आत्म-सत्य की लयात्मक अभिव्यक्ति

पुस्तक समीक्षा

आत्म-सत्य की लयात्मक अभिव्यक्ति

(सन्दर्भ : रथ के धूल भरे पाँव)

श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इंदौर द्वारा प्रकाशित 'वीणा' अगस्त,२०२१ अंक में ... 

कविता मनुष्यता की मातृभाषा है, इसीलिए व्यक्ति का ‘आत्म’ जब व्यक्त होता है तो ‘मानवता’ का चित्त भी समय के सच के साथ मुखरित होता है। वर्तमान समय विस्मयकारी दृश्य के साथ ‘मनुष्य’ को आतंकित कर रहा है, जो फैंटेसी से भी आगे का यथार्थ है। इसका चेहरा रक्तस्नात और हृदयहीन है, जो मारक और अविश्वसनीय रूप में हमारे समय का सच है। नई सदी ने भूमंडलीकरण की पदचाप के साथ गंतव्य आरंभ किया। देखते-देखते मात्र दो दशकों में अर्थ-जगत की व्याधियाँ मानव-जीवन के फलक को लील गई, तब कला-जगत अपनी संवेदना को कहाँ तक बचाता?  अजित कुमार राय का काव्य-संग्रह ‘रथ के धूल भरे पाँव’ में इसी आत्म-सत्य की अभिव्यक्ति हुई है।

कवि का यह आत्म-सत्य जीवन का वह रजत-पाश है, जो मध्यमवर्गीय जीवन की करुण गाथा है। यह वर्ग अपने अतीत के मूल्यों से मुक्त नहीं होना चाहता और स्वप्नों के खंडहरों को पुननिर्मित भी नहीं कर सकता। शीर्षक ‘रथ’ अतीत का वह मोहभरा आकर्षण है, जो भारतीय वैभव का पुरूषार्थ है; जहाँ अदम्य उत्साह की गर्जना है तो ‘धूल भरे पाँव’ वर्तमान समय की मूल्यहीनता और वैचारिक भटकाव का बिम्ब है। यह बिम्ब काव्य-संग्रह की चवहत्तर कविताओं में रह-रहकर उद्दीप्त होता है। सुखद पहलू यह है कि कवि ने उन कारकों को पहचान लिया है और अपने शब्द बाणों से सांस्कृतिक संघर्ष की औपनिवेशिक मनोवृत्ति पर जमकर प्रहार किया है। 

कवि का रचना समय दो सदियों का संधिकाल है। वह उस समय का साक्षी है, जहाँ संवेदना और मूल्यों की परिधि में भारतीय समाज पल्लवित है। यह कवि का बचपन है। तरुणाई में स्नेह का विस्तार मिला, पर संस्कार ने जीवन-वृत्त का निर्धारण किया। इस बीच जीवन की गति के साथ विषाद भरा यथार्थ से साक्षात्कार और फिर उससे संघर्ष करते-करते हृदय की स्फोट ध्वनियाँ निकल पड़ी और कविता बन गई। संकलन की प्रथम कविता ‘नरमेध’ कवि का आत्म-बिम्ब है, जिसे उन्होंने ‘एक नया दलित सौन्दर्य-शास्त्र’ कहा। ‘नरमेध’ स्वयमेव भीषण आक्रोश को प्रकट कर देने वाला शब्द है, जहाँ शिक्षक को बंधुआ मजदूर बनाकर बाजारवादी शक्तियों के हाथों में फेंक दिया है। शिक्षा के निजीकरण की भयानक आत्मपीड़ा संभवतः कवि की अनुभूत अभिव्यक्ति जान पड़ती है। इसीलिए वह कहता है-

“हे संस्था के पुरोहितो!
आज राजनीति के ‘पाठ्यक्रम’ रोज बदलते हैं,
समय के ‘पंचांग’ पिघलते हैं,
सत्ता की संपूर्ण सुविधाओं पर कुंडली मार बैठे
अजगर ‘मनुष्य’ को निगलते हैं।
हम संस्था के ‘अंडे’ को मुर्गी सा सेते हैं-
किन्तु जब उसमें ‘पंख’ आते हैं
तो वह हमारी ‘पकड़’ से बहुत दूर निकल जाती है।”
(नरमेध,पृ.30) 

