कविता का वर्तमान एवं औपनिवेशिकता


कविता का वर्तमान एवं औपनिवेशिकता  
जनकृति, अंक दिसम्बर,२०२० में प्रकाशित

सारांश :
15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया, किंतु उपनिवेशवादी मानसिकता से हम अभी तक मुक्त नहीं हो पाए हैं। हमारा हीनता बोध से ग्रस्त वर्तमान अतीत के क्रियाकलापों का परिणाम है। हमारे अतीत का गौरव, उसकी गति और तारतम्यता को लक्ष्य बनाकर भ्रष्ट किया गया। भारतीय मेधा को तिरस्कृत कर सोच और कल्पना को ही कुंद कर दिया गया। इस औपनिवेशिकता ने भारत के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर आर्थिक समृद्धि को छीन लिया, वहीं सांस्कृतिक वर्चस्व कायम करने के लिए भारतीय मन और आत्मा को भी पराधीन करने की चेष्टा की। इसमें वे काफी सीमा तक सफल रहे, परिणाम स्वरूप वर्तमान समाज आजादी के बहत्तर वर्षों के बाद भी औपनिवेशिक प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाया है। सदी के दूसरे दशक का उत्तरार्द्ध पूर्ण होने जा रहा है। भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के स्खलन, भाषा, रहन-सहन, विचार-पद्धति, जीवन-शैली, वेशभूषा, शिक्षा और जीवन-मूल्यों में जो अवांछित विद्रूपताएँ आई हैं, उन्हें समकालीन हिन्दी कविता ने पहचाना है। उसमें औपनिवेशिक प्रभाव की गहराई और उससे जनित विसंगतियों पर कवियों ने प्रहार किया है। अब वह केवल आक्रोश व्यक्त कर चुप नहीं रहता, वरन् व्यवस्था परिवर्तन के लिए मुखर हो उठा है। वह जीवन की विषमताओं का हल भारतीय मूल्यों में तलाशता है। उसकी लेखनी में इतना पैनापन आ गया है कि राजनीतिक व्यवस्थाएँ भी कविता के संकेतों से प्रभावित होने लगी हैं। 

बीज शब्द : 
उपनिवेशवाद, सांस्कृतिक मूल्य, यांत्रिक सभ्यता, विश्वग्राम, भारतीयकरण, आवारा पूँजीI 

भूमिका:
किसी समृद्ध एवं शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा अपने विभिन्न हितों को साधने के लिए किसी निर्बल किंतु प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण राष्ट्र के विभिन्न संसाधनों का शक्ति के बल पर उपभोग करना उपनिवेशवाद है।1 इसमें जनता एक विदेशी राष्ट्र द्वारा शासित होती है। इतिहास में प्रायः पन्द्रहवीं से बीसवीं शताब्दी तक उपनिवेशवाद की व्यापकता रही। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के बाद भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का आरंभ हुआ। इसका प्रभाव राजनीति, धर्म, संस्कृति एवं अर्थव्यवस्था पर गइराई से पड़ा। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद ज्ञान को भी संहारक बना देते हैं। कृष्णकुमार लिखते हैं, “ज्ञान-विज्ञान व विचारों की प्रकृति वैश्विक होती है, लेकिन साम्राज्यवाद ने शिक्षा, पाठ्यचर्या के माध्यम से उपनिवेशों के नागरिकों में हीनता पैदा करने के लिए ज्ञान को हथियार की तरह प्रयोग किया। अपनी उपलब्धियों को श्रेष्ठ-अनुकरणीय, आधुनिक-प्रगतिशील बताया।”2  मैकाले का कथन- “किसी भी अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक अलमारी ही पूरे भारत और अरब की संपूर्ण ज्ञान-संपदा से अधिक है।”3 वस्तुतः यह कथन मात्र कूटनीतिक नहीं, बल्कि हमारे दिलो-दिमाग पर साधा गया अचूक निशाना था, जिसके घाव अभी तक हरे हैं।

