फ़ादर डॉ. कामिल बुल्के की दृष्टि में रामचरित मानस की सार्वकालिकता
यह एक विलक्षण संयोग है कि लॉर्ड मैकाले के भारत आने के ठीक एक सौ वर्ष बाद 1935 में फ़ादर डॉ. कामिल बुल्के मिशनरी काम से भारत आए और सनातन संस्कृति के प्रस्थान बिंदुओं की खोज करते-करते रामत्व के आकर्षण में बंध गए। लंबे समय तक फादर बुल्के के संपर्क में रहने वाले डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के शब्दों में, “फादर बुल्के उन विदेशी संन्यासियों में थे, जो भारत आकर भारतीय से अधिक भारतीय हो गए थे. उन्होंने यहाँ की जनता के जीवन से अपने को एकाकार कर लिया था। उन्हें देखकर कोई भी व्यक्ति यह अनुभव कर सकता था कि संन्यास का अर्थ जीवन और जगत का निषेध न होकर स्वत्व का निषेध है और स्व का ऐसा विस्तार, जिसमें पूरी दुनिया के लिए ममत्व भरा हुआ है।”1 बुल्के का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट म्युनिसिपैलिटी के एक गाँव रम्सकपेल में 1909 में हुआ था। उन्होंने लूवेन विश्वविद्यालय, लिस्सेवेगे से सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री ली और उसके बाद 1930 में जेसुइट बन गए। बाद में जेसुइट सेमिनरी से लैटिन भाषा पढ़ने के बाद ब्रदर बने बुल्के ने अपना जीवन एक संन्यासी के रूप में बिताने निश्चय किया और कई महत्त्वपूर्ण संस्थाओं में अध्ययन करने के बाद 1935 में भारत आ गए। यहाँ उन्होंने विज्ञान के अध्यापक के रूप में सेंट जोसेफ कॉलेज, दार्जीलिंग में और येसु संघियों के मुख्य निवास स्थान मनरेसा हाउस, रांची में अपना प्रवास किया। 1944 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया और उसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1947 में हिन्दी में एम.ए. और 1950 में डॉक्टोरेट करने के उपरांत 1951 में उन्होंने भारत की नागरिकता ग्रहण की।
उनके द्वारा रचित पुस्तकों की संख्या 29 है। जिसमें प्रमुख हैं, ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’, ‘हिंदी-अंगरेजी लघुकोश’, ‘अंगरेजी-हिंदी कोश’, ‘रामकथा और तुलसीदास’, ‘मानस–कौमुदी’, ‘ईसा जीवन और दर्शन’, ‘एक ईसाई की आस्था’, ‘मुक्तिदाता’, ‘नया विधान’, ‘नीलपक्षी’ आदि। इसके अलावा भी उनके सैकड़ों शोध-निबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। वे ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’, ‘काशी नागरी प्रचिरिणी सभा’ और ‘बेल्जियन रॉएल अकादमी’ के सम्मानित सदस्य थे। निस्संदेह डॉ. फादर कामिल बुल्के ने भारत और पश्चिमी जगत को भावात्मक रूप से जोड़ने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। भारत सरकार ने साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके योगदान के लिए उन्हें 1974 में पद्मभूषण से सम्मानित किया।
डॉ. फादर बुल्के का शोध-प्रबंध हिन्दी माध्यम में प्रस्तुत हिन्दी विषय का पहला शोध-प्रबंध भी है। जिस समय फादर बुल्के इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय विश्वविद्यालय के सभी विषयों के शोध-प्रबंध केवल अंग्रेजी में ही प्रस्तुत करने का विधान था। फादर बुल्के के लिए अंग्रेजी में शोध-प्रबंध प्रस्तुत करना सरल भी था, किन्तु यह बात उनके हिन्दी स्वाभिमान के विपरीत थी। उन्होंने आग्रह किया कि उन्हे हिन्दी में शोध-प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान की जाय। