नई सदी के हिंदी उपन्यासों में आदिवासी जीवन के अनुत्तरित प्रश्न


नई सदी के हिंदी उपन्यासों में आदिवासी जीवन के अनुत्तरित प्रश्न

(समवेत जनवरी-जून,2023 में प्रकाशित)

संविधान की पंचम अनुसूची में आदिवासी समुदाय को 'जनजातियाँ' शब्द से परिभाषित किया है। इन्हें वनवासी, आत्विका, गिरिजन, वन्यजाति या आदिमजाति भी कहा जाता है। इस वर्ग को जेकब्स तथा स्टर्न ने इस तरह परिभाषित किया है, “एक ऐसा ग्रामीण समुदाय या ग्रामीण समुदायों का ऐसा समूह जिसकी समान भूमि हो, समान भाषा हो, समान सांस्कृतिक विरासत हो और जिस समुदाय के व्यक्तियों का जीवन आर्थिक दृष्टि से एक दूसरे के साथ ओतप्रोत हो, जनजाति कहलाता है।“1 भारत में अनेक जनजातियाँ हैं, जिन्हें सात विभागों में चिह्नित किया जाता है- उत्तर, पूर्वोत्तर, पूर्वी, मध्य, पश्चिम, दक्षिण और द्विपीय क्षेत्र। आदिवासियों का अपना धर्म है, वे प्रकृति पूजक हैं। उनमें से कुछ लोगों ने हिंदू, ईसाई, बौद्ध एवं इस्लाम धर्म भी अपनाया है। भारत में प्रमुख रूप से भील, गोंड, संथाल, मीजी, असुर, न्यीशी, हो, गालो, मोमपा, तागीन, खामती, मेमबा, नाक्टे, कंजर, कबूतरा, आपातानी, मुंडा, सांसी, नट , मदारी, सँपेरे, दरवेशी, पासी, बोरी, समोड, कोल, पादाम, मिन्योंग, देववर्मा, रियाँग, नोवतिया, उचई, चाकमा, डोंबारी, कोली, पारधी, मीणा, आन्गे, गरसिया, सहरिया, लेपचा, थारू, उराँव, भवघूरा, बोंडा आदि जनजातियाँ आदिवास करती हैं, जिन्हें आदिवासी कहा जाता है। ऐसे अनेक आदिवासियों को केंद्र में रखकर भारतीय स्तर पर अनेक भाषाओं में साहित्य लिखा जा रहा है।

आदिवासी साहित्य की अवधारणा के सम्बन्ध में कुछ विद्वान आदिवासी विषय पर लिखा गया साहित्य इस श्रेणी में मानते हैं तो कुछ जन्मना और स्वानुभूति के आधार पर आदिवासियों द्वारा लिखे गए साहित्य को ही आदिवासी साहित्य मानते हैं। एक अवधारणा उन आदिवासी लेखकों की है, जो ‘आदिवासियत’ के तत्वों का निर्वाह करने वाले साहित्य को ही आदिवासी साहित्य के रूप में स्वीकार करते हैं। ऐसे लेखकों और साहित्यकारों के भारतीय आदिवासी समूह ने 14-15 जून 2014 को रांची में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार में इस अवधारणा को ठोस रूप में प्रस्तुत किया, जिसे ‘आदिवासी साहित्य का रांची घोषणा-पत्र’ के तौर पर जाना जा रहा है और अब वह आदिवासी साहित्य विमर्श का केन्द्रीय बिंदु बन गया है। इसके अनुसार, "आदिवासियों की आदिवासियत को न तो आप वर्गीकृत कर सकते हैं न ही किसी मानक से नाप सकते हैं, क्योंकि यह तो विरासत में मिला हुआ वह गुण है, जिसे कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता और न ही इसे कोई खारिज कर सकता है। किसी व्यक्ति की आदिवासियत को आप इस बात से भी नहीं तय कर सकते हैं कि उसमें आदिवासी खून कितना है।"2  हिन्दी की विविध विधाओं में आदिवासी जीवन को विषय बनाया गया है, उसमें उपन्यास विधा में अधिक गहराई दिखाई देती है। 
आदिवासी जीवन आधारित हिन्दी उपन्यासों का जब अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट होता है कि उपन्यासकारों ने उन पहलुओं को उजागर किया है, जिन पर अब तक किसी ने प्रकाश नहीं डाला था। हिंदी उपन्यासकार स्पष्ट करते हैं कि आजादी बाद भी इन्हें उपेक्षितों का जीवन जीना पड़ रहा है। उन्हें यहाँ की समाज व्यवस्था ने हाशिये पर रखकर आज भी आदिम रूप में जंगलों में रहने के लिए बाध्य किया है। यह एक सुखद संयोग है कि आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर भारतीय गणतन्त्र के सर्वोच्च पद पर आदिवासी प्रतिनिधित्त्व है, इससे यह प्रतीत होता है कि इस वर्ग की ओर अब लोगों का ध्यान गया है। यह सत्य है कि समाज की मुख्य धारा से विस्थापित आदिवासी समुदाय की आवाज को साहित्य ने पूर्ण तटस्थता से व्यक्त किया। 

