कबीर पंथ का आदिग्रंथ : बीजक
कबीर |
कबीर पंथ में ‘बीजक’ को आदिग्रंथ माना जाता
है। इसे पंथ का ‘वेद’ कहा गया है। कबीर के दार्शनिक सिद्धान्तों का
सार तत्त्व बीजक में ही उपलब्ध होता है। इसका रचनाकाल अभी शोध का विषय है, परन्तु ऐसा माना जाता है कि यह संभवतः 1570 ई. में अथवा सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुन
द्वारा नानक की शिक्षा आदि ग्रंथ लिखे जाने के बीस वर्ष बाद लिखा गया। कबीरपंथी
संतों द्वारा इसके पाठ-निर्धारण एवं टीका-भाष्य लेखन के संबंध में समय-समय पर
कार्य होते रहे हैं।
बीजक शब्द का आशयः
‘बीजक’ शब्द की विवेचना ‘रमैनी’ में की गई है। जिसमें कहा गया है-
बीजक बित्त बतावई,
जो बित गुप्ता होय।
सब्द बतावै जीव
को, बूझै बिरला होय।।
अर्थात् जो धन गुप्त होता है अथवा कहीं जमीन में गाड़कर या
छिपाकर रखा जाता है, उसका पता केवल
उसके ‘बीजक’ से ही लगता है। उसी प्रकार जीव के गुप्त धन को
अर्थात् वास्तविक स्वरूप को शब्द रूपी बीजक बतलाता है। इस प्रकार ‘बीजक’ वास्तविक तत्त्व का बोधक है। यह तत्त्व संसार में गुप्त रहता है, परन्तु गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान से ब्रह्म के
वास्तविक तत्त्व-शब्द का बोध होता है, जिससे समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है।
‘बीजक’ शब्द तांत्रिक उपासना से भी संबद्ध है। बौद्ध तंत्र में जिन सूत्रों से
रहस्यमय तत्त्व की उपलब्धि होती है, उन्हें ‘बीजाक्षर’
या ‘बीज सूत्र’ नाम दिया गया।
इसी से मंत्रों की सृष्टि मानी गई। बौद्ध धर्म की वज्रयानी परम्परा से कालान्तर
में संत संप्रदाय ने इसे ग्रहण किया, ऐसा प्रतीत होता है। कबीर पंथियों द्वारा इसे गोपनीय रखने की वृत्ति के कारण
यह ग्रंथ जनसामान्य में लोकप्रिय नहीं हो सका। वस्तुतः ‘बीजक’ को कबीर साहब के
सिद्धान्तों का मूल ग्रंथ मान लिया गया है, अतः उसका परिचय आवश्यक है।
बीजक के अंगः
विभिन्न विद्वानों और कबीरपंथियों ने ‘बीजक’ के जो संग्रह निकाले हैं, उनमें निम्न छन्द
संख्या सामान्यतः पाई जाती है-
1. रमैनी- 84 2. सबद- 115 3. चौंतीसी- 1
4. विप्रमतीसी-1 5. कहरा- 1 6. बसंत- 12
7. चाँचर- 2 8. बेलि- 2 9. बिरहुली- 1
10.हिंडोला- 3 11.साखी- 353
बीजक के उपर्युक्त 11 अंगों में दर्शन के साथ काव्य का सुन्दर सामंजस्य है।
उनमें सृष्टि, जगत, माया, मोक्ष, ज्ञान की भूमिका, संसार की नश्वरता एवं असारता, गुरु महिमा, सत्संग महिमा सहित अनेक तत्त्वों का विशद विवेचन हुआ है।
बीजक के अंगों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
1.रमैनी-
मूल बीजक का यह पहला प्रकरण है। इसमें 84 पद हैं। रमैनी की गति चैपाई जैसी है, जिसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ हैं। इसके अंत में ‘साखी’ है, जिसकी गति दोहा जैसी है।
कितनी चैपाईयों के बाद दोहा छन्द रखा जाय, इसका कोई निश्चित क्रम नहीं है। ‘रमैनी’ शब्द का प्रयोग तीन
अर्थों में हुआ है-
(अ) जिसमें सांसारिक जीवों के रमण का विवेचन है।
कहा जाता है कि इस संसार में चैरासी लाख योनियों में जीवात्मा रमण करती है। मनुष्य
