नासिरा शर्मा के उपन्यासों में संवेदना का धरातल

 

नासिरा शर्मा के उपन्यासों में संवेदना का धरातल

'विविधा' जनवरी-मार्च,2025 में प्रकाशित

साहित्य संसार के प्रति मानसिक प्रक्रिया अर्थात् विचारों व भावों की अभिव्यक्ति है। यह ‘हित का साधन’ भी करता है, अतः संरक्षणीय भी है। इसे समाज का उत्पादन भी कहा जाता है, जिससे विशाल मानव जाति की आत्मा का स्पन्दन ध्वनित होता है। साहित्य जीवन की व्याख्या भी करता है, इसी कारण उसमें जीवन देने की शक्ति भी आती है। इस प्रकार साहित्य व समाज का अन्योन्याश्रयत्व चिरकाल से रहा है। स्वप्निल श्रीवास्तव के अनुसार- “आज का यथार्थ मारक और अविश्वसनीय है। वह फैंटेसी के आगे का यथार्थ है। आज के यथार्थ का चेहरा रक्तरंजित और अमानवीय है। यथार्थ हमारे सामने विस्मयकारी दृश्य प्रस्तुत करता है, जो कल्पनातीत है।”[1] विस्मयकारी यथार्थ का जो दृश्य नई सदी के दो दशकों में दिखाई देता है, वह उपनिवेशवादी प्रभाव का परिणाम है। फलतः जो कारक हमारे समक्ष उपस्थित हैं, उनमें प्रमुख हैं- वैश्वीकरण, मुक्तबाजारवाद, विकृत उभोक्तावाद, राजनीतिक अधिनायकवाद, मूल्यहीनता, सांस्कृतिक संघर्ष, भ्रष्ट आचार, हिंसक वर्चस्व आदि। यद्यपि ये कारक वैश्विक हैं, किन्तु भारतीय मन इससे ज्यादा प्रभावित है।

नासिरा शर्मा हिंदी कथा साहित्य की एक सशक्त हस्ताक्षर है।  उनकी कृतियों में समाज और संस्कृति का कैनवास विराट रूप में मिलता है। उनके उपन्यासों में रिश्तों की दास्तान, लुप्त होती संवेदनाओं की पड़ताल, वैश्विक परिदृश्य में इंसानियत तथा समकालीन परिवेश में संघर्षशील समाज का बहुआयामी पक्ष बखूबी उभरता है। उन्होंने बाजार और तकनीक के मकड़जाल में फँसी युवा पीढ़ी को भी सावचेत करने का प्रयास किया है। उनके प्रत्येक उपन्यास में समाज के विविध पक्षों को लेकर चिंताएँ व्यक्त की गई हैं। ‘सात नदियाँ: एक समंदर’ ईरानी क्रांति पर लिखा गया दुनिया का पहला उपन्यास है। ‘शाल्मली’ स्वतंत्रता के बाद महिला विमर्श की चेतना को इंगित करने वाला उपन्यास है तो ‘ठीकरे की मंगनी’ एक संघर्षशील युवती की दास्तान है। ‘जिंदा मुहावरे’ में भारत विभाजन का दर्द छलकता है। ‘अक्षयवट’ में युवा पीढ़ी का संघर्ष दिखाई देता है, वहीं ‘कुइयां जान’ में शुष्क होती संवेदनाओं का प्रकटीकरण है। ‘जीरो रोड’ में देश के सामयिक यथार्थ का अंकन है तो ‘पारिजात’ में संस्कृति और परंपरा में नए सूत्र को खोजने की कोशिश है। ‘अजनबी जजीरा’ में इराक की दारुण स्थितियों का अंकन है। ‘कागज के नाव में बेरोजगारी और पलायन की विसंगतियों को उजागर करने की कोशिश है। ‘शब्द पखेरू’ में बाजार का परिदृश्य तो ‘दूसरी जन्नत’ में आधुनिकता की तेज रफ्तार पर फिसलती जिंदगी का सजीव चित्रण है। इस प्रकार मानव जीवन के समग्र पक्षों को नासिरा शर्मा ने अपने उपन्यासों की विषय-सामग्री के रूप में प्रस्तुत किया है।

भारत ने अथक संघर्ष के उपरांत 15 अगस्त, 1947 को आजादी तो प्राप्त कर ली, किन्तु विभाजन की त्रासदी के दंश के आघात को भी झेला। जहाँ धर्म और संप्रदाय के आधार पर मानवता का विभाजन हुआ और मनुष्यता के पतन का रक्तस्नात् चेहरा भी प्रकट हुआ। हजारों लोग बेघर, दंगे, अकाल मृत्यु, विध्वंस, द्वेष के दृश्य के साथ संवेदना का अवसान भी देखने को मिला। नासिरा शर्मा ने उन विभीषिकाओं का केवल ब्यौरा प्रस्तुत न कर उस मानसिकता को नंगा किया है, जो संकटकालीन स्थितियों में भी सब कुछ छीनने और मौके का फायदा उठाने की मनोवृत्ति से ग्रस्त है। नासिरा शर्मा का 'जिंदा मुहावरे' उपन्यास भारत विभाजन की त्रासदी के आधार पर लिखा गया है। धर्म के नाम पर हुए कत्लेआम और इंसानियत के मर जाने का वीभत्स चित्रण करता हुआ यह उपन्यास हिंदी साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। फैजाबाद गाँव में रहने वाला रहीमुद्दीन का छोटा बेटा निजाम उपन्यास का केंद्रीय पात्र है, वह पाकिस्तान का ख्वाब देखते हुए करांची चला जाता है और सोचता है "जहाँ जात है अब वही हमारे वतन कहल इहे। नया ही सही अपना तो होइहे। जहां रोज-रोज ओकी खुद्दारी को कोई ललकारिए तो नाहीं।"[2] परंतु पाकिस्तान जाकर वह अपनी जन्मभूमि की गंध के लिए तड़पता है, क्योंकि उसके माँ-बाप, भाई-बहन तो अपनी पैतृक जमीन भारत में ही हैं। वह भारत लौटने के लिए लालायित रहता है, परंतु सियासत उसे ऐसा नहीं करने देती। उसकी तड़प मर्म को हिला देती है। इससे यह प्रकट होता है कि विभाजन का दर्द हमारे समय का घातक सच है।

