सांस्कृतिक
मूल्यों के पुनरुत्थान का काव्य: आधुनिक हिन्दी राम काव्य
‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत
भाषा के ‘सम्’ उपसर्ग और ‘कृ’ धातु से बना है। ‘कृ’ का अर्थ है- करना, कृत का अर्थ हुआ-
किया हुआ तथा ‘कृति’ उसकी भाववाचक संज्ञा है। अतः सम्कृति में
सम्यक् रूप से या भली-भांति समझा जाकर ‘संस्कृति’ शब्द का आशय है-
सम्यक् रूप से किए गए कतिपय कार्यों का
भाव रूप। वस्तुतः ‘संस्कृति’
शब्द का प्रयोग अत्यधिक व्यापक अर्थ में किया
जाता है। संस्कृति अपने वृहद रूप में मानवता
का मेरुदण्ड है। वह शिष्टता, सौजन्य तथा शील की आधारशिला है। किसी जाति की ज्ञानधारा किस दिशा में प्रवाहित हुई है, उसकी गुण-गरिमा में कौनसे स्थायी मूल्यवान तत्त्व हैं,
उसकी भावना कितनी निर्मल और जनहित साधिका है,
उसकी जीवनचर्या कितनी अहिंसामय है, वह सत्य के लिए कितनी लालायित है, एक शब्द में वह कितनी उन्नयनशील है अथवा
अधोगामी, इससे उसके संस्कृत या
असंस्कृत होने का परिज्ञान हो जायेगा।
भारतीय संस्कृति के मूलाधारों में आध्यात्मिक दृष्टिकोण, सांस्कृतिक चेतना, धार्मिकता, सजीव सत्यों का
संकलन, सहनशक्ति, सामाजिक चेतना आदि है।1 भारतीय संस्कृति के शाश्वत तत्त्व वस्तुतः
मानवता के पोषक तत्त्व हैं। अद्वेषभाव, आत्मोपम्य दृष्टि, करुणा, मुदिता, मैत्री तत्त्व हमें भारतीय संस्कृति की ओर ले जाते हैं,
दूसरों के साथ उदारता से हम अपनी ही संस्कृति
का पोषण करते हैं ।2 भारतीय संस्कृति के मूल
आधारों में आध्यात्मिक दृष्टिकोण, सांस्कृतिक चेतना,
धार्मिकता, सजीव सत्यों का संकलन, सहनशक्ति, सामाजिक चेतना,
की विद्यमानता रही है, परन्तु भारतीय जीवन किसी अनन्त शक्ति की खोज में होम दिया
जाता है, अतः आध्यात्मिकता प्रमुख
रूप से स्थापित रही है।
साहित्य के माध्यम से संस्कृति की अभिव्यक्ति सर्वप्रथम वाल्मीकि रामायण में
हुई है। वाल्मीकि आदिकवि हैं। रामायण भारतीय संस्कृति की अन्यतम कृति हैं। यह आर्य
संस्कृति कहलाती है। इसकी उत्कृष्टता का प्रमाण है कि शताब्दियों पूर्व रचित यह
ग्रन्थ आज भी सांस्कृतिक आदर्श के रूप में प्रतिस्थापित हैं। वाल्मीकि कृत रामायण
से आधुनिक हिन्दी साहित्य तक राम काव्य की सुदीर्घ परम्परा रही है। छान्दस वाङ्मय
से निःसृत होने वाली रामकाव्य की धारा संस्कृत वाङ्मय को पार करती हुई प्राकृत
वाङ्मय में प्रवेश करती है। ‘बौद्धत्रिपिटक’
में तथा ‘जातकों’ में रामकथा का दिग्दर्शन होता है। जैन परम्परा
में ‘विमलसूरी’ का ‘पउमचरियं’, ‘शीलांक’ का ‘महापुरिसचरियं’, आचार्य ‘भद्रेश्वरसूरी’ की ‘कुहावली’,