विषय-विस्तार : 
औपनिवेशिक शक्तियाँ सर्वप्रथम प्राचीन संस्कृति के उद्धार के बहाने उसकी रचनात्मकता, सनातनता और प्रेरक परम्पराओं को निशाना बनाती है तथा अपने ज्ञान-विज्ञान से शासित वैचारिक नेतृत्व प्रदान करती है। यह मानसिक उपनिवेशीकरण सांस्कृतिक प्रभुत्व में परिवर्तित होकर बुद्धिजीवियों की समझ को भी कुंद कर देता है। अन्ततः पराधीन जन-मानस उसकी ही वाणी में बोलकर गर्व  का अनुभव करता है और औपनिवेशिक प्रभाव में स्वयं का विलयन कर तदनुसार ही व्यवहार करने लग जाता है। औपनिवेशिक दासता से मुक्ति में राष्ट्रवाद एकमात्र विकल्प प्रतीत होता है। यह अतीत से ऊर्जा ग्रहण कर वर्तमान संदर्भों में उसकी पुनर्व्याख्या करता है। साथ ही महान् सांस्कृतिक विरासत और प्राचीन मूल्यों के सहारे चेतना का निर्माण कर अपने सांस्कृतिक औजारों से कुचक्रों को नष्ट करता है। इस पुनीत कार्य में साहित्य की भूमिका अनिर्वचनीय है।
स्वप्निल श्रीवास्तव के अनुसार- “ आज का यथार्थ मारक और अविश्वसनीय है। वह फैंटेसी के आगे का यथार्थ है। आज के यथार्थ का चेहरा रक्तरंजित और अमानवीय है। यथार्थ हमारे सामने विस्मयकारी दृश्य प्रस्तुत करता है, जो कल्पनातीत है।”4  विस्मयकारी यथार्थ का जो दृश्य नई सदी के दो दशकों में दिखाई देता है, वह उपनिवेशवादी प्रभाव का परिणाम है। फलतः जो कारक हमारे समक्ष उपस्थित हैं, उनमें प्रमुख हैं- वैश्वीकरण, मुक्तबाजारवाद, विकृत उभोक्तावाद, राजनीतिक अधिनायकवाद, मूल्यहीनता, सांस्कृतिक संघर्ष, भ्रष्ट आचार, हिंसक वर्चस्व आदि। यद्यपि ये कारक वैश्विक हैं, किन्तु भारतीय मन इससे ज्यादा प्रभावित है। प्रस्तुत आलेख में नई सदी के दो दशकों में हिन्दी कविता ने किस तरह औपनिवेशिकता से संघर्ष किया, उसकी विवेचना है- 
नई सदी की सर्वाधिक ज्वलन्त चुनौती वैश्वीकरण है। जिसने बाजारवाद के प्रश्रय के साथ जीवन-मूल्यों का ह्रास किया, सांस्कृतिक विविधताओं का विलोपन किया, विकृत उपभोक्तावादी दृष्टि ने हमें जड़ों से उखाड़ों से उखाड़ दिया। फिर भी नई सदी का कवि निराश नहीं है। वह इनका प्रतिरोध करता हुआ यह संदेश देता है कि जो अपने मूल तत्त्व से जुड़कर संघर्ष करेगा, अन्ततः वही बचेगा-
जड़ से उखड़ गए बहुत से पेड़
इस प्रभंजन में
अपने रूप-रस-गंध पर मुग्ध
जो थे इठलाते-झूमते
धराशायी हो गये वे
बचे केवल वही
जिनके मूलांकुरों ने रात-दिन जागकर
धरती की अंधेरी परतों में घुसकर
किया था अथक संघर्ष।5

यांत्रिक सभ्यता के दौर में नगरीकरण का विस्तार हुआ। नगरों की भीड़ में सबकुछ खो गया। मनुष्यता और संवेदना की परतें भी उखड़ती गई। अन्ततः हम अपने बचे हुए अवशेषों को भी सहेज कर नहीं रख पा रहे। महानगरीय भीड़ में तेज रफ्तार वाले वाहनों के मध्य चलती बैलगाड़ी को कवि ने सभ्यता का आखिरी मनुष्य इंगित करते हुए सावचेत किया-
लगता है एक वही तो है
हमारी गतियों का स्वस्तिक चिह्न
लगता है एक वही है, जिस पर बैठा हुआ है
हमारी सभ्यता का आखिरी मनुष्य।6