वैश्विक धरातल पर यदि हम अवलोकन करें तो किसी भी समाज में महिलाओं को समान स्तर प्राप्त नहीं हुआ। पुरुष की परंपरागत मानसिकता में नारी की संघर्ष गाथा है। यह विश्व के प्रत्येक देश में देखी जा सकती है। ईरान की क्रांति पर आधारित उपन्यास ‘सात नदियां: एक समंदर’ में अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठती स्त्रियों की संघर्ष गाथा है। इस उपन्यास की सारी प्रमुख पात्र स्त्रियां हैं, जहां खुमेनी  शासन के आने पर उनकी उम्मीदें टूट जाती है। शासन के विरोध में बोलने का नतीजा यह होता है कि पहले तो वह अपने वैवाहिक जीवन से दूर हो जाती है और तैयब अपनी कलम को खुमेनी शासन के विरुद्ध चलाती है तो अंततः शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना देते हुए उसे गोली से उड़ा दिया जाता है।  यहां नासिरा शर्मा लिखती है, “ईरान की क्रांति पर लिखा मेरा यह उपन्यास उन अनुभवों का लेखा-जोखा है जो पिछले नौ वर्ष में मुझे ईरान की धरती पर हुए इन नौ वर्षों के पीछे लगभग नब्बे वर्षों का अतीत सांस ले रहा था जिसमें 5000 वर्ष पुराने ईरान की सभ्यता संस्कृति का वैभव अपनी ऐतिहासिक गाथा गुनगुना रहा था।“[3] वास्तव में युद्ध हो या क्रांति, स्त्रियों का संघर्ष अपने लिए कुछ पा न सका।

आर्थिक नाकाबंदी में इराक की जनता जिस गरीबी और महंगाई से जूझ रही थी, उसी में अमेरिकन बमबारी, सद्दाम का तख्ता पलट और आम आदमी किस तरह सियासी खबरों के पीछे छुप जाता है उसका सुख-दुख ‘अजनबी जजीरा’ में प्रकट हुआ है। युद्ध ग्रस्त विभीषिका में औरतों की स्थिति का सत्य और भी भीषण है। लेखिका ने इस सत्य को इस उपन्यास की पात्र समीरा के मुँह से कहलवाया है, "युद्धग्रस्त समाज की कठिनाइयाँ कितनी नई परेशानियों से हमारा परिचय कराती है, तब पेट के आगे बदन बेचना यहां तक की अपने बच्चे तक को बेचना मुश्किल काम नहीं लगता, बल्कि मौत को नजदीक पाकर जीने की तमन्ना ज्यादा बढ़ जाती है। मुझे ही देखो जवान बेटियों की भूख के आगे मैं अपनी भूख को दबा नहीं पाती..।"[4]  समीरा का यह कथन मानवीय त्रासदी की पराकाष्ठा है। जब वह कहती है, “जिस्मफरोशी से मुझे हालात ने महफूज रखा वरना वह भी मुझे करना पड़ता.. हालात अच्छाई और बुराई के मायने कैसे बदल कर रख देते हैं.. पेट भरे लोगों के लिए उंगली उठाना कितना आसान होता है मगर भूखे के लिए रोटी हर फलसफे से बढ़कर अहम हो उठती है।“[5] सभ्य कहलाने वाले इस आधुनिक विश्व में विध्वंस का यह मूर्त रूप पाठकों को स्तब्ध कर देता है। ऐसे परिदृश्य में मान्यता तारतार होती है और स्त्री विमर्श के समूचे निहित अर्थ बदल जाते हैं।

पेट की आग व्यक्ति को कुछ भी करने कोई वश कर देती है उसे समय उसके सामने नैतिकता का मायने बदल जाते हैं। विदेशी सेना के आक्रमण और बम हमले से इराक पूरी तरह नष्ट हो गया है। फौजी शासन के तले लोगों को जरूरत की चीजों के लिए घरेलू सामान बेचना पड़ रहा है। अधिकांश इराक के समर्थक मारे जा चुके हैं। ऐसे भीषण समय में एक बूढी औरत जो अपने दो छोटे नवासों की एकमात्र संरक्षक है। बच्चों की भूख को शांत करने के लिए बाजार में दो रोटी छुपाने के आरोप पकड़ी जाती है। वह अपना दुखड़ा समीरा के समक्ष कहती है, "मेरे दो नवासे हैं, कल से भूखे हैं। चारा क्या था मेरे पास?"[6] यह सच मानवता के नाम पर कलंक है।

