‘कोरोना का कहर’ और त्रास में मनुष्यता

 ‘कोरोना का कहर’ और त्रास में मनुष्यता

('मधुमती' अंक अप्रैल-मई, २०२४ में प्रकाशित)

कोरोना काल' हमारी स्मृतियों में इस समय का सर्वाधिक त्रासदीमूलक काल-खण्ड है। एक ऐसा काल-खण्ड, जिसने न केवल भारत, अपितु वैश्विक महाशक्तियों को अपने कहर से स्तब्ध कर दिया। एक बार तो ऐसा लगा कि मृत्यु की विभीषिका हर दरवाजे पर आकर अट्टहास कर रही हो, जहाँ महाप्रलय सुनिश्चित है। अपने ही स्व-जनों की लाशों को कंधा न दे पाना, अंतिम संस्कार भी न हो पाना, पल भर में जीवन का समाप्त हो जाना और असहाय स्थिति में आपदा के टलने का इंतजार करना नियति बनकर रह गया। नर्सिंगकर्मी किशनलाल वर्मा जो स्वयं संवेदनशील रचनाकार रहे हैं और महामारियों के वैश्विक इतिहास से परिचित हैं, उन्होंने ‘कोरोना का कहर’ पुस्तक के माध्यम से मनुष्य-जाति पर आए इस संकट का हृदय-विदारक चित्रण किया है। पुस्तक में आत्म की अभिव्यक्ति के साथ कविता का संवेदना तत्त्व संपूर्ण जगत से जुड़ता है। सारी जटिलताओं के होते हुए भी कविता हमारी संवेदना के निकट होती है, यही राग तत्त्व है। इससे कवि की पीड़ा साधारणीकृत हो जाती है और जगत की पीड़ा उसकी वाणी बन जाती है।

सोलह खंडों में रचित पुस्तक का कलेवर ‘खंडकाव्य’ की भाँति है। इसके वर्ण्य-विषय में कोरोना का उद्गम, लक्षण, प्रसार, प्रभाव एवं परिणाम के साथ-साथ मानवीय व्यथा को उद्घाटित किया गया है, जहाँ मनुष्य के हाथ केवल बेबसी है। रचनाकार ने इस पुस्तक के माध्यम से अपनी संवेदनाओं को गीतिकाव्य से विस्तार देकर मार्मिक प्रस्तुति दी है। काव्य के प्रारंभ में कोरोना वायरस का उद्गम और इसकी प्रकृति की भयावहता की ओर संकेत करते हुए लिखा कि केवल छूने मात्र से यह रोग फैल रहा था और प्राणों को संकट में डाल रहा था- मानव से मानव में विचरण, इस वायरस के मिले प्रमाण।/चले हवा से बातें करते, छूने भर से संकट में प्राण।।

इसकी भयावहता का वर्णन करते हुए वह कहते हैं कि आरंभ में सर्दी-जुकाम, फिर खांसी, उसके बाद श्वास लेने में तकलीफ और देखते-देखते फेफड़े जाम हो जाना, उसके बाद रक्तचाप का कम होना, कोई दवा-उपचार न होना और मृत्यु का निकट आना आदि दृश्य विचलित करते हैं। कवि ने इसे ‘निशाचरी काया’ कहकर संबोधित किया-चमगादड़ का यह वंशज है, निशाचरी इसकी माया।/ मानव का भक्षण करने वाली है निशाचरी काया।। कोरोना के भीषण प्रवाह ने दुनिया की सारी दिशाओं को दहला दिया। वैश्विक ताकतें भी असहाय होकर ईश्वर के सामने नतमस्तक हो गईं। यहाँ कवि कोरोना के कहर को एक वैश्विक परिघटना के रूप में तो देखता ही है, उससे भी अधिक अपने आसपास घटी घटनाओं की स्थिति का रेखांकन करते हुए हमारे साथ बीती त्रासदी को  इन शब्दों में व्यक्त करता है-एम्बुलेंस के पीछे पीछे पुलिस का दस्ता आया था।/बल्ली बांस रस्सियां नगर निगम का बन्दा लाया था।।/कोरोना का ठप्पा घर के दरवाजे पर चस्पाया था।।/गली हो गई सील बल्लियों का अवरोध लगाया था।।

इस त्रासदी में कवि ने अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, पड़ौसियों और की युवा चेहरों को खोया। उनकी स्मृतियों में वह द्रवित होकर चीत्कार उठता है। कोटा के साहित्यकार राधेश्याम मेहर और उनके युवा पुत्र की मृत्यु पर क्वारंटाइन के नाम पर अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाना आदि संयोगों को वर्णित कर हमारी सोई हुई स्मृतियों को जागा दिया। सभी साहित्यिक मित्रों के दुःख को व्यक्त करते हुए लिखा कि- निर्मोही, आनन्द, राजेन्द्र, परमानन्द, विजय विचलित।/ कर न सके अन्तिम दर्शन अस्पताल में हम विलज्जित ।।

वस्तुतः कोरोना के कहर के बहाने कवि ने उन बाजारवादी शक्तियों को बेनकाब किया है जो प्रकृति का नाश कर रहे हैं और उपभोग की पराकाष्ठा में मानवता के विनाश की दहलीज पर खड़ा कर दिया है। कवि ने स्पष्ट किया है कि कथित बड़े राष्ट्रों ने मानवता को बाजार में बेच दिया है, इस कारण ऐसे दृश्य उपस्थित होते हैं। फिर भी उसे विश्वास है कि अंततः मनुष्यता की ही विजय होगी। समग्रतः कवि ने युगानुकूल परिदृश्य को अपनी कविता में बखूबी उकेरा है। उसका समय मानवता और दानवता की संक्रमणकालीन परिस्थितियों का साक्षी है, जिसकी पहचान उसने कर ली है। भूमंडलीकरण के फलस्वरूप बदलते परिवेश को उसने बखूबी व्यक्त किया और उसके भावी दुष्परिणामों का संकेत कर कवि-समय का निर्वाह किया है।

पुस्तक की भाषा में सहजता है। साहित्यिक प्रतिमानों का निर्वाह नहीं के बराबर है, परंतु संवेदना का धरातल गहरा है। लयात्मक गीतिबद्धता से पीड़ा का उद्घाटन मर्मस्पर्शी ढंग से हहुआ है। पुस्तक की भूमिका में ही कथ्य को स्पष्ट किया गया है, जिससे पाठकों को रचना के मर्म को समझने में मदद मिली है। आवरण शीर्षक के अनुरूप है। ओम पब्लिशिंग कंपनी, दिल्ली से प्रकाशित यह कृति सुधी पाठकों को अवश्य उद्वेलित करेगी ऐसा विश्वास है।


समीक्षक: डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी

खंडकाव्य: कोरोना का कहर

रचनाकार: किशनलाल वर्मा

प्रकाशक: ओम पब्लिशिंग कंपनी, दिल्ली-32

पृष्ठ: 119, आमंत्रण मूल्य: ₹ 295/-,





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