भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य का आतंरिक-प्रवाह

 

भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य का आतंरिक-प्रवाह


भारत वर्ष भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से विविधता युक्त रहा है, उसी अनुरूप भाषायी विविधता भी विद्यमान रही। एक ओर भारोपीय परिवार से जन्म लेने वाली भाषाएँ यथा- संस्कृत, हिंदी, मराठी, बांग्ला, उड़िया, असमिया, गुजराती आदि में साहित्य रचना हुई तो दूसरी ओर द्रविड़ परिवार की भाषाओं- तमिल, तेलगू, मलयालम, कन्नड़ आदि में विपुल साहित्य रचा गया। अपने प्रादेशिक वैशिष्ट्य एवं सांस्कृतिक पहचान को अक्षुण्ण रखते हुए समग्र साहित्य ने अनंत विस्तार ग्रहण किया, परन्तु उसके व्यक्तित्व में एक­दूसरे का प्रभाव अवश्य रहा। यही आत्म­तत्त्व भाषायी विविधता के बाद भी भावात्मक एकता का आधार बना, जो अद्वितीय है। यह गौरव का विषय है कि भारतीय भाषाओं में रचा गया साहित्य अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए हुए है, यह उसका प्रखर वैशिष्ट्य भी है और प्रादेशिक संस्कृति के प्रभाव से निर्मित उसका व्यक्तित्व भी। परन्तु एक­दूसरे की सीमाएँ कब लयबद्ध हो जाती है, पता ही नहीं चलता, जैसे - बांग्ला, असमिया व उड़िया, तमिल व तेलगू, मराठी व गुजराती, कन्नड़ तथा मलयालम, पंजाबी और सिंधी, विशेष रूप से हिन्दी में इन सभी भाषाओं से गृहीत शब्दावली। यही तत्त्व भारतीय साहित्य की अन्तः धारा को रसमय बनाए हुए हैं।

आचार्य कहते हैं- संस्कृति मनुष्य के चित्त की खेती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृति को मनुष्य के चिन्तन की उपज कहा है। वस्तुतः सम्यक् कृति ही संस्कृति है। बाबू गुलाबराय के अनुसार, “संस्कृति के मूलाधारों में- आध्यात्मिक दृष्टिकोण,सांस्कृतिक चेतना, धार्मिकता, सजीव सत्यों का संकलन, सहन शक्ति, सामाजिक चेतना आदि है।1 संस्कृति के मूलभूत तत्त्व नैतिकता, सदाशयता, सहनशीलता, शरणागत की रक्षा, आचरण की पवित्रता और समभाव की उच्चत्ता में इसकी शक्ति निहित है। चिंतन की स्वतंत्रता और उपास्य की अनेकता, वेश-भूषा और खान-पान की विविध स्वरूप के बावजूद अनेकता में एक तत्त्व की प्रधानता ही आर्यावर्त की संस्कृति का सबसे बड़ा सम्बल है। हमारा चिंतन मात्र देह तक सीमित नहीं है। स्थूल जगत् से परे हम यह विचार करते हैं कि मैं कौन हूँ? हमारा प्रत्यभिज्ञा दर्शन स्वयं की पहचान पर बल देता है। हम आत्मतत्त्व की खोज में लगे रहे। जयशंकर प्रसाद के शब्दों में हम कह सकते हैं किएक तत्त्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन2 

महादेवी वर्मा ने राष्ट्र के स्वरूप को अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखा, “राष्ट्र केवल पर्वत-नदी,या समतल का सवाल नहीं होता, उसमे उस भूमिखंड में निवास तथा विकास करने वाले मानव-समूह का जीवन अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहता है।3 राष्ट्रवादी चिन्तक श्रीराम परिहार लिखते हैं, ”राष्ट्र क्या है? उसकी संस्कृति क्या है? वस्तुतः ये दोनों मिलकर ही तो समूचे विश्व में अपनी पहचान स्थापित करते हैं, अन्यथा छह अरब की दुनिया की भीड़ में खोने के अलावा क्या है? राष्ट्र का निजत्व होता है, गुणधर्म होता है, उसकी पहचान, आकृति, अस्मिता और भूगोल होता है।4 भारतीय राष्ट्रीयता के लिए वन्देमातरम् का उद्घोष, शंकराचार्य का एकात्मभाव, विवेकानंद की विराट दृष्टि ने ही तो आने वाली पीढ़ियों को चमत्कृत कर दिशा दी। भारतीय साहित्य की पारस्परिक अन्तः संबद्धता तथा आधारभूत एकता को प्रतिबिम्बित करने वाले अनेक तत्त्व दृष्टिगोचर होते हैं, उनमें प्रमुख हैं - भाषाओं का जन्मकाल, विकास के चरण, सांस्कृतिक आन्दोलनों का प्रभाव, प्राचीन ग्रंथों का आधार ग्रहण आदि में समानता। यह विवेचना का एक पक्ष हो सकता है।

उर्दू और तमिल भाषा को छोड़कर समस्त भारतीय भाषाओं का जन्मकाल प्रायः समान रहा है, जैसे- कन्नड़ का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ कविराजमार्गराष्ट्रकूट वंश के नरेश नृपतुंगद्वारा नवीं शती में रचा गया, गुजराती का आदिग्रंथ शालिभद्र सूरि रचित भरतेश्वर बाहुबलि रासबारहवीं शती की रचना है। मलयालम की प्रथम कृति रामचरितमतेरहवीं शती में रचित हुई, तो मराठी का आदिम साहित्य भी बारहवीं शती का है। तेलगू साहित्य के प्रथम ज्ञात कवि नन्नयका समय भी ग्यारहवीं शती है। असमिया साहित्य में हेम सरस्वती की रचनाएँ प्रह्लाद चरित्रतथा हरि गौरी संवादतेरहवीं शती में रचित हैं। बांग्ला में चर्यागीतों की रचना का समय दसवीं और बारहवीं शती के मध्य का माना जाता है। उड़िया के व्यास सारलादास का समय भी चैदहवीं शती का है। इसी प्रकार हिन्दी का आदिकालीन साहित्य भी ग्यारहवीं शती के आसपास का है। अतः समस्त भारतीय भाषाओं का जन्मकाल एक निश्चित अवधि में हुआ, जो इसका अन्तः वैशिष्ट्य है।

भारत की विभिन्न भाषाओं का विकास क्रम भी लगभग समान रहा है। सभी भाषाओं का आदिकाल पन्द्रहवीं शती तक का है, पूर्व मध्यकाल सत्रहवीं शती के मध्य तक, जो मुगल­शासन के वैभव तक सीमित है। उत्तर मध्यकाल अंग्रेजी शासन की स्थापना अर्थात् उन्नीसवीं शती के आरंभ तक है। उसके बाद का समय सभी भाषाओं के साहित्य में आधुनिक काल के रूप में माना गया है। यह समानांतर विकास क्रम यह इंगित करता है कि इन भाषाओं के विकास के राजनीतिक एवं सास्कृतिक आधार समान रहे हैं।