प्रो. योगेन्द्र सिंह ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय परम्परा का आधुनिकीकरण’ में लिखा है- “वैश्वीकरण की प्रक्रिया में सांस्कृतिक सापेक्षिकता और इतिहासपरकता का तत्त्व वर्तमान है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया में ‘स्थानीयता’ का तत्त्व बना रहता है। ‘ग्लोबलाइजेशन’ के साथ ‘ग्लोकालाइजेशन’ की निरन्तर उपस्थिति इसको उजागर करती है।”7 इससे उत्पन्न दारुण और बदरंग यथार्थ यह है कि नव उपनिवेशवादी वृत्ति में आतंक का आततायीपन प्रकट होने लगा है-
वे
चिड़ियों के पर कतर रहे हैं
और कह रहे हैं-
‘परिवर्तन हो रहा है’
वे हरियाली निचोड़ रहे हैं
और कह रहे हैं-
‘प्रकृति में क्रांति हो रही है’8

औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त समाज अपने अतीत को भूलकर वर्चस्व की लड़ाई लड़ता है। नई सदी के आरंभ में एक विकृति तेजी से उभरी है, वह है- धर्मोन्माद। यहाँ सभ्यताओं को भी धर्म का पर्याय बनाकर प्रस्तुत कर दिया गया है। फलतः घृणा, हिंसा और प्रतिशोध की आग में बस्तियाँ जल रही है और उसकी तपिश नई सदी में महसूस की जा रही है। इस उन्माद के पश्चात बचता है तो केवल-वैमनस्य। कवि ने इस ओर संकेत किया है-
कि कहीं मिलता है आधा जला हुआ दुपट्टा
कहीं आधा जला हुआ खिलौना
कहीं अधजली बीड़ी
कहीं दमकलों के पाइप
कहीं दिलजले
कहीं कहीं तो
केवल जलन मालूम होती है।”9

वैश्विक स्तर पर आर्थिक उदारीकरण आधारित विश्व-व्यवस्था, जनसंचार का प्रसार और विश्वग्राम की जन्नत को हकीकत में बदलता देख साम्राज्यवादी शक्तियाँ नव-उपनिवेशवादी संस्करण में उपस्थित हो रही हैं। ये अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन आदि के माध्यम से पुनः पंगु बनाकर गरीबी के रसातल में धकेल रहा है। उपनिवेशवादी शक्तियों की इस कुत्सित चाल को समझकर कवि स्पष्ट करता है-
वह बहुत ताकतवर है
क्रूर कुचाली और महाकपटी
विश्व बैंक उसका घातक अस्त्र है।
अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष उसका कुचक्र
विश्व व्यापार संगठन उसका इन्द्रजाल
वह किसी का मित्र नहीं है।10

औपनिवेशिक मानसिकता ने हमें पदार्थवादी बना दिया। आवारा पूँजी के प्रभाव से यदि हमने कुछ खोया है तो वह है- रिश्तों की बुनियाद। शहर में चारों ओर कंक्रीट के जंगल उग गये हैं। बुजुर्गों से भरी शहरी कोलोनियाँ किलकारियों के लिए तरस रही है। चारों तरफ रिश्ते दरक रहे हैं, परिवार टूट रहे हैं और जीवन अशांत। सामयिक यथार्थ को उजागर करती ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
बहुत कुछ कहना चाहता है वह
मगर कहे किससे
उसके आसपास अब
सब कुछ उजाड़ है।11

बाजारवादी शक्तियों के पूर्ण प्रभाव में आकर आज का मीडिया भी सत्ता का सहयोग कर ‘कारपोरेट जगत’ को अनुकूल वातावरण दे रहा है। भूखे और नंगों की हकीकत बयां कर उसे बेचने का कर्म भी वह कर लेता है। अपने भारी-भरकम शब्दों के माध्यम से खबरों को उठाता है और फिर बेच देता है, इन्हीं व्यावसायिक घरानों के हाथ। यह व्यापार जारी है-
हम ज्ञानहीनों के बारे में ज्ञानियों के/हम गुमनामों के बारे में
नामचीनों के/शब्द छप रहे हैं/भारी भरकम शब्द
हम दुबले अबलों के बारे में/चिकने चुपड़े शब्द/
हम रूखे सूखों के बारे में/खाये/अधाये शब्द/
हम भूखे नंगों के बारे में/खबरों में छप रही है।12