धर्म के नाम पर हमारा सामाजिक ताना-बाना आज के समय में छिन्न-भिन्न दिखाई देता है। 'जीरो रोड' उपन्यास में धार्मिक कट्टरता के नाम पर इंसानियत को तबाह करने का दृश्य दिखाई देता है। कई ऐसे दृष्टांत है जिसके माध्यम से पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है। उपन्यास का पात्र मुन्ना हाफिज का घर राम प्रसाद व जगत रामजी  के मोहल्ले में है। वह चौक में मजहबी किताबों की दुकान लगाकर परिवार का पालन पोषण करता है। अपनी ईमानदारी व उदार दृष्टिकोण के कारण अपने ही मजहब के कट्टर व संकुचित मानसिकता वाले लोगों को चुभने लगता है। उनके उकसाने पर वह तबलीगी जमात वालों को जवाब देते हुए कहता है, "कान खोल कर सुन लें आप सभी साहेबान! मैं किसी के ना खिलाफ कोई काम करता हूँ ना किसी मजहब की तब्लीग पर। मैं गैर मुसलमान को गाली नहीं देता हूँ, बल्कि उन बातों की शिकायत करता हूँ, जो हमें खलती है, जिससे हमें नुकसान पहुँचता है।"[7] उसके इस उदार मनोवृति का परिणाम यह होता है कि एक दिन अचानक रात के दो-तीन बजे उसकी दुकान में आग लगा दी जाती है। लगभग दो लाख की किताबें जलकर खाक हो जाती हैं। इस घटना को लेकर उनके ही जमात के लोग तरह-तरह के आशंकाएं व्यक्त करते हैं और कोशिश करते हैं कि इसे सांप्रदायिक रूप दिया जाए।

जब भी दुनिया में सांस्कृतिक एकता के इतिहास की बात होती है तो भारत का जिक्र होना लाजमी ही है। यहाँ के संस्कारों में दो संस्कृतियाँ यूँ घुली-मिली हैं मानो दोनों एक दूसरे की पूरक हों। ‘पारिजात’ उपन्यास नासिरा शर्मा की एक ऐसी ही कृति है, जो भारत की समावेशी संस्कृति को परत-दर-परत खोलती और मानवीय रिश्तों की बुनावट को भाषा के एहसासों से पाठक के अंदर जीवंत करती है। ‘पारिजात’ आज की पीढ़ी के सपनों, उसके निर्णय, माता-पिता के प्रेम, स्त्री की भारतीय और पाश्चात्य छवि के साथ गुरु-शिष्य के संबंधों और एक समुदाय विशेष के प्रति पाश्चात्य पूर्वाग्रह से घायल समाज जैसी संवेदनाओं को एक नए फलक में तर्कों के साथ बयां करता है, वहीं ‘अक्षयवट’ उपन्यास में लेखिका ने इलाहाबाद से जुड़ी अपनी स्मृतियों के बहाने मानवीय संवेदना में आए बदलाव को रेखांकित किया है। इस उपन्यास के केंद्र में इलाहाबाद शहर के पत्थर गली, नखास कोना, रानी मुंडी, दरियाबंद, हिम्मत गंडा, बताशा वाली गली आदि भागों में रहने वाले लोगों की जिंदगी को दर्शाया है।

यहाँ हम देखते हैं कि उपभोक्ता संस्कृति ने उत्सवों में छिपे सार तत्त्वों को सोख लिया है। स्वयं लेखिका कहती है, "परंपरा के निर्वाह के लिए रावण के पुतले में आग लगाना और बुराई को सदा के लिए मिटा देने का संकल्प हर दिल में होता, मगर व्यावहारिक रूप से मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनने की जिज्ञासा किसी में ना जगती। क्योंकि त्याग करने पर आज के दौर में कोई राजी ना था, उल्टे त्याग की जगह पैसा कमाने की नई-नई तरकीबों में सबका मन मस्तिष्क रमता। रावण को ना करते हुए भी रावण- कृत्य को अपनाने की छुपी लालसा आज का सबसे कड़वा यथार्थ था।"[8] वस्तुतः इलाहाबाद की धमनियों में अक्षयवट के समान अविराम भाव धारा विरासत के रूप में सदैव विद्यमान रही, लेकिन समय के साथ उसमें भी व्यवस्था की सड़ांध और अवसाद भरी जिंदगी के चिह्न नजर आने लगे हैं।