शरीर कर्मों की भूमिका के अधीन होने, शुभ-अशुभ कर्मों के उदय होने से जीवात्मा जन्म-मृत्यु के प्रवाह में गति करता
रहता है।
(ब) परम तत्त्व में रमण कराने वाली। अर्थात्
जीवों को इन चैरासी योनियों के अपार दुःख से मुक्त कराने हेतु सद्गुरु प्रदत्त
चैरासी रमैनियाँ कही गई है।
(स) छन्द विशेष, जिसके प्रत्येक
चरण में 16-16 मात्राएँ हैं।
रमैनियों में कबीर ने मुख्य रूप से सृष्टि, जगत और जीव का विवेचन किया है। इस काव्य रूप
में रमैनियों के पश्चात् एक साखी दी गई है। उदाहरण द्रष्टव्य है-
नां दसरथ घरि
औतरि आवा। नां लंका का राव सतावा।
देवै कोखि न
अवतरि आवा। नां जसवै लें गोद खिलावा।।
बावन होइ नहीं
बलि छलिया। धरनी वेद लै न ऊधरिया।
गंडक सालिगराम न
कोला। मच्छ कच्छ होइ जलहिं न डोला।।
कहै कबीर विचारि
करि, ए ऊले त्यौहार।
याही तें जो अगम
है, सो बरति रहा संसार।।
2.सबद-
यह दूसरा प्रकरण है। इसमें 115 पद हैं। कबीर ने ‘सबद’ का प्रयोग दो भावों को
ध्यान में रखकर किया है- एक तो परम तत्त्व के अर्थ में और दूसरे पद के अर्थ में।
सबद गेय होते हैं जो राग-रागिनियों में बंधे होते हैं। संतों की अनुभूत वाणी,
जिसमें परम तत्त्व की चर्चा है- सबद है। ये
जीवात्मा को सांसारिक भ्रम से मुक्त होने का बोध कराती है। बीजक में लौकिक तथा
पारलौकिक भाव प्रधान पद हैं। उनमें धार्मिक पाखण्डों का खंडन करने वाले, उपदेशात्मक, नीति परक तथा सांसारिक भ्रम से मुक्ति का संदेश देने वाले
पद हैं। उदाहरण द्रष्टव्य है-
काहे की नलिनी तू,
कुम्हिलानी।
तेरे ही नाल
सरोवर पानी ।।
जल में उतपति जल
में बास।
जल में नलिनी तोर
विकास।।
ना तल तपति,
न ऊपर आगि।
तोर हेत कहु का
सनि लागि।।
कहै ‘कबीर’ जे उदिक समान।
ते नहिं मुए
हमारे जान।।
3.चौंतीसी-
यह तीसरा प्रकरण है। इसमें चौंतीस चौपाइयाँ हैं। पहली ऊँकार
की व्याख्या करने वाली को जोड़ लेने से पैंतीस हो जाती हैं। पहली चौपाई में यह
बताया गया है कि ‘ऊँ’ यह शब्द मनुष्य जीव की कल्पना है। ऊँ को लिखकर
और काट देने में जो समर्थ है, वह मनुष्य जीव
सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र है। अन्य चौंतीसों चैपाइयों में क से ह तक के वर्णों पर
सुन्दर उपदेश हैं। उपर्युक्त चौंतीस अक्षरों में ही ही खाणी-वाणी के समस्त
शब्द-जाल हैं। उनसे निवृत्ति प्राप्त करने के लिए निर्णय शब्दों को लेना चाहिए। मनुष्य को
स्वतन्त्र विवेक रखना चाहिए। केवल शब्द-प्रमाण की ही दोहाई नहीं देना चाहिए। इस पर
सद्गुरु ने 24 वीं रमैनी में
कहा हैः- चौंतीस अक्षर से निकले जोई! पाप पुण्य जानेगा सोई! अर्थात् जो चौंतीस
अक्षरों (शब्द-प्रमाण के जालों) से निकल कर स्वतन्त्र विवेक-विचार करेगा, वही यथार्थ पाप-पुण्य तथा सत्यासत्य समझ सकेगा।
इस प्रकार इस काव्य रूप में देवनागरी वर्णमाला के स्वरों को छोड़कर केवल
व्यंजनों के आधार पर रचना है। उदाहरण अवलोकनीय है-
पापा पाप करै सम
कोई। पाप के करे धरम नहीं होई।।
पापा करै सुनहु
रे भाई। हमरे से इन किछवो न पाई।।
जो नन त्रिभुवन
माहिं छिपावै। तत्तहि मिले तत्त सो पावै।।
थाथा थाह थाहि
