अज्ञेय की प्रयोगधर्मिता


अज्ञेय 
हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक रचनाकार एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हिन्दी-काव्य क्षेत्र में ‘प्रयोगवाद के जनक’ के रूप में विख्यात है । ‘अज्ञेय’ जी का जन्म 7 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के कुशीनगर स्थान पर हुआ । पिता की नौकरी पुरातत्त्व विभाग में होने के कारण उनका बचपन अनेक स्थानों पर रहते हुए गुजरा । वे स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण जेल में रहे । ‘सैनिक’, ‘विशाल भारत’, ‘प्रतीक’, ‘दिनमान’, ‘नवभारत टाइम्स’ आदि पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया तथा अमेरिका व जोधपुर में उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया ।

वे कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, निबंधकार एवं पत्रकार के रूप में अपनी प्रतिभा का परिचय देते रहे । हिन्दी-काव्य में ‘तारसप्तक’ के प्रकाशन के साथ प्रयोगवादी कविता का उन्होंने सूत्रपात किया । अज्ञेय जी की प्रसिद्ध काव्य-कृतियाँ हैं- ‘इत्यलम’, ‘हरीघास का पर क्षण भर’, ‘इन्द्रधनुष रौंदे हुए ये’, ‘अरी ओ करूण प्रभामय’, ‘आँगन के पार द्वार’, ‘सुनहले शैवाल’, ‘कितनी नावों में कितनी बार’ एवं ‘महावृक्ष के नीचे’ आदि कृतियाँ उल्लेखनीय हैं । प्रस्तुत आलेख में अज्ञेय जी काव्य-संवेदना को उजागर करने प्रयास किया गया है ।

‘अज्ञेय’जी छायावादोत्तर काल के प्रमुख कवि थे । उनकी प्रसिद्धि प्रयोगशील कवि के रूप में रही क्योंकि उन्होंने काव्य के परम्परागत बंधनों से मुक्त एक ऐसा माध्यम स्थिर करने के लिए प्रयोग किए, जो नई परिस्थितियों, नवीनतम अनुभूतियों तथा नये विचारों को महत्त्वपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त कर सके । अतएव उनका काव्य-संसार भी नवीन खोज एवं नवशिल्प के अन्वेषण का माध्यम रहा है । ‘तार-सप्तक’ की भूमिका में भी उन्होंने अपने आपको एवं प्रयोगवादी कवियों को ‘राहों के अन्वेषी’ बताया । 

यद्यपि अज्ञेय जी व्यक्तिवादी चेतना के कवि माने जाते हैं, तथापि सामाजिक सरोकारों को एवं उसके महत्त्व को स्वीकार भी किया । ‘नदी’ को ‘समाज’ का एवं ‘द्वीप’ को ‘व्यक्ति’ का प्रतीक बताकर उन्होंने अपने विचारों को इस प्रकार व्यक्त किया-

“हम नदी के द्वीप हैं ।
हम नहीं कहते कि हमको
छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाये
वह हमें आकार देती है ।”

अज्ञेय जी की मान्यता रही है कि जीवन में दुःख को प्रेरक के रूप में स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वह हमारे विकारों का परिष्करण करता है । दुःख के महत्त्व को रेखांकित करती कवि की उक्त पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

“दुःख सबको माँजता है
और.....................................
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने,
किन्तु जिनका माँजता है,
उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखे ।”

वर्तमान शहरी जीवन में जटिलता आ गई है, परिणामस्वरूप शहरी जीवन की विसंगतियों ने मनुष्य को स्वार्थी, अहंकारी एवं अनीतिवान बना दिया है । शहरियों के आचरण को अज्ञेय जी ने ‘साँप’ कविता के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया-

“साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं, न होंगे
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछूँ (उत्तर दोगे)
फिर कैसे सीखा डसना
विष कहाँ पाया ?”

