बावजी चतुरसिंहजी री 'चतुर चिंतामणि' मांय लोकनीति
'जागती जोत' अगस्त-सितंबर,२०२४ में प्रकाशित
लोकसाहित्य नै जीवन रा यथार्थ स्पंदना स्यूं प्रेरणा मिले है। इणमांय लाभ-हानि, यश-अपयश, उपयोगिता-अनुपयोगिता आदि रो सवाल नी रेवे। इण मांय न भाषा रो पांडित्य है, न कल्पना री कलात्मकता, बल्कि जीवन री सहजता री सहज अभिव्यक्ति होवे है। विद्वानां री दृष्टि मांय लोक अनंत है, लोक असीम है। इणरो भावलोक परत-दर-परत निरंतर खुलता जावे है, जिणके आगे विराम नी लागे। विश्वभर मांय जितरा रूप लोक रा हैं, उतरा ही रूप लोकसाहित्य रा हैं। लोकवाणी रा भी वतरा ही प्रकार हैं। लोक संवेदना री भी वतरी ही व्यापकता, विविधता है। लोक री भाषा ही लोकभाषा है। संपूर्ण लोक री सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक संवेदनाएं लोक भाषा मांय ही अभिव्यक्त अर समाहित हैं। लोकसाहित्य लोक भाषा रा बहुरंगी रूप-स्वरूप मांय ही वाणी देवे है।
हिन्दी साहित्यकोश मांय ‘लोक’ नै स्पष्ट करतां तकां लिख्यौ गयो है- “लोक मनुष्य समाज रो वो वर्ग है जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता अर पाण्डित्य री चेतना, पाण्डित्य रा अहंकार स्यूं शून्य है अर जो परम्परा रा एक प्रवाह मांय जीवित रेवे है।”1 वास्तव में लोकतत्त्व री अर्थ सीमा घणी फ़ैली तकी है। इणरे मांय उण सारां आचारां, विचारां, परम्परावां, संस्कारां, रूढ़िगत बंधनां रो समावेश हो जावे है, जिणरो स्रोत लोकमानस है। जिणरा परिमार्जन मांय संस्कृति री चेतना उपेक्षित नी होवे। अणी वास्ते सांस्कृतिक चेतना रा ज्ञान रा लोकजीवन नै समझनो जरूरी रेवे है। लोकजीवन मांय मानवीय व्यवहार रो रेखांकन अर उणरी सार्थकता हेतु लोकनीति रो प्रभाव रेवे है। सफल लोकजीवन हेतु लोकनीति रो पालन भी अनिवार्य है।
लोकप्रिय संतकवि बावजी चतुर सिंहजी भारत रा एक लोकप्रिय लोक संत-कवि अर निपुण योगी हा। वे राजस्थान रा पतंजलि अर वाल्मीकि रा रूप मांय याद किया जावे है।2 वीतरागी भक्त अर महात्मा बावजी चतुरसिंह जी रो मेवाड़ री भक्ति-परम्परा मांय ख़ास जगां है। वे मेवाड़ री राज-परम्परा स्यूं जुड्या मानुस होता तकां भी उदात्त-चिंतन, दार्शनिक दृष्टि अर नीति-कथन री स्वाभाविकता स्यूं जन-सामान्य मांय खूब लोकप्रिय हा। वे एक महान कवि होने रा सागे एक प्रबुद्ध व्यक्तित्व हा। वणारो जनम सोमवार 9 फरवरी, 1880 (वि.सं. माघ कृष्ण 14, 1936) नै करजाली हवेली मांय रानी कृष्णा कुँवर अर करजाली रा महाराज सूरत सिंह रा यहाँ हुयो।3 वणारी रचनावां आध्यात्मिक ज्ञान अर लोक व्यवहार रो संतुलित मिश्रण हैं। वाणी मांय लोकनीति रो सटीक चित्रांकन देखवा लायक है। जीवन रा रहस्य नै सुलझाने मांय पदां री वक्रता लोकमन रा हृदय री अभिव्यक्ति प्रतीत होवे है।
