पुस्तक समीक्षा
आलोचना की सांस्कृतिक व्याख्या का अक्षय-वट : हिन्दी आलोचना कोश
(शब्दघोष पत्रिका, जयपुर में प्रकाशित)
आलोचना साहित्य की परम्परागत विधा है। यह रचना का समग्र मूल्यांकन कर उसका साहित्य-प्रवाह में स्थान निर्धारित करती है। समग्रता के निर्धारण हेतु साहित्य की व्याख्या करना, सिद्धान्त निर्माण करना, रचना को मानकता की कसौटी पर परखना और युग-सापेक्षता तय करना आलोचना का महत्त्वपूर्ण कार्य है। समर्थ आलोचक कृति में अन्तर्निहित मूल्य, युगीन परिवेश एवं कलात्मक संरचना को पहचान कर तर्कबद्धता से प्रस्तुत करता है। उसकी दृष्टि एवं विवेकशीलता से रचना की सार्थकता प्रमाणित होती है। आलोचना की प्रक्रिया में साहित्यिक मूल्यों के निर्वहन की सदैव अपेक्षा रहती है। हिन्दी आलोचना ने भी समृद्ध परम्परा के साथ लम्बी यात्रा की है।
इक्कीसवीं सदी में हिन्दी आलोचना बहुमुखी धाराओं के साथ आगे बढ़ रही है। रचनागत मूल्यांकन में भारतीय मूल्यों की गहनता प्रकट हो रही है, तो पश्चिमी अवधारणाएँ इसे नया कलेवर दे रही हैं। रचनाओं की विपुल मात्राओं, विविध वैचारिक पक्षों के उदय से आलोचना की गंभीरता बढ़ती जा रही हैं। ऐसे समय में डॉ. हरेराम पाठक जी ने हिन्दी आलोचना कोश के नौ खंडों का संपादन कर हिन्दी के शोधार्थियों एवं आलोचना कर्म में प्रवृत्त स्वतंत्र अध्येताओं को हिन्दी आलोचना के विविध आयामों से तार्किक ढंग से परिचित कराने, आलोचना की प्रक्रिया एवं दिशा से अवगत होने तथा पूर्ववर्ती आलोचकों के समृद्ध योगदान से प्रेरणा ग्रहण करने का अवसर प्रदान किया है।
यह आलोचना कोश डॉ. पाठक जी के एक दशक के सतत एवं गहन परिश्रम का निकष है। आलोचना कोश के इन नौ खण्डों में आलोचकों के जन्मक्रम से 1844 ई. अर्थात बालकृष्ण भट्ट से लेकर 1960 ई. के 155 आलोचकों की आलोचकीय दृष्टि की गहन पड़ताल है। इन आलोचकों की आलोचना दृष्टि पर देश भर के समकालीन लेखकों से आलेखों का लेखन करवाना, लेखन की आंतरिक त्वरा में समानधर्मिता को बनाए रखना तथा वैचारिक आग्रहों से परे आलोचना दृष्टि की सांस्कृतिक व्याख्या का उद्देश्य पूर्ण करने में डॉ. पाठक की साधना विस्मित करती है। परिणामस्वरूप डॉ. पाठक ने लगभग एक शताब्दी के आलोचना इतिहास और उसकी प्रवृत्तियों को एक साथ संकलित कर एवं उसे प्रकाश में लाकर हिंदी जगत के लिए विलक्षण कार्य किया है।
वस्तुतः साहित्य की संस्कृति विभिन्न खेमों में बँटी हुई नहीं होती है। उसकी एक धारा होती है, जिसकी अंतरधारा मानवता से जुड़ी रहती है। आलोचना की यह संस्कृति बालकृष्ण भट्ट, भारतेन्दु, श्यामसुन्दरदास, मिश्रबंधु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध एवं नामवर जी के बरास्ते चलकर यहाँ तक आयी है। डॉ. पाठक का मन्तव्य है कि उस पर हम इसलिए गर्व करते हैं क्योंकि इससे हमें सांस्कृतिक आधार एवं 'सत्यं वद्, धर्मं चर' का आचरण प्राप्त होता है।
संपादक महोदय का मत है कि आलोचना साहित्य की विभिन्न विधाओं का मुखिया है। अतः उसके ऊपर दायित्व भी गुरुतर है। आलोचक की संस्कृति विवेक से जन्म लेती है, विवेक संवेदनाओं की पकड़ से जन्म लेता है। ऐसी संवेदना जो ज्ञानात्मक हो। ज्ञानहीन संवेदना न विवेक पैदा करेगी, न उससे आलोचक की संस्कृति ही निर्मित हो पायेगी। आलोचना की संस्कृति अंततः आलोचक के गुणों को ही रेखांकित करती है। इस दृष्टि से यह कोश हिन्दी आलोचना की सांस्कृतिक व्याख्या का स्वयमेव अक्षय-वट है। पुस्तक को मूर्त रूप प्रदान करने में अनेक लेखकों का रचना कर्म प्रणम्य है। साथ ही सर्व भाषा ट्रस्ट द्वारा आकर्षक कलेवर में त्रुटि रहित मुद्रण और समुचित मूल्य पर प्रकाशित यह कोश विद्यार्थियों, अध्यापकों एवं स्वतंत्र अध्येताओं के लिए श्रेयस्कर होगा, ऐसा विश्वास है।
संपादक : डॉ. हरेराम पाठक
संस्करण : प्रथम संस्करण, 2024
प्रकाशक : सर्वभाषा ट्रस्ट, उत्तम नगर, नई दिल्ली-59,
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