‘सीय चरियं’, ‘स्वयंभू’ कृत ‘पउमचरिउ’, ‘पुष्पदंत’ रचित ‘महापुराण’, ‘रहल्ल’ का ‘पद्मपुराण’ रामकाव्य की परम्परा को विकसित करते हैं।
हिन्दी रामकाव्य परम्परा में तुलसीदास से पूर्व यत्र-तत्र रामकथा से संबंधित
अंश मिलते हैं। यहाँ तक की निर्गुण संत काव्य में भी ‘राम’ का नाम चर्चित
है। तुलसीदास के युग तक भारतीय संस्कृति विदेशी अक्रमणों से छिन्न-भिन्न हो गई थी।
तुलसी ने भारतीय संस्कृति के आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा की । ‘रामचरितमानस’ में समाज के उत्तमोत्तम आदर्शन, नैतिक विधान, सामाजिक सुव्यवस्था, जीवन के उदात्त
रूप आदि पर बल दिया गया। आदर्श पुरुष, आदर्श परिवार, आदर्श समाज,
आदर्श राज्य एवं आदर्श युग की प्रतिष्ठा का प्रयास
इसमें हुआ है।
रीतिकालीन रामकाव्य में केशवदास की ‘रामचंद्रिका’ के अतिरिक्त
सेनापति रचित ‘कवित्त रत्नाकर’,
लालदास की ‘अवध विलास’, ‘रामचन्द्र लीला-चरित’, ‘मंडन-जनकपचीसी’,
सुखदेव मिश्र कृत’, ‘दशरथराय’ सहित अनेक
कृतियाँ उपलब्ध हैं, जिनमें रामकथा से
संबंधित अंशों के माध्यम से भारतीय संस्कृतिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का प्रयास
हुआ है। आधुनिक हिन्दी रामकाव्य में खड़ी बोली की रामकाव्य पर प्रथम कविता
भारतेन्दु रचित ‘दशरथ विलाप’3 उपलब्ध होती है। रामकाव्य से संबंधित आधुनिक
कला की प्रमुख प्रबंधात्मक कृतियाँ इस प्रकार हैं-
नाम कृति रचनाकार रचनाकाल
रामचरित चंद्रिका पं. रामचरित उपाध्याय 1919 ई.
लीला मैथिलीशरण गुप्त 1919 ई.
चित्रकूट (कानन
कुसुम) जयशंकर प्रसाद 1919 ई.
सीता परित्याग श्रीरामस्वरूप टंडन 1919 ई.
सुलोचना सती श्री
विष्णु 1923 ई.
पंचवटी प्रसंग
(अनामिका) सुर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ 1923 ई.
रामचन्द्रोदय रामनाथ ‘जोतिसी’ 1924 ई
श्री सीताराम
चरितायन श्री शीतल सिंह
गहटवार 1925 ई.
पंचवटी मैथिलीशरण गुप्त 1925 ई.
मेघनाद वध माइकेल मधुसूदन दत्त 1926 ई.
साकेत मैथिलीशरण गुप्त 1929 ई.
प्रदक्षिणा मैथिलीशरण गुप्त 1929 ई.
भरत भक्ति शिवरतन शुक्ल ‘सिरस’ 1932 ई.
कौशल किशोर पं. बलदेव प्रसाद मिश्र 1934 ई.
कौशलेन्द्र कौतुक बिहारी लाल विश्वकर्मा 1936 ई.
उर्मिला विशाल 1936 ई.
शबरी बचनेश 1936 ई.
राम की शक्तिपूजा सुर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ 1937 ई.
वैदेही वनवास अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हीरऔध’ 1938 ई.
तुलसीदास सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ 1938 ई.
कैकेयी शेषमणि शर्मा ‘मणि रायपुरी’ 1942 ई.
साकेत संत पं. बलदेव प्रसाद मिश्र 1946 ई.
लक्ष्मण
(स्वर्ण-किरण) सुमित्रानंदन
पंत 1946 ई.
अशोकवन
(स्वर्ण-किरण) सुमित्रानंदन
पंत 1947 ई.