इस वेदना में ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं जीवन की समग्रता में मनुष्यों के स्थान पर वस्तुओं में निवेश कर दिया। इस लम्बी कविता में ‘जूते’ की तरह शिक्षक बदलना, कंधे पर पैर रखकर चलना आदि ऐसे अनेक बिम्ब सच्चाई के निकट ले जाने में सक्षम हैं।

आत्म की अभिव्यक्ति के साथ कविता का संवेदना तत्त्व संपूर्ण जगत से जुड़ता है। सारी जटिलताओं के होते हुए भी कविता हमारी संवेदना के निकट होती है, यही राग तत्त्व है। इससे कवि की पीड़ा साधारणीकृत हो जाती है और जगत की पीड़ा उसकी वाणी बन जाती है। किसान और स्त्री वर्तमान समय के सबसे नरम शिकार बने हैं, जो बाजारवादी शक्तियों के हाथ का खिलौना बन गए हैं। उपभोग की पराकाष्ठा ने नारी को बाजार में ‘विज्ञापन’ के रूप में खड़ा कर दिया है-

स्त्रियों के ग्लैमरस चित्र?
क्या स्त्री चित्रों के फ्रेम से बाहर आना चाहेगी,
क्षण-प्रतिक्षण बदलती जीवन्त-मुद्राओं
एवं नई भंगिमाओं के साथ?
चन्द्रमा दूर से ही अच्छा लगता है।
नारी-सौन्दर्य को ‘नजर’ लग गई है,
विज्ञापन बाजार की।
(स्त्री-विमर्श, पृ.54)

यही स्वर किसान का प्रतिवेदन, दासता, बाजार-भाव, होम लोन, दूसरा विस्थापन आदि कविताओं में हैं, जहाँ कवि ने आने वाले समय के भीषण यथार्थ को पहचान लिया है और सावचेत करते हुए लिखा-
वस्त्र बदलती स्त्री एक दिन खुद
वस्त्र की तरह बदल दी जाएगी।
(बाजार-भाव, पृ.72)

नई सदी की सर्वाधिक ज्वलंत चुनौती वैश्वीकरण है, जिसमें सांस्कृतिक मूल्यों का विलोपन अधिक है। विकृत उपभोक्तावादी दृष्टि का प्रसार है। इसका सर्वाधिक प्रभाव चेतनावान संवेदनशील कला जगत पर पड़ता है। अपने मूल तत्त्व से वह विमुख नहीं हो सकता, अतः विद्रोही स्वर में प्रतिरोध करता है। बहुलतावादी भारतीय समाज में सांस्कृतिक मूल्यहीनता को वह स्वीकार नहीं कर सकता, वह कह उठता है-

आम्रवन की नीलिमा क्या हो गई?
मंजरी की गंध मल्टीफ्लेक्स में क्यों खो गई?
वृश्चिकों के बिस्तरे पर जाग करके भोर में,
जिसे बाबा ने सँजोया था समय के शोर में।
वृत्त बदला बिन्दु में, मन व्यास मेरा हो गया है।
आँवले की छाँव में भोजन कसैला हो गया है।।
(संस्कृति के सीमांत, पृ.86)

अतिक्रमण, पृथ्वी की कक्षा के बाहर, बढ़ने दो अक्षरों का आकार, अस्तित्व की प्रज्ञा आदि कविताएँ हमारे मन पर औपनिवेशिक प्रभाव को व्यक्त करती हैं, जो हमें मानसिक दासता से मुक्त नहीं होने का संकेत देती है। गांधी आज हमारी चेतना में नहीं है, पश्चिमी चकाचैंध में हम अपना सर्वस्व लुटा चुके हैं। हम स्मृति और इतिहास की संधि-रेखा पर हैं। कवि जड़ों की ओर लौटने का आह्वान करते हैं-

स्मृति और इतिहास की संधि-रेखा पर
पड़ी गांधी की लाश कौन उठाए?
‘राजघाट’ पर बार-बार दफनाई जाती हैं
गांधी की लाश।
कब होगा हमारे भीतर
उनका पुनर्जन्म?
(अस्तित्व की प्रज्ञा, पृ.57)

काव्य-संग्रह में उन सभी अवांछित विद्रुपताओं का उल्लेख हुआ है, जो नई सदी की वास्तविकता है। भारतीय-सांस्कृतिक मूल्यों का स्खलन, भाषा, विचार, जीवन-शैली में बदलाव के परिणामों को भी कवि ने पहचाना है। वह केवल आक्रोश व्यक्त कर चुप नहीं रहता, बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन के लिए मुखर भी हो उठता है और कहता है-