आर्थिक उदारीकरण के दौर में शहरीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई है और इस प्रक्रिया में सर्वाधिक नुकसान ‘संवेदना’ का हुआ है। जहाँ व्यक्ति अपने घर को बचाने के लिए संघर्ष करता दिखाई देता है। हमने भावनाओं को केन्द्रित करना सीखा है और रिश्तों को भी ताक पर रख दिया है। हम सवालों से डरने लग गए हैं और अपेक्षा करते हैं कि जैसा चल रहा है उसे घर का हर सदस्य स्वीकार कर ले। 'शब्द पखेरू' उपन्यास हमें आगाह करता है कि कैसे नई पीढ़ी अनजाने में ही साइबर क्राइम का हिस्सा बन जाती है। आम जीवन में बढ़ते इंटरनेट के इस्तेमाल और सामाजिक संबंधों में आए बदलावों को हमारे समक्ष बखूबी उपस्थित करता है, दूसरी और मध्यमवर्गीय परिवार की घुटन, संवादहीनता और सीमित संसाधनों के साथ बड़े सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद में लगे बच्चों की कथा यह उपन्यास बारीकी से कहता है। आज के मध्यमवर्गीय  परिवारों में  यह दृश्य सामान्यतया दिखाई दे सकता है।

आज की पीढ़ी बुजुर्गों के बजाय गूगल से मिलने वाले ज्ञान पर ज्यादा सहज है। "मनीषा शैलजा में बढ़ता विश्वास देख रही थी जो कभी-कभी उसे बाद आक्रामक लगता। हरदम लैपटॉप की स्क्रीन पर आंखें गाड़ी रहती। एक दिन उसने ईर्ष्या वश उसका नाम 'इंटरनेट बेबी' रख दिया था, मगर उसे इस पर कोई फर्क नहीं पड़ा। फेसबुक पर हर फ्रेंड रिक्वेस्ट को कंफर्म कर देना जैसे उसके लिए जरूरी था। किताब या नोटबुक खुली है, सामने मैटर ढूँढने के बहाने चैट चल रही है। दिखावा ऐसी करती है जैसे बेचारी पढ़ाई को लेकर हलकान हो रही है। इंटरनेट के विस्तृत आकाश पर देखने पढ़ने और खोजने के लिए बहुत कुछ था। उसने गूगल को 'ग्रैंडपा' का नाम दे रखा था।"[9]

समग्रतः यह कहा जा सकता है कि जब कभी मानव सभ्यता चाँद को छूने के लिए ब्रम्हांड को चीरती है तब ये चित्र मानव को आदिम युग में ले जाते है, जो शर्मनाक है। मनुष्यता के कलंक से विमुक्ति का प्रयास मानव जीवन के प्रति एकात्म भाव से ही संभव है, अन्यथा विकास की गति केवल छलावा है। विश्व साहित्य की प्रथम पुस्तकजिसे यूनेस्को ने भी स्वीकार किया हैवह है- ऋग्वेद। उसमें कहा गया है- मनुर्भवःअर्थात् मनुष्य बनो। मनुष्यता का बोध ही भारतीय संस्कृति का मूल हैजो वर्तमान और भविष्य के लिए भी जरूरी है व रहेगी। हिन्दी उपन्यास परम्परा में नासिरा शर्मा का अवदान मानवीय संवेदनाओं के धरातल पर इस दृष्टि से स्तुत्य है।

संदर्भ-

1.      आलोचना, अप्रैल-जून,2003, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.32

2.      जिंदा मुहावरे, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2017, पृष्ठ 11

3.      सात नदियां: एक समंदर, अभिव्यंजना प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 1984, पृष्ठ 7

4.      अजनबी जजीरा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2017, पृष्ठ 78

5.      अजनबी जजीरा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2017, पृष्ठ 120

6.      अजनबी जजीरा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2017, पृष्ठ 24

7.      जीरो रोड, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सं. 2003 पृष्ठ 286

8.    अक्षयवट, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सं. 2003 पृष्ठ 42

9.      शब्द पखेरू' वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2017, पृष्ठ 40

 


आधुनिक हिन्दी काव्य-धारा में मेवाड़

आधुनिक हिन्दी काव्य-धारा में मेवाड़ 
अपनी माटी पत्रिका जनवरी-मार्च,२०२५ में प्रकाशित

शोध सार : 
मेवाड़ का नाम स्वातंत्र्य चेतना की श्रेणी में बड़े आदर से लिया जाता है। इसी कारण आधुनिक हिंदी कविता में मेवाड़ का ऐतिहासिक गौरव स्वाधीनता संग्राम का पदचिह्न बना। यहाँ का शौर्य साहित्यकारों के लिए विस्मयकारी रहा। लेखन की विषय-वस्तु में अत्याचारों के विरुद्ध नहीं झुकने का संदेश, मातृभूमि की आन-बान-शान पर कर्तव्य निभाते हुए युद्ध करना, सतीत्व की रक्षा के मर मिटना, प्रताप का मातृभूमि प्रेम, पन्ना का पुत्र-बलिदान जैसे कई कथानक मेवाड़ की माटी के माध्यम से साहित्य की धरोहर बने। दासता के विरुद्ध संघर्ष के प्रेरणा स्रोत रहे इन उदात्त चरित्रों को लेकर महाकाव्य, खंडकाव्य, मुक्तक काव्य लिखे गए, जिसमें मेवाड़ का शौर्य प्रखर रूप में प्रदीप्त हुआ। इस अनुपम अवदान में श्यामनारायण पांडेय रचित ‘जौहर’ और ‘हल्दीघाटी’, रामकुमार वर्मा की रचना ‘चित्तौड़ की चिता’, जयशंकर प्रसाद कृत ‘महाराणा का महत्त्व’, लाला भगवानदीन की ‘वीर पंचरत्न’ जैसी प्रबंध रचनाओं के साथ प्रसाद रचित ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ जैसी अमर कविता उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त वाचिक परम्परा में गाए जाने वाली स्तुतियों की संख्या अपार हैं। कालांतर में शांति की कामना का स्वर भी डॉ. हरीश का खंडकाव्य ‘महीयषी मीरा’ में मुखरित हुआ है। 
बीज शब्द : मेवाड़ का गौरव, जौहर, सतीत्व की रक्षा, शौर्य, स्वामिभक्ति, स्वातंत्र्य-बोध, आत्मोत्सर्ग-भाव, औदात्य, युद्ध की भीषणता, वाचिक परम्परा, भक्ति-भाव।