          चमकती दुनिया में मध्यम वर्ग अनिर्णय का शिकार है। लाभ का सौदा दिखते ही वह दौड़ लगाना शुरूकर देता है। गंतव्य उसे ज्ञात नहीं है। आडम्बर की संस्कृति को वह खुशनुमा मानता है। मौन-प्रतिक्रिया में अपनी शांति खोजता है। विसंगतियों के विरूद्ध वह चुप रह जाता है-
एक गंदी अंधेरी गली में परिवार पालता/
वह अपनी नहीं दूसरों के संघर्ष की/अंतहीन
कथा कहता है और एक दिन मर जाता है/
हम कुछ नहीं कहते ।13 

निष्कर्ष :
भारतीय औपनिवेशिक मानसिकता से संघर्ष में हिन्दी साहित्य की भूमिका अविरल रूप से गतिमान है। हिन्दी कथा, नाट्य एवं काव्य-साहित्य में न केवल औपनिवेशवादी दुश्चक्रों की पहचान की गई है, वरन् उनका प्रतिकार भी है। बहुलतावादी भारतीय समाज में जातीय-धार्मिक उन्माद, सांस्कृतिक मूल्यहीनता, वैचारिक अतिवाद एवं भटकाव का सबसे बुरा समय माना जा सकता है। सुखद पहलू यह है कि हिन्दी कविता ने इन कारकों को पहचान लिया है और भारतीय समाज को चेतनावान बनाने की ओर निरन्तर प्रयासरत है। औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के लिए हिन्दी कविता का आगामी दशक समाधान प्रदान करने वाला होगा, ऐसी अपेक्षा की जा सकती है।

संदर्भ-
1. वेब पेज, विकिपिडिया,उपनिवेशवाद, पृ.1
2. कृष्ण कुमार, औपनिवेशिक दासता का ज्ञानकाण्ड, देस हरियाणा, नव.-दिस.2015, पृ.23
3. पूर्ववत्, पृ.22
4. आलोचना, अप्रैल-जून,2003, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.32
5. इन्दुशेखर तत्पुरूष, बचे केवल वही, पीठ पर आँख, बोधि प्रकाशन जयपुर, सं.2017, पृ.10
6. भगवत रावत, बैलगाड़ी, तद्भव अंक-9, पृ.155
7. योगेन्द्र सिंह, भारतीय परम्परा का आधुनिकीकरण, रावत पब्लिकेशन, जयपुर,सं.2006, पृ.7
8. संजय पंकज, यवनिका उठते तक, समीक्षा प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.2001, पृ.79
9. अष्टभुजा शुक्ल, बस्ती एक धीमा शहर है, तद्भव, अंक-10 पृ.113
10. विजेन्द्र, दैत्य को पछाड़ो, बेघर का बना देश, साहित्य भण्डार, प्रयागराज, सं.2014,पृ.64
11. हरीश पाठक, पहले ऐसा नहीं था, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.2008, पृ.22
12. हरे प्रकाश उपाध्याय, खबरें छप रही हैं, तद्भव, अंक-12, पृ.122
13. ऋतुराज, हम कुछ नहीं कहते, तद्भव, अंक-2,पृ.150
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गोदान के दलित पात्रों का वैचारिक पक्ष

 

