कवि कुशललाभ रा काव्य मॉय रसराज सिणगार
(जागती जोत पत्रिका के जून,2022 अंक में)
राजस्थानी भासा की आन-बान अर शान री वरधापना में सोलहवीं शती रा कवि कुशललाभ रो नाम घणो मान स्यूं लियो जावै। वे जैन धरम रा प्रकाण्ड अध्येता रे सागै भावभीनां रचनाकार रे रूप में भी ख्यात हुया है। अपणी सिरजण री प्रतिभा सूँ राजस्थानी ने जो मान कुशललाभ दियो, वो आज भी अचंभित करै। कविवर कुशललाभ ने माधवानल कामकंदला चौपई, ढोला मारवणी चौपई, तेजसार रास, अगड़दत्त रास, महामाई दुर्गा सातसी, स्थूलिभद्र सातसी, पिंगल शिरोमणि सहित अठारह ग्रंथांवां रो सिरजण अर संपादन करयो। इण रचनावां रो लेखण संवत् 1616 सूं 1648 तक कुल बत्तीस बरस में प्रमाणित हुयो है।
कवि कुशललाभ रो साहित्य दो भागां में बांट्यो जा सके है- पहलो अध्यात्म अर दूसरो प्रेम। अध्यात्म री रचनावां मॉय जैन धरम री मान्यतावां अर जिनवाणी रा विचार प्रकट हुया है, जिणरी परिणति शांत रस में डूबी है। प्रेमपरक आख्यानां रा सिरजण में कवि री अनुभूति सरस रूप स्यूं प्रकटी है, जिण रसराज सिणगार री भरपूर धारा बही है। सिणसार रा संयोग अर वियोग दोन्यूं पक्षांवां ने अनुभूति री तरलता, सघनता अर भाव-प्रवणता स्यूं रचनावां री गरिमा ने बढायी है।
संयोग पक्ष रो वर्णन काम कंदला अर माधव, मालवणी अर ढोला, मारवणी अर ढोला, मारवणी, मालवणी अर ढोला, तेजसार अर उणरी आठ रानियाँ, मदन मंजरी अर भीमसेन, रूपमती अर राजहंस आदि मॉय मिलै है। ढोला रे पूगल पहुँचता ही मारवणी रे सुपनां में प्रियतम रे आणै री आहट मिलै, इणस्यूं, मारू रै मन मॉय प्रिय स्यूं मिलन री भावना जाग जावै। कवि कुशललाभ संयोग री इण वेला ने इण शब्दां में प्रकट करियो-
घर नीगुल दीवउ सजल, छाजइ पुणग न माइ।
मारू सूती नींद भरि, साल्ह जगाई आइ ।।
सारसि सद्दारेह, भूषउ मांस पत्राखियाँ।
अडियो अंत्रारेह, जाणे ढोलउ आवियो।।
मारवणी री दक्षिणी आँख फड़क उठी, जो सुपनां रो साकार करवा रा संकेत देवै। बा पनघट पै जावै अर सुपनो साकार हो जावै। सखियाँ मारू रा चंदन रै उबटन सूं सिणगार करै अर ढोला सूँ मिला देवै। दोन्यूं रो पहली बार मिलण रो बिम्ब ने कवि शील री सीमां मॉय प्रतीकां रै सागै रच्यौ-
मन मिलिया तन गड्डियाँ, मनि मंझे मिलियांह।
सज्जन पाणी पीर जिम, धीरे-धीरे थयांह।।
ढोला मारू एकठा, करे कुतूहल केलि।
जाणे चन्दन रूंखड़े, चढ़ीत नागर बेलि।।
इण भांति कामकन्दला अर माधव री प्रेम चेष्टावां मॉय मन अर शरीर रे सुख रो रंग भर्योड़ो है। तन अर मन उत्सव मनावै। माधव रे मिलण री कामना स्यूं कंदला रा मन में ‘रति’ भाव जाग जावै, जिणरी प्रतिक्रिया स्यूं प्रेम रा भाव प्रकट हो जावै। प्रेम रो जागरण, नयन बाण रो बेधण, सोलह सिणगार अर व्याकुल भावना रो चित्र इण पदां में देख्यो जा सकै है-