भारतीय भाषाओं को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला समान कारक रहा- धार्मिक आन्दोलन। बौद्धधर्म के पतन पश्चात् जो संप्रदाय पल्लवित हुए, उनमें नाथपंथ उल्लेखनीय है। इसका प्रभाव तिब्बत से लेकर महाराष्ट्र और दक्षिण से पूर्वी घाट के प्रदेशों तक फैला हुआ था। नाथ­पंथ के सिन्द्धान्त- हठयोग, जीवन का साधना पक्ष, आत्माभिव्यक्ति व जीवन­शैली का प्रभाव भारतीय भाषाओं के विकास के प्रथम चरण में व्याप्त रहा। इनके बाद वेदांत दर्शन से प्रभावित इनके उत्तराधिकारी संत­संप्रदाय व नवागत सूफी­संतों का प्रभाव सभी भाषाओं के साहित्य पर रहा।

संत और सूफी काव्य के उपरांत देश में वैष्णव आन्दोलन का तीव्र वेग से प्रचार हुआ। हिन्दी­काव्य में रामकाव्य और कृष्णकाव्य धारा में साहित्य रचा गया तो तमिल प्रांत में आलवार साहित्यउल्लेखनीय है। वैष्णव आन्दोलन भी द्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्धैत आदि शाखाओं में विभक्त होकर बंगाल में चैतन्य संप्रदाय तक पहुँच गया। समस्त भारतीय भाषाओं में राम और कृष्ण की मधुर उपासना के गीत गाए गए और पूरा भारत वर्ष सगुण ईश्वर लीला गान से गुंजरित हो उठा। उसके बाद ईरानी संस्कृति से अनेक आकर्षक तत्त्व- वैभव­विलास, अलंकरण, सज्जा, राग­रंग, भोग आदि विकसित हुए, जिसे दरबारी संस्कृति कहा जा सकता है। साहित्य भी इससे प्रभावित हुआ और शृंगारिक विलास युक्त रचनाएँ विकसित हुईं। हिन्दी साहित्य का रीतिकाल इसी से प्रभावित है। इसके पश्चात् अंग्रेजों का आगमन, स्वतंत्रता आन्दोलन आदि में सभी भाषाओं के रचनागत विषय में आधारभूत समानता विद्यमान रही।

यह अचरज का विषय है कि भारत की भाषाओं का परिवार एक नहीं होते हुए भी उनके साहित्य की आधारभूमि समान रही है। भारतीय भाषाओं के साहित्य पर प्राचीन ग्रंथ- रामायण, महाभारत, उपनिषद् पुराण, भागवत् का आधार रहा है, परवर्ती संस्कृत ग्रंथों ने भी साहित्य की धारा को प्रभावित किया। उसमें कालिदास, बाण, भवभूति, जयदेव आदि का साहित्य केन्द्र में रहा। प्राकृत, अपभ्रंश-साहित्य पूर्व में ही सभी भारतीय भाषाओं के उत्तराधिकार में था। काव्यशास्त्र से संबंधित ग्रंथों ने सभी का पोषण किया, जैसे- भरत का नाट्य शास्त्र‘, आनंदवर्द्धन का ध्वन्यालोक‘, मम्मट का काव्य­प्रकाश‘, विश्वनाथ का साहित्य दर्पणआदि ग्रंथ सभी भाषाओं के मूल में रहे।

विश्व साहित्य की प्रथम पुस्तक, जिसे यूनेस्को ने भी स्वीकार किया है, वह है- ऋग्वेद। उसमें कहा गया है- मनुर्भवः, अर्थात् मनुष्य बनो। मनुष्यता का बोध ही भारतीय संस्कृति का मूल है, जो वर्तमान और भविष्य के लिए भी जरूरी है व रहेगी। हमें यह समझना होगा कि भारतवर्ष पूर्वी-पश्चिमी सभ्यताओं का समूह नहीं, वरन मानवता का संस्कार देने के लिए ईश्वरीय योजनानुरूप इस राष्ट्र का उदय हुआ। यजुर्वेद में कहा गया कि हम राष्ट्र के पुरोहित हैं। हम भोग में भी त्याग के समान आचरण करते हैं। विश्व के सभी प्राणी सुखी हों, ऐसी उदात्त भावना है। हम प्रकृति के सहचर हैं, जिससे हम रस ग्रहण कर जीवन को गति प्रदान करते हैं, दूसरी ओर पश्चिमी दृष्टि की धारणा है कि मनुष्य का प्रकृति पर आधिपत्य है और वह भोग के लिए है। भारतीय परम्परा का ज्ञान हमारे साहित्य ने करवाया। राम, कृष्ण, वाल्मीकि, वेदव्यास का व्यक्तित्व हमारी विरासत में साहित्य की देन है। शरीर नश्वर है, कर्म ही जीवन है, ज्ञान, इच्छा और क्रिया का समन्वय होना चाहिए यह सब हमारे साहित्य में लिखा गया और अपने-अपने समय के अनुकूल लिखा गया। शंकराचार्य ने आठ साल की उम्र में वेदों की ऋचाओं का अध्ययन किया और बारह वर्ष की आयु में वेदान्त की पुनर्व्याख्या कर वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना कर दी।

भारत की विशालता और विविधता के बावजूद उसे परस्पर जोड़ने में संस्कृत-साहित्य का अन्यतम महत्त्व हैं। वेद, उपनिषद, स्मृति, ब्राह्मण ग्रन्थ, रामायण, महाभारत, चरक, सुश्रुत इत्यादि में सांस्कृतिक चेतना का ऐसा युग-युगीन सेतु बन चुका है, जिसमें पूरा भारत वर्ष एक बना हुआ है। कालिदास का रघुवंश, महाकाव्य, भवभूति और अश्वघोष का साहित्य, माघ और भाष का चिंतन हमें जिस संस्कृति का आसव परोसता है, वही हमारी राष्ट्रीयता का सबसे बड़ी खुराक है। संस्कृति की इस चेतना को बलवती बनाने में कश्मीर के पंडितों व आचार्यों का सराहनीय महत्त्व है। आचार्य कल्हण द्वारा लिखित राजतरंगिणी इतिहास का महाभारत के बाद पहला ग्रन्थ माना जाता है। इसी प्रकार विल्हण का योगदान कम नहीं है। जिस कश्मीर में आतंक का ताण्डव चक्र रहा है वहां कभी- 8वीं से 12 वीं शती तक भिज्ञा दर्शन का साम्राज्य था, जिसमें शैवोपासना की संस्कृति का उज्ज्वल प्रकाश बिखरता रहता था। इसी काल के दसवीं से ग्यारहवीं शती मे आचार्य अभिनवगुप्त ने ध्वनि में रस और रस में जीवन तलाशने का भगीरथ प्रयास किया था।