बावजी चतुरसिंह जी ने राजस्थानी री उपबोली लोकभाषा ‘मेवाड़ी’ मांय विचार प्रकट किया। स्थानीय जनता री मातृभाषा मांय मानवता रा आध्यात्मिक, सामाजिक अर सुधारवादी ज्ञान रो प्रचार कियो अर गद्य-पद्य दोन्यू लिख्या, जिणने समाज रा सब वर्गां स्यूं बड़ी श्रद्धा रे साथ पढ़ा जावे है। लगभग सात वर्षों (1922-1929) री छोटी अवधि रा दौरान रचित साहित्यिक रचनावां मांय- अलख पच्चीसी, तुही अष्टक, अनुभव प्रकाश, चतुर प्रकाश, हनुमत्पंचक, अंबिकाष्टक, शेष-चरित्र, चतुर चिंतामणि, शिव महिम्ना स्तोत्र, चन्द्रशेखर स्तोत्र, श्री गीताजी, मानव मित्रः राम चरित्र, परमार्थ विचार, हृदय रहस्य, बाळकं री वार, बाळकं री पोथी, सांख्यकारिका, तत्त्व समास, योग-सूत्र आदि ख़ास हैं। इण कृतियाँ मांय ‘चतुर चिंतामणि’ रा दोहे जन सामान्य मांय विशेष रूप स्यूं प्रसिद्ध हैं। इणमांय छियालीस पद अर तीन सौ चवोत्तर दोहे विनय, ज्ञान, नीति, वैराग्य अर उपदेश आधारित हैं। कठे-कठे वीर रस रा पद भी आया हैं।
‘चतुर चिंतामणि’ रा पदां रो लोकनीति री दृष्टि स्यूं विवेचन द्रष्टव्य है-
लोकजीवन मांय धरम री महिमा अनिर्वचनीय है। भारतीय जनमानस आध्यात्मिक मूल्यां नै सर्वोच्च जगां देवे है। कई बार वो धरम रा मूल मंतव्य नै नी समझ’र रूढ़िवादी हो जावे है। अतः जीवन मांय ज्ञान रा साथ विवेक रो होणों आवश्यक है। इणरा अभाव स्यूं मानव रो व्यवहार एकांगी हो जावे है। बावजी चतुरसिंह जी ने जनसामान्य नै सन्देश देता तकां कह्यो कि संसार मांय अनेक धरम हैं, सब री उपासना पद्धति, कार्य-व्यवहार अर व्यवहार पद्धति मांय भिन्नता है। पण इण भिन्नता रा बाद भी सब धर्मां रो एक ही उद्देश्य है-ईश्वर नै जाणणो। यो उद्देश्य विवेक होने पर ही मिल सके है-
धरम
धरम सब एक है, पण वरताव अनेक।
ईश जाणणो धरम है, जीरो पंथ विवेक॥4
यो विचार आज रा समाज रा वास्ते विशेष रूप स्यूं महत्त्वपूर्ण है, जठे धरम अर पंथ री उपासना पद्धतियाँ उणरा मूल उद्देश्य स्यूं दूर वेईगी है। विवेक जीवन रो अनिवार्य तत्त्व है। इणरा अभाव मांय कणी भी धरम रो पालन कियो जाए तो उद्देश्य प्राप्त नी वेगा। वे केवे हैं कि विद्यारूपी लता जीवन रूप वृक्षी स्यूं लिपटी तकी है। विद्यार्जन करणो वृक्ष नै जल सींचने रा समान है। जिस प्रकार जल सींचने पर वृक्ष पे फल आवे हैं। उसी प्रकार पढ़ने स्यूं ही जीवन रा उद्देश्य री प्राप्ति होवे है। जीवन मांय सुख-दु:ख रूपी फल विद्यार्जन रा आधार स्यूं ही प्राप्त होवे हैं-
विद्या
विद्या वेल जुग, जीवन तरु लिपटात॥
पढिबौ ही जल सचिबौ, सुख दुख नै फल पात॥5
लोक जीवन मांय मनुष्य जीवन री सफलता मांय उणरा स्वभाव रो खूब योगदान है। बावजी चतुर सिंह जी केवे हैं कि हर एक व्यक्ति रो स्वभाव भिन्न होवे है। उणरी महानता किया तकां कार्यां स्यूं प्रकट होवे है। कवि ने तुलना करतां तकां लिख्यौ कि जिस प्रकार रँहट अर चरखी दोनां घूमे हैं, पण रँहट रा घूमने स्यूं पानी फसल तक पहुँचे अर खेत हरा-भरा हो जावे है। दूजी ओर चरखी रा घूमने स्यूं गन्ने रा छिलकां रो ढेर तैयार हो जावे है-
रेंठ
फरै चरक्यो फरै, पण फरवा रो फेर।
वो तो वाड़ हरयौ करै, यो छूता रो ढेर।।6
अपने स्वभाव रा साथ वाणी री महता लोक मांय व्यक्ति री उपस्थिति महनीय बणावे है। इस्यूं रेखांकित करतां तकां वे केवे हैं कि हर एक व्यक्ति नै बोलने स्यूं पेलां यो तय करणो छावे कि वणीने किसी स्यूं क्यूं बोलणो है? कदी बोलणो है? कुण सी वात बोलनी है? व कसी बात क्यूं बोलनी है? इण सब वातां रो पेलां मन मांय अच्छी तरह स्यूं विचार कर लेणो छावे। फिर सारयुक्त बात करने स्यूं व्यक्ति री बात रो मान बढ़ जावे है-
क्यू कीसू
बोलू कठै, कूण कई कीं वार।