गोदान के दलित पात्रों का वैचारिक पक्ष
 

दलित विमर्श अस्सी के दशक का वह साहित्यिक आंदोलन है जिसमें दलित रचनाकारों ने स्वानुभूत पीड़ाओं का उद्घाटन अपनी आत्मकथाओं अथवा अन्य विधाओं के माध्यम से किया। जिसका आलोचनात्मक पक्ष भी उसी के अनुरूप विगत 30-40 वर्षों में निर्मित हुआ। इस विमर्श की आलोचनात्मक अवधारणा अंबेडकरवादी है, जहाँ जाति-व्यवस्था का मुखर विरोध है। यहाँ इस बात पर भी सैद्धांतिक स्वीकृति है कि एक दलित रचनाकार ही दलित सवालों को सही ढंग से उठा सकता है। इस दृष्टि से समकालीन दलित साहित्य की वैचारिकी के आधार पर प्रेमचंद की रचनाओं के दलित पात्रों का मूल्यांकन तर्कसंगत नहीं हो सकता।

दूसरी ओर हिंदी साहित्य के वे संवेदनशील रचनाकार हैं, जिन्होंने अपने समय के सामाजिक यथार्थ को चिह्नित किया और उसे मानवीय धरातल पर मूल्यांकित करने का प्रयास भी किया। स्वानुभूति अथवा सहानुभूति के तार्किक पक्ष हो सकते हैं, लेकिन दोनों ही दृष्टियों में दलितों के कल्याण का स्वाभाविक आग्रह है। प्रेमचंद के लेखन को विचारकों ने अपनी दृष्टि से पहचाना।  कुछ ने उन्हें दलितों का मसीहा बताया तो कुछ ने उन्हें खारिज किया। मेरा मत है कि हिंदी साहित्य में जो दलितों के विषय में लिखने की परंपरा है, उसका मूल्यांकन हमें सजग होकर करना चाहिए, क्योंकि विचार और संवेदना के स्तर पर दलितों का चित्रण किस रूप में हुआ है? यह बहुत महत्त्वपूर्ण है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

प्रेमचंद ने दलितों के जो प्रश्न उठाए हैं, उन्हें किसी निश्चित वैचारिक प्रतिमान की निर्मिति के रूप में न देखकर यह समझना उचित होगा कि उनके सवाल बुद्ध, अश्वघोष, सिद्ध, नाथ, कबीर, रैदासनानक आदि की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं और हमारे समाज के समक्ष नए प्रश्न भी  खड़े करते हैं। वे अपने पात्रों के माध्यम से निरंतर जीवन की सच्चाइयों को प्रकट करते हैं, क्योंकि उनका मानना है, " हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें  गति,संघर्ष और बेचैनी पैदा करें, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।"1 प्रेमचंद की यह दृष्टि निश्चित रूप से अपने रचना कर्म के प्रति पूर्ण सजगता व्यक्त करती है।

प्रेमचंद साहित्य के अध्येता एवं समकालीन विचारक कमल किशोर गोयनका का मत है, "आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में और वह भी पराधीन भारत में प्रेमचंद पहले ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने दलितों के हजारों वर्षों से चली आई यात्रा में दमन तथा क्रूर मानवीय भेदभाव एवं अपमान का दंश अनुभव किया और अपनी मनुष्यता को मरने नहीं दिया।“2 यह सही है कि प्रेमचंद ने इन शूद्र जातियों की यात्रा एवं मनुष्यता दोनों को उजागर किया, जिसे दलित विमर्श का बीज रूप माना जा सकता है।

प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में सर्वप्रथम दलित वर्ग को स्थान दिया। 'रंगभूमि' का नायक दलित है, जिसे हिंदी उपन्यास परंपरा का महत्त्वपूर्ण उदाहरण माना जा सकता है। 'कर्मभूमि' में दलितों के मंदिर प्रवेश को मुद्दा बनाया गया है, 'प्रेमाश्रम' में अछूतों से बेगारी करवाए जाने का चित्रण किया गया है, तो 'कायाकल्प' में बेगार प्रथा के मुखर विरोध को स्वर देते हुए प्रेमचंद ने 'हम चमारों के लिए' शब्द का प्रयोग करके लेखन की धारा को नया मोड़ दिया। इसी प्रकार 'गबन' में देवीदीन खटीक के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन में दलितों के योगदान को रेखांकित किया और 'गोदान' तक आते-आते प्रेमचंद ने दलितों के प्रति सामाजिक दृष्टि को एक नया रूप दे दिया।