नई सदी में जो उपन्यास आदिवासी जीवन पर केन्द्रित हैं, उनमें प्रमुख हैं- मंगल सिंह मुंडा कृत ‘छैला संदु’, प्रतिभा राय का ‘आदिभूमि’, विनोद कुमार रचित ‘समर शेष है’, श्रीप्रकाश मिश्र लिखित ‘जहाँ बांस फूलते हैं’, राजीव रंजन का ‘आमचो बस्तर’, रणेंद्र कृत ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ व ‘गायब होता देश’, हरीराम मीणा का ‘धूणी तपे तीर’, तेजिंदर गगन रचित ’काला पादरी’, भगवानदास मोरवाल का 'रेत', राकेश कुमार का ‘पठार पर कोहरा’, महुआ माझी का ‘मरंग घोड़ा नीलकंठ हुआ’ आदि महत्त्वपूर्ण हैं। इन उपन्यासों में आदिवासी जीवन के अनेक पहलुओं को उजागर किया है। निस्संदेह आदिवासी लेखन से आधुनिक सभ्य समाज के समक्ष ऐसे प्रश्न उपस्थित हुए हैं, जिनका उत्तर दिया जाना शेष है। 

आधुनिक सभ्यता की देन है- भूमंडलीकरण। रणेन्द्र का उपन्यास 'ग्लोबल गाँव के देवता' झारखंड के 'असुर' जनजातियों के शोषण, विस्थापन को उजागर करता है । आज वैश्वीकरण के इस युग में एक ओर हम विकास कर रहे हैं तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का अमर्यादित  उपयोग करके प्रकृति को दूषित कर रहे हैं । वहाँ के आदिवासियों, वनवासियों को उनके जंगलों से खदेड़ रहे हैं । इन्हीं अमानवीय बातों को रणेन्द्र ने इस उपन्यास में अभिव्यक्त किया है । ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ असुरों का वैश्विक परिप्रेक्ष्य पेश कर उसका इतिहास प्रस्तुत करता है, साथ ही साथ इस भूमण्डलीकरण के दौर में उनकी सांस्कृतिक पहचान के ऊपर हो रहे हमलों को भी उद्घाटित करता है। उपन्यास की एक पात्र ललिता के शब्दों में असुर संस्कृति को समझा जा सकता है, वह कहती है, “हमारे महादनिया महादेव वह नहीं हैं, लंगटा बाबा के है। हमारे महादेव यह पहाड़ है, जो हमें पालता है। हमारी सरना माई न केवल सखुआ गाछ में बल्कि सारी वनस्पतियों में समाई है। हम सारे जीवों से अपने गोत्र को जोड़ते है। छोटे जीवों, कीट-पतंगों को भी अपने से अलग नहीं समझते। हमारे यहाँ ‘अन्य’ की अवधारणा नही है जिस समाज के पास इतनी बड़ी सोच हो उसे किसी लंगटा बाबा या किसी और की शरण में जाने की जरूरत ही क्या है?‘‘3 इस उपन्यास में वैश्वीकरण, औद्योगीकरण के कारण आदिवासी आदिवासियों पर हो रहे अन्याय-अत्याचार को भी व्यक्त किया है। उपन्यासकार लिखते हैं कि आकाशचारी देवताओं को जब अपने आकाशमार्ग से या सेटेलाईट की आँखों से छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, झारखंड आदि राज्यों की खानिज सम्पदा, जंगल और अन्य संसाधन दिखते हैं तो उन्हें लगता है कि राष्ट्र-राज्य तो वे ही हैं, तो हक तो उनका ही हुआ । सो इन खनिजों पर, जंगलों में, घूमते हुए लँगोट पहने असुर-बिरिजिया, उराँव-मुंडा आदिवासी, दलित-सदान दिखते हैं तो उन्हें बहुत कोफन होती है। वे इन कीड़े-मकोड़ों से जल्द निजात पाना चाहते हैं।
 
औपनिविशिकता का दंश भारतीय समाज अच्छी तरह से जानता है, परन्तु आदिवासियों ने इसका जिस तरह से सामना किया है, वह एक दारुण यथार्थ है। तेजिन्दर का 'काला पादरी' मध्यप्रदेश की 'उराँव' जनजाति की समस्याओं को व्यक्त करने वाला उपन्यास है। उपन्यास में भूख मिटाने के लिए जहरीली वनस्पतियाँ, बूटियाँ और बिल्लियों का मांस खाने का वास्तव सामने रखा। प्रो. चमन लाल गुप्ता के समालोचनात्मक शब्द है, ''वास्तव में 'काला पादरी' उपन्यास में भारत के सर्वाधिक उत्पीड़ित व उपेक्षित आदिवासियों की जीवन स्थितियों के अनेक पहलुओं को लेखक ने समाजशास्त्रीय दृष्टि, किन्तु साथ ही लेखकीय संवेदना से इस ढंग से चित्रित किया है कि भारतीय समाज की जटिलता भी उभरकर सामने आती है और साथ ही आदिवासियों के जीवन की पीडा का मार्मिक अंकन भी लेखक की कलम से होता चलता है।''4 आदिवासी भूख, अभाव, दारिद्र्य, शोषण आदि से परेशान होकर ईसाई, हिन्दू, बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के कारकों की ओर भी संकेत करता है। आदिवासियों के भूख, अभाव और दारिद्र्य को व्यक्त करता हुआ वह लिखता है, ''साहब रात में बच्चा मर गया। उसकी माँ ने कई दिनों से कुछ खाया नहीं था। उसको गोद में लेकर उसकी माँ भी मर गयी। उसने भी कई दिनों से कुछ खाया नहीं था।'5' उपन्यासकार आदिवासियों का औपनिवेशिक व्यवस्था में फँसे होने का कारुणिक यथार्थ सामने रखता है। इसी तरह महुआ माझी का 'मरंगगोडा नीलकंठ हुआ' झारखंड के 'हो' आदिवासी जनजाति को केन्द्र में रखकर लिखा गया उपन्यास है । इस उपन्यास में मुख्यतः अणु-परमाणु, नाभिकीय ऊर्जा के आदिवासी जीवन पर हो रहे दुष्परिणामों की ओर ध्यान खींचा है। यह विवशता उत्तर मांगती है । 

सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार हमारे समय का सच है। आदिवासी जीवन तो वैसे भी नगरीय जीवन की कारगुजारियों से अनभिज्ञ है, ऐसी स्थिति में उसका शोषण सहज है, वह सामने भी नहीं आ पाता। ‘पठार पर कोहरा' झारखंड के 'मुंडा' आदिवासियों की करुण कथा है। राजीव गांधी की सरकारी योजनाओं के बारे में दस प्रतिशत वाली बात को उपन्यासकार आदिवासियों की योजनाओं में हो रहे भ्रष्टाचार के रूप में इस प्रकार व्यक्त करता है, ''आजादी के बाद आदिवासियों की कल्याण की सैंकड़ों योजनाएँ बनी हैं पर उनके क्रियान्वयन का क्या हुआ? आबंटित राशि का दस प्रतिशत भी देश के आदिवासियों तक नहीं पहुँच रहा है। कई योजनाएँ कागज पर चलती रहती हैं। कई योजनाएँ तो फाइलों की कब्र में ही दफन हो गयी... यदि अफसरशाही और राजनीति का यही तालमेल कायम रहा तो पता नहीं कितने समय तक आदिवासी समाज इसी तरह अपढ़, असंस्कृत, भूखा, नंगा, शोषित, उपेक्षित और लोकतंत्र के ज्ञान एवं विज्ञान से कटा रहेगा।''6 राकेशकुमार सिंह ने आजादी के बाद भी आदिवासियों के जीवन समस्याओं का कोहरा न हटने की बात उपन्यास में की है। उपन्यास में सरकारी योजनाओं के भ्रष्टाचार का भंडा-फोड़ किया है। यह त्रासद स्थिति कब सुधरेगी, विचारणीय है। 

प्रतिभा राय का 'आदिभूमि' यह उपन्यास उडीसा के आदिवासी 'बोंडा' जनजाति पर लिखा गया है। यह उपन्यास बोंडा के जीवन-व्यवहार, हिंसा, प्रतिहिंसा, प्रतिरोध, सरलता, लोकरूढि, लोकविश्वास, स्त्री-पुरुष संबंध, स्त्री-शोषण आदि को सशक्त रूप में उजागर करता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी इनके शोषण का सिलसिला जारी होने के सत्य को प्रतिभा राय उजागर करती हैं। इस उपन्यास में सरकारी योजनाओं- इंदिरा आवास योजना, साक्षरता आदि की धोखाधडी, झूठ-फरेब, भ्रष्टाचार, स्त्रियों का यौन शोषण आदि को प्रकट किया है। उपन्यास में शिक्षा के प्रति आदिवासियों की रूचि बढ़े इसलिए मास्टर सीतानाथ के माध्यम से उपन्यासकार अपनी बात रखती हैं। आदिवासी इलाकों में समाज सुधार करना आसान नहीं है, क्योंकि कई लोगों के स्वार्थ वहाँ पर अटके हुए होते हैं । उनमें प्रशासक बी. डी. ओ., पुलिस, राजनेता, एम. एल. ए. जैसों का समावेश होने की बात उपन्यासकार करती हैं। आलोचक कृष्णचंद्र गुप्त लिखते हैं, “उपन्यास का सीतानाथ अपनी निष्ठा के बल पर इस जंगली झुंड को 'आदमी' बनाने पर तुला हुआ है।''7 किंतु अवसरवादी उनका तबादला दूसरी जगह कर देते हैं । इस प्रकार आदिवासी जीवन समस्याओं के साथ-साथ प्रकृति की सम्पन्नता को भी उपन्यासकार प्रतिभा राय उजागर करती हैं।