ई छै वातां तोल नै, पछै बोलणो सार॥7
लोकनीति मांय आत्मसम्मान नै मानव रो सब स्यूं बड़ा धन मान्यो गयो है। बावजी चतुरसिंह जी ने नीतिगत संदेश दियो है कि बिना मान-मनुहार रा पराये घर मांय पाँव नी रखना छावे, अन्यथा उणरो सम्मान नी रेवे। अपने इण विचार नै रेल रा इंजन अर सिग्नल स्यूं जोड़ता तकां कह्यो कि रेलगाड़ी रा इंजन सिग्नल मिलने पे आगे बढ़ता है, उसी प्रकार नूतो मिलने पे ही हमें पराये घर जाणो छावे, तब अपनी खातिरदारी वेगा-
पर घर
पग नी मेळणों, वना मान मनवार।
अंजन आवै देखनैं, सिंगल रो सतकार॥8
मन री बात हर किसी नै कहने स्यूं प्रतिष्ठा नै आघात पहुँचावे है। वे संदेश दियो कि अपने मन री बात हर किसी नै नी बतानी छावे। जिण तरीका स्यूं पोस्टकार्ड हर किसी नै अपना भेद बता देवे, अर अपणो मूल्य कम कर देवे है, पण लिफाफा संबंधित व्यक्ति नै ही अपनी बात केवे है। इणस्यूं उणरी महत्ता अधिक है। आशय यो है कि अपने मन री बात संबंधित या विश्वसनीय व्यक्ति नै ही कहनी छावे। इण लोकनीति री व्यंजना कवि ने इण प्रकार री है-
कारट
तो केतो फरै, हरकीनै हकनाक।
जीरो है वींनै कहै, हियै लिफाफो राख॥9
बिना नियोजित पहल स्यूं काम री सफलता नी मिले। इण हेतु पेलां उद्देश्य रो निर्धारण होणों छावे, बाद मांय योजना बनाकर काम नै करनो छावे। बावजी चतुरसिंह जी केवे हैं कि अठे-वठे भटकने मात्र स्यूं भोग री प्राप्ति नी होवे। उणरा वास्ते पेलां मूल जगां अर्थात् ठिकाने रो पता होणों छावे। समझदार व्यक्ति पाँव रखने स्यूं पेलां रास्ते नै ध्यान स्यूं देखे है। अर्थात् किसी भी काम नै करने स्यूं पेलां उद्देश्य निर्धारित होणों छावे, तब ही उणरी सफलता मिल सके है-
वे भटका
भोगै नी, ठीक समझलै ठौर।
पग मेल्यां पेलां करै, गेला ऊपण गौर॥10
संतुलित आचरण सार्थक व्यक्तित्त्व रो निर्माण करे है। लोकजीवन मांय कणी रे लारे अधिक मोह अर कणी री उपेक्षा ठीक नी है, क्यूंकि कणी भी वस्तु री सार्थकता उणरी पर्याप्तता मांय है, कम या अधिकता मांय नी है। वे केवे हैं कि कम दैणों भी आछो नी अर अधिक देवां स्यूं बेकार जावे है। जिस प्रकार आग मांय कम ईंधन देने स्यूं पूरी तरह जल नी पावे अर अधिक देने पर बेकार जावे। अतः आहार समुचित दियो जाणो छावे-
ओछो
भी आछो नी, वत्तो करै कार।
दैणों छावै देखनै, अगनी मुजब अहार॥11
लोक मांय वो मनख समझदार है जो मर्यादानुकुल आचरण करे है। वे केवे हैं कि जो अपनी मर्यादा स्यूं अनभिज्ञ रेवे हैं, वे कई-कई बार व्यर्थ ही अपणो समय गँवा देवे हैं, दूसरी ओर समझदार व्यक्ति आँखों रा इशारां स्यूं ही समझ लेवे अर तदनुरूप अपना व्यवहार तय कर लेवे है। अत: परिस्थिति अर समय नै शीघ्र भाँप लेणो समझदार व्यक्ति रो गुण है-
अपनी आण अजाणता, कईक नैरा जाय।
समझदार समझै सहज, आँख इशारा माँय॥12
मूरख व्यक्ति री संगत आपरा पथ नै भी विचलित कर सके है, अतः लोक मान्यता या है कि मूरख व्यक्ति री वातां पे भरोसा नी करनो छावे। जो व्यक्ति मूरख व्यक्ति स्यूं पूछकर काम करे है, वो स्वयं भी अज्ञानी रह जावे है अर अपना काम भी बिगाड़ देवे है। कारण यो है कि मूरख व्यक्ति नै कभी सही रास्ते री पहचाण नी रेवे है। अतः उणरी बात नी माननी छावे-
गेला
नै जातो कहै, जावै आप अजाण।