रामकथा कल्पलता नित्यानंद शास्त्री ‘दधीचि’ 1948 ई.
कैकेयी केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’’ 1950 ई.
श्रीराम
तिलकोत्सव शिवरत्न शुक्ल ‘सिरस’ 1950 ई.
कल्याणी कैकेयी राधेश्याम द्विवेदी 1950 ई.
अशोकवन गोकुल शर्मा 1951 ई.
सती सीता शकुन्तला कुमारी ‘रेणु’ 1951 ई.
रावण महाकाव्य हरदयाल सिंह 1952 ई.
विदेह रामावतार पोद्दार 1954 ई.
दशानन कैलाश तिवारी ‘विद्रोह’ 1955 ई.
आंजनेय जयशंकर त्रिपाठी 1956 ई.
उर्मिला बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ 1957 ई.
मांडवी हरिशंकर सिन्हा 1958 ई.
सीता चन्द्रप्रकाश वर्मा 1958 ई.
भूमिजा रघुवीर शरण ‘मित्र’ 1958 ई.
रामराज्य पं. बलदेव प्रसाद मिश्र 1959 ई.
शबरी माया देवी शर्मा 1960 ई.
सीतान्वेषण सरयूप्रसाद त्रिपाठी 1961 ई.
अग्निपरीक्षा आचार्य तुलसी 1961 ई.
नन्दिग्राम गयाप्रसाद द्विवेदी 1963 ई.
सियविजन वनवास रामकिशोर अग्रवाल ‘मनोज’ 1967 ई.
पुरुषोत्तम राम सुमित्रानंदन पंत 1967 ई.
संशय की एक रात नरेश मेहता 1968 ई.
श्री रामायण
दर्शनम् (अनुवाद) डॉ. सरोजनी महिषी 1968 ई.
कैकेई चाँदमल अग्रवाल 1969 ई.
जय हनुमान श्यामनारायण पाण्डे 1969 ई.
जातकी जीवन राजाराम शुक्ल ‘राष्ट्रीय आत्मा’ 1971 ई.
उत्तरायण डॉ. रामकुमार वर्मा 1971 ई.
अरुण रामायण रामावतार पोद्दार ‘ अरुण’ 1973 ई.
भरत राजेन्द्र शर्मा 1976 ई.
शबरी नरेश मेहता 1976 ई.
प्रवाद पर्व नरेश मेहता 1977 ई.
शंबूक डॉ. जगदीश गुप्त ---
इसके अतिरिक्त विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी
रामकाव्य की रचना हुई और भारतीय सांस्कृतिक जीवन
मूल्यों को भी विद्यमान रखा है।
जीवन मूल्यों का संबंध केवल सभ्यता से नहीं,
वरन संस्कृति से होता है। अपनी विरासत के लिए
जो उदात्ततम प्रदेश है, वही मूल्य है।
भारतीय समाज का विकास मूल्यों का विकास ही है। इन्हीं मूल्यों के कारण भारतीय
संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ माना जा रहा । भारतीय संस्कृति के चरम मूल्य ‘राम’ हैं। राम में भारतीय संस्कृति की समस्त विशेषताएँ आकर एकत्र हो गई हैं। आधुनिक
हिन्दी रामकाव्य में रामकथा को दुहराना उद्देश्य नहीं रहा, बल्कि राम के माध्यम से आज के विघटित मूल्यों की संक्रांति
के अवसर पर भारतीय परम्परित मूल्यों की रक्षा करना एवं युगीन चुनौतियों का सामना करना रहा है।
आधुनिक हिन्दी रामकाव्य में राम के माध्यम से ही आज की सामाजिक विषमता ,
आर्थिक शोषण, अछूतोद्धार, नारी जागरण व
साम्राज्यवादी भवना के प्रति आक्रोश प्रकट हुआ है। आधुनिक रामकाव्य में राम का
स्वप्न आदर्शराज्य है। उनकी आदर्श कल्पना
में सर्वत्र समता का ही राज्य है। राम का
चरित्र शोषण-विरोधी रूप में प्रकट हुआ है यथा-
मैं अग्नि पुरुष शोषण को स्वयं मिटाऊँगा
नृप अनाचार को मैं समाप्त कर पाऊँगा।
भू से कुरीतियाँ मिटें यही मैं चाह रहा
मेरी वाणी ने शोषक को क्या-क्या न कहा। 4
वर्तमान युग प्रजातंत्रीय युग है । आधुनिक रामकाव्य धारा मे राम-रावण का युद्ध