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. अमरनाथ झा ने उनके आग्रह पर शोध-संबंधी नियमावली में संशोधन कराया और उन्हें अनुमति दी। शोध-प्रबंध का शीर्षक था- ‘रामकथा: उत्पति और विकास’। इसमें संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, बंगला, तमिल आदि सभी प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध रामविषयक विपुल साहित्य का ही नहीं, वरन् तिब्बती, वर्मी, इंडोनेशियाई, थाई आदि भाषाओं में उपलब्ध समस्त राम साहित्य का अत्यंत वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया गया है। अपना शोध-प्रबंध जमा करने के बाद भी डॉ. बुल्के इसी विषय पर अगले 18 वर्ष तक काम करते रहे। उनकी इस कृति के बारे में उनके गुरु डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा कि इसे रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है। वास्तव में यह शोध-प्रबंध अपने ढंग की पहली रचना है। हिन्दी क्या, किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में इस प्रकार का दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है। हिन्दी परिषद, इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने स्वयं इसे प्रकाशित करके इसकी गुणवत्ता पर मुहर लगा दी।
फादर कामिल बुल्के के रचना क्षेत्रों को चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- रामकथा,कोश, अनुवाद और धर्म दर्शन। रामकथा उनकी कीर्ति का विशेष आधार रहा है। 'रामकथा: उत्पत्ति और विकास' नामक ग्रंथ के तीन संस्करण प्रकाशित हुए और उनके देहावसान पश्चात चौथे संस्करण की पांडुलिपि में कुछ प्रविष्टियाँ समाविष्ट हुईं। रामकथा को भारत की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में रेखांकित करते हुए अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मेलन, कानपुर 1967 का उद्घाटन भाषण में डॉ. बुल्के ने कहा, “वास्तव में रामकथा आदर्श जीवन का वह दर्पण है, जिसे भारतीय प्रतिभा शताब्दियों तक परिष्कृत करती रही। इस प्रकार रामकथा भारतीय आदर्शवाद का उज्ज्वलतम प्रतीक बन गई है। भारतीय संस्कृति में विचारों की उदारता, स्वतंत्रता, तथा निर्भीक जिज्ञासा के विशेष लक्षण हैं। इतिहास इसका साक्षी है कि भारत में नई धार्मिक तथा दार्शनिक विचारधाराएं बराबर उत्पन्न होती रही और नए विचारों का स्वागत होता रहा। अतीत के भंडार से किसी कार्य विशेष के कुछ ही सिद्धांत निकाल कर उन्हें भारतीयता की एकमात्र प्रतिनिधिक उपलब्धि ठहराना, भारत की शताब्दियों तक निरंतर आगे बढ़ती हुई उदार संस्कृति के प्रति घोर अन्याय ही है। .... वाल्मीकि ने जिस भारत का चित्रण किया है वह अपना अतीत गौरव से मोहित होकर निष्क्रिय नहीं बन गया था, वरन हृदय में जीवन के प्रति उत्साह भरकर अग्रसर होता रहा था।“2
रामकथा उनके जीवन का प्रमुख केंद्र रही, किंतु इस कथा के प्रति उनका आकर्षण सबसे पहले तुलसीदास के कारण उत्पन्न हुआ। जिनकी कुछ पंक्तियाँ पढ़कर वह अभिभूत हो उठे थे। उनका कथन है, "क्या मुझे उस समय अदृष्ट का संकेत मिल रहा था कि मैं उस कवि के देश में जाकर बस जाऊंगा, उसकी रचना से मोहित होकर उसके साहित्य का विशेष अध्ययन करूंगा, उसी काव्य के कथानक पर अनुसंधान करुंगा?"3 तुलसीदास कामिल बुल्के के सबसे प्रिय कवि और उनकी धर्म साधना के प्रेरक आदर्श थे । उनके निकटतम अधिकतर विद्वान लोगों को उनके जैसे प्रखर बुद्धि की धर्म निष्ठा और एक विदेशी के हिंदी प्रेम की तरह समर्पित ईसाई सन्यासी की तुलसी भक्ति बहुत आश्चर्यजनक लगती थी। उनसे कई बार प्रश्न भी किया करते थे। उन्होंने इसका समाधान देते हुए कहा, “जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूँ तो मुझे लगता है कि ईसा, हिंदी और तुलसीदास यह वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और मेरे लिए उन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं, बल्कि गहरा संबंध है।