आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी


आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
(एक आलोचक के रूप में)
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हिंदी आलोचना में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान अद्वितीय है।  भारतेन्दु युग की आलोचना को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने युगानुकूल परिवर्तन को प्रोत्साहन दिया। उनकी मान्यता थी कि काव्य में अन्य भावों के उद्बोधन और मानव-चरित्र के उन्नयन की शक्ति होनी चाहिए। उन्होंने काव्य को नैतिक, उपयोगी, प्रभावपूर्ण, नवीन और सरस विषयों से संपृक्त होने पर बल दिया।

प्राचीन परिपाटी के शास्त्रीय-ग्रंथों यथा-अलंकार, रीति और नायिका भेद के प्रति क्षोभपूर्ण विरक्ति-भावना थी।आचार्य द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से हिन्दी आलोचना को धार दी। उन्होंने भारतेन्दु-युग के लेखकों मिश्र बंधुओं के ‘हिन्दी नवरत्न’ तथा मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ की आलोचना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने अन्य भाषाओं में सुरक्षित ज्ञान-विज्ञान विषयक सामग्री से हिन्दी साहित्य के भण्डार में वृद्धि की। ‘कवि और कविता’, ‘कविता तथा कवि कर्तव्य’ ऐसे निबंध हैं, जिससे उनकी काव्य-विषयक अवधारणा का पता चलता है।

सैद्धान्तिक दृष्टि से वे रसवादी आलोचक माने जाते हैं, परन्तु यह मर्यादित था। ‘रस’ को काव्य की आत्मा मानते हुए भी उन्होंने व्यावहारिक आलोचना में केवल रसवाद का आधार नहीं लिया, वरन् प्रसाद गुण, वैदर्भी रीति, औचित्य सिद्धान्त, विषयानुकूल छन्द-योजना, यथार्थ आधारित कल्पना, व्याकरण-सम्मत भाषा-प्रयोग, वाच्यार्थ प्रधान शब्द-योजना का भी आश्रय लिया। ‘कालिदास और उनकी कविता’ में आलोचक का दायित्व संकेतित करते हुए लिखा- “कवि या ग्रंथकार जिस मतलब से ग्रंथ-रचना करता है, उससे सर्वसाधारण को परिचित कराने वाले आलोचक की बड़ी जरूरत रहती है। ऐसे समालोचकों की समालोचना से साहित्य की विशेष उन्नति होती है और कवियों के गूढ़ाशय मामूली आदमियों की समझ में आ जाते हैं।”

‘सरस्वती’ में द्विवेदी जी ने परिचयात्मक आलोचना को प्रोत्साहन दिया तथा आलोचक के कर्तव्य का निर्धारण करते हुए लिखा- “किसी पुस्तक या प्रबंध में क्या लिखा गया है, किस ढंग से लिखा गया है, वह विशेष उपयोगी है या नहीं है, उससे किसी को लाभ पहुँच सकता है या नहीं पहुँच सकता। लेखक ने कोई नई बात लिखी है या नहीं लिखी है, यही विचारणीय है।”

वस्तुतः आचार्य द्विवेदी नैतिकता के प्रबल पक्षधर, शिष्ट सम्पादक थे। संस्कृत-काव्य शास्त्रीयों के प्रति निष्ठा भाव था, परन्तु रीतियुगीन वासनामय शृंगार से वे विरक्त थे। कट्टर नीतिवादिता से व्यावहारिक आलोचनाएँ की। अतः रस और नीति का द्वंद्व कई स्थलों पर प्रकट हो जाता है। अपनी सम्पादकीय भूमिका और आलोचक के कर्तव्य के रूप में उन्होंने पुनर्जागरणकालीन हिन्दी साहित्य को दिशा प्रदान करने में उल्लेखनीय योगदान दिया।

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