सदी का पहला दशक : हिंदी कविता

सदी का पहला दशक : हिंदी कविता
 
साहित्य की सबसे महीन विधा ‘कविता’ है । कविता का जन्म मनुष्य के जन्म के साथ माना जाता है, इसी कारण कविता को मनुष्यता की मातृभाषा कहा गया है । कविता की आलोचना मनुष्यता के घेरे में ही संभव है, किंतु उसकी मौलिकता समय के साथ निरूपित होती है । हिंदी कविता की विगत शताब्दी में गतिशील यात्रा की चर्चा करते हुए डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं, “राष्ट्रीयता से वैचारिकता, भक्ति से अध्यात्म, ब्रज से खड़ी बोली और सहजता से स्वचेतनता के ये बहुस्तरीय रूपान्तरण मिलकर कविता के समूचे स्वरूप का ही कायाकल्प करते हैं ।”1 


बीसवीं सदी का अंतिम दशक और इक्कीसवीं सदी का प्रथम दशक सामयिक यथार्थ की दृष्टि से नितान्त भिन्न है । वर्तमान समय भूमंडलीकरण का है, जिसके साथ साम्राज्यवादी शक्तियों का मानवीय जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश हो गया है । ऐसी स्थिति में इस समय की कविता का यथार्थ स्पष्ट होना आवश्यक है । स्वप्निल श्रीवास्तव के अनुसार, “खासकर यदि हम यथार्थ की बात करें तो आज का यथार्थ मारक और अविश्वसनीय है । वह फैंटेसी के आगे का यथार्थ है । आज के यथार्थ का चेहरा रक्त रंजित और अमानवीय है । यथार्थ हमारे सामने विस्मयकारी दृश्य प्रस्तुत करता है, जो कल्पनातीत है ।”2 


विस्मयकारी यथार्थ को प्रभावित करने वाले जो कारक पहले दशक में उपस्थित होते हैं, वे हैं- वैश्वीकरण, मुक्त बाजारवाद, विकृत उपभोक्तावाद, राजनीतिक अधिनायकवाद, मूल्यों का विघटन, संस्कृतियों का संघर्ष, पूंजीवाद का प्रभुत्व एवं भ्रष्ट आचरण आदि ।3 ये कारक तो वैश्विक हैं, किंतु भारत का आम आदमी इनकी फाँस में आ गया है । दूसरी ओर भारतीय सांस्कृतिक आदर्शों का पतन, जातीय व धार्मिक उन्माद, साहित्य जगत में वैचारिक अतिवाद के साथ वामपंथी-दक्षिणपंथी खेमे में बँटकर कवि कर्म के उद्देश्यों से भटकाव का साक्षी भी यह दशक है । सुखद पहलू यह है कि इस बीच स्त्री व दलित को कविता के केन्द्र में रखा गया है, जो वैचारिक स्तर पर संघर्ष करते हुए अपना मुकाम तय करते हैं ।   


यह संक्रमणकालीन वेला है, जहाँ पुराने सामाजिक मूल्य विघटित हो रहे हैं और नये मूल्यों को स्वीकृति नहीं मिल पा रही है । कवि समाजशास्त्री बनकर अपने रास्ते बना रहा है, जो व्यवस्था को चुनौती देता है, राजनीतिक पथ को भी वैचारिक आधार प्रदान करता है और अनुकूल व्यवस्था को निर्मित होने तक चुप नहीं बैठता । प्रस्तुत आलेख में इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में ‘तद्भव’ में प्रकाशित कविताओं के आधार पर हिन्दी कविता के यथार्थ को परखने का विनम्र प्रयास है । 


यह सच है कि सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के बिखराव से विश्व में एकमात्र विकल्प पूँजीवादी व्यवस्था रह गया है । समाजवाद का स्वप्न ध्वस्त हो गया है, परिणामस्वरूप मनुष्यता के समक्ष शैतानी पूँजीवादी यांत्रिक सभ्यता का चेहरा उपस्थित होता है । महानगरीय भीड़ में सैंकड़ों तेज रफ्तार वाले वाहनों के मध्य चलती बैलगाड़ी कवि की दृष्टि में सभ्यता का आखिरी मनुष्य है-

‘लगता है एक वही तो है/हमारी गतियों का स्वास्तिक चिह्न/
लगता है एक वही है, जिस पर बैठा हुआ है/
हमारी सभ्यता का आखिरी मनुष्य ।4’ 

