भारतीय भाषाओं का साहित्यिक अन्तःसंबंध(जनकृति पत्रिका के अक्टूबर-दिसंबर,2017 अंक में प्रकाशित)

भारतीय भाषाओं का साहित्यिक अन्तःसंबंध
(जनकृति पत्रिका के अक्टूबर-दिसंबर,2017 अंक में प्रकाशित)

                           भारत वर्ष भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से विविधता युक्त रहा है, उसी अनुरूप भाषायी विविधता भी विद्यमान रही। एक ओर भारोपीय परिवार से जन्म लेने वाली भाषाएँ यथा- संस्कृत, हिंदी, मराठी, बांग्ला, उड़िया, असमिया, गुजराती आदि में साहित्य रचना हुई तो दूसरी ओर द्रविड़ परिवार की भाषाओं - तमिल, तेलगू, मलयालम, कन्नड़ आदि में विपुल साहित्य रचा गया। अपने प्रादेशिक वैशिष्ट्य एवं सांस्कृतिक पहचान को अक्षुण्ण रखते हुए समग्र साहित्य ने अनंत विस्तार ग्रहण किया, परन्तु उसके व्यक्तित्व में एक-दूसरे का प्रभाव अवश्य रहा। यही आत्म-तत्त्व भाषायी विविधता के बाद भी भावात्मक एकता का आधार बना, जो अद्वितीय है।

                         यह गौरव का विषय है कि भारतीय भाषाओं में रचा गया साहित्य अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए हुए है, यह उसका प्रखर वैशिष्ट्य भी है और प्रादेशिक संस्कृति के प्रभाव से निर्मित उसका व्यक्तित्व भी। परन्तु एक-दूसरे की सीमाएँ कब लयबद्ध हो जाती है, पता ही नहीं चलता, जैसे - बांग्ला, असमिया व उड़िया, तमिल व तेलगू, मराठी व गुजराती, कन्नड़ तथा मलयालम, पंजाबी और सिंधी, विशेष रूप से हिन्दी में इन सभी भाषाओं से गृहीत शब्दावली। यही तत्त्व भारतीय साहित्य की अन्तः धारा को रसमय बनाए हुए हैं।

                                भारतीय साहित्य की पारस्परिक अन्तः संबद्धता तथा आधारभूत एकता को प्रतिबिम्बित करने वाले अनेक तत्त्व दृष्टिगोचर होते हैं, उनमें प्रमुख हैं - भाषाओं का जन्मकाल, विकास के चरण, सांस्कृतिक आन्दोलनों का प्रभाव, प्राचीन गं्रथों का आधार ग्रहण आदि में समानता। यह विवेचना का एक पक्ष हो सकता है, यथा - उर्दू और तमिल भाषा को छोड़कर समस्त भारतीय भाषाओं का जन्मकाल प्रायः समान रहा है, जैसे - कन्नड़ का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ ‘कविराजमार्ग‘ राष्ट्रकूट वंश के नरेष ‘नृपतुंग‘ द्वारा नवीं शती में रचा गया, गुजराती का आदिग्रंथ शालिभद्र सूरि रचित ‘भरतेश्वर बाहुबलि रास‘ बारहवीं शती की रचना है। मलयालम की प्रथम कृति ‘रामचरितम‘ तेरहवीं शती में रचित हुई, तो मराठी का आदिम साहित्य भी बारहवीं शती का है। तेलगू साहित्य के प्रथम ज्ञात कवि ‘नन्नय‘ का समय भी ग्यारहवीं शती है। असमिया साहित्य में हेम सरस्वती की रचनाएँ ‘प्रह्लाद चरित्र‘ तथा ‘हरि गौरी संवाद‘ तेरहवीं शती में रचित हैं। बांग्ला में चर्यागीतों की रचना का समय दसवीं और बारहवीं शती के मध्य का माना जाता है। उड़िया के व्यास सारलादास का समय भी चौदहवीं शती का है। इसी प्रकार हिन्दी का आदिकालीन साहित्य भी ग्यारहवीं शती के आसपास का है। अतः समस्त भारतीय भाषाओं का जन्मकाल एक निश्चित अवधि में हुआ, जो इसका अन्तः वैशिष्ट्य है। 

                            भारत की विभिन्न भाषाओं का विकास क्रम भी लगभग समान रहा है। सभी भाषाओं का आदिकाल पन्द्रहवीं शती तक का है, पूर्व मध्यकाल सत्रहवीं शती के मध्य तक, जो मुगल-शासन  के वैभव तक सीमित है। उत्तर मध्यकाल अंग्रेजी शासन की स्थापना अर्थात् उन्नीसवीं शती के आरंभ तक है। उसके बाद का समय सभी भाषाओं के साहित्य में आधुनिक काल के रूप में माना गया है। यह समानांतर विकास क्रम यह इंगित करता है कि इन भाषाओं के विकास के राजनीतिक एवं सास्कृतिक आधार समान रहे हैं। भारतीय भाषाओं को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला समान कारक रहा - धार्मिक आन्दोलन। बौद्धधर्म के पतन पश्चात् जो संप्रदाय पल्लवित हुए, उनमें नाथपंथ उल्लेखनीय है। इसका प्रभाव तिब्बत से लेकर महाराष्ट्र और दक्षिण से पूर्वी घाट के प्रदेशों तक फैला हुआ था। नाथ-पंथ के सिन्द्धान्त - हठयोग, जीवन का साधना पक्ष, आत्माभिव्यक्ति व जीवन-शैली का प्रभाव भारतीय भाषाओं के विकास के प्रथम चरण में व्याप्त रहा। इनके बाद वेदांत दर्शन से प्रभावित इनके उत्तराधिकारी संत-संप्रदाय व नवागत सूफी-संतों का प्रभाव सभी भाषाओं के साहित्य पर रहा। संत और सूफी काव्य के उपरांत देश में वैष्णव आन्दोलन का तीव्र वेग से प्रचार हुआ।