आज के वैज्ञानिक युग में मनुष्य मशीन बन गया है, फलतः उसके जीवन में समय का अभाव व्याप्त हो गया है । कवि की मान्यता है कि काल के अनवरत प्रवाह में क्षण का अत्यधिक महत्त्व होता है अतः मनुष्य को प्रत्येक क्षण का महत्त्व समझते हुए उसमें लीन होना चाहिए तथा अपने भीतर की आवाज को सुनना चाहिए, यथा-

“सुनें, गूँज भीतर के सूने सन्नाटे में 
किसी दूर सागर की लोल लहर की 
जिसकी छाती की हम दोनों
छोटी-छोटी सी सिहन हैं-
जैसे सीपी सदा सुना करती है ।”

प्रकृति का चित्रण करते समय कवि अज्ञेय का मन पूर्वाग्रहों से मुक्त रहा है । उन्होंने प्रकृति के विराट् सौन्दर्य में अपने जीवन को तल्लीन करने की कामना व्यक्त की है । शरद्कालीन चाँदनी में कवि की निमग्नता दर्शनीय है, यथा-

“शरद चाँदनी बरसी
अँजुरी भर कर पी लो
ऊँघ रहे हैं तारे सिहरी सरसी
औ प्रिय, कुमुद ताकते अनझिप ।”

अज्ञेय जी ने जहाँ कविता के वर्ण्य विषय में नये प्रयोग किए, वहीं शिल्प के क्षेत्र में उनके प्रयोग युगान्तरकारी सिद्ध हुए । उन्होंने भाषा का बनावटीपन दूर किया । अप्रस्तुत योजना, बिम्ब एवं प्रतीक विधान में नवीनता को प्रश्रय दिया । नये उपमानों ओर प्रतीकों का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा-

“वे उपमान मैले हो गए हैं,
देवता इन प्रतीकों के
कर गए हैं कूच ।”

निष्कर्षतः अज्ञेय जी का काव्य विविधताओं का मिश्रण है । उनके काव्य में व्यक्ति और समाज, प्रेम एवं दर्शन, विज्ञान एवं संवेदना, यातना बोध एवं विद्रोह, प्रकृति एवं मानव तथा बुद्धि एवं हृदय का साहचर्य दिखाई देता है । उनकी कविताएँ आधुनिक युग का दर्पण मानी जाती है। यही कारण है कि हिन्दी काव्य धारा में अज्ञेय जी का व्यक्तित्व आज भी समालोचकों की दृष्टि में अज्ञेय ही प्रतीत होता है । 
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'किले में कविता' रिपोर्ट

अपनी माटी की काव्य गोष्ठी 
किले में कविता
(औपचारिक हुए बगैर भी सार्थक होने की गुंजाईश)

'किले में कविता' अपनी माटी का यह ऐसा आयोजन है जिसमें किसी ऐतिहासिक दुर्ग या इमारत के आँगन/परिसर में बिना किसी औपचारिकता के पचड़े में पड़े कविता सुनना-सुनाना और कविता पर विमर्श किया जा सकता है। सार्थक होने के लिए किसी भी रूप में औपचारिक होना ज़रूरी नहीं है। लगातार औपचारिक हो रहे हमारे दैनंदिन जीवन में कुछ तो हार्दिक हो। एक विचार के अनुसार अतीत बोध के साथ कविता पर बात-विचार करने के इन अवसरों में यथायोग्य उसी परिसर में आखिर में श्रमदान करने की भी रस्म शामिल की गयी है। 

रिपोर्ट:मनुष्य होने की शर्त है साहित्य- डॉ सत्यनारायण व्यास
चित्तौड़गढ़ चार अगस्त,2013

घोर कविता विरोधी समय में कवि होना और लगातार जनपक्षधर कविता करना बड़ा मुश्किल काम है।वैसे मनुष्य साहित्य का लक्ष्य है और मनुष्य होने की शर्त है साहित्य। एक तरफ जहां आज व्यवस्था की दूषित काली घटाएँ तेज़ाब बरसा रही हैं वहीं जल बरसाने वाली घटाएँ तो कला और साहित्य की रचनाएँ ही हैं।तमाम मानवीय मूल्यों की गिरावट का माकूल जवाब है कला और साहित्य का सृजन।ये दोनों हमें अर्थकेन्द्रित और धन-पशु होने से बचाने वाली चीज़ें है। एक और ज़रूरी बात ये कि साहित्य और संस्कृति लगातार परिवर्तनशील धाराएँ हैं। अत: देश काल और समाज सापेक्ष नवाचार का हमेशा स्वागत करना चाहिए। वैज्ञानिक, तकनीकी और साइबर महाक्रान्ति के साथ कला और साहित्य को अपना तालमेल बैठाकर विकास करना होगा।