'गोदान' प्रेमचंद की अंतिम कृति है, जनमानस में लोकप्रिय है और आलोचकों को ध्यान इस प्रति पर अधिक गया है। अतः प्रेमचंद की वैचारिकी का विश्लेषण दलित चेतना की दृष्टि से इस कृति में तलाशना समीचीन होगा। गोदान का रचनाकाल 1936 है। यह काल राजनैतिक स्वतंत्रता आंदोलन के साथ सामाजिक स्वाधीनता का भी है। महार आंदोलन, गांधी जी द्वारा हरिजन सेवक संघ की स्थापना और पूना पैक्ट जैसी राजनीतिक घटनाएँ इस रचना से पूर्व हो चुकी थीं। अतः उस राजनीतिक परिदृश्य में जब प्रेमचंद ने गोदान का कथानक निर्मित किया, तब तत्कालीन सामाजिक चेतना को पहचान भी लिया था। वस्तुतः रचनाकार जिस कृति की निर्मिति करता है, वह प्रकाश में आने से पूर्व जितनी उसकी होती है, प्रकाश में आने के बाद उतनी ही समाज की भी होती है। गोदान को इस संदर्भ में विशेष रूप से देखना चाहिए, क्योंकि यहाँ पर प्रेमचंद का वैचारिक मंतव्य भी प्रकट हो जाता है।

गोदान के कई पात्र दलित चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। 'गोबर' उनमें महत्त्वपूर्ण है। गोबर अपने पिता की तरह मर्यादा का आश्रय नहीं लेता। अपने पिता को रायसाहब की मजबूरियाँ गिनाने के प्रत्युत्तर में  वह कहता है, "तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते! हम अपने खेत, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं! करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है, निरी  मोट मरदी है। जिसे दुख होता हैवह दर्जनों मोटरें नही रखतामहलों में नही रहताहलवा पूरी नही खाता और न नाच रंग में लिप्त रहता है। मजे से राज का सुख भोग रहे है उस पर भी दुखी है!3 यह कथन अंबेडकर की वैचारिकी को प्रकट करता है जहाँ संपन्न वर्ग तमाम सुख भोगते हुए भी स्वयं को समाज के समक्ष दरिद्र  रूप में अपने आपको रखते हैं और शोषण करते हैं। समाज का यह बगुला भगत रूप गोदान में बखूबी उजागर हुआ है और इस स्वरूप को पहचानने का कार्य तत्कालीन समाज में गोबर जैसे पात्र के माध्यम से और अंबेडकर की दृष्टि से आसानी से हो रहा था।

समाज में कानून का शासन स्थापित करके ही शोषण से मुक्ति मिल सकती है। नागरिकों के साथ समान व्यवहार हो इसकी जानकारी दलितों को उस समाज में नहीं थी, परंतु गोदान में जब गोबर शहर से लौटकर आता है तो उसे कई कानूनी पहलुओं की जानकारी हो जाती है। उसे यह मालूम है कि कानून की नजर में सब बराबर है। वह देखता है कि उसके पिता को गांव के कुलीनों ने अपने खेत से बेदखल कर दिया है और वह अपने ही खेत में अब मजदूरी करने को अभिशप्त है। समस्त परिस्थिति को जानकर वह कहता है," पंचों को उस पर डाँड लगाने का अधिकार क्या है? कौन होता है कोई उसके बीच मे बोलने वाला? उसने एक औरत रख ली तो पंचो के बाप का क्या बिगाड़ा? अगर इसी बात पर वह फौजदारी में दावा कर देतो लोगों के हाथ मे हथकड़ियाँ पड़ जाए। सारी गृहस्थी तहस-नहस हो गई, क्या समझ लिया है उसे इन लोगों ने।"4 यह कथन उस समय की सामाजिक हलचल का प्रतिबिम्ब है

