पाबूजी का लोकदेवत्व
(अपनी माटी पत्रिका के जनवरी-जून,2021 अंक में प्रकाशित)
अभिजात्य समाज के संस्कार, संस्कृति तथा मनोरंजन के स्रोत से सर्वथा हटकर ‘लोक-समाज’ ने अपनी भावात्मक अभिव्यक्ति के लिए जिस श्रुत-परम्परा का
आधार ग्रहण किया, उन स्रोतों में
लोकगीत अथवा लोककथाओं का शीर्ष स्थान है। लोकगीतों का प्रबंधात्मक रूप ही ‘लोकगाथा’ है। यह एक गेय विधा है, जो कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी श्रुत परम्परा में जीवित रहती है।
राजस्थान की लोकगाथाओं में यहाँ के धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक एवं
सांस्कृतिक जीवन की विराट झाँकियाँ दिखाई पड़ती है। यह निर्विवाद है कि राजस्थान का
इतिहास शौर्य, वीरता तथा त्याग
की दृष्टि से अद्धितीय और स्तुत्य है, जिसका प्रकटीकरण लोकगाथाओं में हुआ है। जिन वीरों ने इस मार्ग का अनुकरण किया,
वे लोक में पूजे गए। इस शृंखला में बाबा रामदेव,
वीर तेजाजी, मेहाजी, देवनारायण जी,
पाबूजी, गोगाजी, कल्लाजी हड़बूजी
आदि अनेक लोकदेवता के रूप में पूजित हैं। इन महापुरुषों की गाथाओं से लोक-मानस
सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा ग्रहण करता है तथा सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के सूत्र
में भी बँधते हैं। इस एकसूत्रता से अनुयायी समुदाय अपना जीवन सरल, आदर्श एवं लोक कल्याणकारी बनाते हैं। राजस्थान
की सांस्कृतिक विरासत में लोकनायक ‘पाबूजी’ लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं। राजस्थान
के पाँच पीरों में इनका स्थान है-
पाबू, हरबू, रामदे, मांगलिया मेहा।
पाँचों पीर
पधारजो, गोगाजी जेहा।।
राजस्थान की वीरत्व-भाव-भरी संस्कृति के शौर्य-पुरुष,
वचन-पालक, गोरक्षक, शरणागत-वत्सल,
नारी-सम्मान के संरक्षक एवं धर्म-पालन के लिए
अपना आत्मोसर्ग करने वाले ‘पाबूजी’ को राजस्थान की लोकगाथाओं में विशिष्ट स्थान
मिला है। पाबूजी के भोपे सारंगी पर उनका यशगान करते हुए ‘पड़’
गाते हैं। ‘पड़’ एक प्रकार का कपड़े पर निर्मित चित्रपट्ट होता
है, जिन पर उनका शौर्य अंकित
है। पाबूजी के परवाड़े छन्दों में गाये जाते हैं। पाबूजी का मुख्य स्थान कोलू
(फलौदी) है, जहाँ प्रतिवर्ष
इनकी स्मृति में मेला भरता है। इनका प्रतीक चिह्न हाथ में भाला लिए अश्वारोही के
रूप में है। पाबूजी की लोकगाथा जन मानस में इस प्रकार है-
कोलूमढ़ के राजा घांधल सोम के दो पुत्र थे-बूड़ोजी
तथा पाबूजी तथा दो पुत्रियाँ थीं, सोनलदे व पेमलदे।
सोनलदे सिरोही के राव देवड़ै की पत्नी थी। देवड़ैजी अपनी दूसरी पत्नी के साथ पक्षपात
करते थे जिससे रूष्ट होकर सोनलदे ने पाबूजी
को अपमान का बदला लेने के लिए सिरोही पर आक्रमण करने के लिए उकसाया। पाबूजी ने
सिरोही पर आक्रमण कर राव देवड़ैजी को बंदी बना लिया, किन्तु सोनलदे की प्रार्थना पर
पाबूजी ने उन्हें मुक्त कर दिया। उसी दिन से वे पाबूजी का आदर करने लगे।
पेमलदे का विवाह
जींदराव खींची से हुआ। जींदराव खींची ने देवल चारणी से केसर घोड़ी मांगी, किन्तु
देवल चारणी ने देने से मना कर दिया। वह पाबूजी के राज्य में रहने लगी। पाबूजी ने
भी देवल चारणी से केसर घोड़ी मांगी, जिसे उसने पाबूजी से गोरक्षा का वचन लेकर केसर