पूँजीवादी यांत्रिक सभ्यता ने पूरी दुनिया को ‘शॉपिंग कॉम्प्लेक्स’ में बदल दिया है । इस बाजार में मनुष्यों की बजाय वस्तुओं में बहुत अधिक निवेश किया गया है ।5 बाजारों की इस चमक में सब कुछ चमकता हुआ दिखाई देता है । माल मंडिया, झूमते मस्तूल, लहराती हांडियाँ सब कुछ हैं, बस जीवन, हवा और पानी नहीं है-

“पृथ्वी पर लौटा है अभी-अभी/ अंतरिक्षयान
खोजकर एक ऐसी दुनिया/जिसमें न जीवन है-
न हवा-न पानी ।”6

भूमंडलीकरण एवं उदारीकरण के साथ एक अन्य विकृति ने इस दशक में जन्म लिया, वह है- धर्मोन्माद । जहाँ सभ्यताओं को भी धर्म का पर्याय बनाकर प्रस्तुत कर दिया गया है । फलतः घृणा, हिंसा और प्रतिशोध की आग में बस्तियाँ जल रही हैं और उसकी आँच एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच रही हैं । इस उन्माद के पश्चात् जो बचता है-

कि कहीं मिलता है आधा जला हुआ दुपट्टा 
कहीं आधा जला हुआ खिलौना/कहीं अधजली बीड़ी
कहीं दमकलों के पाइप/कहीं दिलजले/कहीं कहीं तो
केवल जलन मालूम होते हैं ।7

ऐसे दौर में उस सौहार्द्र की याद ताजा हो जाती है, जहाँ संगीत व कविता पर देश का सम्राट मुग्ध होता था और उनके सदके में अपना सिर झुका लेता था-

“यह जानते हुए कि बादशाहों के महलों से दूर भी/
एक सल्तनत हुआ करती है / एक साम्राज्य का खजाना
बिखरा रहता है / जहाँ कोई अकबर सादे लिबास में 
जाता है / और एक दीवानी मीरा की आवाज के
सदके में/ चुपचाप अपना सिर नवाता है ।”8 

“वैश्विक स्तर पर आर्थिक उदारीकरण आधारित नई विश्व व्यवस्था, उच्च तकनीक, जनसंचार का प्रसार, विश्वग्राम के जन्नत की हकीकत को पूरी दुनिया नव-उपनिवेशवाद के रूप में पहचानने लगी है ।”9 यह सब अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक व अमेरिकी प्रभुत्व की त्रयी का परिणाम है । जिसने आम आदमी से पानी, सड़क, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाओं को भी छीन लिया है-

दरअसल अनाज है इस देश में और पृथ्वी पर, बहुतायत
औषधियाँ पर्याप्त हैं, योग्य और कुशल/ हाथ और दिमाग भी/
सभी जानकारियाँ, अवसर और स्थितियाँ उपलब्ध हैं /
कम्प्यूटर और आँकड़ों में ।
$ $ $
यदि नागरिक के पास नहीं हैं, पानी, सड़क और बिजली । 
तो ये सिर्फ समस्याएँ  हैं ।10

चमकती दुनिया में मध्यम वर्ग अनिर्णय का शिकार है । लाभ का सौदा दिखते ही वह दौड़ लगाना शुरूकर देता है । गंतव्य उसे ज्ञात नहीं हैं । आडम्बर की संस्कृति को वह खुशनुमा मानता है । मौन-प्रतिक्रिया में अपनी शांति खोजता है । विसंगतियों के विरूद्ध वह चुप रह जाता है-

एक गंदी अंधेरी गली में परिवार पालता/
वह अपनी नहीं दूसरों के संघर्ष की/अंतहीन
कथा कहता है और एक दिन मर जाता है /
हम कुछ नहीं कहते ।11

इस दशक में ‘स्त्री-पीड़ा’ की व्यापक चर्चा हुई है । स्त्री-चेतना की मुखर अभिव्यक्ति से इस दशक की कविता ने समाज को जाग्रत किया है । भारतीय समाज की विद्रूपताओं में ‘नारी’ के साथ समान व्यवहार दृष्टि नहीं रही है । बड़ी होती बेटी के लिए समाज में बंधन आज भी देखे जा सकते हैं । जहाँ उसके स्वप्नों का, हँसी का, दुःख का व पीड़ा का मोल नहीं होता-

12

                स्त्री चाहे बड़े घर में हो या छोटे घर में, उसकी पीड़ाएँ समान हैं । पीड़ा की दृष्टि से उनकी एक ही जाति है- स्त्री । जिसकी नियति है-पीड़ा । यथा-