गोदान में जगह-जगह दलितों के क्रांतिकारी कदमों की आहट सुनाई पड़ती है। गोबर के अतिरिक्त धनिया, रामसेवक, सिलिया, हरखू आदि दलित पात्र हैं। अधिकांश का चित्रण विद्रोही रूप में किया गया है।गर्भवती झुनिया को यादवों के विरोध के बावजूद बहू के रूप में स्वीकार करने का धनिया का निर्णय इसका उदाहरण है। वह दातादीन से कहती है, "हमको कुल प्रतिष्ठा प्यारी नहीं महाराज कि उसके पीछे एक की हत्या कर डालते। ब्याहता ना सही पर उसकी बांह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही, किस मुँह से निकाल देतीवही काम बड़े करते हैं, उनसे कोई नहीं बोलता, उन्हें कलंक नहीं लगता। जब वही काम छोटे आदमी करते हैं तो मरजाद बिगड़ जाती है, नाक कट जाती है।"5 धनिया का यह व्यवहार तत्कालीन समाज की विद्रूपता का सटीक प्रतिरोध है। जहाँ एक अपराध के अलग-अलग मापदंड हैं, वह उसका प्रत्युत्तर अपनी मर्जी से देती है और समाज को चुप रहना पड़ता है।

सिलिया  गोदान की अभिशप्त दलित पात्र है, जिसका फायदा मातादीन उठाता है। मातादीन उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता, फिर भी सिलिया  की निष्ठा उसके प्रति है, क्योंकि वह प्रेम में अखंड विश्वास करने वाली नारी है। दूसरी ओर मातादीन की दृष्टि में वह केवल भोग्या और स्वार्थ पूर्ति का माध्यम है। वह उसे मजदूरिन से अधिक नहीं समझता। मुट्ठी भर अनाज के लिए जब मातादीन निर्लज्जता के साथ उसे कह देता है, "नहीं तुझे अख्तियार नहीं, काम करती है, खाती है, जो तू चाहे खा भी, लुटा दे तो वह यहाँ न होगा, अगर तुझे यहाँ पर परता न पड़ता हो, कहीं और जाकर काम कर। मजूरी की कमी नहीं है।“6 वास्तव में माता दिन के लिए वह सिर्फ रखैल है, सहभोग की  अधिकारिणी नहीं। दाता दिन अपने भाव भी प्रकट कर देता है। वह दम्भ के साथ सिलिया  के बारे में कहता है, "हमारी चौखट नहीं लाँघ पाती, बर्तन, भांडे छूना तो दूर की बात है।"7 देखा जाए तो समाज का यह दोहरापन ही घुन की तरह खा रहा है। प्रेमचंद की दृष्टि में सवर्ण समाज के दंभ के कारण ही अछूत की समस्या जोंक की तरह चिपकी हुई है।

सिलिया के माता-पिता अपनी बेटी  के प्रति अन्याय और दुर्व्यवहार का प्रतिकार लेते हैं। वे  मातादीन के खलिहान पर पहुँच कर चुनौती देते हैं ।उसका पिता हरखू कहता है, " हम आज या तो मातादीन को चर्मकार बनाकर छोड़ेंगे या उनका और अपना रक्त एक कर देंगे।.... तुम हमें ब्राह्मण नहीं बना सकते, मुदा हम तुम्हें चर्मकार बना सकते हैं।"8  यह विद्रोही चेतना प्रेमचंद की उस भावना को प्रदर्शित करती है जहां अन्याय का प्रतिकार करना आवश्यक है और वहाँ किसी प्रकार का संकोच भी नहीं है। दलित साहित्य का मुखर आवरण इस दृश्य से मेल खाता है।

सिलिया के साथ दुर्व्यवहार का प्रतिकार केवल मौखिक नहीं, बल्कि उसे धरातल पर भी क्रियान्वित करने का प्रयास किया गया है। उपन्यास का वह अंश जब दो चमारों ने लपक कर मातादीन का हाथ पकड़ लिया, तीसरे ने झपट कर उसका जनेऊ तोड़ डाला और उससे पहले कि दातादीन और झींगुरी सिंह अपनी अपनी लाठी संभाल सके, दो चमारों ने मातादीन के मुँह में एक बड़ी-सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया। यह घटना मातादीन को धर्म भ्रष्ट प्रमाणित करने की दृष्टि से पर्याप्त व तर्कसंगत थी। प्रेमचंद ने यहाँ पाखंडियों को चुनौती दी है, "जिस मर्यादा के बल पर अपनी रसिकता का घमंड और पुरुषार्थ अकड़ता फिरता था, वह मिट चुकी थी। उस हड्डी के टुकड़े ने उसके मुँह को ही नहीं उसकी आत्मा को भी अपवित्र कर दिया था।.... उसका धर्म इसी खानपान, छूत-विचार पर टिका हुआ था। आज उस धर्म की जड़ फट गई। अब वह लाख प्रायश्चित्त करे और गंगाजल पिए, लाख दान-पुण्य और तीर्थ-व्रत करेउसका मरा हुआ धर्म जी नहीं सकता।"9 अंत में मातादीन का  हृदय परिवर्तन दिखाकर प्रेमचंद ने समाज को एक संदेश भी दे दिया कि पाखंड अब नहीं चल सकता।