डॉ. विनीता राय लिखती हैं, “जीवन के मूल्य वास्तव में संस्कृति के अंगभूत हुआ करते हैं। हम अपने मूल्यों के माध्यम से राष्ट्र और संस्कृति का परिचय देते हैं।5  विवेकानंद ने 30 वर्ष की उम्र में अपने ज्ञान से दुनिया को पागल कर दिया था। उन्होंने 1200 वर्ष बाद शंकराचार्य की परम्परा को संवाहित किया। यह स्पष्ट किया कि मनुष्य श्रेष्ठ है। मनुष्य का अस्तित्व मानवता की पराकाष्ठा है एवं आत्म तत्त्व को पहचानना है। डॉ. देवराज ने मानव मूल्यों को सांस्कृतिक पहचान से जोड़ते हुए कहा, ”किसी व्यक्ति की संस्कृति वह मूल्य चेतना है, जिसका निर्माण उसके सम्पूर्ण बोध के आलोक में होता है।6 यही कारण है कि पश्चिम के विज्ञान और पूर्व के ज्ञान के समन्वय पर बल देने वाला व्याख्यान भारत को दुनिया में सिरमौर बनाता है। 1913 में गीतांजलि पर टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलता है। मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारती राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में जन चेतना को जाग्रत करती है। 1915 मेंउसने कहा थाकहानी उस शाश्वत वचन को प्रमाणित करती हैं, जिसमें कहा गया है किरघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई। साकेत का यह कथन विचारणीय है-संदेश नहीं मैं यहाँ स्वर्ग का लाया, इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।यह साहित्य समकाल में लिखा गया, जो हमारी परम्परा से प्रभावित था। 1936 मेंराम की शक्ति पूजाभी अपने अन्दर रामत्व को जगाने का प्रयास है। कामायनी अथवा दिनकर, अज्ञेय अथवा धर्मवीर भारती सबने उस भारतीय परम्परा को आगे बढ़ाया, जिसके सूत्र वैदिक ऋषियों से प्राप्त हुए थे। अतः राष्ट्र को सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नत बनाने में साहित्य का योगदान अतुल्य है। 

भारत की संस्कृति का निर्माण, सौ दो सौ वर्ष में नहीं, हिमालय की तरह हजारों वर्ष में हुआ है। उसके निर्माण के कई कारक हैं। साहित्य का अवदान उसमें अन्यतम है। यह साहित्य लोकभाषाओं से संस्कृत भाषा का व्याप्त है। यद्यपि यह कहना अर्धसत्य होगा कि संस्कृति का निर्माण साहित्य ही करता है पर साहित्य का संबल धारण कर संस्कृति शक्तिमान  बनती है। भारत के विभिन्न अंचलों में व्याप्त बोलियों का एक विशाल साहित्य है। उस विशाल लोक साहित्य में संस्कृति की अनेक तरंगे प्रस्फुटित हुई हैं। हिन्दी की तमाम उपबोलियों में, पंजाबी जुबान के साहित्य में, बंगला, उड़िया, असमिया, मलयालम, कन्नड़, तेलगू, तमिल भाषाओं में व्याप्त भारतीय संस्कृति के विविध रंग मिलते हैं- पर उन रंगों का आस्वाद एक जैसा है। राजस्थानी लोकगीतों के प्रवाह में संस्कृति का रत्न छिपा है। कहना न  होगा कि भारत की इन भाषाओं-उपभाषाओं में संस्कृति की समझ बड़ी समृद्ध है। अनेक भावों की अंतर तरंगे अध्यात्म के महाभाव में मिलकर एक महातरंग को जन्म देती हैं। भाषा-उपभाषा में लिखित और मौखिक साहित्य की लिपि भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, उच्चारण में भेद हो सकते हैं, भौगोलिक विभिन्नताएँ हो सकती हैं, कहीं रेगिस्तान, कहीं हरियाली, कहीं मैदान तो कहीं पहाड़ हो सकते है- पर सबका भाव एक ही होता है- जीवन में अध्यात्म का चटकीला रंग। काव्य-महाकाव्य, खंडकाव्य, गद्यकाव्य, चम्पूकाव्य शैली की दृष्टि से भले ही पृथक-पृथक हों पर भाव की दृष्टि से उनकी एकात्मकता की संस्कृति का प्राण-तत्त्व बनता है। 

अपनी संस्कृति का सीधा संवाद साहित्य से होता है। नदी, नारी और संस्कृति का प्रवाह शाश्वत होता है। नारी का एक प्रकृष्ट रूप माँ होती है। वह शास्त्र से बड़ी और गुरु से भी अधिक पूज्य होती है। शास्त्र जब निःशब्द हो जाते है तब माँ की बात ही अंतिम होती है। वह संस्कृति की प्रतीक होती है। नदी भी उसी का रूप है। न नारी वृद्ध होती है और न संस्कृति। इन दोनों का अविरल प्रवाह साहित्य में दिखता है। पं. विद्यानिवास मिश्र साहित्य और संस्कृति के अन्तः सम्बन्ध को इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं-इस देश की संस्कृति सीता है, जो धरती से जनक के हल के नोक से पैदा हुई हैं। इस देश की संस्कृति गंगा है, जिन्हें भगीरथ ने अपने परिश्रम से पहाड़ खोदकर निकाला था। इस देश की संस्कृति गौरी है, जिन्होंने अपने प्रियतम को सौन्दर्य से नहीं तम से प्राप्त किया था। इस देश की संस्कृति असंख्य ग्रामीण बन्धु और वनवासी हैं, जो असंख्य बाधाओं को राम की धनुही से तोड़ने का विश्वास रखते है

 भारतीय चिंतन परम्परा व्यापक दृष्टिकोण पर आधारित है। हमारे जीवन का कोई पक्ष ऐसा नहीं है, जिस पर हमारी परंपरा ने विचार नहीं किया। हमारे शास्त्रों ने जीवन के उज्ज्वल उदात्त पक्ष को ग्रहण करने पर सदैव बल दिया। यह प्रयास भारतीय साहित्य में निरंतर विद्यमान रहा कि नवनीत छूट न जाए, उसी के कारण वैश्विक पटल पर भारतीय साहित्य अप्रतिम गहराई के साथ खड़ा है।

सहायक ग्रन्थ सूची 

1. बाबू गुलाबराय, भारतीय संस्कृति की रूपरेखा, ज्ञानगंगा प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2008, पृष्ठ-26 

2. जयशंकर प्रसाद, कामायनी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2014, पृष्ठ-1

3. धर्मवीर भारती (सं.), धर्मयुग, फरवरी,1987, पृष्ठ-

4. डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष (सं.)राष्ट्रबोध, संस्कृति एवं साहित्य, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, सं. 2019 पृष्ठ-33

5. डॉ. विनीता राय, मूल्य और मूल्य संक्रमण, अनिल प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2005 पृष्ठ-15 

6. डॉ. देवराज, संस्कृति का दार्शनिक विवेचन, सू.प्र.विभाग,उ.प्र.,लखनऊ सं.1957, पृष्ठ-175

7. डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष (सं.),राष्ट्रबोध, संस्कृति एवं साहित्य, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, सं. 2019 पृष्ठ-34

 

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 (संगम विश्वविद्यालय, भीलवाड़ा द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत एवं प्रकाशित)

कबीर: दृष्टि एवं आधार












पुस्तक : कबीर: दृष्टि एवं आधार
लेखक : डॉ. राजेंद्र कुमार सिंघवी
प्रकाशक : अंकुर प्रकाशन, उदयपुर (राज.)
आमंत्रण मूल्य : ₹ 225.00
मेल-ankurprakashan15gmail.com
संपर्क : 9413528299


कबीर की वाणी देश काल की सीमा से परे, सार्वकालिक एवं समकालीन समाज को दिशा प्रदान करने वाली रही है। कबीर का अध्ययन और अध्यापन दोनों ही रोमांचकारी है। इसीलिए कबीर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर हिन्दी साहित्य ने निरन्तर विवेचना की है। इसी शृंखला में कबीर की दृष्टि एवं आधार का मूल्यांकन करने का लघु प्रयास है।