नयण बाण सा बेधइ बाल, घालइ कंठि बांहि सुकुमाल।
करि सिउ खंचइ कुसुमा माल, प्रेम जागइ उर ततकाल।।
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सज्या तिणिई सोलह सिणगार। नाटिक अवसरि हरख अपार।।
तउ निरखइ माधव वलि वली। लागउ प्रेम विरह व्याकुली।।
नायिका री सुन्दरता रै सागै सिणगार रो वर्णन कवि ने बखूबी कियो। नख-शिख वर्णन मॉय परम्परांवां रो ध्यान राखतां तकां चित्रमय वर्णन कर्यो। सिणगार रस री सृष्टि करवा मॉय नख-शिख वर्णन री शैली कवि कुशललाभ ने घणी अनुराग स्यूं प्रकट करी है। कामकन्दला रो नख-शिख सौन्दर्य रो वर्णन इण पदांवां ने देख्यो जावै-
चंपक वयण सुकोमल अंगि। मस्तक वेणि जाणि भयंग।।
अधर रंग परवाला वेलि। गयवर हंस हरावई के लि।।
नाक जिस्यो दीवा नी सिखा। बाहें रतन जड़ित बहिराखा।
मुख जाणे पूनिम नो चांद। अधर वचन अमृतमय चंद।
पीन पयोधर कठिनो तंग। लोचन जाणे त्रसु कुरंग।।
भाल तिलक सिर वेणी दंड। भमह वंक मनमथ को दंड।।
नायिका रो वर्ण, वेणी, अधर, ग्रीवा, नाक, बाँह, मुख, वचन, पयोधर, लोचन, तिलक, भौंहे री उपमा स्यूं भरयोड़ी शब्दावली, सिणगार रस ने समृद्ध कर देवै। ‘भीमसेन-हंसराज चौपई’ अर ‘स्थूलिभद्र छत्तीसी’ मॉय क्रमशः मदन-मंजरी अर कोशा रो नखशिख सौन्दर्य निरूपण पूरी काव्य-गरिमा स्यूं प्रकट हुयौ। मदन-मंजरी रो रूप-वर्णन मॉय कुंदन रो रंग, तुरंग री चपलता, बिम्बफल-सा अधर आदि उपमान स्यूं रस री सृष्टि मोहक बण जावै-
ओपइ कुंदण जिम तसु अंग। चपल तुरंगम चष अति चंग।।
रंभागर्भ किसी जुग जंघ। उदित बिल्व सम उरज उतंग।।
अधर पक्व बिम्बाफल अणुहारि। कीर पुतली चित्र आकारि।।
सिरजउ जउ थापउ संयोग। सफल जनम सुख रस भोग।।
संयोग पक्ष रा वर्णन मॉय रस री चेष्टा, रति-क्रीड़ा, विहार, मिलन रो उत्साह, आवेग, स्वप्न, लज्जा आदि रा भाव-संयोजन भी उपमावां रै सागै हुया है। संयोग रो पक्ष वर्णन मॉय समाज री मर्यादा रो उल्लंघन भी नी हुयो अर स्वाभाविकता रो भी पूरो ध्यान राख्यो।
सिणगार रस रे उद्भावण मॉय वियोग री दशावां- पूर्व राग, प्रवास, अर करूण रो चित्रण जरूरी मान्यो जावै। नायक या नायिका रो रूप-गुण रो बखाण पूर्व राग ने जनम देवै। नायिका मारवणी रो रूप वर्णन करता तकां कवि कुशललाभ ढोला रे मन रो भाव पूर्व राग स्यूं भर देवै-
जंघ सुपत्तल करि कुंअली, झीणी लांब प्रलंब।
ढोला एहवी मारूइ, जाणे कणयर कंब।।
