सियारामशरण गुप्त के काव्य में गांधी दर्शन
भारतीय हिंदी परिषद, प्रयाग द्वारा प्रकाशित ' हिंदी अनुशीलन' के अप्रैल-सितम्बर, 2020 अंक में प्रकाशित...
सियारामशरण गुप्त |
डॉ. नगेन्द्र ने आधुनिक कविता की प्रवृत्तियों
में हिन्दी पर गांधी के प्रभाव को इंगित करते हुए लिखा- “भारतीय आदर्शवाद के- जिसका कि प्रतीक संप्रति गांधीवाद है-
तीन पक्ष हैं। एक सौन्दर्यमय अनुभूत्यात्मक पक्ष, दूसरा राष्ट्रीय-सांस्कृतिक पक्ष, और तीसरा दार्शनिक भौतिक पक्ष।”1 पहले की अभिव्यक्ति छायावाद में हुई है और
दूसरे की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविताओं में। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार- “तीसरे पक्ष की अभिव्यक्ति विरल है। वह हिन्दी
के केवल एक ही कवि सियाराम शरण गुप्त में मिलती है। परन्तु उस एक कवि में ही उसकी
अभिव्यक्ति जितनी सटीक और पूर्ण हुई है, उतनी भारत की किसी अन्य भाषा के कवि में शायद ही हुई हो।”2
सियारामशरण गुप्त हिन्दी के द्विवेदी युगीन
अनन्य कवि हैं। उन्होंने गांधी-दर्शन को अत्यधिक गहराई से आत्मसात किया, इसी कारण उनकी रचनाओं में गांधीवाद की व्याख्या
भी सच्चे अर्थों में हुई। उनके काव्य में अभिव्यक्त विचार गांधीमय अनुभूति से
युक्त हैं, जो हमारी सांस्कृतिक
मनोवृत्ति और भारतीय मूल्यों को भी प्रकट करते हैं। संभवतः इसीलिए सियारामशहरण
गुप्त को हिन्दी साहित्य में गांधीवाद का भावात्मक व्याख्याता कहकर सम्बोधित किया
जाता है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अनेक लेखक गांधीजी से प्रभावित रहे और उनके
वैचारिक सूत्रों का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया, परन्तु गांधी जी की विचार दृष्टि और दर्शन में अपने
व्यक्तित्व का विलयन करने का श्रेय कविवर सियारामशरण गुप्त को जाता है।
सियारामशरण गुप्त का रचना-समय 1914 से 1963 तक विस्तारित है। प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं- मौर्य विजय (1914),
अनाथ (1917), पूर्वादल (1924), विषाद (1925), आर्द्रा (1927),
आत्मोत्सर्ग (1931), पाथेय (1934), मृण्मयी (1936), बापू (1938),
दैनिकी (1942), नकुल (1946), नौआखाली (1947), जयहिन्द (1947),
सुनन्दा (1956) अमृतपुत्र (1951) आदि । इनके अतिरिक्त
दो काव्य-नाटक उन्मुक्त (1940), और गोपिका (1963)
महत्त्वपूर्ण हैं।
गांधीजी की विचार दृष्टि में भारतीय सनातन परम्परा
के निरन्तर गतिमान मूल्य यथा-सत्य, अहिंसा, मानवता, समरसता, सहिष्णुता,
सहयोग आदि रहे, परन्तु इन मूल्यों का प्रयोग उन्होंने अपने जीवन काल में
करके सार्थक लक्ष्य प्राप्त किया, इस कारण उनकी
प्रासंगिकता अनिर्वचनीय है। आदर्श रामराज्य की परिकल्पना में गांधीजी के विचार
कालजयी हैं, जो नैतिकता के
धरातल पर वसुधैव कुटुम्बकम् की भारतीय
अवधारणा का विस्तार है। इसी चिन्तन धारा को अपने कविता-संसार में सियारामशरण गुप्त
ने केन्द्र-बिन्दु बनाया और कविता की रस-सृष्टि में हिन्दी जगत् को समृद्ध किया।
‘सत्य’ शाश्वत मूल्य है, परन्तु नैतिक जीवन के साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक जीवन में सत्य का प्रयोग कर व्यावहारिक धरातल पर सार्थक