घोड़ी उन्हें दे दी। इस घटना से खींची जल-भुन गया तथा पाबूजी से द्वेष रखने लगा।
बूड़ोजी की एक पुत्री थी केलमदे जिसका विवाह चैहान वंशी गोगा
से हुआ। पाबूजी अपनी भतीजी केलमदे से बहुत स्नेह रखते थे। इस विवाह में पाबूजी ने
भतीजी को ऊँटों का दहेज देने का वचन दिया था। पाबूजी ने अपने वचन पालन के लिए लंका
से ऊँटनियां लोकर केलमदे को दे दी। यह कार्य पाबूजी ने अपने मित्र चाँदा, डामा व हरिसिंह की सहायता से किया। हरिसिंह बड़ा
चमत्कारी पुरुष था। समुद्र ने भी उसे रास्ता दिया। यहाँ कथा में हरिराम द्वारा
सम्पन्न अद्भुत चमत्कारों का वर्णन किया गया है।
लंका से ऊँटनियाँ लेकर लौटते समय जब मार्ग में शुष्क
उपवन में रूके तो वह सूखा उपवन पाबूजी के प्रभाव से हरा हो गया। सोढ़ो की पुत्री ने
जब पाबूजी को देखा तो वह उन पर मुग्ध हो गई तथा मनसा वरण कर लिया। अपनी पुत्री का
दृढ़ निश्चय जानकर सोढ़ों ने जोशी को स्वर्ण का नारियल देकर कोमलगढ़ भेजा। पाबूजी ने
टीका स्वीकार किया और पूर्णिमा में विवाह निश्चित हुआ। विवाह में पाबूजी ने अपनी
बहिन को तो निमंत्रण दिया, किन्तु अपने बहनोई जायल खींची को निमंत्रण नहीं दिया।
बारात-प्रयाण के समय देवल चारणी अपने अश्रु प्रवाहित करती हुई पाबूजी से बोली-
मेरी गायों की रक्षा कौन करेगा, तब पाबूजी ने उसे
वचन दिया कि गायों की रक्षा के लिए मैं आधे विवाह से उठ कर आऊँगा, यदि भोजन कर रहा होऊँगा तो आचमन तेरे द्वार पर
करूँगा। इस पर चारणी आश्वस्त हो गई।
बारात ज्योंही कोमलगढ़ से चली, लेकिन मार्ग में कई अपशकुन हुए। इसकी उपेक्षा करते हुए
वे अमर कोट पहुँच गये। गढ़ के सबसे ऊँची कंगूरे में बंधी तोरण को मारकर पाबूजी ने
केसर घोड़ी के माध्यम से अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया। भांवरे हो ही रहे थी कि
जायल खींची द्वारा गोहरण की सूचना पाकर अधूरी भांवरे छोड़कर पाबूजी वचन पालनार्थ
प्रयाण करने के लिए प्रस्तुत हो गये। सोढ़ी ने पल्ला पकड़ कर पाबूजी से पूछा मेरा
अपराध क्या है? क्या मेरे
माता-पिता ने कुछ अपराध किया है, मुझे क्यों त्याग
रहें हैं? विवश पाबूजी ने कहा सोढ़ी!
अपराध की बात मत करों, मेरा ही दोष है, मेरा भाग्य का दोष है, मैं अपना मस्तक
बेचकर आया हूँ, वचन देकर आया हूँ,
‘वचन और बाप’ वीरों के एक
होते हैं। तुम दूध के सदृश उजली हो। तुम्हारे माता-पिता भी निर्दोष हैं।
पाबूजी सोढ़ी से यह
कह कर कि जीवित बचा तो स्वयं आऊँगा, न रहा तो दूत मेरे चिह्न ले ही आयेगा। यह कहकर युद्ध करने चले गये। भयंकर
युद्ध हुआ। विकट संग्राम के बाद जायल खींची भाग कर अपने मामा के पास भटनेर पहुँचा।
जायल खींची और भटनेर के शासक, दोनों की सेना ने
पाबूजी को घेर लिया। जमकर युद्ध हुआ जिसमें पाबूजी की तलवार चतुर्दिक चमक रही थी
और घोड़ी विद्युत की भांति दौड़ रही थी, किन्तु अन्ततः युद्ध में पाबूजी के साथ चाँदा और डामा वीर गति को प्राप्त हुए।
पाबूजी के अग्रज बूड़ोजी भी युद्ध में मारे गये। पाबूजी का चिह्न लेकर दूत उनकी
पत्नी सोढ़ी के पास गया। सोढ़ी सती हो गई। बूड़ोजी की गर्भवती पत्नी ने उदर चीर कर
अपने शिशु को निकाला। इसका पालन नानी के घर हुआ इसीलिए शिशु का नाम नानड़िया पड़ा। आगे चलकर समय आने पर