कृष्ण केवल ‘बाँसुरी’ नहीं बजाता
वह ‘चक्र’ उठाना भी जानता है।
(नरमेध, पृ.26)

महाराणा सुनो, सेतुबंध, कालांकित कविता में कवि की सकारात्मक दृष्टि है तो कई स्थलों पर  स्पष्टवादिता से कवि ने अपने समय के यथार्थ को स्वर दिए हैं। विश्व शांति का मिथक, नोटबंदी पर गुलाबी नोट, तीन तलाक को तलाक, जे.एन.यू. में खड़े होकर, सर्जिकल स्ट्राइक-1, सर्जिकल स्ट्राइक-2 राष्ट्रवाद के मंच पर राष्ट्रपति, अभयारण्य बकरों के लिए आदि कविताओं में कवि के विचार बिना किसी आग्रह के प्रकट हुए हैं। निर्भीकता और ईमानदारी से अपनी बात कहने का साहस यहाँ दिखाई देता है। जिन विषयों पर समकालीन कवि मौन हैं, वहाँ उनकी लेखनी चली है। युग-धर्म को निर्वाह की दृष्टि से यह उत्तम है। सामयिक घटनाओं पर कवि का राष्ट्रनायकों को सम्बोधन ‘युगचारण’ की भूमिका में दिखाई देता है।

ओ धूमिल!
धूमिल नहीं हुआ है संसद का रक्त-चरित्र।
देवदूतों की भाषा है अब भी पवित्र।
मुकुट की रोटियाँ 
रोटियों की मुकुट के लहू से गुंथी है।।
(दूसरा विस्थापन, पृ.192)

कविता में बिम्ब और लय की उपस्थिति आवश्यक है। मुक्त छंद का आशय ‘आन्तरिक लय’ की भी समाप्ति कर देना नहीं है, अन्यथा कविता का मूल ‘संगीत-तत्त्व’ ही नष्ट हो जाएगा। कवि ने सभी कविताओं में लयात्मक स्वर और बिम्ब विधान पूर्ण उत्कर्ष के साथ आए हैं। संगीतमय स्वर-साधना के साथ शब्दों का संयोजन और लयात्मक अभिव्यक्ति का लालित्य दर्शनीय है-

शीशे की रंगीन गोलियों का वह टूटा प्रिज्म कहाँ ? 
लट्टू नहीं, नाचती धरती का वह ग्लोबल रिद्म कहाँ !
खलिहानों के गंध - पिरामिड टूट गया।
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पेड़ों पर वह ओल्हा पाती, शाख आज भी काँप रही है ।
मर - मर कर जीने का दर्शन कहाँ कबड्डी भाँप रही है ?
आज कैरियर सपने सारे लूट गया।
(छन्दांतर47)
           
कवि ने कविता को ‘असाध्यवीणा’ माना है, वह स्वयं प्रियंवद केशकाम्बली की तरह सर्जना के किरीटी-तरु को समर्पित है, अतः शब्द-स्वर की वीणा बोल उठी है। पाठक अपनी-अपनी दृष्टि से उसे तौल रहा है। अपने आत्मसत्य की लयात्मक अभिव्यक्ति देते हुए कवि को किसी वाद की परिधि में नहीं है। वैचारिक संतुलन के साथ दासता का प्रतिनिधि नहीं होना अच्छा संकेत है, इससे चाहे वह किसी धारा में न बहे, स्वतंत्र दीप की भांति टिमटिमाता अवश्य रहेगा और अंधकार की चीरने में सफल भी होगा।

पुस्तक का कलेवर प्रसिद्ध कवि विजेन्द्र ने तैयार किया है, भूमिका वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति ने लिखी है। इससे कृति का महत्त्व बढ़ गया है। बोधि प्रकाशन ने इसे सुन्दर ढंग से मुद्रित किया है और संतोष का विषय है कि कृति का मूल्य पुस्तक के आकार अनुसार है।पुस्तक की समस्त कविताएँ पाठकों को बहा जाने में सक्षम है।

पुस्तक : रथ के धूल भरे पाँव
लेखक : अजित कुमार राय
आवरण : विजेंद्र
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर, पृ.192, मूल्य-250/-



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