मूल आलेख :
राजस्थान शूरवीरों की भूमि के रूप में विख्यात है। मेवाड़ का इतिहास स्वातंत्र्य-चेतना का सदैव आदर्श प्रतीक बनकर उपस्थित रहा। वीर गाथाओं में महाराणा प्रताप का शौर्य स्वाधीन मातृभूमि का प्रेरणा-स्रोत बनकर प्रकट हुआ तो पन्नाधाय का मातृभूमि के लिए पुत्र का बलिदान अपूर्व है। पद्मिनी-कर्मवती का जौहर, गोरा-बादल की वीरता को समय की अबाध गति में भी अविस्मरणीय बनाए रखने का स्तुत्य कार्य कवियों ने किया है। मेवाड़ की भूमि जो भारतीय ललनाओं के रक्त से लाल है। उन्होंने अपने सुकुमार हाथों से अपने लिए चिता सजाई थी। प्रचंड आग और कोमल शरीर कैसा विचित्र संयोग था? उस बलिदान में कांति और गौरव की चिंगारियाँ भरी हैं। 
डॉ. रामकुमार वर्मा लिखते हैं, “चित्तौड़ की चिता की ज्वालाएँ अब भी इतिहास के पृष्ठों पर चमकती हैं। वासना में डूबे मुसलमानों की आँखों में अक्षम्य अपराध था। किसी हिंदू के घर में सौंदर्य का फूल खिलना, उसकी नियति- यवनों की वासना की भीषण अग्नि थी, अत्याचार, निर्दयता, शासन और वासनामयी प्रवृत्ति थी। चित्तौड़ भूमि में गौरव और सम्मान की भावना बची थी। चित्तौड़ ने जागृत रखा- सम्मान युक्त सूखी रोटी खाकर क्रूर शासकों से लड़कर, मिटकर भी गौरव को बचाना। वे टूट गए पर चित्तौड़ की आत्मा को, गौरव को कोई कुचल नहीं सका।“ [1] यह भूमि सम्पूर्ण भारतवर्ष में क्यों पूजनीय है, उसका उत्तर मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत भारती' में मिलता है। यह रचना स्वाधीनता आन्दोलन की कंठ-हार बनी, उसमें मेवाड़ की धरा के लिए व्यक्त उक्त पंक्तियाँ सभी कवियों के लिए प्रेरणास्पद मानी गई, जिसमें वर्णित है-

चित्तौड़ चंपक ही रहा यद्यपि यवन अलि हो गए,
धर्मार्थ हल्दीघाटी में कितने सूभट बली हो गए।
कुलमान जब तक प्राण तब तक, यह नहीं तो वह नहीं,
मेवाड़ भर में वक्तृताएँ गूंजती ऐसी रही।। [2]

श्री श्यामनारायण पांडेय ने जौहर की भूमिका में लिखा, "जौहर अपनी आर्य संस्कृति के 
संरक्षण में सहायक होगा और संस्कृति के पुजारियों की कमी नहीं, इसलिए इसका प्रचार स्वयंसिद्ध है। इस संघर्ष काल में आर्य संस्कृति के रक्षकों को जौहर के छंदों ने मंत्रों से भी अधिक बल दिया है, जो सर्वत्र स्पष्ट है।” [3] श्यामनारायण पांडे ‘जौहर’ में इस भूमि के माहात्म्य का परिचय एक संन्यासी के कथन के माध्यम से देते हैं जब कवि प्रश्न करता है कि संन्यासी तुम कहाँ पर पूजन करने के लिए जा रहे हो-

थाल सजाकर किसे पूजने चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का पीतांबर तन पर डाले?
कहाँ चले ले चंदन अक्षत, बगल दबाए मृगछाला?
कहाँ चली यह सजी आरती, कहाँ चली जूही माला?
इधर प्रयाग न गंगासागर, इधर ना रामेश्वर काशी।
कहाँ किधर है तीर्थ तुम्हारा, कहाँ चले तुम संन्यासी ? [4]

कवि संन्यासी से प्रश्न करता है और पूछता है कि तुम उपवीत, मेखला, जल से भरा कमंडल लेकर किसे नहलाओगे? मौलसिरी का गजरा किसके गले में पहनाओगे? कहाँ दीप जलाकर माला-फूल चढ़ाओगे? सारे प्रश्नों को सुनकर संन्यासी उत्तर देता है-
 मुझे न जाना गंगासागर, मुझे न रामेश्वर काशी।
 तीर्थराज चित्तौड़ देखने को, मेरी आँखें प्यासी।। [5] 