इसमें आदिवासी इतिहास के प्रति उपेक्षा ने कई पहलुओं को प्रकट नहीं होने दिया, जिससे सांस्कृतिक तत्त्वों का सम्यक विश्लेषण अधूरा ही रहा। रणेंद्र का दूसरा उपन्यास है- ‘गायब होता देश’ इसमें मुंडा आदिवासी समुदाय के शोषण को रेखांकित किया गया है। इसके साथ ही लेखक ने मुंडाओं की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक विवरण को भी भावपूर्ण तरीके से उकेरा है।उपन्यास के प्रमुख पात्र सोमेश्वर के माध्यम से लेखक का कथन है- “लेकिन इतना तो तय है किलेमुरिया समुद्र में प्रकट हुआ, पुनः समुद्र में डूब गया, लेकिन नए युग के उदय के साथ वह पुनः प्रकट होगा।“8 इसमें बताया गया है कि मुण्डाओं को अपने देश से कितना प्यार है, यह उनके शब्दों में ‘सोने जैसा देश’ से प्रकट हो जाता है और वही सोने जैसा देश गायब होता जा रहा है जिसका दर्द सोमेश्वर कि शब्दों से उभरती मर्मान्तक चीज को सुनकर जाना जा सकता है ‘‘थोड़ी देर के लिए सोचिए बच्चू! अगर लुटियन दिल्ली के नीचे कोयला निकल आये, इलाहाबाद सिविल लाइन्स के नीचे बाक्साइट, यूरेनियम चण्डीगढ के नीचे आयरन, लखनऊ, चेन्नई, बेंगलुरू के नीचे तो क्या उजाडेगा लोग उसे? होगा वहाँ विस्थापन? नहीं, कभी नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा, क्योंकि वहाँ रहने वाले एलीट सम्माननीय नागरिक हैं। भारत माता के अपने खास बेटे। फिर हम क्या हैं? केवल लाभुक, कोई टार्जेट ग्रुप या फिर किसी शोध के लिए एक ठोस केसर। क्या हैं हम? क्या मुआवजा के रजिस्टर के बस एक नम्बर, या कि कल्याण विभाग के फाइल की फटी हुई झोली, फादर हाफमैन, वरियर एल्विन जैसो की किताबों की ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीरें। क्या हैं हम? सच बात है कि उनकी नजर में हम हैं ही नहीं। फिर यह हमारी साँस लेती हुई जिन्दगी क्या है? क्या हम आपके सौतेले बेटे हैं भारतमाता।’’9 आदिवासियों का विस्थापन और उसके साथ मिट्टीकी गंध को कौन लील रहा है, सोचना होगा। 

आदिवासी स्त्री की करुण गाथाएँ भी इन उपन्यासों में प्रकट हुई है, जब पुलिस, प्रशासन आदि भी उनके साथ अत्याचार करते हैं। भगवानदास मोरवाल का 'रेत' उपन्यास हरियाना के 'कंजर' जनजाति के सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं को प्रस्तुत करता है। 'कंजर' अर्थात् काननचर याने जंगल में घूमनेवाले। प्रस्तुत उपन्यास एक ओर आदिवासी विमर्श की कृति है, तो दूसरी ओर आदिवासी स्त्री विमर्श की भी कृति है। सामान्य तौर पर कंजरों को (जरायमपेशा) चोरी करनेवाली जनजाति समझा जाता है। अंग्रेज सरकार ने इन पर कई बंधन डाल दिये थे जिसे उपन्यासकार ने थानेदार केसर सिंह के माध्यम से कहलवाया है। केसर सिंह कबीले के मुखिया से कहता है, ''यही कि बिना इजाजत या इत्तिला दिए कोई कंजर गाँव छोड़कर नहीं जा सकता ...और जाता है तो मुखिया को इसकी जानकारी होनी चाहिए, जिसकी इत्तिला मुखिया को थाने में देनी होती है।''10इनकी महिलाओं को भी थाने जाकर हाजरी देनी पड़ती है। घर के पुरूष जेल में या बाहर होने के कारण इन्हें मजबूरी वश वेश्या-व्यवसाय करना पड़ता है। इन्हीं बातों को उपन्यासकार ने बडी स्पष्टता से उपन्यास में रखा है। नई सदी में भी में भी इन दृश्यों की उपस्थिति विचलित करती है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि आदिवासी लेखन में उपन्यासकारों ने कुछ ऐसे चित्र उपस्थित किए हैं जो सभी समाज के विपरीत है । जब कभी मानव सभ्यता चाँद को छूने के लिए ब्रम्हांड को चीरती है तब ये चित्र मानव को आदिम युग में ले जाते है, जो शर्मनाक है। मनुष्यता के कलंक से विमुक्ति का प्रयास आदिवासी जीवन के प्रति एकात्म भाव से ही संभव है, अन्यथा विकास की गति केवल छलावा है। हिन्दी उपन्यास परम्परा का अवदान इस दृष्टि से स्तुत्य है।

सन्दर्भ-
1.डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा, भारतीय आदिवासी, जय भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2010, पृष्ठ 88)
2.वेब पेज https://hi.wikipedia.org/wiki
3.रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सं. 2014, पृष्ठ 72
4.प्रो. चमनलाल, दलित साहित्य: एक मूल्यांकन, राजपाल एंड संस, सं. 2012 पृष्ठ 166
5.तेजिन्दर, काला पादरी, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, सं. 2004, पृष्ठ 21
6.राकेशकुमार सिंह, पठार पर कोहरा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सं. 2003,पृष्ठ 137
7.कृष्णचंद्र गुप्त - 'बोंडा जाति का औपन्यासिक समाजशास्त्र', हंस, फरवरी, 2002, पृष्ठ 88
8.रणेंद्र, गायब होता देश, पेग्विन इंडिया, नई दिल्ली, सं. 2014, पृष्ठ 131
9.रणेंद्र, गायब होता देश, पेग्विन इंडिया, नई दिल्ली ,सं. 2014, पृष्ठ 263
 10.भगवानदास मोरवाल, रेत, राजकमल प्रकाशन, सं. 2009, पृष्ठ 51


आचार्य तुलसी के काव्य में रसात्मक शब्दावली


आचार्य तुलसी के काव्य में रसात्मक शब्दावली
तुलसी प्रज्ञा, अंक जुलाई-सितम्बर,२०२२ में प्रकाशित)
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आचार्य तुलसी