                          हिन्दी-काव्य में रामकाव्य और कृष्णकाव्य धारा में साहित्य रचा गया तो तमिल प्रांत में ‘आलवार साहित्य‘ उल्लेखनीय है। वैष्णव आन्दोलन भी द्वैत, द्वैताद्वैत, विषिष्टाद्वैत, शुद्धाद्धैत आदि शाखाओं में विभक्त होकर बंगाल में चैतन्य संप्रदाय तक पहुँच गया। समस्त भारतीय भाषाओं में राम और कृष्ण की मधुर उपासना के गीत गाए गए और पूरा भारत वर्ष सगुण ईश्वर लीला गान से गुंजरित हो उठा। उसके बाद ईरानी संस्कृति से अनेक आकर्षक तत्त्व - वैभव-विलास, अलंकरण, सज्जा, राग-रंग, भोग आदि विकसित हुए, जिसे दरबारी संस्कृति कहा जा सकता है। साहित्य भी इससे प्रभावित हुआ और शृंगारिक विलास युक्त रचनाएँ विकसित हुईं। हिन्दी साहित्य का रीतिकाल इसी से प्रभावित है। इसके पश्चात् अंग्रेजों का आगमन, स्वतंत्रता आन्दोलन आदि में सभी भाषाओं के रचनागत विषय में आधारभूत समानता विद्यमान रही। 

                         यह अचरज का विषय है कि भारत की भाषाओं का परिवार एक नहीं होते हुए भी उनके साहित्य की आधारभूमि समान रही है। भारतीय भाषाओं के साहित्य पर प्राचीन ग्रंथ- रामायण, महाभारत, उपनिषद् पुराण, भागवत् का आधार रहा है, परवर्ती संस्कृत ग्रंथों ने भी साहित्य की धारा को प्रभावित किया। उसमें कालिदास, बाण, भवभूति, जयदेव आदि का साहित्य केन्द्र में रहा। प्राकृत,अपभ्रंश साहित्य पूर्व में ही सभी भारतीय भाषाओं के उत्तराधिकार में था। काव्यशास्त्र से संबंधित ग्रंथों ने सभी का पोषण किया, जैसे - भरत का ‘नाट्य शास्त्र‘, आनंदवर्द्धन का ‘ध्वन्यालोक‘, मम्मट का ‘काव्य-प्रकाष‘, विश्वनाथ का ‘साहित्य दर्पण‘ आदि ग्रंथ सभी भाषाओं के मूल में रहे। वस्तुतः भारतीय भाषाओं का संपूर्ण वाङ्गमय की परिधि असीमित है। यदि उसमें संस्कृत, प्राकृत आदि की सामग्री भी समाविष्ट कर ली जावे, तो यह भण्डार अनंत होगा। सुखद पहलू यह है कि समान सांस्कृतिक और साहित्यिक आधारभूमि पर पल्लवित साहित्य भारत की एकता को सुदृढ़ करने में समर्थ रहा। 

                आज विडम्बना यह है कि हम भाषा के पृथक् स्वरूप की विवेचना तो करते हैं, परन्तु घनिष्ठ संबंधों की चर्चा तक नहीं करते। जार्ज ग्रियर्सन के ‘भाषा-सर्वेक्षण‘ में यह कथन उल्लेखनीय है, ‘‘सामान्यतः जब तक विशेष रुप से जाति एवं संस्कृति में अंतर न हो या बड़ा पहाड़ या प्राकृतिक बाधा उपस्थित न करे, तब तक भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे में विलीन हो जाती हैं।‘‘भारतीय साहित्य का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद, जो वैदिक संस्कृत भाषा में रचा गया। उसके बाद संस्कृत पालि, प्राकृत, अपभ्रंशऔर उनसे विकसित अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओं में साहित्य-रचना हुई। आज तीस से अधिक आुधनिक भाषाएँ व सौ से अधिक उपभाषाओं में रचित साहित्य भारतीय वाड्.मय की अमूल्य निधि है। इनका उत्स, आधार एवं विकास समान भूमि पर हुआ है, जो पारस्परिक सम्बद्धता व घनिष्ठता लिए हुए है। यह पारस्परिक घनिष्ठता हमारी पहचान है, सांस्कृतिक तत्त्वों की मधुरिमा से किसी भाषा की पृथक् पहचान उसकी विशिष्टता है, जो गौरव का विषय है। इन्हें पृथक रूप से विवेचित करने की अपेक्षा समग्र दृष्टि से देखने की आवयकता है। 

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