नहिं जाइ। इधिर ऊधिर नाहिं रहाई।।
4.विप्रमतीसी-
यह चौथा प्रकरण है। यह विप्रमतीसी है। अर्थात् तीस चौपाइयों
में ब्राह्मणों की मति का वर्णन है। इन तीस चौपाइयों के साथ अन्त में एक साखी है।
इसमें सद्गुरु के जीवन काल के तात्कालिक ब्राह्मणों के चरित्रों का सुन्दर चित्रण
है। इसमें ब्राह्मणों के सिद्धान्त की मुख्य-मुख्य बातों पर कोई आलोचना नहीं
प्रस्तुत की गयी है; प्रत्युत उनके
सिद्धान्त के अनुकूल ही चर्चा करते हुए, उनमें आए हुए स्वार्थ, दम्भ, पाखण्ड, दुष्ट-आचरण, हीन-भावना तथा
दोष-पक्षों पर ही उपालम्भ पूर्वक आलोचनाएँ की गई हैं। उन्हें पूर्ण मानवता को
विकसित करने को प्रोत्साहित किया गया है।
इसमें यह बताया गया है कि संसार में जड़ और चेतन दो पदार्थ
हैं। उन दोनों के, जड़-चेतन छोड़कर
अन्य कोई जाति-वर्ण नहीं हैं। अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु से बने हुए शरीर भी सबके एक समान हैं और
चेतन हंस भी सबमें एक समान है। जीव के नाते प्राणी मात्र सजाति हैं और
दैहिक-दृष्टि से मानव मात्र सजाति हैं। पवित्र आचरण वाला ही श्रेष्ठ है तथा हीन
आचरण वाला ही बुरा है, परन्तु उस हीन
व्यक्ति के साथ भी हमें सौहार्द एवं मैत्री का बर्ताव इसलिए करना है कि जिससे वह
हीन-आचरण छोड़कर ऊपर उठे।
5.कहरा-
यह पाँचवाँ प्रकरण है। इसमें ‘कहरा’ नामक पद हैं।
उत्तरी भारत में ‘कहार’ जाति का एक गीत है- कहरवा। इस गीत से मिलती ध्वनि
पर आधारित पद हैं। इसका दूसरा अर्थ ‘कहर’ अर्थात दुःख से भी है।
दुःख दो प्रकार के बताए गए हैं- एक माया की आसक्ति तथा दूसरा माया का राग। इन
दोनों से जीवात्मा व्यथित रहती है। इन दुःखों अर्थात् ‘कहर’ से मुक्त होने की
दृष्टि से ‘कहरा’ प्रकरण कहा गया है। उदाहरण-
रामनाम को संबहु
बीरा, दूरि नाहिं दूरि
आसा हो।
और देवका पूजहु
बौरे, ई सम झूठी आसा
हो।
ऊपर उ कहा बौरे,
भीतर अजहुँ कारो हो।
तिनके बिरछ कहा
भौ वौरे, मनुपा अगहुँ बारो
हो।
6.बसंत-
यह छठवाँ प्रकरण है। इसमें भी ‘बसन्त’ नामक बारह पद
हैं। छह ऋतुओं में ‘बसन्त’ एक श्रेष्ठ ऋतु मानी जाती है। यह चैत-वैशाख
पूरे दो महीने तक रहती है। इसमें पेड़-पौधों के पुराने छाल तथा पत्तियाँ गिरते और
नये छाल एवं पत्तियाँ आते हैं। अठारह भार वनस्पत्तियाँ इसी समय प्रफुल्लित होती
हैं। सद्गुरु ने इस प्रकरण में बतलाया है कि प्राणि-जगत में तो बारहों महीने बसन्त
लगे रहते हैं। हर समय पुराने-पुराने प्राणियों का मरना तथा नये-नये का जन्म लेना,
बारहों महीने विषय-वासन्ती-परिधान पहन कर माया या काम-भोग में मनुष्यों का निमग्न रहना एवं इस प्रकार माया में विमोहित
होकर स्वरूप ज्ञान तथा मानवता से पतित होना हर समय लगा रहता है। इस जन्म-मरण तथा
विषय-बसन्त से मुक्त होकर स्वरूप-ज्ञान में प्रतिष्ठित होने के लिये सद्गुरु ने ‘बसन्त’ प्रकरण निबद्ध किया है। उदाहरण अवलोकनीय है-
भाई मोर मनुसा
अति सुजान, धद्य कुटि-कुटि
करत विदान।
बड़े भोर उठि आंगन
बाढु, बड़े खांच ले गोबर
काढु।
बासि-भात मनुसे
लीहल खाय, बड़ धोला ले पानी
को गाय।
अपने तिरिया
बांधो पाट, ले बैचैंगी
हाटे-हाट।
कहँहि कबीर ये