रूप देने का श्रेय महात्मा गांधी को जाता है। ‘सत्याग्रह’ उनका अमोघ अस्त्र
रहा। इसी अस्त्र ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी। गांधीजी ने सत्य को ईश्वर
का स्वरूप माना। इन विचारों को कवि ने प्रकट करते हुए लिखा-
प्रार्थना सबके
हृदय में भीतरी,
असत् से सत् में
हमें तुम ले चलो,
ले चलो हमको
तिमिर से ज्योति में,
मृत्यु से अक्षय
अमृत में ले चलो।3
कवि के मतानुसार सत्य मानव-सृष्टि का चरम आदर्श
होने से शाश्वत है। इसे प्राप्त करने में चिन्तकों ने अपना जीवन समर्पित कर दिया।
गांधीजी का जीवन तो सत्य की प्रयोगशाला रहा। कवि ने गांधीजी को सत्य का
मंत्र-द्रष्टा बताया-
ऊर्जस्विते,
सत्य के अहिंसा के अमृत
से,
मुक्त छल छद्म के
अमृत से।
बोला यह कोई
मंत्र द्रष्टा ऋषि नूतन में,
प्राण के पवित्र
नवोद बोधन में।4
‘अहिंसा’ से ही सत्य की पूर्णता होती है। दूसरे शब्दों में सत्य का
भावपक्ष है। गांधीजी के अनुसार अहिंसा एक साधना, शास्त्र और कला है। इसीलिए उनका पूरा संघर्ष अहिंसा की
पृष्ठभूमि पर रहा। विश्व-इतिहास में भारत का स्वतंत्रता-संग्राम रक्तहीनता के बाद
भी सफलता के रूप में जाना जाता है, तो उसका श्रेय गांधीजी के नेतृत्व को है। मानव
कल्याण के लिए प्रेम और अहिंसा परम आवश्यक है। इन्हीं विचारों को कवि ने प्रकट
करते हुए लिखा-
हिंसानल से शांत
नहीं होता हिंसानल,
जो सबका है वही
हमारा भी है मंगल।
मिला हमें
चिरसत्य आज यह नूतन होकर,
हिंसा का है एक
अहिंसा ही प्रत्युत्तर।5
गांधीजी की विचारधारा में ‘अहिंसा’ प्राण तत्त्व रहा। उनकी दृष्टि में यह विश्व शांति का अखंड
और अमोघ अस्त्र है। जीवन में हिंसा का स्थान व आश्रय किसी भी रूप में क्षम्य नहीं
है। मन, वचन और कर्म से
अहिंसात्मक दृष्टि ही मनुष्यता का परम लक्ष्य होना चाहिए। कविवर गुप्तजी ने इसी
विचार को अपनी पंक्तियों में प्रकट किया-
हिंसा के उपद्रव
से संभव,
विनाश नहीं नर का,
अमृत पिये है,
वह आत्मज अमर का।6
‘सर्वधर्म समन्वय’ भारतीय अवधारणा में विशिष्ट स्थान रखता है। गांधीजी ने देश
की एकता के लिए इसे अत्यधिक महत्त्व दिया। इस हेतु गांधीजी का विश्वास था कि जिस
प्रकार आत्मा अनेक शरीरों में प्रकट होकर अनेक रूप धारण करती है, उसी प्रकार मनुष्य का भी धर्म एक ही है। इसीलिए
सभी धर्म भी सत्य के प्रकाश से प्रकाशित हैं। सर्वधर्म पालन के लिए कवि गुप्त जी
ने इन्हीं विचारों को अपना स्वर दिया-
नहीं दूसरा है वह
कोई,
उसे रहीम कहो या
राम,
भिन्न उसे कर
सकते हो क्या,
देकर भिन्न-भिन्न
कुछ नाम।7
‘अपरिग्रह’ से आशय है- व्यर्थ का संचय न करना। गांधीजी ने जैन दर्शन के
इस सिद्धान्त को अपने जीवन का आदर्श बनाया। उनके मतानुसार एक सत्याग्रही जानता है
कि धन से स्थिरता नहीं है। जहाँ पर व्यर्थ की धन-संचय करने की प्रवृत्ति होगी,
वहाँ ईर्ष्या, वैर-भाव जाग्रत होगा। इस हेतु मनुष्य को अपने जीवन में
त्याग की वृत्ति को महत्त्व देना होगा। कवि ने इसी भावना को प्रकट करते हुए कहा-
लेना होगा निखिल