बड़े घर की बहू को कार से उतरते देखा/
और फिर देखी अपनी/ पाँव की बिवाइयाँ/
फटी जुराब से ढँकी हुई/एक बात तो मिलती थी
फिर भी उन दोनों में।/दोनों की आँख के 
पोर गीले थे ।13

बाजारवादी शक्तियों के पूर्ण प्रभाव में आकर आज का मीडिया भी सत्ता का सहयोग कर ‘कारपोरेट जगत’ को अनुकूल वातावरण दे रहा है । भूखे और नंगों की हकीकत बयां कर उसे बेचने का कर्म भी वह कर लेता है । अपने भारी-भरकम शब्दों के माध्यम से खबरों को उठाता है और फिर बेच देता है, इन्हीं व्यावसायिक घरानों के हाथ । यह व्यापार जारी है-
हम ज्ञानहीनों के बारे में ज्ञानियों के/हम गुमनामों के बारे में
नामचीनों के/शब्द छप रहे हैं/भारी भरकम शब्द
हम दुबले अबलों के बारे में/चिकने चुपड़े शब्द/
हम रूखे सूखों के बारे में/खाये/अधाये शब्द/
हम भूखे नंगों के बारे में/खबरों में छप रही है।14

             पहले दशक की उल्लेखनीय कृतियों में ज्ञानेन्द्र पति की ‘गंगातट‘, ‘संशयात्मा’, विष्णु खरे की ‘काल और अवधि के दरमियान’, अशोक वाजपेयी की ‘इबारत से गिरी मात्राएँ’, संजय पंकज रचित ‘यवनिका उठने तक’, अनूप सेठी कृत ‘जगत में मेला’, श्रीप्रकाश शुक्ल की ‘जहाँ सब शहर नहीं होता’, वीरेन डंगवाल की ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’, कुमार अंबुज कृत ‘अतिक्रमण’, हेमंत कुकरेती रचित ‘नया बस्ता’, यतीन्द्र मिश्र लिखित ‘डयोढ़ी पर आलाप’, कुमार वीरेन्द्र की ‘विलाप नहीं’, राजेश जोशी रचित ‘चाँद की वर्तनी’, मदन कश्यप कृत ‘कुरूज’ आदि महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें विवेचित यथार्थ का चित्रण मिलता है ।

            दशक के उत्तरार्द्ध में आते-आते कवि व्यवस्थागत विद्रूपताओं के प्रति मात्र आक्रोश व्यक्त कर चुप नहीं रहता, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए मुखर हो जाता है । सोशल मीडिया के माध्यम से वह ‘एक्टीविस्ट’ की भूमिका में दिखाई देता है जो जीवन की विषमताओं को मानवता के केन्द्र में खींचकर चर्चा करता है और लेखनी में इतना पैनापन आ गया है कि राजनीतिक व्यवस्थाएँ भी कविता के संकेतों से प्रभावित होने लग गई है । अतः आने वाला दशक संभवतः समस्याओं के अरण्यरोदन में विश्वास नहीं करेगा, बल्कि समाधान प्रस्तुत करने वाला होगा, ऐसा प्रतीत होता है ।  


संदर्भ-
1. डॉ रामस्वरूप चौधरी- आधुनिक कविता यात्रा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,1998, भूमिका
2. आलोचना, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, अप्रेल-जून,2003, पृ.32
3. डॉ. जी.एल.शर्मा, डॉ. वाई.के.शर्मा, समाजशास्त्र के सिद्धान्त, यूनिवर्सिटी बुक हाउस प्रा.लि. जयपुर 2007,   पृ.426
4. भगवत रावत, बैलगाड़ी, तद्भव, अंक 9, पृ.155
5. द्रष्टव्य, कुमार अंबुज, वागर्थ, जनवरी,2005
6. कुंवरनारायण, कोलम्बस का जहाज, तद्भव, अंक 17, पृ.117
7. अष्टभुजा शुक्ल, बस्ती एक धीमा शहर है, तद्भव, अंक 10, पृ.113
8. यतीन्द्र मिश्र, तानसेन के बहाने, तद्भव, अंक-9, पृ.195
9. राजाराम भादू, मधुमती, फर.2003, पृ.65
10.नवल शुक्ल, संरचनाओं के बदलने का समय, तद्भव, अंक 13, पृ.160
11.ऋतुराज, हम कुछ नहीं कहते, तद्भव अंक 21, पृ.150
12.मदन कश्यप, बड़ी होती बेटी, तद्भव, अंक 16, पृ.108
13.वर्तिका नंदा, बहूरानी, तद्भव, अंक 20, पृ.132
14. हरे प्रकाश उपाध्याय, खबरें छप रही हैं, तद्भव अंक 12, पृ.122 
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