कबीर का जीवन-दर्शन जिसमें युगानुकूल कवि-धर्म निर्वाह, प्रखर व्यक्तित्व और विराट कवि-हृदय का दिग्दर्शन होता है। कबीर-वाणी का संग्रह ‘बीजक’ में है, उसमें संकलित साखी, सबद, रमैनी का वर्ण्य-विषय विद्यार्थियों के लिए सदैव पठनीय रहा है। इसी आधार पर कबीर की दार्शनिक-दृष्टि, साधना-मार्ग, प्रेम-निरूपण, ब्रह्म-निरूपण, रहस्यवाद तथा काव्य-शिल्प का अध्ययन आवश्यक है।

स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर पर कबीर की साखियाँ, सबद और रमैनियाँ पाठ्यक्रम में समाविष्ट हैं। उनका भाव एवं कला सौन्दर्य विवेचनीय है। उस दृष्टि से कबीर: दृष्टि एवं आधार पुस्तक विशेष रूप से उपयोगी है। कबीर की दार्शनिक दृष्टि में पारिभाषिक शब्दों, गूढ़ अर्थों आदि की सरल भाषा में प्रस्तुति का प्रयास इस पुस्तक में है, साथ ही कबीर के विचारों का अवगाहन भी सम्यक् दृष्टि से करने का प्रयास रहा है, जिससे अध्ययन-अध्यापन में समग्रता बनी रहे।

पुस्तक के लेखन की प्रेरणा का श्रेय मेरे विद्यार्थियों की जिज्ञासा को है, जिन्होंने कबीर के अध्यापन के समय कई मौलिक प्रश्न किए। मुझे आशा है कि यह पुस्तक उन सभी विद्यार्थियों एवं अध्यापकों के लिए उपयोगी रहेगी, जो कबीर की वाणी का अध्ययन करना चाहते हैं। पुस्तक प्रकाशन हेतु मैं श्री राजेन्द्र जी पानेरी, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर के प्रति आभार ज्ञापित करता हूँ। आपके अमूल्य सुझावों का सदैव स्वागत रहेगा। 
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कवि कुशललाभ रा काव्य मॉय रसराज सिणगार

कवि कुशललाभ रा काव्य मॉय रसराज सिणगार

(जागती जोत पत्रिका के जून,2022 अंक में)

राजस्थानी भासा की आन-बान अर शान री वरधापना में सोलहवीं शती रा कवि कुशललाभ रो नाम घणो मान स्यूं लियो जावै। वे जैन धरम रा प्रकाण्ड अध्येता रे सागै भावभीनां रचनाकार रे रूप में भी ख्यात हुया है। अपणी सिरजण री प्रतिभा सूँ राजस्थानी ने जो मान कुशललाभ दियो, वो आज भी अचंभित करै। कविवर कुशललाभ ने माधवानल कामकंदला चौपई, ढोला मारवणी चौपई, तेजसार रास, अगड़दत्त रास, महामाई दुर्गा सातसी, स्थूलिभद्र सातसी, पिंगल शिरोमणि सहित अठारह ग्रंथांवां रो सिरजण अर संपादन करयो। इण रचनावां रो लेखण संवत् 1616 सूं 1648 तक कुल बत्तीस बरस में प्रमाणित हुयो है।

कवि कुशललाभ रो साहित्य दो भागां में बांट्यो जा सके है- पहलो अध्यात्म अर दूसरो प्रेम। अध्यात्म री रचनावां मॉय जैन धरम री मान्यतावां अर जिनवाणी रा विचार प्रकट हुया है, जिणरी परिणति शांत रस में डूबी है। प्रेमपरक आख्यानां रा सिरजण में कवि री अनुभूति सरस रूप स्यूं प्रकटी है, जिण रसराज सिणगार री भरपूर धारा बही है। सिणसार रा संयोग अर वियोग दोन्यूं पक्षांवां ने अनुभूति री तरलता, सघनता अर भाव-प्रवणता स्यूं रचनावां री गरिमा ने बढायी है। 

संयोग पक्ष रो वर्णन काम कंदला अर माधव, मालवणी अर ढोला, मारवणी अर ढोला, मारवणी, मालवणी अर ढोला, तेजसार अर उणरी आठ रानियाँ, मदन मंजरी अर भीमसेन, रूपमती अर राजहंस आदि मॉय मिलै है। ढोला रे पूगल पहुँचता ही मारवणी रे सुपनां में प्रियतम रे आणै री आहट मिलै, इणस्यूं, मारू रै मन मॉय प्रिय स्यूं मिलन री भावना जाग जावै। कवि कुशललाभ संयोग री इण वेला ने इण  शब्दां में प्रकट करियो-
घर नीगुल दीवउ सजल, छाजइ पुणग न माइ।
मारू सूती नींद भरि, साल्ह जगाई आइ ।।
सारसि सद्दारेह, भूषउ मांस पत्राखियाँ।
अडियो अंत्रारेह, जाणे ढोलउ आवियो।।

मारवणी री दक्षिणी आँख फड़क उठी, जो सुपनां रो साकार करवा रा संकेत देवै। बा पनघट पै जावै अर सुपनो साकार हो जावै। सखियाँ मारू रा चंदन रै उबटन सूं सिणगार करै अर ढोला सूँ मिला देवै। दोन्यूं रो पहली बार मिलण रो बिम्ब ने कवि शील री सीमां मॉय प्रतीकां रै सागै रच्यौ-
मन मिलिया तन गड्डियाँ, मनि मंझे मिलियांह।
सज्जन पाणी पीर जिम, धीरे-धीरे थयांह।।
ढोला मारू एकठा, करे कुतूहल केलि।
जाणे चन्दन रूंखड़े, चढ़ीत नागर बेलि।।

इण भांति कामकन्दला अर माधव री प्रेम चेष्टावां मॉय मन अर शरीर रे सुख रो रंग भर्योड़ो है। तन अर मन उत्सव मनावै। माधव रे मिलण री कामना स्यूं कंदला रा मन में ‘रति’ भाव जाग जावै, जिणरी प्रतिक्रिया स्यूं प्रेम रा भाव प्रकट हो जावै। प्रेम रो जागरण, नयन बाण रो बेधण, सोलह सिणगार अर व्याकुल भावना रो चित्र इण पदां में देख्यो जा सकै है-
नयण बाण सा बेधइ बाल, घालइ कंठि बांहि सुकुमाल।
करि सिउ खंचइ कुसुमा माल, प्रेम जागइ उर ततकाल।।
+++
सज्या तिणिई सोलह सिणगार। नाटिक अवसरि हरख अपार।।
तउ निरखइ माधव वलि वली। लागउ प्रेम विरह व्याकुली।।