राजपूतों का युद्ध के लिए प्रस्थान करना, केसरिया वस्त्र धारण करना, क्षत्राणियों का जौहर करने का व्रत लेना, चिता के समीप फूलों की रेखाएँ सुसज्जित होना, फूलों से द्वार बनाने, आर्य ललनाओं का पूजन करना, धर्म हित मरण हेतु जौहर करना, दुर्गा देवी का पूजन करना कहना और अपनी भूलों के लिए क्षमायाचना करते हुए मरण-पथ पर प्रस्थान करना कितना लोमहर्षक है- 

देवी यह है अंतिम पूजन, क्षमा करना सब की सब भूल,
रहे सब पर सदैव अनुकूल, न करना हमसे निष्ठुरपन। [6]

मेवाड़ धरा के गौरव, राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक एवं मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले शूरवीर महाराणा प्रताप का व्यक्तित्व सदैव प्रेरणास्पद रहा है। श्याम नारायण पांडेय रचित खंडकाव्य ‘हल्दीघाटी’ प्रताप के जीवन-चरित्र को अमरत्व प्रदान करने वाली कृति है। हल्दीघाटी नामकरण राजस्थान की वीरभूमि के उस स्थल का नाम है, जहाँ राणा प्रताप और अकबर के मध्य भीषण संग्राम हुआ, परन्तु अकबर की मेवाड़ विजय की कामना अधूरी रही। श्याम नारायण पांडेय ने अपनी ओजस्वी प्रस्तुति से इस कृति को जनव्यापी बना दिया।  ‘हल्दीघाटी’ के नायक राणाप्रताप हैं और प्रतिनायक हैं- अकबर। प्रताप राजपूताना की छोटी-सी रियासत के राणा हैं, जबकि अकबर मुगल साम्राज्य का सम्राट। उसने संपूर्ण भारत पर एकाधिकार कर लिया, परन्तु प्रताप को झुकाने में विफल रहा। यह दंश उसे रह-रहकर सालता रहता। रत्नजटित महलों में अकबर की मनःदशा का चित्रण कवि ने इस प्रकार किया-

स्वर्णिम घर में शीत प्रकाश, जलते थे मणियों के दीप।
धोते आँसू-जल से चरण, देश-देश के सकल महीप ।
तो  भी कहता  था सुल्तान, पूरा  कब होगा अरमान ।
कब  मेवाड़ मिलेगा  आन, राणा  का होना अपमान ।। [7]

दूसरी तरफ राणा प्रताप तनिक भी विचलित नहीं और अकबर से किसी प्रकार का भय नहीं। अरावली की उपत्यकाओं में अपना दरबार सजाए हुए हैं । उन्हें पता है कि मानसिंह की अवज्ञा से अब रण अनिवार्य है, परन्तु मातृभूमि की अस्मिता अक्षुण्ण रहे, उसकी रक्षा का प्रण अटल है। अपनी छोटी सी सेना, भील सरदारों के प्रण और स्वाभिमानी गौरव के साथ भावी रण की तैयारियाँ वीरोचित गरिमा के साथ प्रस्तुत हुआ है-

शुचि  सजी शिला  पर राणा भी, बैठा  अहि-सा फुंकार लिए।
फर-फर  झंडा  था  फहर  रहा,  भावी  रण का  हुंकार लिए।
+++ +++ +++
तरकस  में  कस कस तीर भरे, कंधों  पर कठिन कमान लिए।
सरदार  भील भी  बैठ गए, झुक-झुक रण  के अरमान  लिए। [8]

अकबर द्वारा अब्दुर्रहीम खानखाना को जब मेवाड़ विजय के लिए भेजा, तब महाराणा प्रताप के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अकबर को जाकर जो वर्णन किया, वह स्वयमेव रोमांचित करता है। जयशंकर प्रसाद रचित ‘महाराणा का महत्त्व’ कविता में बताया गया कि इस घटना को सुनकर अकबर ने प्रताप से भविष्य में युद्ध करने का विचार ही त्याग दिया-

जिस दिवस मुझे कर सैनप भेजा आपने, 
वीरभूमि मेवाड़ विजय के हेतु, हाँ-
उस दिन सचमुच मुझे असीम प्रसन्नता 
हुई, कि मैं भी देखूँगा उस वीर को,
जो अब तक होकर अबाध्य सम्राट का
करता है सामना बड़े उत्साह से। 
सचमुच शहंशाह एक ही शत्रु वह
मिला है आपको है कुछ ऊँचे भाग्य से;
पर्वत की कंदरा महल है, बाग है-
जंगल ही आहार-घास, फल-फूल है।
सच्चा हृदय सहायक उसके साथ है। [9]

प्रताप की प्रतिज्ञा कि उनके जीवित रहते हुए मेवाड़ कभी भी पराधीन नहीं होगा। इसके लिए विशाल मुगल सेना से भिड़ने का अदम्य साहस अकल्पनीय है। राणा का महान् चरित्र तत्कालीन वातावरण में उनके अटल प्रण के साथ प्रकट होकर अथाह ऊर्जा का संचार करता है। माँ भवानी का आशीष लेकर जब हल्दीघाटी के मैदान में भीषण रण हुआ, तब मानसिंह के पैर उखड़ गए। राणा की सेना के अदम्य उत्साह से भीषण प्रहार हुआ, मुगल सेना में हाहाकार मच गया। युद्ध की भीषणता का अनुमान कवि की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- 