गेला नै रवै नी, गेला री पैछाण॥13
जीवन री सार्थकता रा वास्ते उद्देश्यनिष्ठ कामपद्धति अपेक्षित है, क्यूंकि यो जीवन एक सड़क री भाँति है, जिणपे हम गाता तकां, रोता तकां, लड़ता तकां अर प्यार करतां तकां निकल रह्या। अब हमें इण सड़क पे अपने मनख जीवन रो अवलोकन भी कर लेणो छावे कि हमने कई कियो? यो जीवन रूपी सड़क बिना उद्देश्य रा पूरी न हो जाय, इणपे अवश्य विचार करनो छावे-
गाता
रोता नीकळ्या, लड़ता करे प्यार।
अणी सड़क रै ऊपरै, अब लख मनख अपार॥14
लोक मांय नीति रा प्रसार हेतु नैतिक जीवन होणों छावे। मानव रो जीवन नश्वर है। संसार मांय जीवन री नश्वरता रो वर्णन करतां तकां वे केवे हैं कि गोखड़े (गवाक्ष) आदि यहीं खड़े रह गए, पण उन मांय स्यूं जो झाँकने वाला हा, वे सब चला गया। इसी प्रकार ताँगे यहीं खड़ा रही गया अर उणनै हाँकने वाला सब चला गया। भाव यो है कि संसार री संपदा अठेही’ज री जावेगी अर मनुष्य नै एक दिन संसार स्यूं विदा होणों ही है-
गोखड़िया
खड़िया रया, कड़िया झांकणहार।
खड़खड़िया पड़िया रया, खड़िया हाकणहार॥15
संसार मांय जीवन शाश्वत नी है। लोकमन री अणी मानता नै स्पष्ट करतां तकां वे केवे हैं कि जब रेल दौड़े है तो रूंखडा सागे दौड़ता तकां दिखाई देवे हैं, पण अंततः वे वठे ही रह जावे हैं। इसी प्रकार मनुष्य जीवन रा साथ शरीर रो संबंध है। एक दिन यो शरीर भी चल्यो जाई। उणरी स्थिति सूरज री तानी है जो परभाते उगे है अर सायं नै अस्त हो जावे है। यो शरीर भी उसी भाँति जनम लेवे है अर मृत्यु नै प्राप्त करे है-
रेल
दौड़ती ज्यूं घणा, रूख दोड़ता पेख।
तन नै जातो जाण यू, दन नै जातो देख॥16
समग्रतः कह्यो जा सके है कि चतुर चिंतामणि मांय लोक व्यवहार री विसंगतियों पे प्रहार रा सागे मानव-कल्याण रो सन्देश सटीक दृष्टान्तों स्यूं दियो गयो है। इ पद लोकनीति री दृष्टि स्यूं मानव-मूल्यां रो गहन संवर्धन करे है। सामान्य लोकजीवन पे आधारित इण दोहां मांय मानव, संसार अर जीवन रा उद्देश्य नै सैद्धांतिक तरीकों स्यूं समझने को मिले है। इण री सार्थकता वर्तमान मांय अधिक प्रासंगिक प्रतीत होवे है। वणारी रचनावां मांय ईश्वर ज्ञान अर लोक व्यवहार रो सुन्दर मिश्रण है। कठिन स्यूं कठिन ज्ञानतत्व नै हमारे जीवन रा दैनिक व्यवहारां रा उदाहरणों स्यूं समझाता तकां सुन्दर लोकभाषा मांय इण चतुराई स्यूं ढाल्यो है कि उनरा विचार समकाल मांय भी प्रासंगिक हैं।
सन्दर्भ-
1. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1, पारिभाषिक शब्दावली, ज्ञानमंडल, वाराणसी, सं.1968, पृ. 591
2. बावजी चतुरसिंहजी, कन्हैयालाल राजपुरोहित, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, सं.1996, पृ. 96
3. गुमान ग्रंथावली, संस्करण. देव कोठारी, एल.आर. व्यास, अर डी.एन देव, साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर, सं.1990, पृ. 281
4. चतुर चिंतामणि, संपादक डॉ. मोतीलाल मेनारिया, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, सं. 2000, पृ. 40
5. वही, पृ. 28
6. वही, पृ. 43
7. वही, पृ. 44
8. वही, पृ. 40
9. वही, पृ. 43
10. वही, पृ. 43
11. वही, पृ. 44
12. वही, पृ. 43
13. वही, पृ. 36
14. वही, पृ. 34
15. वही, पृ. 35
16. वही, पृ. 34