नायिका री सुन्दरता रै सागै सिणगार रो वर्णन कवि ने बखूबी कियो। नख-शिख वर्णन मॉय परम्परांवां रो ध्यान राखतां तकां चित्रमय वर्णन कर्यो। सिणगार रस री सृष्टि करवा मॉय नख-शिख वर्णन री शैली कवि कुशललाभ ने घणी अनुराग स्यूं प्रकट करी है। कामकन्दला रो नख-शिख सौन्दर्य रो वर्णन इण पदांवां ने देख्यो जावै-
चंपक वयण सुकोमल अंगि। मस्तक वेणि जाणि भयंग।।
अधर रंग परवाला वेलि। गयवर हंस हरावई के लि।।
नाक जिस्यो दीवा नी सिखा। बाहें रतन जड़ित बहिराखा।
मुख जाणे पूनिम नो चांद। अधर वचन अमृतमय चंद।
पीन पयोधर कठिनो तंग। लोचन जाणे त्रसु कुरंग।।
भाल तिलक सिर वेणी दंड। भमह वंक मनमथ को दंड।।

नायिका रो वर्ण, वेणी, अधर, ग्रीवा, नाक, बाँह, मुख, वचन, पयोधर, लोचन, तिलक, भौंहे री उपमा स्यूं भरयोड़ी शब्दावली, सिणगार रस ने समृद्ध कर देवै। ‘भीमसेन-हंसराज चौपई’ अर ‘स्थूलिभद्र छत्तीसी’ मॉय क्रमशः मदन-मंजरी अर कोशा रो नखशिख सौन्दर्य निरूपण पूरी काव्य-गरिमा स्यूं प्रकट हुयौ। मदन-मंजरी रो रूप-वर्णन मॉय कुंदन रो रंग, तुरंग री चपलता, बिम्बफल-सा अधर आदि उपमान स्यूं रस री सृष्टि मोहक बण जावै-
ओपइ कुंदण जिम तसु अंग। चपल तुरंगम चष अति चंग।।
रंभागर्भ किसी जुग जंघ। उदित बिल्व सम उरज उतंग।।
अधर पक्व बिम्बाफल अणुहारि। कीर पुतली चित्र आकारि।।
सिरजउ जउ थापउ संयोग। सफल जनम सुख रस भोग।।

संयोग पक्ष रा वर्णन मॉय रस री चेष्टा, रति-क्रीड़ा, विहार, मिलन रो उत्साह, आवेग, स्वप्न, लज्जा आदि रा भाव-संयोजन भी उपमावां रै सागै हुया है। संयोग रो पक्ष वर्णन मॉय समाज री मर्यादा रो उल्लंघन भी नी हुयो अर स्वाभाविकता रो भी पूरो ध्यान राख्यो।
सिणगार रस रे उद्भावण मॉय वियोग री दशावां- पूर्व राग, प्रवास, अर करूण रो चित्रण जरूरी मान्यो जावै। नायक या नायिका रो रूप-गुण रो बखाण पूर्व राग ने जनम देवै। नायिका मारवणी रो रूप वर्णन करता तकां कवि कुशललाभ ढोला रे मन रो भाव पूर्व राग स्यूं भर देवै-
जंघ सुपत्तल करि कुंअली, झीणी लांब प्रलंब।
ढोला एहवी मारूइ, जाणे कणयर कंब।।

प्रवास-वियोग री दशा रो चित्रण माधवानल कामकन्दला अर ढोला-मारू री प्रेमकथा मॉय गहरी भाव-व्यंजना स्यूं भरयो है। अपणे साजन रे परदेस जावण पे सजनी री जो दशा होवे, वा प्रवास-वियोग रो उदाहरण बणै। माधव रे प्रवास रे कारण कामकन्दला री दशा इण पदां में देखी जावै-
आंखड़ियाँ डम्बर हुई, नयण गमाया रोइ।
ते साजण परदेसड़इ, रह्या विडाणा होइ।।

प्रवास-वियोग मॉय मालवणी रे विलाप री दशा भी इण भाँति रस सृष्टि करै। करुण-वियोग रा उदाहरण- मगन मंजरी रे देवलोक पे अगड़दत्त रो विलाप, सरपदंस स्यूं मारवणी री मृत्यु पे ढोला रो विलाप, माधव री प्रेम-परीक्षा में मृत्यु उपरांत वातावरण में देखी जा सके है। माधव रा विरह मॉय कामकंदला रो हियो दावानल बणग्यो, पण धुवां रो निशान नी दिखै। उणरी दशा लता सूं टूट्यो पीलो पत्तो जिस्यां होइगी है। कवि लिखे है- 
हियड़ा भीतर दव बलइ, धूंवो प्रगट न होइ।
बेलि बिछोह्या पानड़ा, दिन-दिन पीला होइ।।

कुशललाभ ने विरह री कामजन्य दशा रा कई रूपां रो वर्णन कियो। इणमै अभिलासा, चिन्ता, गुण कथन, उद्वेग, स्मृति, जड़ता, मूर्छा अर प्रलाप खास है। अनुभाव रा चित्रण मॉय सिणगार रो परित्याग, भूमि पै पड़नो, आँसुड़ा, स्तंभन, आदि देख्या जावै। संचारी भांवा रो चित्रण भी रस रो उत्कर्ष करवा रो माध्यम बण्यो। दैन्य, त्राण, विषाद अर स्मृति रा संचरण करवा वारा भाव रा उदाहरण देख्या जावै-
तजइ तिलक काजल तंबोल।
मंझण न हावण खोल अंगोल।।
+++
ढोलो चाल्यो हे सखी, बाज्या विरह निसाण।
हाथें चूड़ी खीहीं पड़ी, ढीला थया संधान।।
+++
बीछड़तां ही सज्जनां, रातां किया रतन्न।
वारी ते त्रिहुँ राषीया, आँसू मति ब्रन्न।।

कवि रा प्रेमाख्यानां री कथावां मॉय रस राज सिणगार अंगीरस रे रूप में आयो, वो भी सहज रूप में है। सिणगार रस री दोय दशा- संयोग अर वियोग रो काव्य-शास्त्रां रा मानदण्डानुसार प्रयोग हुयो। राजस्थानी काव्य का कोश ने बढावां रै वास्ते कुशल लाभ रो योगदान इण नज़र सूं खास स्थान राखीजे। 

आधार ग्रंथ सूची-
1. भगवती लाल शर्मा, ढोला मारू रा दूहा में काव्य-सौष्ठव, संस्कृति और इतिहास, अर्चना   प्रकाशन, जयपुर सं. 1970 ई.।
2. ब्रजमोहन जावलिया, विनिबंध कुशललाभ, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली-1, सं.1993 ई.।
3. लाल भाई दलपत भाई (सं.), भीमसेन राजहंस चौपई, इंस्टिट्यूट ऑफ इंडोलोजी, अहमदाबाद, ग्रंथांक-1217
4. कुशल लाभ, अगड़दत्त रास, भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंन्स्टिट्यूट, पूना, ग्रंथांक-605
5. कुशल लाभ, स्थूलिभद्र छत्तीसी, अभय जैन गं्रथालय, बीकानेर- ग्रं.87/4209
 

आचार्य तुलसी के काव्य में रसात्मक शब्दावली


आचार्य तुलसी के काव्य में रसात्मक शब्दावली
तुलसी प्रज्ञा, अंक जुलाई-सितम्बर,२०२२ में प्रकाशित)
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आचार्य तुलसी