भारतीय जीवन दर्शन रसवाद की आधारशिला पर प्रतिष्ठित है। रस को काव्य का अनिवार्य तत्त्व मानते हुए आचार्य विश्वनाथ ने रसमय वाक्य को ही काव्य कहा है।1  काव्य में रस की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए आचार्य भरत मुनि ने यहाँ तक कहा कि कोई भी काव्य रसहीन नहीं होना चाहिए।2 आधुनिक काल में भी रस को कविता का प्राण माना गया है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार- रस ही कविता का प्राण है और जो यथार्थ कवि है उसकी कविता में रस अवश्य होता है।3 आचार्य शुक्ल ने तो हृदय की मुक्तावस्था को ही रस दशा माना है।4 इस प्रकार रस काव्य का अनिवार्य तत्त्व के रूप में प्रमाणित है। रस के ही कारण एक ओर तो भावाभिव्यक्ति में कोमलता तथा सरलता रहती है तो दूसरी ओर हृदय को आकृष्ट करने की प्रबल शक्ति होती है।

आचार्य तुलसी इस दृष्टि से सृजन के साक्षात बिम्ब थे। उनका काव्य प्रतिभा, निपुणता और अभ्यास के धरातल पर विलक्षण है, जिसमें हृदय मुक्त होकर रसदशा को प्राप्त होता है। आचार्य तुलसी की काव्य-कृतियाँ इस दृष्टि से आकृष्ट करती हैं। प्रमुख काव्य-कृतियों के अंतर्गत कालूयशो-विलास, डालिम चरित्र, मगन चरित्र, माणक-महिमा, माँ वदना, सेवाभावी आदि चरित काव्य हैं तो अग्नि परीक्षा, भरत-मुनि प्रसिद्ध पौराणिक काव्य हैं। इसके अतिरिक्त तेरापंथ-प्रबोध, नंदन-निकुंज, शासन-सुषमा, श्रावण-संबोध, संबोध, सोमरस जैसी कृतियाँ नीति काव्य की श्रेणी में आती है तो चंदन की चुटकी भली, मैं तिरूँ म्हारी नाव तिरै आदि कृतियों जैन आख्यानों की काव्यमय प्रस्तुति है।

इन कृतियों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि उनका कृतित्व रस से भरे हुए शब्दों का सागर प्रतीत होता है। उनके काव्य में कई तत्त्व इस रूप में प्रस्फुटित हुए हैं, जिससे रचनागत रसमयता उच्चतम स्तर पर पहुँच गई है। इन तत्त्वों में प्रमुख हैं- अनुभूति की भावमयी अभिव्यंजना, भाव और कल्पना का संतुलित मिश्रण, विषय और विचार में तादात्म्य, वक्तव्य को हृदयंगम कराने हेतु विविध रूपकों, कथाओं के साथ-साथ आँचलिक राजस्थानी शब्दावली की बिम्बमय प्रस्तुति, राग-रागिनियों का समावेश तथा मुहावरों व कहावतों का प्रयोग आदि।

काव्य में भावना की तीव्रता और उसके आधार पर पाठक अथवा श्रोता के हृदय को भेदने की अनिवार्यता है। इसके लिए अनुभूति की प्रबलता और अभिव्यक्ति की सुन्दरता आवश्यक होती है। आचार्य तुलसीकृत काव्य में इस दृष्टि से रसमयी कल्पना व समसामयिक यथार्थ का समन्वय दिखाई देता है। मुनि महेन्द्र कुमार प्रथमके शब्दों में- आचार्य प्रवर तुलसीकृत काव्य केवल कल्पना की लहरों पर नहीं तैरते; उनमें संस्कृति, सभ्यता व इतिहास का सुन्दर मिश्रण होता है। वे केवल पढ़े ही नहीं जाते, अपितु उनके आधार पर पाठक का जीवन स्वतः ही गढ़ता चला जाता है।5

सामीक्ष्य आलेख में आचार्य तुलसीकृत क्षीर-सागर सम भाव-सौंदर्य का अवलोकन कर उसमें अभिव्यक्त रसमयी शब्दावली का अवगाहन करना अभीष्ट रहा है, तथापि यह प्रयास अंश मात्र है। कतिपय दृश्य-विधान एवं उनमें प्रयुक्त रसात्मक शब्दावली आचार्य तुलसी के कवि व्यक्तित्व की एक झलक प्रस्तुत करने में सहायक सिद्ध होगी।

आचार्य तुलसीकृत काव्य की अनुभूति परक रचनात्मकता में संवेदनशीलता का व्यापक प्रभाव है, जिससे उनकी काव्य-चेतना का उत्स सतत प्रवाही रहता है, और आत्मीय संस्पर्श से पाठक भाव-विभोर हो जाता है। राजस्थानी मरुभूमि अपनी ग्रीष्मकालीन प्रचण्डता के लिए विख्यात है, वहीं सर्दी की रातें भी उतनी ही भयावह है। कवि स्वयं राजस्थानी है, अतः अपनी जन्मभूमि से प्यार करता है। शीत की भयंकरता में भी सौंदर्यमयी आभा की प्रस्तुति हेतु झीणी-झीणी’, ‘झांझर कै’, ‘जंगल’, ‘धोराँ-धोराँ’, ‘धोला-साजैसी मधुर राजस्थानी शब्दावली का आश्रय लेकर अपनी भावात्मकता प्रकट करता है-