हयरुण्ड गिरे, गजमुण्ड गिरे, कट-कट अवनि पर शुण्ड गिरे।
लड़ते-लड़ते  अरिझुण्ड गिरे, भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे।
क्षण महाप्रलय की बिजली-सी, तलवार हाथ की तड़प-तड़प।
हय-गज-रथ, पैदल भगा-भगा, लेती थी बैरी वीर हड़प।। [10]

 हल्दीघाटी का युद्ध यदि राणा प्रताप के तेज को कालजयी बनाता है तो स्वामिभक्त चेतक के अद्भुत रण-कौशल को भी अमर कर देता है। चेतक का शौर्य कवि की दृष्टि में विस्मयकारी था। रण-क्षेत्र में स्वामी के आदेश पर चौकड़िया भरकर अरि मस्तक को रौंद रहा था। हवा से बातें करने वाला चेतक दुश्मनों पर कहर बनकर टूट रहा था, कवि ने चेतक के कौशल को इन शब्दों में प्रकट किया है-

रणबीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से, हवा का पड़ गया पाला था।
गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था। [11]

भारतीय जनता जब स्वाधीनता संग्राम की वेला में अपनी विरासत को भूल चुकी थी, तब प्रसाद  ने ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’  कविता में कवि ने महाराणा प्रताप सिंह की उत्तराधिकारी की आस का वर्णन किया है कि किस प्रकार वह अपने अंतिम समय में अपनी आस को पूरा होते देखना चाहते थे। कवि आधुनिक प्रतीकों के माध्यम से भारतीय जन मानस में दासता के विरुद्ध चेतना का संचार कर रहे हैं-

फिर भी पुकार सी है गूँज रही व्योम में -
"कौन लेगा भार यह ?
कौन विचलेगा नहीं ?
दुर्बलता इस अस्थिमांस की -
ठोंक कर लोहे से,परख कर वज्र से,
प्रलयोल्का खंड के निकष पर कस कर
चूर्ण अस्थि पुंज-सा हँसेगा अट्टहास कौन?
साधना पिशाचों की बिखर चूर-चूर होके
धूलि सी उड़ेगी किस दृप्त फूत्कार से? [12]

महारानी पद्मिनी भारतीय जन-मानस में अप्रतिम सौन्दर्य और औदात्य की प्रतिमूर्ति के रूप में बिम्बित है। वीरभूमि मेवाड़ के गौरव को अक्षुण्ण रखते हुए पद्मिनी ने भारतीय नारी की गरिमा और तेजस्विता को आने वाली पीढ़ियों के समक्ष आदर्श रूप में प्रस्तुत किया। मेवाड़ और दिल्ली सल्तनत के संघर्ष में महारानी पद्मिनी का व्यक्तित्व तत्कालीन राजनीति और आत्मोत्सर्ग की प्रबल भावना को प्रकट करता है, वहीं एक आदर्श नारी प्रतीक के रूप में समकालीन समाज को भी सनातन सांस्कृतिक मूल्यों से परिचित कराता है। कामांध अल्लाउद्दीन खिलजी जब पद्मिनी की चाह में व्याकुल है, तब एक सरदार उसके व्यक्तित्त्व को इस प्रकार वर्णित करता है- 
साध्वी परम पुनीता है वह, रामचंद्र की सीता है वह,
अधिक आपसे और कहूँ क्या, रामायण है गीता है वह।
खुद आग में जल जाएगी, गिरी से गिरकर मर जाएगी, 
मेरा कहना मान लीजिए, पर न हाथ में आएगी।
नभतारों को ला सकते हैं, अंगारों को खा सकते हैं, 
गिरह बाँध ले मैं कहता हूँ, लेकिन उसे न पा सकते हैं। [13]

लाला भगवानदीन साहित्य में बहुत बड़ा नाम है। वे लक्ष्मी पत्रिका के संपादक रहे। वीर क्षत्राणी, वीर बालक, वीर प्रताप शीर्षक से इनकी कविताएँ पुस्तकार में प्रकाशित हुई है। फिर वीर माता तथा वीर पत्नी शीर्षक से दो और पुस्तकें तैयार कर समग्रत: ‘वीर पंचरत्न’ प्रकाश में आई जिसमें- वीर प्रताप, वीर बालक, वीर क्षत्राणी, वीरमाता, वीर पत्नी को समर्पित कविताएँ हैं। ‘वीराबाई’ शीर्षक में चित्तौड़ के राणा उदयसिंह की पत्नी का वीर क्षत्राणी के रूप में कविता में अंकन किया गया है। अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण करने का निश्चय किया। वह विकट फौज लेकर चित्तौड़ का घेरा डालकर वीरा को पकड़कर निज कंठ से लगाने का सोचता था। राणा भयभीत हो गए तब वीरा ने बीड़ा उठाया-

कैसी है यह मेवाड़ धरा जग को दिखा दूँ,
वीरत्व के इतिहास में निज नाम लिखा दूँ,
नारी के विकट क्रोध का परसाद चखा दूँ,
इस दुष्ट मुगल जोद को कुछ सिखा दूँ। [14]
उसके वीरोचित उद्बोधन ने राणा को छुड़ाया और चित्तौड़ का सम्मान बचाया-
वीरा की थी तलवार, कि हनुमान की थी लूम,
जिस ओर को फिर जाती, मचाती थी वहीं धूम। [15]                   