भारतीय जीवन दर्शन रसवाद की आधारशिला पर प्रतिष्ठित है। रस को काव्य का अनिवार्य तत्त्व मानते हुए आचार्य विश्वनाथ ने रसमय वाक्य को ही काव्य कहा है।1  काव्य में रस की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए आचार्य भरत मुनि ने यहाँ तक कहा कि कोई भी काव्य रसहीन नहीं होना चाहिए।2 आधुनिक काल में भी रस को कविता का प्राण माना गया है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार- रस ही कविता का प्राण है और जो यथार्थ कवि है उसकी कविता में रस अवश्य होता है।3 आचार्य शुक्ल ने तो हृदय की मुक्तावस्था को ही रस दशा माना है।4 इस प्रकार रस काव्य का अनिवार्य तत्त्व के रूप में प्रमाणित है। रस के ही कारण एक ओर तो भावाभिव्यक्ति में कोमलता तथा सरलता रहती है तो दूसरी ओर हृदय को आकृष्ट करने की प्रबल शक्ति होती है।

आचार्य तुलसी इस दृष्टि से सृजन के साक्षात बिम्ब थे। उनका काव्य प्रतिभा, निपुणता और अभ्यास के धरातल पर विलक्षण है, जिसमें हृदय मुक्त होकर रसदशा को प्राप्त होता है। आचार्य तुलसी की काव्य-कृतियाँ इस दृष्टि से आकृष्ट करती हैं। प्रमुख काव्य-कृतियों के अंतर्गत कालूयशो-विलास, डालिम चरित्र, मगन चरित्र, माणक-महिमा, माँ वदना, सेवाभावी आदि चरित काव्य हैं तो अग्नि परीक्षा, भरत-मुनि प्रसिद्ध पौराणिक काव्य हैं। इसके अतिरिक्त तेरापंथ-प्रबोध, नंदन-निकुंज, शासन-सुषमा, श्रावण-संबोध, संबोध, सोमरस जैसी कृतियाँ नीति काव्य की श्रेणी में आती है तो चंदन की चुटकी भली, मैं तिरूँ म्हारी नाव तिरै आदि कृतियों जैन आख्यानों की काव्यमय प्रस्तुति है।

इन कृतियों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि उनका कृतित्व रस से भरे हुए शब्दों का सागर प्रतीत होता है। उनके काव्य में कई तत्त्व इस रूप में प्रस्फुटित हुए हैं, जिससे रचनागत रसमयता उच्चतम स्तर पर पहुँच गई है। इन तत्त्वों में प्रमुख हैं- अनुभूति की भावमयी अभिव्यंजना, भाव और कल्पना का संतुलित मिश्रण, विषय और विचार में तादात्म्य, वक्तव्य को हृदयंगम कराने हेतु विविध रूपकों, कथाओं के साथ-साथ आँचलिक राजस्थानी शब्दावली की बिम्बमय प्रस्तुति, राग-रागिनियों का समावेश तथा मुहावरों व कहावतों का प्रयोग आदि।

काव्य में भावना की तीव्रता और उसके आधार पर पाठक अथवा श्रोता के हृदय को भेदने की अनिवार्यता है। इसके लिए अनुभूति की प्रबलता और अभिव्यक्ति की सुन्दरता आवश्यक होती है। आचार्य तुलसीकृत काव्य में इस दृष्टि से रसमयी कल्पना व समसामयिक यथार्थ का समन्वय दिखाई देता है। मुनि महेन्द्र कुमार प्रथमके शब्दों में- आचार्य प्रवर तुलसीकृत काव्य केवल कल्पना की लहरों पर नहीं तैरते; उनमें संस्कृति, सभ्यता व इतिहास का सुन्दर मिश्रण होता है। वे केवल पढ़े ही नहीं जाते, अपितु उनके आधार पर पाठक का जीवन स्वतः ही गढ़ता चला जाता है।5

सामीक्ष्य आलेख में आचार्य तुलसीकृत क्षीर-सागर सम भाव-सौंदर्य का अवलोकन कर उसमें अभिव्यक्त रसमयी शब्दावली का अवगाहन करना अभीष्ट रहा है, तथापि यह प्रयास अंश मात्र है। कतिपय दृश्य-विधान एवं उनमें प्रयुक्त रसात्मक शब्दावली आचार्य तुलसी के कवि व्यक्तित्व की एक झलक प्रस्तुत करने में सहायक सिद्ध होगी।

आचार्य तुलसीकृत काव्य की अनुभूति परक रचनात्मकता में संवेदनशीलता का व्यापक प्रभाव है, जिससे उनकी काव्य-चेतना का उत्स सतत प्रवाही रहता है, और आत्मीय संस्पर्श से पाठक भाव-विभोर हो जाता है। राजस्थानी मरुभूमि अपनी ग्रीष्मकालीन प्रचण्डता के लिए विख्यात है, वहीं सर्दी की रातें भी उतनी ही भयावह है। कवि स्वयं राजस्थानी है, अतः अपनी जन्मभूमि से प्यार करता है। शीत की भयंकरता में भी सौंदर्यमयी आभा की प्रस्तुति हेतु झीणी-झीणी’, ‘झांझर कै’, ‘जंगल’, ‘धोराँ-धोराँ’, ‘धोला-साजैसी मधुर राजस्थानी शब्दावली का आश्रय लेकर अपनी भावात्मकता प्रकट करता है-

झीणी-झीणी निशि ओस पडै़,

झांझर कै जम ज्यावै जंगल।

जंगल रा हाथ उज्लातां,

जाड़ै स्यूं बर्फ हुवै जम जल।

धोराँ-धोराँ धोला-सा,

चाँदी रा जाणै बंरग बिछै।

जम ज्याय जलाशय भी सतीर,

कित्ती सुन्दर तस्वीर खिंचै।6



कवि अपनी अनुभूति के सहारे सत्य की सर्जना करता है, उस सत्य में अपनत्व का आभास होने से वह लोक की विषय वस्तु बन जाती है, क्योंकि उस सत्य में सभी अपने व्यक्तित्व का आभास पाते हैं। आचार्य तुलसी के काव्य में हृदय की तरलता और उससे द्रवित जन्य उद्रेक का प्रस्फुटन इस तरह अभिव्यक्त हुआ है कि वे मानवीय करूणा का स्वर बन गए हैं। भगवान ऋषभदेव के मुनि बनने के पश्चात् माँ मुरादेवी उनकी स्मृतियों में खोई रहती हैं। मुरादेवी की व्यथा प्रत्येक मातृ-हृदय की व्यथा है। नयन गमाऊँ’, ‘रटन लगाऊँजैसी पीड़ादायक शब्दावली के साथ माँ की हृदयजन्य करूणा का स्वर अवलोकनीय है-

मैंने झूर-झूर कर अपना सारा अंग सुखाया,

पर उस निर्मोही ने आ, मुँह तक नहीं दिखाया,

सखियों! रो-रो मैं नयन गमाऊँ,

ऋषभे की रटन लगाऊँ,

देखो यह बदन हुआ कंकाल है।7



इसी तरह जब गर्भवती सीता को अयोध्या से निष्काषित कर वन में भेजा गया। उस भयानक स्थिति में सीता की मनःस्थिति, जिसकी कल्पना मात्र से पाठक या श्रोता का हृदय द्रवीभूत हो जाता है। जब वह पत्थरों की चोट खाकर गिर पड़ती है, तो दृश्य और भी कारुणिक हो जाता है। ऐसे दृश्य विधान हेतु कवि ने भय-भ्रांत-सी भामिनीजैसी आनुप्रासिक पदावली के साथ ओट’, ‘चोटआदि तुकांत से बिम्बमय दृश्य उपस्थित किया-