हरिक काज, जोइया के डिंग
रहिक वनि जाल।।
7.चाँचर-
यह सातवाँ प्रकरण है। इसमें चाँचर नामक दो पद हैं। चाँचर एक
गीत होता है। जो होली में गाया जाता है। होली में चाँचर या फाग गाकर तथा पिचकारी
में रंग भरकर एक-को-एक मारते हैं। माया किस प्रकार अपना अदभुत रूप बनाकर तथा मोह
को पिचकारी में विषय-रंग भर कर लोगों को मार रही हैं और किस प्रकार
विद्वान-अविद्वान उस का क्रीड़ा-मृग हो रहे हैं- इसका विचित्र चित्रण इस प्रकरण में
हुआ है। इस माया के मोह से निवृत्त होने के लिये प्रेरणा दी गयी है। माया से वही
उबर सकता है जिसके मन में उसका मोह नहीं समायेगा- यह बात बतायी गयी है। माया से
मुक्ति-अर्थ उसकी निस्सारता बतलायी गयी है तथा माया के मद पर चोटें की गई हैं। जिस
प्रकार भोगों के लोभ में पड़कर हाथी, बन्दर तथा सुग्गा बन्दी होते हैं और उसी प्रकार विषयों के मोह में पड़कर मनुष्य
भी विवश होता है इसका सोदाहरण सुरम्य वर्णन किया गया है। कबीर ने चाँचर का प्रयोग
आध्यात्मिक उपदेश देने के लिए किया। उसका रूप इस प्रकार है-
जरहु जग का नेहरा,
मन बौरा हो।
जमें सोग संतान,
समुझु मन बौरा हो।
तन धन सों का
गरवसी, मन बौरा हो।
भसम-किरिमि जाकि,
समुझु मन बौरा हो।
बिना मेवका देव
धरा, मन बौरा हो।
बिनु करगिल की
ईंट, समुझु मन बौरा
हो।।
8.बेलि-
यह आठवाँ प्रकरण है। इसमें ‘बेलि’ नामक दो पद हैं।
बेलि कहते हैं लता को। मोह ही वह लता है जिसमें दुःख के फल फलते हैं, उनको चख कर जीव जन्म-जन्मान्तरों तक
पीड़ा-पर-पीड़ा भोगते हैं। यह मोह-लता ही जीवों को बाँधती है। यह लता तथा इसके
दुःखपूर्ण फल से निवृत्यर्थ इस प्रकरण में प्रकाश डाला गया है। यह भी उपदेश प्रधान
काव्य रूप है। इसकी पंक्ति के अंत में ‘हो रमैया राम’ टेक को बार-बार
दुहराया जाता है। एक बेलि का उदाहरण-
हंसा सरवर सरीर
में, हो रमैया राम।
जगत चोर घर मूसे,
हो रमैया राम।
जो जागल सो भागल,
हो रमैया राम।
सावेत गेल बिगोय,
हो रमैया राम।।
9.बिहुली-
यह नवाँ प्रकरण है। इसमें केवल एक ही पद है जिसका नाम
बिरहुली है। जो किसी प्रिय के वियोग से व्याकुल हो उसे बिरही कहते हैं। इस प्रकरण
में बिरहुली शब्द विरही जीवों के सम्बोधन में रखा है। अपने चेतन स्वरूप का यथार्थ
ज्ञान न होने से जीव अपने से ईश्वर, ब्रह्म की कल्पना करता है और उसका वियोग मानकर दुखी रहता है। इसी प्रकार विषय
में सुख मानकर और उसके वियोग में अर्थात सुख का नित्य संग न होने से यह जीव विरही
है। इस विरह-व्यथा की निवृत्ति के लिये यह प्रकरण कहा गया है। इसमें सात बीजों का
सविस्तृत वर्णन है तथा खानी-वाणी की विरह-व्यथा से मुक्त होने के लिये उत्तम उपदेश
है।
बिरहुली का अर्थ सर्पिणी भी है। यह शब्द लोक में सर्प के विष को दूर करने वाले
गायन के लिए प्रयुक्त होता था। यह गरुड़ मंत्र का प्राकृत नाम है। पद द्रष्टव्य है-
आदि अंत नहिं होत
बिरहुली।
नहिं जरि पलौ पेड़
बिरहुली।।
निसु बासर नहिं होत
बिरहुली।
पावन पानि नहिं
मूल बिरहुली।।
ब्रह्मादिक
सनकादि बिरहुली।
कथिगेल जोग अपार
बिरहुली।।
विषहा मंत्र ने
मानै बिरहुली।
गरुड़ बोले आपार
बिरहुली।।