‘महीयषी मीरा’ खंडकाव्य में पथिक पात्र काल्पनिक है जो बंगाल से चलकर मीरा का आख्यान सुनने चित्तौड़ आया है। वह मीरा मंदिर पर वृद्ध वाचक पुजारी से उसकी भव्य जीवन गाथा का पान करता है। इसमें मीरा के जीवन के ऐतिहासिक सत्यों को उजागर करते हुए सामाजिक प्रभावों को दर्शाया गया है। साथ ही माँ की विराटता, प्रेम की असाधारणता और मेवाड़ का गौरव अंकित है। कवि की दृष्टि में मीरा जनकल्याण और मानव प्रेम की उपासिका रही है। मीरा के पदों में लोक व लोक दर्शन दोनों हैं। इसी करण भावविभोर होकर पथिक पूछता है-
दूर से आया सुना, इस द्वार प्रभु का वास,
भक्ति और अनुराग में डूबा यहाँ हर सांस।
प्रीति का सरगम जहाँ बनता अटल आधार,
कृष्ण औ मां का जहाँ होता सदैव विहार।। [16]

मीरा का अमर संदेश- मानव प्रेम, नारी जागरण, भक्ति गान का संगम है। इस खंडकाव्य के माध्यम से देश की वर्तमान दशा का यथार्थ चित्रण, शिक्षा, जीवन मूल्य, आस्थाएँ, आस्तिकता, वर्तमान नारियाँ, युवामन, व्यक्ति स्वार्थ, सृजन में अतीत का गौरव, सांस्कृतिक उन्मुखता, जन कल्याण के भाव का स्वर प्रधान रहा है। इस खंडकाव्य की अंतिम पंक्तियाँ मेवाड़ को गौरव प्रदान करती है-
आज भी चित्तौड़ के उस दुर्ग पर साकार,
प्रणयिनी की प्रीति ममता के खुले हैं द्वार,
कीर्ति का वह स्तंभ, गौरव की लिए मुस्कान,
प्रणयिनी की साधना से अमर राजस्थान। [17]

निष्कर्ष :
मातृभूमि को प्रणम्य बनाने का संकल्प और उसके लिए प्राणों का अर्पण की भावाभिव्यंजना पराधीन राष्ट्र के लिए चेतना की संवाहक होती है। राष्ट्रीय-चिंतन का उद्देश्य समष्टि में आत्म-गौरव की भावना का निर्माण कर उसे उन्नति के पथ पर अग्रसर करने में है। इसी राष्ट्रीय-भावना से ओतप्रोत आधुनिक हिन्दी साहित्य में मेवाड़ के चरित-नायकों का वर्णन इस दृष्टि से हुआ कि  राष्ट्र के जनमानस में  सामूहिक रूप में अपनी तथा अपने देश को उन्नत बनाने की इच्छा प्रबल हों तथा अपने देश के लिए अगाध भक्ति, अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति गौरव की भावना जाग्रत हों। स्वाधीन भारत में भी मेवाड़ प्रेरणा का केंद्रबिंदु बना रहे, रचनाकारों का यही अभीष्ट है।  

सन्दर्भ :

1.  रामकुमार वर्मा, चित्तौड़ की चिता, परिचय, चाँद कार्यालय, चंद्रलोक, इलाहाबाद, सं. 1929, पृ. 1

2.   मैथिलीशरण गुप्त, भारत भारती, साहित्य सदन, चिरगांव, सं. 1984, पृ. 79

3.   श्यामनारायण पांडेय, जौहरविश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं. 2012, पृ. 13

4.   वही, पृ. 4

5.   वही, पृ. 5

6.   रामकुमार वर्मा, चित्तौड़ की चिता, परिचय, चाँद कार्यालय, चंद्रलोक, इलाहाबाद, सं. 1929, पृ. 111

7.   श्यामनारायण पांडेय, हल्दीघाटी, सर्ग-3, कविताकोश वेबपेज

8.   वही, सर्ग-1 कविताकोश वेबपेज

9. महाराणा का महत्त्व, जयशंकर प्रसाद, भारती भण्डार, बनारस, सं. 1985 पृ. 21-22

10. श्यामनारायण पांडेय, हल्दीघाटी, सर्ग-12, कविताकोश वेबपेज

11. वही, सर्ग-12, कविताकोश वेबपेज

12. जयशंकर प्रसाद, पेशोला की प्रतिध्वनि, (सं.) सत्येन्द्र पारीक, आधुनिक काव्य सोपान, पुनीत प्रकाशन, जयपुर, सं. 2004,  पृ. 50-51

13. श्यामनारायण पांडेय, जौहरविश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं. 2012, पृ. 42

14. लाला भगवानदीन, वीर पंचरत्नआदर्श ग्रन्थ माला, कलकत्ता, सं. 1920, पृ. 190

15. वहीपृ. 190

16. हरीश, महीयषी मीरा, कृष्णा ब्रदर्स, अजमेर, सं. 1998, पृ. 15

17. वहीपृ. 92

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