साम्राज्यवाद और प्रजातंत्र के मध्य का युद्ध है। राज्यसत्ता प्रजा की थाती है।
शासक केवल लोकसेवक मात्र है। राज्य शासक की सम्पत्ति नहीं है। राम के राज्य में
प्रजातंत्र शासित होता था। राम स्वयं सभी प्रकार के आत्मसंयम और आत्मपीड़ा को सहन
करके लोकमत की रक्षा करते हैं। उनकी
दृष्टि में राजा द्वारा प्रजा का भाग्य निर्माण होता है। राज्य पर जनता के
अधिकारों का समर्थन करती उक्त पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
है स्वायत्त स्वत्व जनता का, राजा का अधिकार नहीं,
शक्ति देश की एक प्रजा है, तोप तीर तलवार नहीं।
वह जिसको निर्णीत करेगी, वही देश का शासक होगा
उसकी इच्छा के विरुद्ध, कुछ भी नहीं भरसक होगा।5
राम द्वारा
प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना का निरन्तर प्रयास हुआ। लक्ष्मण का उक्त कथन
प्रमाण है-
बन्धु अग्रज हैं
परिजन और पुरजन प्रिय भाजन हैं,
साथ ही हम प्रजा के
मनोनीत राजन हैं।6
आज के इस पदार्थवादी युग में जब
पारिवारिक मूल्य विघटित हो रहे हों, कौटुम्बिक आदर्श विरासत में रह गये हों और व्यष्टिवादिता हमारे जीवन का अंग बन
चुकी हों, तब इस काव्य धारा में राम
पारिवारिक मर्यादाओं की स्थापना के पक्षपाती नजर आते हैं। राम और भरत का अभेद
कौशल्या के विशाल हृदय एवं उदात्तवृति का परिचायक हैं। यथा-
तू वही है, भिन्न केवल नाम
एक सहृदय और एक सुगात्र
एक सोने के बने दो पात्र ।7
पवित्र हिन्दू संस्कृति में अस्पृश्यता जैसा कलंक मध्यकाल में लगा। आरंभिक
वैदिक संस्कृति में सवर्ण-अवर्ण की कोई भावना नहीं थी। सभी प्राणी समान हैं,
यह मानवतावादी दृष्टि आज के समय की आवश्यकता
है। आधुनिक रामकाव्य धारा में मानव को सर्वोपरि
स्थान दिया गया । मानव का तिरस्कार कर की गई आराधना व्यर्थ है। राम ने अछूत भावना
को समाप्त करने का प्रयास किया। बचनेश ने ‘शबरी’ के माध्यम से अछूत की
दयनीय स्थिति व ऋषि-मुनियों का आडम्बरपूर्ण चित्र खींचा, किन्तु राम द्वारा शबरी का स्वागत नया संकेत था। कवि का कथन
है-
निज जाति पवित्रता के मद में,
मुनि लोगन की मति मारी गई।
जहँ राम रँगीली भई शबरी,
तहँ स्वानिनि से दुत्कारी गई।8
आधुनिक हिन्दी रामकाव्य धारा में नारी
को एक नवीन औदार्यपरक दृष्टि प्रदान की। नारी अब हाड़-माँस की पुतली और भोग्या
मात्र न रह कर अपने कर्तव्य के प्रति सचेष्ट है। कैकेयी, सीता, उर्मिला, माण्डवी, अहल्या आदि नारीपात्रों के माध्यम से इस दृष्टिकोण का
पर्याप्त विवेचन इस काव्य धारा में हुआ
है। नारी जागरण के फलस्वरूप अब नारी युग की सजग चेतना बनकर उपस्थित हुई है-
मैं न राम को माँग रही हूँ, माँग रही है जिसकी वाणी,
वह है युग की सजग चेतना , महाशक्ति युग की कल्याणी।9
साथ ही कवियों ने नारियों को अपने बल नर क्रांति करने का आह्वान भी किया । उसे
कृत्रिम आवरणों को तोड़ने, भय से मुक्त होने,
सन्तुलन न खोने और सत्य क्रांति का स्वर दिया-