“4 प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन नागपुर के अवसर पर पवनार आश्रम, वर्धा में 14 जनवरी,1975 को तुलसी की प्रतिमा का अनावरण करते हुए बुल्के ने कहा था, "तुलसी ने कहा है, सब ही नचावत राम गोसाईं, किंतु मैं कहता हूँ- मोहि नचावत तुलसी गोसाईं। प्रत्येक वर्ष तुलसी का संदेश सुनाने के लिए मैं बहुत दौड़ा करता हूँ।“5 अपनी तुलसी भक्ति के बारे में उन्होंने लिखा है, “1938 में मैने ‘रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका’ को प्रथम बार आद्योपान्त पढ़ा। उस समय तुलसीदास के प्रति मेरे हृदय में जो श्रद्धा उत्पन्न हुई और बाद में बराबर बढ़ती गई, वह भावुकता मात्र नहीं है. साहित्य तथा धार्मिकता के विषय में मेरी धारणाओं से इस श्रद्धा का गहरा संबंध है।”6 वे तुलसीदास को केवल विश्व के महानतम कवियों में एक ही नहीं मानते थे, वरन उनकी भगवत भक्ति को मानव मात्र के लिए आदर्श मानते थे। यद्यपि तुलसी पर एक विस्तृत ग्रंथ लिखने का उनका सपना पूरा नहीं हो सका, लेकिन उनके निबंधों तथा 'रामकथा और तुलसीदास' तथा मानस-कौमुदी' नामक पुस्तक से उनकी तुलसी संबंधित दृष्टि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
डॉ. बुल्के रामकथा के ऐतिहासिक विकास को तीन सोपानों में विभाजित करते हैं और यह कहते हैं कि तुलसी की रामकथा इसके तीसरे सोपान का प्रतिनिधित्व करती है। उनके अनुसार राम कथा के विकास का पहला सोपान है-वाल्मीकि द्वारा अंकित आदर्श क्षत्रिय मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र तथा दूसरा सोपान राम का विष्णु के अवतार के रूप में परिवर्तन है और तीसरा सोपान रामभक्ति है। इस चरण में राम को न केवल विष्णु का अवतार माना गया, बल्कि स्वयं परब्रह्म का अवतार निरूपित किया गया। रामचरितमानस का संबंध रामकथा के विकास के सोपान से है। फादर कामिल बुल्के की दृष्टि में तुलसी की राम कथा मात्र परंपरा का अनुसरण नहीं है, बल्कि उसे अपनी परिकल्पना के अनुसार कभी स्वीकार करते, कहीं छोड़ते और कहीं बदल देते हैं। लेकिन वे यह सब कथानक के परंपरागत ढांचे के अंतर्गत इतनी सहजता से करते हैं कि उनकी मौलिकता पर कोई असहमति नहीं दिखती। इस संबंध में उनका अभिमत है, "तुलसी उन विभिन्न कथाओं-वाल्मीकि, अध्यात्म रामायण, महानाटक, प्रसन्न राघव आदि से प्रसंग चुनकर अपने रामचरित की रचना करते हैं।"7 इसीलिए तुलसी की राम कथा में यदि परंपरा से भिन्नता मिलती है तो इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि यह कोई एक कथा ना होकर असंख्य कथाओं का समूह है । उन्होंने तुलसी की रामकथा के विशेष ढांचे या रूप विधान के तीन कारण बताए हैं- पहला कारण कवि इसके माध्यम से राम के परमब्रह्मत्व को स्थापित करना चाहते हैं, दूसरा कारण इसके माध्यम से वे भक्ति का निरूपण करना चाहते हैं और तीसरा कारण यह कि वे अपने समकालीन एवं पूर्ववर्ती राम साहित्य में बढ़ते हुए शृंगारिकता से