क्षेम-व्रत निर्भय हमको,
देना होगा बड़ा
भाग लघु से लघुत्तम।8
‘मानवतावाद’ मनुष्यता का चरम लक्ष्य होना चाहिए। गांधीजी ने सच्चे और
आदर्श मानव के गुणों को अपने व्रतों में सम्मिलित किया। कविवर गुप्तजी इन विचारों
से बहुत प्रभावित रहे। अपनी रचनाओं में उन्होंने विश्व-प्रेम की व्यापक भावना का
संदेश दिया। मानव के महत्त्व को स्थापित करते हुए कवि ने कहा कि मनुष्य और पृथ्वी
में आस्था से यह लक्ष्य भी संभव है-
सच्चे सुत हो
तुम्हीं मृण्मयी वसुंधरा के,
उसके निम्न
नितान्त सर्व-साधारण जनसम,
आये हो तुम यहाँ
स्वर्ग में मान्य महत्तम,
करके निज को
राज-वेश-भूषा से सज्जित
किया न तुमने
किसी धरित्रीसुत को लज्जित है।9
‘अस्पृश्यता’ सामाजिक अभिशाप है। गांधीजी ने कहा था कि मैं फिर से जन्म
लेना नहीं चाहता, लेकिन यदि लेना
भी पड़ा तो मैं अस्पृश्य के रूप में पैदा होना चाहूँगा। स्पष्टतः उनका संदेश भारतीय
समाज के लिए था। इन्हीं विचारों को कवि ने अपना स्वर दिया-
तुझ पर देवी की
छाया है
और इष्ट यही है
तुझे,
देखूं देवी के
मन्दिर में,
रोक सकेगा कौन
मुझे।10
‘स्त्री-विमर्श’ वर्तमान समय में साहित्य के केन्द्र में है। लेकिन तत्कालीन
रूढ़िवादी समाज में गांधीजी ने नारियों के योगदान और अस्तित्व को समाज के सामने
रखा। बाल-विवाह, दहेज-प्रथा आदि
कुरीतियों का उन्होंने कड़ा विरोध किया। उनकी पीड़ाओं को उजागर किया। कवि गुप्तजी ने
भी नारियों की दशा का कारुणिक चित्रण कर सभ्य समाज को सोचने पर विवश किया और यह
संदेश दिया कि स्त्री मानव-जीवन के लिए ईश्वरीय वरदान है। यह भूतल की शक्ति है-
भूतल की शक्ति यह
हल्की
एक बड़ी बूंद किसी
पुण्य-स्वाति जल की,
दुर्लभ सुयोग
जन्म
प्राप्त कर
तुममें हुई है धन्य-धन्य-धन्य।11
इस प्रकार कविवर सियारामशरण गुप्त के काव्य में
गांधीजी के विचारों को विस्तार से विवेचन हुआ। गांधीवादी नैतिक दृष्टि, कर्तव्यनिष्ठा, खादी प्रयोग, राष्ट्रप्रेम और साथ ही राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति स्नेह आदि विषयों को अपनी
कविता में स्थान देकर गांधी दर्शन को काव्य की सरस धारा में भिगोया। यह स्पष्टतः
दृष्टिगोचर होता है कि सियारामशरण गुप्त ने गांधीजी के विचारों को पूर्णतः आत्मसात
किया था, इसी कारण उनकी कविता में
गांधी-दर्शन स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होता है।
संदर्भ-
1. उद्धृत डॉ.श्रीनिवास
शर्मा, हिन्दी साहित्य
का आधुनिक काल, पृ.सं.9
2. पूर्ववत्, पृ.सं.9
3. अचला, सियारामशरण गुप्त
रचनावली भाग-2,पृ.सं.318
4. बापू, सियारामशरण गुप्त
रचनावली भाग-1,पृ.सं.397
5. उन्मुक्त, सियारामशरण गुप्त
रचनावली भाग-1,पृ.सं.495
6. बापू, सियारामशरण गुप्त
रचनावली भाग-1,पृ.सं.407
7. आत्मोत्सर्ग, सियारामशरण गुप्त
रचनावली भाग-1,पृ.सं.222
8. नकुल, सियारामशरण गुप्त
रचनावली भाग-2,पृ.सं.131
9. नकुल, सियारामशरण गुप्त
रचनावली भाग-2,पृ.सं.133
10. आर्द्रा, सियारामशरण गुप्त
रचनावली भाग-1,पृ.सं.114
11. बापू, सियारामशरण गुप्त
रचनावली भाग-1,पृ.सं.402
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