में सामने आता रहा है, परिणाम स्वरूप मौलिक मतों का जन्म हुआ और नवीन साहित्यिक समीक्षाओं के आधार पर बिंदु भी तय हुए। काव्य सिद्धांतों का अभिनव स्वरूप आलोचना के क्षेत्र में व्यापक रूप में गतिमान है।
भारतीय काव्य सिद्धांतों का उत्स संस्कृत भाषा में प्रस्तुत काव्य शास्त्रीय ग्रंथ हैं जहाँ काव्य की परिभाषा, भेद, अंग, हेतु, प्रयोजन के साथ काव्यात्मा की विशेष चर्चा हुई। इसका प्रतिफल यह हुआ कि रस, अलंकार, ध्वनि, रीति, वक्रोक्ति एवं औचित्य जैसे काव्य सिद्धांत वर्तमान में भी समीचीन प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार पश्चिमी परंपरा में भी कला विषयक अनेक मान्यताओं, वादों, अवधारणाओं आदि का जन्म हुआ, जिससे वैश्विक साहित्य प्रभावित हुआ।
समकालीन साहित्य समालोचना में जहाँ भारतीय काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों का मूल आधार है, वहीं पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय मान्यताओं का भी पूरा प्रभाव है। युगीन अपेक्षाओं ने नए विमर्श खड़े किए तो कतिपय अवधारणाओं ने साहित्य के लेखन को प्रासंगिक दिशा भी दी।इस तरह आलोचना का क्षेत्र भी समृद्ध हुआ।
प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांतों के मूलभूत विचारों को सरलतम ढंग से प्रस्तुत किए जाने का विनम्र प्रयास है। विश्वविद्यालय स्तरीय पाठ्य सामग्री एवं लोकसेवा आयोग द्वारा जारी पाठ्यक्रम को केंद्र में रखकर उक्त पुस्तक को प्रस्तुत किया गया है। उक्त लेखन में अनेक सहायक ग्रंथों का अध्ययन का निकष है, अतः विद्यार्थियों के लिए नवीन प्रस्थान बिंदु भी निर्मित होंगे, ऐसा विचार है।
यह पुस्तक स्नातकोत्तर स्तर के विद्यार्थियों, प्रतियोगी परीक्षार्थियों, शोधार्थियों एवं शिक्षकों के लिए विशेष उपयोगी है। इसमें विषय सामग्री का सरलतम शब्दावली में विवेचन, पर्याप्त उदाहरण एवं अभ्यास प्रश्नों के साथ प्रस्तुतीकरण है। पुस्तक के अंत में पारिभाषिक शब्द एवं स्मरणीय तथ्य भी तत्काल जिज्ञासा पूर्ति में सहायक है। संदर्भ ग्रंथ लेखकों का आभार प्रकट करते हुए चाणक्य प्रकाशन, जयपुर का विशेष धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने एक उपयोगी पुस्तक का प्रकाशन किया।
@ डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी
पुस्तक: काव्य-सिद्धांत
प्रकाशक: चाणक्य प्रकाशन, जयपुर।
आमंत्रण मूल्य: ₹ 195.00
संपर्क: 9079692820