नानडिये ने जायल खींची का वध कर अपने पूर्वजों के विनाश का प्रतिशोध किया।
पाबूजी की अलौकिक शक्ति में विश्वास करने के
कारण जन-मानस ने उनके जीवन को लेकर अनेक कथायें रच ली हैं। एक कथा ‘राजस्थानी गद्य में धांधलजी और अप्सरा की बात’
नाम से मिलती है, जो पाबूजी के अलौकिक जन्म से
संबंध रखती है। अद्भुत चमत्कारों और अलौकिक घटनाओं में विश्वास रखने वाला लोक-मानस
अपने आराध्य लोक-देवता का जन्म भी सामान्य जन जैसा मानकर अलौकिक बनाता है। अतः लोक
देवता पाबूजी के जन्म की कथा भी अलौकिक और चमत्कारों से पूर्ण है। गायों की रक्षा
करते हुए वीर-गति प्राप्त करने से इन्हें पशुओं का रक्षक देवता, प्लेग रक्षक आदि के रूप में मान्यता है। इन्हें
लक्ष्मण का अवतार भी माना जाता है।
पाबूजी को राजस्थानी लोक-संस्कृति में देवता
माना गया है। उसका प्रमुख कारण ‘लोककल्याण के लिए
आत्मोत्सर्ग भाव है। यही नहीं, अपने वचन पालन के
लिए सांसारिक सुखों का परित्याग करना, गोरक्षा के लिए सर्वस्व अर्पित करना आदि अतुल्य कर्तव्यनिष्ठा से वे सामान्य
मानव से ऊपर रहे और ‘लोक’ में प्रतिष्ठा मिली। पाबूजी की गाथा यद्यपि थोरी
जाति के लोग ‘परवाड़े’ के रूप में गाते हैं, फिर भी साहित्यिक रूपों में प्रकाशित कृतियाँ भी पाबूजी के
विराट चरित्र को उद्घाटित करती है। इस दृष्टि से मोड़जी आशिया रचित ‘पाबू-प्रकाश’ महाकाव्य पसिद्ध है, जिसमें 335 पद और 15000 पंक्तियों में पाबूजी की यशगाथ है। इसके
अतिरिक्त केम्ब्रिज विश्वविधालय में संस्कृत-विद्धान जौन डी. स्मिथ का ग्रंथ ‘द एपिक ऑफ पाबूजी’ उल्लेखनीय है। इसी शृंखला में बीठू सूजा की रचना ‘पाबूजी रा छंद’, लाघरस रचित ‘पाबूजी रा दूहा’
आदि प्रमुख हैं।
राजस्थानी संस्कृति में वचन पालन को मर्यादा
मार्ग की श्रेणी में रखा है। पाबूजी यदि लोकदेवता के रूप में मान्य हैं, तो उसका
प्रमुख कारण पाबूजी का वचन-पालन है। उन्होंने देवल चारणी को उसकी गायों की रक्षा
करने का वचन दिया था। विवाह के तीसरे फेरे में उन्हें ज्ञात हुआ कि जिंदराज खींची
ने देवल की गायों को हड़प लिया है, तो वे प्रण-पालन के लिए विवाह की भँवरी छोड़ देते
हैं। उनकी अर्द्ध-विवाहित पत्नी ने कहा कि आप विवाह तो कर लीजिए, जब तक मेरे पिता की सेना गायों की रक्षार्थ चली
जाऐंगी, तब पाबूजी का कथन उनके
वीरत्व की व्यंजना करता है-
म्हारै तो लागै
जी सोढ़ी सूरापण में दाग,
कोई थारी तो
फौजां पर म्हारी कुल की मूछां ना चढ़ै।
अर्थात् जब रक्षा का वचन जिसने दिया, वही उसका पालन करेगा, अन्यथा उसकी वीरता के लिए कलंक होगा। राजस्थान की वीरगाथाओं
का यही सौन्दर्य अभिभूत करता है। इस मिट्टी के कण-कण को महिमामय बनाने वाले ऐसे
शूरवीर यश के भागी बनते हैं, उसमें पाबूजी भी
हैं। अर्द्ध विवाहित सोढ़ी अपने पति के प्रस्थान से पूर्व हाथ की निशानी मांगती है,
तो पाबूजी तनिक भी भावुक न होकर अपने वचन-पालन
की राह पर बढ़ते हुए कहते हैं-
जीवांगा तो फेर
मिलांगा, सोढ़ी थासू आय,
मरजावां तो ला
देला ओठी म्हारा महमद मौलिया।
इस तरह वचन-पालन के लिए मरण को धर्म मानने वाले
शूरवीर पाबूजी ने राजस्थान की वीर-परम्परा का मान रखा और इस भूमि के यश में वृद्धि
की। ‘जे दृढ़ राखे धर्म को,