भय-भ्रांत-सी भामिनी, भरती है डग एक;

फिर रूक जाती सामने, वन्य जंतु को देख।

सघन विटप के वक्ष में, घुपती है ते ओट;

आहत हो गिरती कहीं, खा पत्थर की चोट।।8



आचार्य महावागणी की मृत्यु के समय मुनि कालू उनकी स्मृतियों में खोए हुए हैं। उनका हृदय रूपी तड़ाग करूणा व शोक से छलकता प्रतीत होता है। इस मार्मिक स्थिति का रेखांकन करने हेतु पलक-पलक’, ‘मुख वयणं’ ‘स्मरण-समीरण’, ‘छलक-छलक’, ‘हृदय-तड़ागजैसी माधुर्य गुण संपन्न ध्वन्यात्मक शब्दावली का इस तरह प्रयोग किया कि छलकता हुआ तड़ाग स्पष्टतः दिखाई देता है-

पलक-पलक प्रभु-मुख वयण, स्मरण समीरण लाग।

छलक-छलक छलकण लग्यो, कालू-हृदय तड़ाग।।9



काव्यानुभूति की व्यापकता पाठक या श्रोता पर पड़ने वाले प्रभाव पर आधारित होती है। इस कारण कवि सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभवों को भी काव्य के माध्यम से जन अनुभूति का विषय बना लेता है। राजस्थान में छप्पनिया अकालअपनी भयावहता के लिए जाना जाता है, जब लोगों की क्रयशक्ति समाप्त हो गई थी। खल गुड़’, ‘छायो छपने काल’, ‘ग्यारह सेर’, ‘मण रो चारो’, ‘गावो घी दो सेर कोजैसी आँचलिक शब्दावली के साथ नाजशब्द का ध्वनि लोप भी रस-वृष्टि करता है।

एक भाव खल गुड़ हुया, दोन्यूं ग्यारह सेर।

छायो छपने काल में, सुण्यों इस्यो अंधेर।।

नाज बिक्यो नो सेर को, मण रो चारो घास।

गावो घी दो सेर को, तो पिण भगदण मास।।10



तेरापंथ के मार्यादा-महोत्सव जैसे यथार्थ को ऋतुओं के रूप में परिकल्पना करना, फिर उसे भव्य रूप में प्रस्तुत करना कवि की काव्यात्मक निपुणता का परिचय है। प्रकृति का मानवीकरण करते हुए उमंग के क्षणों को गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम बताना, उनका गले मिलना आदि का वर्णन करते हुए उछल-उछल कर’, रूँ-रूँ हर्षाकुंर’ ‘नाचै मधुकर’, ‘पंथ रो-प्रहरीजैसी चाक्षुस बिम्बमय पदावलियों से रस उत्पन्न किया है-

गंगा, जमुना और सुरसती,

उछल-उछल कर गलै मिलै।

विरह, पताप, संताप भूलाकर,

रूँ-रूँ हर्षांकुर खिलै।।

गहरो रंग हृदय में राचै,

नाचै मधुकर जिधर निहारो।

तेरापंथ पंथ रो प्रहरी,

म्हा मोछब लागे प्यारो।।11



काव्य के अनुभावन से सहज रूप में प्रस्फुटित सहृदय की प्रतिक्रिया अनुभूति जन्य सहजता को जन्म देती है, फलतः कवि के विचार सामाजिक मान्यता को प्राप्त हो जाते हैं। माता का उपकार जन्म-जन्मांतर में भी नहीं चुकाया जा सकता। वह बालक के सुख-दुख, बीमारी, पीड़ा अथवा किसी भी परेशानी में स्वयं असहज होकर उसकी देखभाल करती है। कवि की मातुश्री वदनांजी के गुणों को व्यक्त करते हुए सामान्य रोगों के लिए सी-सरदी’, ‘सिरदर्द’, ‘बोदरी’, ‘माता’, ‘खुलखुलियों’, ‘खाँसी खलकावण’, आदि की आँचलिक शब्दों में अभिव्यक्ति कर स्वाभाविक अभिव्यंजना में रस उत्पन्न कर दिया है-

टाबरियाँ रै सी-सरदी, सिरदर्द, बोदरी, माता,

खुलखुलियो, खाँसी खलकावण, माता बणी विधाता।12



मेवाड़ के खान-पान में जौ, मक्का की बहुलता है। यहाँ उड़द की दाल’, ‘बाफले’, ‘भुजियाँ’, ‘झकोलवाँ पूड्या’, ‘जाझरियो’, ‘घी गल्या-ढोकलांआदि का खान-पान प्रचलित है। कवि ने अपनी अनुभूतिपरक सूक्ष्मता से मेवाड़ के भोज्य पदार्थों का स्वाद पाठकों के मुख में भर दिया है-

जौ मक्की रो ही खास-खाण, गेहूँ री भी अब कमी नहीं,

उड़दाँ री दाल-बाफलां री, बा जोड़ी किणनै गमी नहीं।

भुजिया झकोलवाँ-पूड्या रो, जाझरियो रो जद स्वाद जमै,

घी गल्या-ढोकलाँ मकियाँ रा, लख मुख रो पाणी नहीं थमै।।13



काव्य के विशाल कलेवर में घटना और दृश्यों की मार्मिकता पाठक को सरसता प्रदान करती है। इनकी सृष्टि द्वारा प्रभावपूर्ण रचना का निर्माण होता है और रागात्मक वृत्तियों का जन्म होता है। वृद्धावस्था की जर्जर अवस्था, कारूणिक स्थिति आदि संसार से विरक्ति प्रदान करते हैं। शांतरस की सृष्टि हेतु हीण’, ‘खीण’, ‘श्वास फूल ज्यावै’, ‘हाल्यां’, ‘बैरी बुढ़ापौआदि शब्दावली का आश्रय लिया और मुग्धकारी वर्णन किया-

इन्द्रियाँ, हीण, खीण तन-शक्ति, हाथ-पैर सब काँपै,

जी, चलता, श्वास फूल ज्यावै, हाल्याँ सो सीनो हाँपै।

बैरी बुढ़ापो जीतां नै लै मारी।।14



आचार्य तुलसी के काव्य में सरसता, उपयोगिता और संप्रेषणीयता का अनूठा संगम है। सरसता जहाँ पाठक के मन को बाँध लेती है, वहीं उपयोगिता उसे पठनीय बनाती है और संप्रेषणीयता से रूपान्तरण घटित होता है। साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी के शब्द हैं- आचार्य श्री तुलसी रचित काव्य में पद्यमय-संगीत, भाषा की पाँजलता, छंदों का वैविध्य, अलंकारों का स्वाभाविक चित्रण, शैली की प्रवाहमयता, बिम्ब और प्रतीकों का सौंदर्य तथा मुहावरों व लोकोक्तियों की छटा, कलेवर को मनोहारी रूप प्रदान करती प्रतीत होती है।15