झीणी-झीणी निशि ओस पडै़,

झांझर कै जम ज्यावै जंगल।

जंगल रा हाथ उज्लातां,

जाड़ै स्यूं बर्फ हुवै जम जल।

धोराँ-धोराँ धोला-सा,

चाँदी रा जाणै बंरग बिछै।

जम ज्याय जलाशय भी सतीर,

कित्ती सुन्दर तस्वीर खिंचै।6



कवि अपनी अनुभूति के सहारे सत्य की सर्जना करता है, उस सत्य में अपनत्व का आभास होने से वह लोक की विषय वस्तु बन जाती है, क्योंकि उस सत्य में सभी अपने व्यक्तित्व का आभास पाते हैं। आचार्य तुलसी के काव्य में हृदय की तरलता और उससे द्रवित जन्य उद्रेक का प्रस्फुटन इस तरह अभिव्यक्त हुआ है कि वे मानवीय करूणा का स्वर बन गए हैं। भगवान ऋषभदेव के मुनि बनने के पश्चात् माँ मुरादेवी उनकी स्मृतियों में खोई रहती हैं। मुरादेवी की व्यथा प्रत्येक मातृ-हृदय की व्यथा है। नयन गमाऊँ’, ‘रटन लगाऊँजैसी पीड़ादायक शब्दावली के साथ माँ की हृदयजन्य करूणा का स्वर अवलोकनीय है-

मैंने झूर-झूर कर अपना सारा अंग सुखाया,

पर उस निर्मोही ने आ, मुँह तक नहीं दिखाया,

सखियों! रो-रो मैं नयन गमाऊँ,

ऋषभे की रटन लगाऊँ,

देखो यह बदन हुआ कंकाल है।7



इसी तरह जब गर्भवती सीता को अयोध्या से निष्काषित कर वन में भेजा गया। उस भयानक स्थिति में सीता की मनःस्थिति, जिसकी कल्पना मात्र से पाठक या श्रोता का हृदय द्रवीभूत हो जाता है। जब वह पत्थरों की चोट खाकर गिर पड़ती है, तो दृश्य और भी कारुणिक हो जाता है। ऐसे दृश्य विधान हेतु कवि ने भय-भ्रांत-सी भामिनीजैसी आनुप्रासिक पदावली के साथ ओट’, ‘चोटआदि तुकांत से बिम्बमय दृश्य उपस्थित किया-

भय-भ्रांत-सी भामिनी, भरती है डग एक;

फिर रूक जाती सामने, वन्य जंतु को देख।

सघन विटप के वक्ष में, घुपती है ते ओट;

आहत हो गिरती कहीं, खा पत्थर की चोट।।8



आचार्य महावागणी की मृत्यु के समय मुनि कालू उनकी स्मृतियों में खोए हुए हैं। उनका हृदय रूपी तड़ाग करूणा व शोक से छलकता प्रतीत होता है। इस मार्मिक स्थिति का रेखांकन करने हेतु पलक-पलक’, ‘मुख वयणं’ ‘स्मरण-समीरण’, ‘छलक-छलक’, ‘हृदय-तड़ागजैसी माधुर्य गुण संपन्न ध्वन्यात्मक शब्दावली का इस तरह प्रयोग किया कि छलकता हुआ तड़ाग स्पष्टतः दिखाई देता है-

पलक-पलक प्रभु-मुख वयण, स्मरण समीरण लाग।

छलक-छलक छलकण लग्यो, कालू-हृदय तड़ाग।।9



काव्यानुभूति की व्यापकता पाठक या श्रोता पर पड़ने वाले प्रभाव पर आधारित होती है। इस कारण कवि सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभवों को भी काव्य के माध्यम से जन अनुभूति का विषय बना लेता है। राजस्थान में छप्पनिया अकालअपनी भयावहता के लिए जाना जाता है, जब लोगों की क्रयशक्ति समाप्त हो गई थी। खल गुड़’, ‘छायो छपने काल’, ‘ग्यारह सेर’, ‘मण रो चारो’, ‘गावो घी दो सेर कोजैसी आँचलिक शब्दावली के साथ नाजशब्द का ध्वनि लोप भी रस-वृष्टि करता है।

एक भाव खल गुड़ हुया, दोन्यूं ग्यारह सेर।

छायो छपने काल में, सुण्यों इस्यो अंधेर।।

नाज बिक्यो नो सेर को, मण रो चारो घास।

गावो घी दो सेर को, तो पिण भगदण मास।।10



तेरापंथ के मार्यादा-महोत्सव जैसे यथार्थ को ऋतुओं के रूप में परिकल्पना करना, फिर उसे भव्य रूप में प्रस्तुत करना कवि की काव्यात्मक निपुणता का परिचय है। प्रकृति का मानवीकरण करते हुए उमंग के क्षणों को गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम बताना, उनका गले मिलना आदि का वर्णन करते हुए उछल-उछल कर’, रूँ-रूँ हर्षाकुंर’ ‘नाचै मधुकर’, ‘पंथ रो-प्रहरीजैसी चाक्षुस बिम्बमय पदावलियों से रस उत्पन्न किया है-