तेहि राखे करतार’ जैसे उद्घोष राजस्थान की वीरभूमि पर सदैव गूंजायमान रहे और
जिन्होंने इनका पालन किया, वे देवतुल्य बने।
सनातन संस्कृति की भाँति ही राजस्थान में गाय
को माता-तुल्य मानकर आदर दिया जाता है। यहाँ के वीर अपनी मातृभूमि, माता और गाय के लिए सर्वस्व समर्पित कर देते
हैं। पाबूजी भी गायों की रक्षा के लिए अपने शत्रुओं से युद्ध लड़ते है, यद्यपि शत्रु उनका रिश्ते में बहनोई है,
परन्तु गायों की रक्षा करना उनके लिए धर्म है।
यह क्षात्र-धर्म उन्हें महान बनाता है। तीसरे फेरे में पाबूजी भँबरी छोड़ देते हैं,
उस दृश्य का रेखांकन द्रष्टव्य है-
दीजै बिरामण जोसी,
एक म्हांरा छेड़ा हथलेवा
कीजै छोड़,
घियौड़ी गयां में
पाबूजी फेरा कीजै नी फिरै।
कीनो, कीनो जायल रै खींची, अण धरती में घणों इनियाव,
फेरा फिरतां में
देवल री गायां कीजै घेर ली।।
इन पंक्तियों में पाबूजी के लिए फेरे लेने से
अधिक महत्त्व गायों की रक्षा का है। सांसारिक सुखों की अपेक्षा लोक रक्षार्थ अपने
कर्तव्य का पालन करने का संकल्प ही उन्हें महान बनाता है। लोक में यह धारणा भी दृढ
है कि गायों की रक्षा के लिए पाबूजी निश्चित ही आएँगे। देवल जब गायों की दुर्दशा
प्रकट करती है तो गायों की अन्तर्पीड़ा को इन शब्दों में व्यक्त करते हुए पाबूजी से
अपेक्षाओं को मार्मिक ढंग से व्यक्त करती है-
रावै पाबू पाल अण
गायां, गायां रा कीजै
नैना कीजै वाछड़ा।
तो एक पाबू ने
पुकारे एक गायां रा नैना कीजै वाछड़ा।।
सूना पड़िया पाबू
पाल अण गायां रा कीजै गवाड़।
एक बाड़ा में
तांबाड़ै गायां रा नैना कीजै वाछड़ा।।
गायों के प्रति अद्भुत श्रद्धा भारतीय संस्कृति के उन
दैदीप्यमान गुणों का परिणाम है, जो राजस्थान की
लोकगाथाओं को भी गरिमा प्रदान कर रही है। गायों को शत्रु से छुड़ाकर जब पाबूजी देवल चारणी
को उसकी गायें सौंपते हैं तो उसे ज्ञात होता है कि एक काना बछड़ा इसमें नहीं है,
तो इससे गोवंश का महत्त्व रेखांकित होता है।
पाबूजी इसे भी लेकर आते हैं-
ओ आप लेजो काण्यो
केरड़ो संबाल।
दीजो देवल बाई रै
हाथ।
पाबूजी वीर ही नहीं, बल्कि अछूतोद्धारक भी थे। उन्होंने अस्पृश्य समझी जाने वाली
थोरी जाति के सात भाइयों को न केवल शरण दी, अपितु प्रधान सरदारों में उठने-बैठने और खाने-पीने में अपने
साथ रखा। धांधल राठौड़ों के अलावा थोरी आज उनके प्रमुख अनुयायी हैं, जो ‘पाबूजी की पड़’ गाने के अलावा
सारंगी पर उनका यश भी गाते हैं। पाबूजी का व्यक्तित्व नीति का संवाहक होने के साथ जन-कल्याणकारी
रहा। गायों की रक्षार्थ अपने वचन का पालन कर सांसारिक सुखों की अपेक्षा कर्तव्य का
निर्वहन किया। यह कर्म राजस्थान की सांस्कृतिक धरोहर को पुष्ट करता है, इसीलिए वे लोक देवता की श्रेणी में हैं।
सहायक ग्रंथ सूची
:
1. पाबू-प्रकाश, मोड़ जी आशिया, सं. नारायण सिंह
भाटी,
2. द एपिक ऑफ पाबूजी, जान डी. स्मिथ, यूनिवर्सिटी ऑफ
केम्ब्रिज, (यू.के.)
3. राजस्थान साहित्य
में लोकदेवता पाबूजी, महीपाल सिंह
राठौड़, हिमांशु
पब्लिकेशन, उदयपुर।
4. राजस्थानी
लोकगाथा कोश, डॉ. कृष्ण बिहारी
सहल, राजस्थानी
साहित्य संस्थान, जोधपुर।
5. राजस्थान के
प्रमुख संत एवं लोकदेवता,
दिनेश चन्द्र
शुक्ल राजस्थानी साहित्य संस्थान, जोधपुर।
No comments:
Post a Comment