इसे पूर्णता मुक्त कर मर्यादित और नैतिक स्वरूप देना चाहते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि किस प्रकार तुलसी की रामकथा परंपरा के सर्वोत्तम का संरक्षण करने और उसे निरंतरता प्रदान करने वाली प्रतिनिधि रचना है। वे लिखते हैं, "नैतिक आदर्शों के चित्रण द्वारा लोक संग्रह का भाव और भगवदभक्ति, राम कथा परंपरा के इन दोनों तत्वों का अपूर्व समन्वय तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में प्रस्तुत किया है।“8
वस्तुतः वाल्मीकि के परवर्ती रामकाव्य के कवियों में तुलसी का स्थान अद्वितीय है। उन्होंने वाल्मीकि और लोकसंग्रह का पूरा-पूरा निर्वाह किया है और उस रामकथा के सोने में भगवद्भक्ति की सुगंध जगा दी है। तुलसीदास ने भगवद्भक्ति के विषय में जो संदेश दिया है, वह वाल्मीकि के नैतिक आदर्श की भांति विश्वजनीन है। इष्टदेव के प्रति अनन्य आत्म-समर्पण के साथ- साथ अपने दैन्य की तीव्र अनुभूति तुलसी की भगवद्भक्ति की प्रमुख विशेषता है। उन्होंने कहीं भी कर्मकाँड पर बल नहीं दिया, कहीं भी मन्दिर में होने वाली पूजा के लिए अनुरोध नहीं किया। भक्तिमार्ग की नींव नैतिकता है और अपनी उक्त प्रमुख विशेषता के कारण वह सब संप्रदायों के ऊपर उठकर मानव मात्र के लिए उपयुक्त है।”9 तुलसी ने वाल्मीकि रचित रामकथा के आदर्शवाद और भक्ति रूप बनाए रखा। वस्तुतः वाल्मीकि की राम कथा में 2000 वर्षों तक होते रहने वाले परिवर्तनों और परिवर्धनों के बावजूद उसका लोक संग्रह और आदर्शवादी स्वभाव अक्षुण्ण रहा। परंतु सखी संप्रदाय के माध्यम से जब इस कथा में शृंगारिकता का समावेश होने लगा और उसके बाद काव्य के नाम पर ऐसी रचनाएं लोकप्रिय भी हो गई, जिनमें नायक-नायिकाओं के प्रेम प्रसंगों का वर्णन मिलता था। तब तुलसी ने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से इस प्रवृत्ति का विरोध किया। वह एक ऐसे कवि का स्वरूप चाहते थे जो जीवन के सात्विक लक्षणों से प्रेरित हो।
रामचरितमानस में राम के नैतिक और लोक संग्रह ही चरित्र की अभिव्यक्ति अत्यधिक मार्मिक ढंग से हुई है। इस दृष्टि से यह अद्वितीय कृति है। किंतु जब तुलसी भक्ति पर अपने विचार को प्रकट करते हैं तो उन्हें यह ईश्वर तक पहुंचने का श्रेष्ठतम मार्ग दिखाई देता है। डॉ. बुल्के का मत है कि यहाँ उनका पूर्ववर्ती रामकथा परंपरा से भेद हो जाता है। यह बात 'अध्यात्म रामायण' से उनके भक्ति संबंधी दृष्टिकोण की तुलना करने पर और भी स्पष्ट हो जाती है। अध्यात्म रामायण में भक्ति को ज्ञान का साधन मात्र माना गया है। मोक्ष ज्ञान द्वारा ही संभव है और ज्ञान की अनिवार्य शर्त सन्यास और वैराग्य है, लेकिन इसके ठीक विपरीत तुलसी यह कहते हैं कि ज्ञान मार्ग अत्यंत कठिन है। यह मार्ग मनुष्य के चित्त को भीतर से बदलने में असमर्थ है। सबसे श्रेष्ठ है-भक्ति। क्योंकि यह मनुष्य को भीतर से धोकर पवित्र करती है और बड़ी सरलता से प्रभु तक ले जाती है। तुलसी ने इसे सर्व सुलभ मार्ग बताया और इसे राजमार्ग भी कहा, जिस पर चलने का अधिकार सब मनुष्यों को है। तुलसी मर्यादा को भक्ति का आवश्यक आधार मानते हैं। उनके अनुसार भक्ति का सामाजिक कर्तव्यों के पालन और सदाचरण से विच्छेद संबंध है। उनके रामचरितमानस और अन्य रचनाओं में भक्ति का जो स्वरूप व्यक्त हुआ है, उससे स्पष्ट है कि "संत गोस्वामी तुलसीदास ने भक्ति का जो सिक्का चलाया, उसके दो पहलू हैं- एक भगवत भक्ति और दूसरा नैतिकता।"10