डॉ. धनंजय चौहान इस प्रसंग पर लिखते हैं, "गोदान के इस दलित प्रसंग में दलितों के नेतृत्व की बागडोर स्वयं दलितों के हाथों में है। आज से लगभग सात दशक पूर्व प्रेमचंद दलित विमर्श को जिस रचनात्मक मुहावरे में ढाल सके, वह उनकी उस औपन्यासिक अंतर्दृष्टि का परिचायक है, जो अतीत से मुक्त होकर वर्तमान की दहलीज पर आगत की आहट सुनने का हूनर रखती है।"10 दलित साहित्य की वैचारिकी में इसे प्रस्थान बिंदु माना जा सकता है। कलम का सिपाही में अमृतराय प्रेमचंद के सन्दर्भ में कहते हैं, “कोई इसे गुण माने या दोषसामयिकता मुंशी जी के कृति मन की प्रधान वृत्ति है। मुंशी जी वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान के लिए लिखते हैं। वर्तमान को फलाँग कर भविष्य में नहीं पहुँचा जा सकता। वर्तमान से परांग-मुख होकर कोई कालजयी नहीं हुआ। वर्तमान को छोड़ते ही भविष्य की स्थिति आकाश बेल-सी हो जाती हैजो कभी नहीं फूलती। वर्तमान ही भविष्य का आधार है। उसकी खाद-मिटटी और भविष्य की वर्तमान की सहज दिशा हैउसका गंतव्य।’11 प्रेमचन्द इसलिए हमारे समय से संपृक्त है क्योंकि उनकी समस्याएं लगभग वही है जो हमारी आज की समस्या है। हम भी अपने भविष्य को प्रेमचन्द जैसे समर्थ रचनाकार के माध्यम से बेहतर निर्मित कर सकते है।

समग्र रूप से यह कहना समीचीन होगा कि प्रेमचंद ने न केवल अपने समय को पहचाना, बल्कि आने वाले समय के अनुरूप समाज को प्रगतिगामी बनाने का विकल्प भी प्रस्तुत किया। आज के समाज में यदि कुछ बदलाव है और दलित आत्मसम्मान की भावना मुखर रूप में है तो प्रेमचंद की कालजयी दृष्टि का भी उसमें योगदान है। गोदान के माध्यम से उन्होंने यथास्थितिवाद का समर्थन नहीं किया, बल्कि समाज की विसंगतियों को उजागर किया। उसी का परिणाम है कि प्रेमचंद की प्रासंगिकता दलित विमर्श के केंद्र में आज भी विद्यमान है।

 

 

सन्दर्भ ग्रन्थ :

1. ओम प्रकाश वाल्मीकि, गोदान और दलित प्रसंग, वर्तमान साहित्य, अप्रैल,2009, पृ.71

2. कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद का दलित-विमर्श, बहुवचन, जुलाई-सितम्बर, 2014, पृ.17

3. प्रेमचंद, गोदान, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, सं. 2010, पृ.11

4. वही, पृ.167

5. वही, पृ.189

6. वही, पृ.262

7. वही, पृ.200

8. वही, पृ.263

9. वही, पृ.269

10. डॉ. धनंजय चौहान, हिंदी साहित्य में दलित सरोकार, माया प्रकाशन, कानपुर, सं.2000, पृ.114-115

11. अमृत रायकलम का सिपाही, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, सं. 2010,  पृष्ठ-306

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