सरस का व्यंग्यात्मक शैली, माधुर्यगुण सम्पन्न शब्दावली जिसमें कोमल वर्णों के प्रयोग से काव्य में मनोहर रूप की व्यंजना होती है। आचार्य माणकगणी के देहावसान पश्चात् विषम परिस्थिति में सर्व सम्मति से जब डालिमगणी को आचार्य रूप में चयनित कर लिया जाता है, जब चतुर्विधसंघ में उल्लास की लहर को हृदय-कुसुम’, ‘जीव-जड़ीजैसे रूपक तथा बासां उछल पड्योआदि मानवीकरण के माध्यम से रूपायित किया-

हृदय-कुसुम की कोमल कलियाँ,

खिल गई, मिल गई, जीव-जड़ी।

बासाँ उछल पड्यो दिल मानों,

मिल्यो स्वर्ग को राज।।16



भाषा के बारे में आचार्य तुलसी का अभिमत है- भाषा के मूल्य से भी अधिक महत्त्व उसमें निबद्ध ज्ञान-राशि का है, जो मानवीय विचारधारा में एक अभिनव चेतना और स्फूर्ति प्रदान करती है। भाषा अभिव्यक्ति का साधन है।17 राजस्थानी भाषा में मूर्धन्य वर्णों एवं द्वित्व वर्णों का प्रयोग कर कथन की भंगिमा को आकर्षक बनाने का परम्परावादी तरीका है, जिसे डिंगल-शैली कहा जाता है। तेरापंथ के धार्मिक उत्सव का सात्विकता का वर्णन करते हुए जिस शब्दावली का प्रयोग किया है, वह दर्शनीय है-

धार्मिक उत्सव छटा उचक्का,

नहिं आडम्बर ढोल-ढमक्का,

डिमडिम-नाद न दुंदुभि-ठक्का,

छक्कम-छक्का-हार्दिक भक्ति, विनय उपचार रे।18



ध्वनि की आवृत्ति द्वारा कविता में नाद सौंदर्य उत्पन्न किया जाता है। इससे काव्य में मधुरता व सरसता उत्पन्न होती है। और की आवृत्ति से युक्त पढ़ जिससे नाद उत्पन्न होकर रस स्रावित हो रहा है-

त्रिभुवन-धव, अभिनव-विभव,

अनुभव-भव आराम।

वासव-सेवित संभरूँ,

त्रिशला-संभव स्वाम।।19



चाक्षुष, श्रवण, स्पर्श के मिश्रित रूप की छटा कवि की अनुभूति को प्रकट कर रही है। साथ ही एक से अधिक इन्द्रियों को भी तृप्त कर रही है,पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

टिमटिमता तारा रू चाँदणी,

चाँदै री छिप ज्यावै।

भलभलाट करतो भानूड़ो,

आभै जग डग आवै।।20



आचार्य तुलसीकृत काव्य में प्रतीक किसी वस्तु, भाव या गुण विशेष के सूचक होते दृष्टिगोचर होते हैं। ये प्रतीक अर्थ प्रकट करते हुए भी संपूर्ण संदर्भ को प्रेरित करते प्रतीत होते हैं। उनके काव्य प्रतीकों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता सामान्यजन के लिए ग्राह्यता है। जन्म और मृत्यु को शाश्वत सत्य मानकर जीवन की स्थिति पानी के बुलबुले के समान बतायाI क्षणभंगुरता को स्पष्ट करते हुए प्रतीकात्मक शब्दावली यथा- जगत सपनै री माया’, ‘बाढ़ लिये री-सी छाया’, ‘पाणी रा बुलबुला’, ‘फूलै सो कुम्हलाय’, ‘मिलसी वो बिछुड़सीआदि का प्रयोग कर काव्य में रस की व्याप्ति की है-

जगत सपनै री माया रे, बाढ़लिये री-सी छाया रे।

ज्यूं पाणी रा बुलबुला, क्षण-क्षण, बण-बण बिललाय।

उगै सो ही आथमैं रे, फूलै सो कुम्हलाय।

जो मिलसी वो बिछुड़सी रे, ओ नियति रो न्याय।।21



रस के प्लावन में नाद का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। आचार्य तुलसी की प्रत्येक काव्य पंक्ति में इसकी छटा देखी जा सकती है। उन्होंने प्रमुख रूप से राजस्थानी लोकगीतों पर आधारित रागों यथा- कुसुम्भो, छल्लो, तेजो, पीपली, ओल्यूं, केवड़ो, बधावो, लावणी, मोमल, होक्को, सपनो, माढ़, गणगोर इत्यादि का प्रयोग किया। आचार्य प्रवर के गीतों में गेयता, भाव प्रवणता, रागात्मकता व प्रवाहमयता विद्यामान है, जिससे आत्मद्रव की अन्तर्धारा प्रवाहित हो रही है।

समग्रतः आचार्य तुलसीकृत काव्य अनुभूति, विचार, वर्णन और रस तत्त्व के आधार पर सम्यक् काव्य गरिमा का निर्वाह करता प्रतीत होता है। संपूर्ण काव्य में भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक और आध्यात्मिक वातावरण का साहित्यिक परिवेश में दृश्यांकन हुआ है, जो उनकी अनुभूति की तीव्रता, वर्णन कुशलता वैचारिक चिंतन की मौलिकता, प्रभाव की, जनव्यापकता और रसों की रसमयता से आप्लावित है।22 उदात्त दृष्टिकोण पर आधारित तुलसीकृत काव्य का एक एक शब्द रस की सृष्टि करता है, जिसमें निम्मंजित करना साक्षात्, सत्यं, शिवं, सुन्दरम् का अवगाहन है। उनका काव्य वैभव हिन्दी काव्य-संसार के वैभव को समृद्ध करता हुआ उसके कोश को भरने में अपना योगदान दे रहा है।

संदर्भ-

1.            वाक्यं रसात्मकं काव्यं- साहित्य दर्पण, 1/3

2.            नहिं रसाद्दते कश्चिदर्थ प्रवर्तते-नाट्यशास्त्र, अ.6

3.            उद्धृत, डॉ. राजेन्द्रप्रसाद श्रीवास्तव, काव्य-परिचय, पृ.18

4.            चिंतामणि, भाग-1, पृ.141

5.            भरत मुक्तिः एक अध्ययन’, पृ.137

6.            कालूयशो विलास, पृ.143

7.            भरत मुक्ति, पृ.25

8.            अग्नि परीक्षा, पृ.65

9.            कालूयशोविलास, पृ.18

10.         डालिम चरित्र, पृ.114

11.         कालूयशोविलास, पृ.279

12.         माँ वदना, पृ.72

13.         मगन-चरित्र, पृ.1

14.         मैं तिरूँ म्हारी नाव तिरै, पृ.12

15.         सम्पादकीय, मैं तिरूँ म्हारी नाव तिरै

16.         माणक-महिमा, पृ.68

17.         समणी, कुसुमप्रज्ञा, आचार्य तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण, पृ.56

18.         माणक-महिमा, पृ.37

19.         कालूयशोविलास, पृ.65

20.         सेवाभावी, पृ.117

21.         सोमरस, पृ.95
22.         डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी, आचार्य तुलसी की काव्य-साधना, पृ.159


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