फादर बुल्के को तुलसी की भक्ति में जो एक विशेषता विशेष रूप से आकर्षित करती है वह है-परहित भावना। आचार्य शुक्ल ने इसे 'लोकमंगल' के रूप में निरूपित किया, लेकिन कामिल बुल्के इस दृष्टिकोण को तुलसी की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानते हैं। उनकी दृष्टि में यह महाकवि तुलसी की मौलिकता है, जिसमें मनुष्य की सेवा महत्त्वपूर्ण है। तुलसी का प्रभु-भक्त न केवल नैतिक आचरण करने वाला और परहित निरत व्यक्ति है, बल्कि वह प्रपत्ति और आत्मदैन्य भवापन्न व्यक्ति भी है। वह पूरी श्रद्धा से भगवान का विधान स्वीकार करता है और भरत की तरह यह मानता है कि प्रभु की आज्ञा के पालन से बढ़कर उसकी और कोई सेवा नहीं है। ईश्वर के विधान के प्रति पूर्ण समर्पण और पाप-बोध तुलसी की भक्ति की ये विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं।
लेखक केदारनाथ सिंह ने कहा कि हिंदी में तुलनात्मक साहित्य और भारत एवं अन्य जगहों पर राम कथा का तुलनात्मक अध्ययन फादर बुल्के के शोध कार्य ‘राम कथा’ से शुरू हुआ। हिंदी को जो विशिष्ट बनाता है वह यह है कि इसके जैसा कोई अन्य अध्ययन किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में मौजूद नहीं है। हिंदी पट्टी में इस प्रमुख मुद्दे की इस तरह की गहन जांच कई धार्मिक और राजनीतिक भ्रांतियों को दूर करती है और विद्वानों को एक दिशा प्रदान करती है। कामिल बुल्के की दृष्टि में रामचरितमानस की प्रासंगिकता सार्वकालिक है। उसके दो बड़े कारण हैं- उनकी भक्ति और कवित्व। उनकी भक्ति केवल वर्णाश्रम धर्म तक सीमित न होकर विश्वजनीन है। उनके काव्य का आधारभूत ढाँचा पौराणिक है। उनकी युग के धार्मिक विश्वास और सामाजिक व्यवस्था दोनों परंपरागत हैं, लेकिन उनकी युगीन सीमाएँ उनके मूल्यांकन की एकमात्र कसौटी नहीं है। वह मानव मात्र को समान निरूपित करने वाले और जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर प्रत्येक मनुष्य की सेवा को परम धर्म मानने वाले 'परहित' को अपने विचार व्यवस्था में जो महत्त्व देते हैं, वह इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। उनके इस मानव समतावाद का स्रोत उनकी भक्ति ही है। लेकिन इसके समांतर उनके मानस की प्रासंगिकता का रहस्य उनका कालजयी कवित्व है।
संदर्भ ग्रंथ-
1. हिन्दी चेतना, फ़ादर कामिल बुल्के विशेषांक, हिन्दी प्रचारिणी सभा, केनेडा, जुलाई 2009, पृष्ठ-19
2. वही, पृष्ठ-42
3. फ़ादर कामिल बुल्के, विनिबंध, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, सं. 2002, पृष्ठ-21
4. एक ईसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी भक्ति, धर्मयुग, 27 दिसंबर, 1970
5. फ़ादर कामिल बुल्के, विनिबंध, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, सं. 2002, पृष्ठ-15
6. हिन्दी चेतना, फ़ादर कामिल बुल्के विशेषांक,हिन्दी प्रचारिणी सभा, केनेडा, जुलाई 2009, पृष्ठ-34
7. फ़ादर कामिल बुल्के, विनिबंध, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, सं. 2002, पृष्ठ-63
8. वही, पृष्ठ-64
9. हिन्दी चेतना, फ़ादर कामिल बुल्के विशेषांक, हिन्दी प्रचारिणी सभा, केनेडा, जुलाई 2009, पृष्ठ-32
10. रामकथा और तुलसीदास, फ़ादर कामिल बुल्के, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, सं. 2008, पृष्ठ-75
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