अपने बल पर नारी! तुझे जागना होगा,
कृत्रिम आवरणों को ,तुझे त्यागना होगा।
खो संतुलन भीत हो नहीं, भागना होगा,
सत्य क्रांति का अभिनव, अस्त्र दागना होगा।10
आज का मानव भाग्यवादी नहीं रह सकता, उसे अपने पुरुषार्थ के माध्यम से ही सर्वस्व प्राप्त करना होगा। यदि कर्म नही
ंतो प्राणों का अस्तित्व ही नहीं। कर्म के अभाव में जगत का कल्याण भी असंभव है।
निरन्तर प्रगति के पथ का वरण आज के मनुष्य का लक्ष्य रहना चाहिए। राम-काव्य यह
प्रेरणा देता है कि मानव के कार्य में यदि सिन्धु बाधा बन कर आएगा तो उसे भी सोख
लिया जाएगा-
लंका यदि ध्रुव पर भी होती तो
भाग नहीं पाती बन्धु
लक्ष्मण के पौरुष से
कर्म की चुनौती
मुझे स्वीकार है।11
समस्त विश्व के साथ मित्र भाव से रहना ही विश्वमैत्री है। वर्तमान संदर्भ में
राष्ट्रीयता केवल अपने देश तक सीमित नहीं है। जिस प्रकार वैदिक काल में ‘भूमा भाव’ था तथा वसुधा को
ही कुटुम्ब मानने की भावना मिलती है, वही भावना आधुनिक हिन्दी रामकाव्य में भी मिलती है। इसमें राम अपनी स्नेह
भावना को संपूर्ण विश्व के लिए प्रकट करते हैं, निदर्शन द्रष्टव्य है-
क्या जन्मभूमि मेरी पुनीत,
बस लंका तक ही है समाप्त
या भूतल में सर्वत्र व्याप्त।12
राम ने अपने राज्य में सभी को समान दृष्टि से देखा तथा सभी को समान अधिकार
देने का शंखनाद किया। सभी को समता की पृष्ठभूमि प्रदान की। इस काव्य धारा में यह
भाव प्रकट हुआ है कि समता का सूर्योदय राम भक्ति से ही संभाव्य है। यह श्क्ति ही
समता की चेतना जन मन में नवीन गति भर सकती है। पृथ्वी नर समता का प्रकाश ही
रामराज्य कहलाता है। राम ने देशनीति में समता को महत्त्वपूर्ण स्थान देते हुए कहा
-
‘‘मैं हूँ मनुष्य
राजमहल
सचमुच सबका
वैभव
के गिरि भी मेरे नहीं सभी के हैं।’’13
आधुनिक हिन्दी रामकाव्य ने उस वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया है, जो कर्म पर आधारित न होकर जाति पर आधारित हो।
व्यक्ति का महत्त्व होना उसके युग-कर्म पर निर्भर करता है। आज का रामराज्य समान
दृष्टि वाला समाज है। ‘शबरी’, ‘शंबूक’ जैसे पात्रों को लेकर लिखी जाने वाली रचनाएँ वर्ण-व्यवस्था की परम्परित
रूढ़िबद्ध विचारधारा के प्रति आक्रोश को प्रकट करती है और नये मूल्य प्रतिस्थापित
करती है, यथा-
जो व्यवस्था व्यक्ति के सत्कर्म को भी / मान ले
अपराध /
जो व्यवस्था
फूल को खिलने न दे, निर्बाध /
जो व्यवस्था वर्ग सीमित स्वार्थ से हो ग्रस्त।
वह विषम/ घातक व्यवस्था/ शीघ्र ही हो / अस्त’’।14
त्रेतायुग के रामराज्य की व्यवस्था ही आदर्श शासन व्यवस्था है, जो वर्तमान का पथ प्रदर्शन करने में सक्षम है।
आदर्श शासन में न्यायतंत्र, दण्ड व्यवस्था,
प्रजा के अधिकार , कर्तव्य आदि पर संतुलित दृष्टि अपनाई जाती है। आदर्श शासन
में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है,
किन्तु इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग नहीं होना
चाहिए-
अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का अर्थ / यह नहीं होता
कि/
हम व्यक्तिगत राग-द्वेषों / आधारहीन अभिमतों /
वक्तव्यों और शंकाओं को / सार्वजनिक रूप से /
आक्षेपात्मक वाणी दें।’’15
आधुनिक हिन्दी रामकाव्य ने स्वतंत्रता-संग्राम राष्ट्रीय भावना घोष किया।
राष्टीªयता का यह रूप आधुनिक है।
इनमें चेतना की व्याप्ति है। मातृभूमि वंदना, उसका देवीकरण, भाषा, संस्कृति के प्रति प्रेम,
स्वदेश की भावना विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त
हुई। रामकाव्य में मातृभूमि के प्रति सम्मान की भावना यत्र-तत्र अभिव्यक्त हुई
। रावण का कथन-
वानर से डरने वालों को, लंका जगह न दे सकेगी
उनके निष्फल जीवन का, बोझ न शीश पर ले सकेगी।’’16
युद्ध और शान्ति की समस्या इस युग की देन है। आज का कवि युद्ध को एक विवशता मानता है। बिना सोचे हुए कारणों,
सामाजिक दबावों, यथार्थ के
दुराग्रहों तथा काल्पनिक इच्छाओं के सम्मुख न चाहते हुए भी मनुष्य को नतमस्तक होना
पड़ता है, और अमानुषी कृत्य करने
पड़ते हैं। साम्राज्यवाद की वृत्ति से जब
लघु मानव त्रस्त होता है, तब युद्ध का
आविर्भाव अनायास हो जाता है-
हम साधारण जन/युद्ध प्रिय थे कभी नहीं
और न लंका युद्ध लड़ेंगे/ युद्ध भाव से।
महाराज / साम्राज्य वृत्ति के द्वारा
हम साधारण जन / अर्ध सभ्य कर दिए गए।17
आधुनिक युग में रामकथा का प्रणयन क्यों हुआ ?
इस पर डॉ. प्रमिला अवस्थी का अभिमत है-‘‘
विचार पक्ष पर बढ़ने से ज्ञात होता है कि भारत
अपनी सांस्कृतिक हार स्वीकार कर जब पाश्चात्य की ओर बढ़ रहा था, उसे अपनी संस्कृति, ज्ञान -विज्ञान और शक्ति का भरोसा न रहा था, तब रामकाव्य प्रणेताओं ने रामकथा की शक्तिमत्ता
देखकर यह अनुभव किया की आधुनिक घोर वैज्ञानिक अनास्था के युग में भी
रामकथा के माध्यम से भारत अपना सांस्कृतिक संदेश सुना सकता है’’।18 वस्तुतः रामकाव्य
भारतीय संस्कृति के मूल्यों की पुनस्र्थापना की एक मात्र कथा है, जो युगीन प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम है।
समग्रतः आधुनिक हिन्दी रामकथा धारा ने संस्कृति के तत्त्वों को नवीन आलोक में देखा
है। सामाजिक कुरीतियों का खंडन, सामाजिक समानता
का पोषण, पारिवारिक आदर्शों की
प्रतिस्थापना, नारी की
प्रतिष्ठा, आर्थिक समानता, श्रम का महत्त्व आदि परम्परित मूल्यों को नवीन
परिप्रेक्ष्य में प्रतिस्थापित किया गया । साथ ही शोषण की निंदा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, राष्ट्रप्रेम, पाश्चात्य भोगवादी , साम्राज्यवादी नीति की निंदा, अधिकार चेतना जैसे नवीन मूल्यों की भी प्रतिष्ठा की गई है।
मानवता के चरम विकास में इस काव्य का अमूल्य योगदान रहा है। आधुनिक रामकाव्य
परम्परा की अनुभूति नहीं है, उसमें नवीन
युगानुकूल जीवन के प्रतिमानों, मूल्यों को वहन
करने की शक्ति भी है।
संदर्भ-
1. गुलाब, बाबू-भारतीय संस्कृति
की रूपरेखा, पृ. 26, ज्ञान गंगा
प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008ई.