यह विचार साहित्य और संस्कृति की मासिक ई पत्रिका अपनी माटी के कविता केन्द्रित आयोजन किले में कविता के दौरान वरिष्ठ कवि डॉ सत्यनारायण व्यास ने कहे। चार अगस्त की शाम दुर्ग चित्तौड़ के जटाशंकर मंदिर परिसर में कवि शिव मृदुल की अध्यक्षता में आयोजित काव्य गोष्ठी में जिले के लगभग सत्रह कवियों ने पाठ किया। शुरू में आपसी परिचय की रस्म हुई। आगाज़ गीतकार रमेश शर्मा के गीत घर का पता और तू कहती थी ना माँ सरीखे परिचित गीतों से हुआ। प्रगतिशील कविता के नाम पर विपुल शुक्ला की कविता लड़कियाँ और हम मरे बहुत सराही गई।इस अवसर पर कौटिल्य भट्ट ने दो मुक्कमल गज़लें कहकर हमारे आसपास के ही वे दृश्य पैदा किए जो हम अक्सर नज़रअंदाज कर जाते हैं।सालों से लिख रहे रचनाकारों में जिन्होंने पहली मर्तबा सार्वजनिक रूप से पाठ किया उनमें किरण आचार्य का गीत बादलों पर हो सवार और माँ शीर्षक से प्रस्तुत रचनाएं और मुन्ना लाल डाकोत की पद्मिनी मेल रो भाटो ने ध्यान खींचा। राजस्थानी रचनाओं में नंदकिशोर निर्झर,नाथूराम पूरबिया के गीतों से माहौल खूब जमा। 

जहां सत्यनारायण व्यास ने मेट्रो शहरों के जीवन पर केन्द्रित कविता फुरसत नहीं और ईगो के ज़रिए व्यंग्य कसे वहीं उनकी कविता माँ का आँचल ने अतीत बोध की झलक के साथ संवेदनाओं के लेवल पर सभी को रोमांचित कर दिया। इसी संगोष्ठी में आकाशवाणी चित्तौड़ के कार्यक्रम अधिकारी योगेश कानवा ने अपनी स्त्री विमर्श से भरी हाल की लम्बी कविता का पाठ किया। डॉ रमेश मयंक ने अपनी जल चिंतन रचना से किसी एक शहर के बीच नदी के अस्तित्व को उकेरते हुए जीवन के कई पक्ष हमारे सामने रखे।जानेमाने गीतकार अब्दुल ज़ब्बार ने अपनी परिचित शैली में चंद शेर पढने के बाद अपना पुराना गीत मौड़ सकता है तू ज़िंदगी के चलन  ने एक  बार फिर छंदप्रधान रचनाओं का महत्व जता दिया। संगोष्ठी के सूत्रधार अध्यापक माणिक ने गुरूघंटाल नामक कविता सुनाकर तथाकथित बाबा-तुम्बाओं की दोगली जीवन शैली पर कटाक्ष किया। वहीं शेखर चंगेरिया, विपिन कुमार, मुरलीधर भट्ट, भगवती बाबू और भरत व्यास ने भी कविता पाठ किया। आखिर में शिव मृदुल ने शिव वंदना प्रस्तुत की। 

संगोष्ठी में बतौर समीक्षक डॉ राजेश चौधरी, डॉ रेणु व्यास, डॉ राजेंद्र सिंघवी, डॉ अखिलेश चाष्टा और महेश तिवारी मौजूद थे।आकाशवाणी से जुड़े स्नेहा शर्मा, महेंद्र सिंह राजावत और पूरण रंगास्वामी सहित नंदिनी सोनी, चंद्रकांता व्यास, सुमित्रा चौधरी, सतीश आचार्य और कृष्णा सिन्हा ने भी अंश ग्रहण किया।श्रमदान के साथ ही गोष्ठी संपन्न हुई। 

रिपोर्ट-माणिक,चित्तौड़गढ़

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