10.हिंडोला-
यह दसवाँ प्रकरण है। इसमें ‘हिंडोला’ नामक तीन पद्य
हैं। भ्रम का हिंडोला है। इसमें पाप-पुण्य के दो खम्बे हैं, माया मेरु है, लोभ भँवरकड़ी है, विषय का मरूआ है,
काम की कील ठोकी है; हाथ में पकड़कर झूलने के लिये शुभ और अशुभ के दो डण्डे हैं
तथा कर्म की पटरी है, इस पर बैठकर कौन
नहीं झूला? खानी और वाणी के अभ्यासी
सभी जीव इस झूले में झूल रहे हैं। यह झूला जीव को कभी ऊपर ले जाता है और कभी नीचे;
अर्थात-ऊँची-नीची योनियों में भटकाता है। यह
माया हिंडोला आपात रमणीय है, अतएव इस पर झूलने
की इच्छा न हो-ऐसी बुद्धि विरले विवेकी को है। अनादिकाल का समय बीत गया, परंतु जीव का मन इस जगुले से उतरने को नहीं
कहता और आज भी इस झूले से हार नहीं मानता। जिनको सत्संग तथा ज्ञान प्राप्त हुआ,
वे सुज्ञ जीव ही इस झूले से उतर कर अपनी पारख
(ज्ञान) भूमिका अर्थात चेतन स्वरूप में स्थित हुए। प्रकृत प्रकरण में इस दुःख रूप
झुले से उतरने का ही उपदेश है। सद्गुरु कबीर ने ‘हिंडोला’ के रूपक का बड़ा
ही सटीक वर्णन किया है।
सावन माह में महिलाएँ हिंडोला झूलने के साथ गीत भी गाती
हैं। इसे ‘हिंडोला’ कहते हैं। कबीर ने इसे काव्य रूप बनाकर उपदेश
दिया है। यथा-
भरम-हिंडोला ना
झुलै सग जग आय।
पाप-पुण्य के
खंभा दोऊ, मेरु माया मोह।
लोभ मरुवा विष
भँवरा, काम कीला ठानि।
सुभ-असुभ बनाय
डांडी, गहै दोनों पानि।
काम पटरिया
बैठिकै, को कौन झुले आनि।
झुलै तो गन
गंधर्व मुनिवर, झुलै सुरपति इंद।
झुलै तो नारद
सारदा, झुलै व्यास
फणींद।।
11. साखी-
‘साखी’ शब्द ‘साक्षी’ का तद्भव है। जिसका अर्थ है- गवाह। कबीर ने
अपनी इन उक्तियों का शीर्षक ‘साखी’ इसलिए दिया, क्योंकि उन्होंने इसमें वर्णित तथ्यों का स्वयं साक्षात्कार
किया। संत कबीर की साखियों की संख्या 353 हैं। इसमें निर्गुण साक्षी के साक्षात्कार से उत्पन्न भावोन्माद, ज्ञान और आनंद की लहरें हैं तथा ब्रह्मविद्या बोध, उपनिषदों का जनसंस्करण और लोकानुभव संचित है। साखियों में संसार की असारता,
माया-मोह की मृगतृष्णा, काम-क्रोध की क्रूरता दिखाई गई है तथा इनसे मुक्त कराने की
जानकारियाँ भी दी गई हैं। स्पष्टतया साखियों में स्वानुभूत आध्यात्मिक तथ्य वर्णित
हैं। ये साखियाँ लौकिक और पारलौकिक भाव प्रधान हैं। लौकिक भाव-प्रधान साखियों में
संतमत का स्वरूप बताने वाली, पाखण्ड का विरोध
करने वाली तथा व्यवहार प्रधान हैं, जबकि पारलौकिक
भाव-प्रधान साखियों में आध्यात्मिक विषयों की चर्चा है। कतिपय उदाहरण इस प्रकार
हैं-
ऐसी बानी बोलिए,
मन का आपा खोय।
और न को सीतल करै,
आपहु सीतल होय।। (1)
$ $ $
पानी हूँ तैं
पातरा, धूवां हूँ तै
झीन।
पवनां बेगि
उतावला, सो दोस्त ‘कबीरा’ कीन्ह।। (2)
समग्रतः स्पष्ट है कि कबीर ने बीजक के विविध अंगों में
विभिन्न काव्य रूपों का आश्रय लेकर अपने विचारों को प्रकट किया है। कबीर का
साहित्य केवल ‘बीजक’ में संकलित है, यह स्पष्ट नहीं है। फिर भी उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि का
सीमांकन इससे प्रमाणित हो जाता है।
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