गंगा, जमुना और सुरसती,

उछल-उछल कर गलै मिलै।

विरह, पताप, संताप भूलाकर,

रूँ-रूँ हर्षांकुर खिलै।।

गहरो रंग हृदय में राचै,

नाचै मधुकर जिधर निहारो।

तेरापंथ पंथ रो प्रहरी,

म्हा मोछब लागे प्यारो।।11



काव्य के अनुभावन से सहज रूप में प्रस्फुटित सहृदय की प्रतिक्रिया अनुभूति जन्य सहजता को जन्म देती है, फलतः कवि के विचार सामाजिक मान्यता को प्राप्त हो जाते हैं। माता का उपकार जन्म-जन्मांतर में भी नहीं चुकाया जा सकता। वह बालक के सुख-दुख, बीमारी, पीड़ा अथवा किसी भी परेशानी में स्वयं असहज होकर उसकी देखभाल करती है। कवि की मातुश्री वदनांजी के गुणों को व्यक्त करते हुए सामान्य रोगों के लिए सी-सरदी’, ‘सिरदर्द’, ‘बोदरी’, ‘माता’, ‘खुलखुलियों’, ‘खाँसी खलकावण’, आदि की आँचलिक शब्दों में अभिव्यक्ति कर स्वाभाविक अभिव्यंजना में रस उत्पन्न कर दिया है-

टाबरियाँ रै सी-सरदी, सिरदर्द, बोदरी, माता,

खुलखुलियो, खाँसी खलकावण, माता बणी विधाता।12



मेवाड़ के खान-पान में जौ, मक्का की बहुलता है। यहाँ उड़द की दाल’, ‘बाफले’, ‘भुजियाँ’, ‘झकोलवाँ पूड्या’, ‘जाझरियो’, ‘घी गल्या-ढोकलांआदि का खान-पान प्रचलित है। कवि ने अपनी अनुभूतिपरक सूक्ष्मता से मेवाड़ के भोज्य पदार्थों का स्वाद पाठकों के मुख में भर दिया है-

जौ मक्की रो ही खास-खाण, गेहूँ री भी अब कमी नहीं,

उड़दाँ री दाल-बाफलां री, बा जोड़ी किणनै गमी नहीं।

भुजिया झकोलवाँ-पूड्या रो, जाझरियो रो जद स्वाद जमै,

घी गल्या-ढोकलाँ मकियाँ रा, लख मुख रो पाणी नहीं थमै।।13



काव्य के विशाल कलेवर में घटना और दृश्यों की मार्मिकता पाठक को सरसता प्रदान करती है। इनकी सृष्टि द्वारा प्रभावपूर्ण रचना का निर्माण होता है और रागात्मक वृत्तियों का जन्म होता है। वृद्धावस्था की जर्जर अवस्था, कारूणिक स्थिति आदि संसार से विरक्ति प्रदान करते हैं। शांतरस की सृष्टि हेतु हीण’, ‘खीण’, ‘श्वास फूल ज्यावै’, ‘हाल्यां’, ‘बैरी बुढ़ापौआदि शब्दावली का आश्रय लिया और मुग्धकारी वर्णन किया-

इन्द्रियाँ, हीण, खीण तन-शक्ति, हाथ-पैर सब काँपै,

जी, चलता, श्वास फूल ज्यावै, हाल्याँ सो सीनो हाँपै।

बैरी बुढ़ापो जीतां नै लै मारी।।14



आचार्य तुलसी के काव्य में सरसता, उपयोगिता और संप्रेषणीयता का अनूठा संगम है। सरसता जहाँ पाठक के मन को बाँध लेती है, वहीं उपयोगिता उसे पठनीय बनाती है और संप्रेषणीयता से रूपान्तरण घटित होता है। साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी के शब्द हैं- आचार्य श्री तुलसी रचित काव्य में पद्यमय-संगीत, भाषा की पाँजलता, छंदों का वैविध्य, अलंकारों का स्वाभाविक चित्रण, शैली की प्रवाहमयता, बिम्ब और प्रतीकों का सौंदर्य तथा मुहावरों व लोकोक्तियों की छटा, कलेवर को मनोहारी रूप प्रदान करती प्रतीत होती है।15

सरस का व्यंग्यात्मक शैली, माधुर्यगुण सम्पन्न शब्दावली जिसमें कोमल वर्णों के प्रयोग से काव्य में मनोहर रूप की व्यंजना होती है। आचार्य माणकगणी के देहावसान पश्चात् विषम परिस्थिति में सर्व सम्मति से जब डालिमगणी को आचार्य रूप में चयनित कर लिया जाता है, जब चतुर्विधसंघ में उल्लास की लहर को हृदय-कुसुम’, ‘जीव-जड़ीजैसे रूपक तथा बासां उछल पड्योआदि मानवीकरण के माध्यम से रूपायित किया-

हृदय-कुसुम की कोमल कलियाँ,

खिल गई, मिल गई, जीव-जड़ी।

बासाँ उछल पड्यो दिल मानों,

मिल्यो स्वर्ग को राज।।16



भाषा के बारे में आचार्य तुलसी का अभिमत है- भाषा के मूल्य से भी अधिक महत्त्व उसमें निबद्ध ज्ञान-राशि का है, जो मानवीय विचारधारा में एक अभिनव चेतना और स्फूर्ति प्रदान करती है। भाषा अभिव्यक्ति का साधन है।17 राजस्थानी भाषा में मूर्धन्य वर्णों एवं द्वित्व वर्णों का प्रयोग कर कथन की भंगिमा को आकर्षक बनाने का परम्परावादी तरीका है, जिसे डिंगल-शैली कहा जाता है। तेरापंथ के धार्मिक उत्सव का सात्विकता का वर्णन करते हुए जिस शब्दावली का प्रयोग किया है, वह दर्शनीय है-