2. गाँधी, मो. क. - हिन्दी
स्वराज, पृ. 62, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010ई.
3. हरिशचंद्र
भारतेन्दु - भारतेन्दु ग्रंथावली, पृ. 1, सं. मिथिलेश
पांडेय, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008 ई.
4. रामावतार, पोद्दार अरुण-
अरुण रामावतार, पृ. 73, उद्धृत डाॅ.
प्रमिला अवस्थी कृत हिन्दी रामकाव्यः नये संदर्भ , पृ. 263 चिन्तन प्रकाशन, कानपुर, 1993 ई.
5. शर्मा, ‘मणिरायपुरी’ शेषमणि -कैकेयी, पृ. 44, उद्धृत वही, पृ. 264
6. मेहता, नरेश -संशय की एक
रात, पृ. 11, हिन्दी ग्रंथ
रत्नाकार, बम्बई, 1962 ई.
7. गुप्त, मैथिलीशरण -
साकेत, पृ.144, लोक भारती
प्रकाशन, इलाहबाद 2008 ई.
8. बचनेश -शबरी, पृ.8 उद्धृत डा. राम
कुमार सिंह कृत विचार-विमर्श, सारंग प्रकाशन, सारंग बिहार,
2005 ई.
9. मिश्र ‘प्रभात’ केदारनाथ -
कैकेयी, पृ.121 उद्धृत कविता
कोश वेब पेज से 1
10. तुलसी आचार्य -
अग्नि परीक्षा , पृ. 68, आर्दश साहित्य
संघ, चूरू, 1985 ई.
11. मेहता, नरेश - संशय की
एक रात, पृ. 15, हिन्दी ग्रंथ
रत्नाकार, बम्बई, 1962 ई.
12. गुप्त, मैथिलीशरण - लीला, पृ. 40, उद्धृत डा.
प्रमिला अवस्थी कृत हिन्दी रामकाव्यः नये संदर्भ, पृ.272 चिन्तन प्रकाशन, कानपुर, 1993 ई.
13. रामावतार पोद्दार
अरुण - विदेह, पृ. 198 उद्धृत वही, पृ. 273
14. गुप्त, डाॅ. जगदीश -
शम्बूक , पृ. 45, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013 ई.
15. मेहता नरेश -
प्रवाद पर्व, पृ. 30, हिन्दी बुक सेंटर, नई दिल्ली, 2012 ई.
16. पाण्डे, श्यामनारायण - जय
हनुमान, पृ. 39, उद्धृत डॉ.
प्रमिला अवस्थी कृत हिन्दी रामकाव्यः नये
संदर्भ , पृ. 185, चिन्तन प्रकाशन, कानपुर, 1993 ई.
17. नरेश, मेहता - संशय की
एक रात, पृ. 65 हिन्दी ग्रंथ
रत्नाकार, बम्बई, 1962 ई.
18. अवस्थी, डॉ. प्रमिला -
हिन्दी रामकाव्यः नये संदर्भ, पृ. 289,
पृ. 263 चिन्तन प्रकाशन, कानपुर, 1993 ई.
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4 comments:
बहुत ही सारगर्भित अध्ययन सामग्री 🙏🙏🙏🙏
शुक्रिया।
अद्वितीय
बेहतरीन लेख
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