प्रवास-वियोग री दशा रो चित्रण माधवानल कामकन्दला अर ढोला-मारू री प्रेमकथा मॉय गहरी भाव-व्यंजना स्यूं भरयो है। अपणे साजन रे परदेस जावण पे सजनी री जो दशा होवे, वा प्रवास-वियोग रो उदाहरण बणै। माधव रे प्रवास रे कारण कामकन्दला री दशा इण पदां में देखी जावै-
आंखड़ियाँ डम्बर हुई, नयण गमाया रोइ।
ते साजण परदेसड़इ, रह्या विडाणा होइ।।
प्रवास-वियोग मॉय मालवणी रे विलाप री दशा भी इण भाँति रस सृष्टि करै। करुण-वियोग रा उदाहरण- मगन मंजरी रे देवलोक पे अगड़दत्त रो विलाप, सरपदंस स्यूं मारवणी री मृत्यु पे ढोला रो विलाप, माधव री प्रेम-परीक्षा में मृत्यु उपरांत वातावरण में देखी जा सके है। माधव रा विरह मॉय कामकंदला रो हियो दावानल बणग्यो, पण धुवां रो निशान नी दिखै। उणरी दशा लता सूं टूट्यो पीलो पत्तो जिस्यां होइगी है। कवि लिखे है-
हियड़ा भीतर दव बलइ, धूंवो प्रगट न होइ।
बेलि बिछोह्या पानड़ा, दिन-दिन पीला होइ।।
कुशललाभ ने विरह री कामजन्य दशा रा कई रूपां रो वर्णन कियो। इणमै अभिलासा, चिन्ता, गुण कथन, उद्वेग, स्मृति, जड़ता, मूर्छा अर प्रलाप खास है। अनुभाव रा चित्रण मॉय सिणगार रो परित्याग, भूमि पै पड़नो, आँसुड़ा, स्तंभन, आदि देख्या जावै। संचारी भांवा रो चित्रण भी रस रो उत्कर्ष करवा रो माध्यम बण्यो। दैन्य, त्राण, विषाद अर स्मृति रा संचरण करवा वारा भाव रा उदाहरण देख्या जावै-
तजइ तिलक काजल तंबोल।
मंझण न हावण खोल अंगोल।।
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ढोलो चाल्यो हे सखी, बाज्या विरह निसाण।
हाथें चूड़ी खीहीं पड़ी, ढीला थया संधान।।
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बीछड़तां ही सज्जनां, रातां किया रतन्न।
वारी ते त्रिहुँ राषीया, आँसू मति ब्रन्न।।
कवि रा प्रेमाख्यानां री कथावां मॉय रस राज सिणगार अंगीरस रे रूप में आयो, वो भी सहज रूप में है। सिणगार रस री दोय दशा- संयोग अर वियोग रो काव्य-शास्त्रां रा मानदण्डानुसार प्रयोग हुयो। राजस्थानी काव्य का कोश ने बढावां रै वास्ते कुशल लाभ रो योगदान इण नज़र सूं खास स्थान राखीजे।
आधार ग्रंथ सूची-
1. भगवती लाल शर्मा, ढोला मारू रा दूहा में काव्य-सौष्ठव, संस्कृति और इतिहास, अर्चना प्रकाशन, जयपुर सं. 1970 ई.।
2. ब्रजमोहन जावलिया, विनिबंध कुशललाभ, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली-1, सं.1993 ई.।
3. लाल भाई दलपत भाई (सं.), भीमसेन राजहंस चौपई, इंस्टिट्यूट ऑफ इंडोलोजी, अहमदाबाद, ग्रंथांक-1217
4. कुशल लाभ, अगड़दत्त रास, भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंन्स्टिट्यूट, पूना, ग्रंथांक-605
5. कुशल लाभ, स्थूलिभद्र छत्तीसी, अभय जैन गं्रथालय, बीकानेर- ग्रं.87/4209