धार्मिक उत्सव छटा उचक्का,

नहिं आडम्बर ढोल-ढमक्का,

डिमडिम-नाद न दुंदुभि-ठक्का,

छक्कम-छक्का-हार्दिक भक्ति, विनय उपचार रे।18



ध्वनि की आवृत्ति द्वारा कविता में नाद सौंदर्य उत्पन्न किया जाता है। इससे काव्य में मधुरता व सरसता उत्पन्न होती है। और की आवृत्ति से युक्त पढ़ जिससे नाद उत्पन्न होकर रस स्रावित हो रहा है-

त्रिभुवन-धव, अभिनव-विभव,

अनुभव-भव आराम।

वासव-सेवित संभरूँ,

त्रिशला-संभव स्वाम।।19



चाक्षुष, श्रवण, स्पर्श के मिश्रित रूप की छटा कवि की अनुभूति को प्रकट कर रही है। साथ ही एक से अधिक इन्द्रियों को भी तृप्त कर रही है,पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

टिमटिमता तारा रू चाँदणी,

चाँदै री छिप ज्यावै।

भलभलाट करतो भानूड़ो,

आभै जग डग आवै।।20



आचार्य तुलसीकृत काव्य में प्रतीक किसी वस्तु, भाव या गुण विशेष के सूचक होते दृष्टिगोचर होते हैं। ये प्रतीक अर्थ प्रकट करते हुए भी संपूर्ण संदर्भ को प्रेरित करते प्रतीत होते हैं। उनके काव्य प्रतीकों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता सामान्यजन के लिए ग्राह्यता है। जन्म और मृत्यु को शाश्वत सत्य मानकर जीवन की स्थिति पानी के बुलबुले के समान बतायाI क्षणभंगुरता को स्पष्ट करते हुए प्रतीकात्मक शब्दावली यथा- जगत सपनै री माया’, ‘बाढ़ लिये री-सी छाया’, ‘पाणी रा बुलबुला’, ‘फूलै सो कुम्हलाय’, ‘मिलसी वो बिछुड़सीआदि का प्रयोग कर काव्य में रस की व्याप्ति की है-

जगत सपनै री माया रे, बाढ़लिये री-सी छाया रे।

ज्यूं पाणी रा बुलबुला, क्षण-क्षण, बण-बण बिललाय।

उगै सो ही आथमैं रे, फूलै सो कुम्हलाय।

जो मिलसी वो बिछुड़सी रे, ओ नियति रो न्याय।।21



रस के प्लावन में नाद का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। आचार्य तुलसी की प्रत्येक काव्य पंक्ति में इसकी छटा देखी जा सकती है। उन्होंने प्रमुख रूप से राजस्थानी लोकगीतों पर आधारित रागों यथा- कुसुम्भो, छल्लो, तेजो, पीपली, ओल्यूं, केवड़ो, बधावो, लावणी, मोमल, होक्को, सपनो, माढ़, गणगोर इत्यादि का प्रयोग किया। आचार्य प्रवर के गीतों में गेयता, भाव प्रवणता, रागात्मकता व प्रवाहमयता विद्यामान है, जिससे आत्मद्रव की अन्तर्धारा प्रवाहित हो रही है।

समग्रतः आचार्य तुलसीकृत काव्य अनुभूति, विचार, वर्णन और रस तत्त्व के आधार पर सम्यक् काव्य गरिमा का निर्वाह करता प्रतीत होता है। संपूर्ण काव्य में भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक और आध्यात्मिक वातावरण का साहित्यिक परिवेश में दृश्यांकन हुआ है, जो उनकी अनुभूति की तीव्रता, वर्णन कुशलता वैचारिक चिंतन की मौलिकता, प्रभाव की, जनव्यापकता और रसों की रसमयता से आप्लावित है।22 उदात्त दृष्टिकोण पर आधारित तुलसीकृत काव्य का एक एक शब्द रस की सृष्टि करता है, जिसमें निम्मंजित करना साक्षात्, सत्यं, शिवं, सुन्दरम् का अवगाहन है। उनका काव्य वैभव हिन्दी काव्य-संसार के वैभव को समृद्ध करता हुआ उसके कोश को भरने में अपना योगदान दे रहा है।

संदर्भ-

1.            वाक्यं रसात्मकं काव्यं- साहित्य दर्पण, 1/3

2.            नहिं रसाद्दते कश्चिदर्थ प्रवर्तते-नाट्यशास्त्र, अ.6

3.            उद्धृत, डॉ. राजेन्द्रप्रसाद श्रीवास्तव, काव्य-परिचय, पृ.18

4.            चिंतामणि, भाग-1, पृ.141

5.            भरत मुक्तिः एक अध्ययन’, पृ.137

6.            कालूयशो विलास, पृ.143

7.            भरत मुक्ति, पृ.25

8.            अग्नि परीक्षा, पृ.65

9.            कालूयशोविलास, पृ.18

10.         डालिम चरित्र, पृ.114

11.         कालूयशोविलास, पृ.279

12.         माँ वदना, पृ.72

13.         मगन-चरित्र, पृ.1

14.         मैं तिरूँ म्हारी नाव तिरै, पृ.12

15.         सम्पादकीय, मैं तिरूँ म्हारी नाव तिरै

16.         माणक-महिमा, पृ.68

17.         समणी, कुसुमप्रज्ञा, आचार्य तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण, पृ.56

18.         माणक-महिमा, पृ.37

19.         कालूयशोविलास, पृ.65

20.         सेवाभावी, पृ.117

21.         सोमरस, पृ.95
22.         डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी, आचार्य तुलसी की काव्य-साधना, पृ.159


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