रचनात्मकता की प्रतिध्वनि 'कृति की राह से'

 

रचनात्मकता की प्रतिध्वनि 

'कृति की राह से'

 ( साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' में..)

 बी. एल. आच्छा हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक एवं समीक्षक हैं। इसी वर्ष प्रकाशित 'कृति की राह से' पुस्तक हिंदी की समकालीन रचनाओं पर केंद्रित समीक्षाओं का संचयन है। गंभीर आलोचकीय मेधा से यह पुस्तक पाठकों को नई दृष्टि प्रदान करती है। इस पुस्तक में कुल चौंतीस कृतियों की समीक्षा है।  भूमिका में लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि उनकी दृष्टि में कृति ही लक्ष्य है, जहाँ विचारधाराओं का कोई आग्रह नहीं है। उन्होंने रचना में निहित वैचारिक सत्व, यथार्थ के बहुआयामी कोण, रचनाकार की वैयक्तिक विशिष्टता और सम्प्रेषणीयता  के स्तर पर नवीनता को तलाशने की कोशिश की है। इससे समीक्षा का आयतन विस्तारित हो गया है।   

    यदि तटस्थता से विचार किया जाये तो लेखन और समीक्षा साहित्य समृद्धि के दो अनिवार्य हेतु हैं।  लेखन में जहाँ रचनाकार का अंतःव्यक्तित्व किसी दृष्टिकोण और भावधारा के साथ प्रकट होता है, तो समीक्षक रचना की सम्प्रेषणीयता को मूल्यांकित करता है। उसका उद्देश्य पाठकों को रचना की अंतर्वस्तु से परिचित कराना, साहित्यिक परिमाप से रचना को मानकता की कसौटी पर परखना और युग-सापेक्षता तय करना है। समर्थ समीक्षक कृति में अन्तर्निहित मूल्य, युगीन परिवेश एवं कलात्मक संरचना को पहचान कर तर्कबद्धता से प्रस्तुत करता है। उसकी दृष्टि एवं विवेकशीलता से रचना की सार्थकता प्रमाणित होती है। इस प्रक्रिया में साहित्यिक मूल्यों के निर्वहन की अपेक्षा सदैव रहती है।

    इस पुस्तक में संकलित समीक्षाओं में हिंदी की लगभग सभी विधाओं को केंद्रित करते हुए विविध विषयों को भी समाहित कर लिया है। इनमें भारतीय सांस्कृतिक अतीत, लोकसाहित्य की पुकार, समकालीन जीवन में मूल्यचराचर जगत में मानवेतर प्राणियों की दुनिया, तीर्थ स्थलों की आध्यात्मिक अनुभूतिप्रवासी सामाजिक जीवन में भारतीय मन, इतिहास और समकाल, साहित्यिक पत्रकारिता की दुनिया, भारतीय-पश्चिमी काव्यशास्त्र के प्रतिमान आदि विभिन्न विधाओं की कृतियों की समीक्षा के माध्यम से रचना के वस्तु और शिल्प का मूल्यांकन किया गया है।

    प्रथम सामीक्ष्य कृति ‘सागलकोट’ विभाजन की अकल्पित त्रासदी, साम्प्रदायिकता के खूनी जुनून और विस्थापन की पीडाओं से गुजरकर भारतीय सांस्कृतिक परिधि और इतिहास को साथ लेकर वर्तमान वैश्विक स्तर पर यह कथाकृति किस तरह से अन्य कृतियों से अलग है, इसका प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। डॉ. हंसादीप के उपन्यास 'कुबेर' और सुधा ओम ढींगरा के कहानी संग्रह 'खिड़कियों से झाँकती आंखें' के माध्यम से प्रवासी सामाजिक जीवन को संवेदना के धरातल पर रेखांकित करते हुए समीक्षक ने प्रवासी भारतीयों के खुरदुरे यथार्थ को प्रकट करते हुए माना है कि इनमें जिन्दगी का गद्य चट्टानों–सा पसरा है, मगर मनोभूमि कविता की संवेदनात्मक लय से टकराती नजर आती है। ‘जिस्मों का तिलिस्म’, ‘अँधेरा उबालना है’, ‘वक्त कहाँ लौट पाता है’ आदि लघुकथा संग्रहों में मानवीय जीवन-संघर्षों और मूल्यों के साथ साहचर्य की तलाश को मूल्यांकित किया है। इसी प्रकार उत्तर आधुनिक जीवन के बदलते समाज मनोविज्ञान को ‘स्टेपल्ड पर्चियाँ’ कहानी संग्रह के मूल्यांकन में पहचाना है।

 अशोक भाटिया के लघु कथा संग्रह ‘अँधेरे में आँख’ की समीक्षा में इसके मूल स्वर को प्रकट करते हुए लिखा कि इनमें निम्न-मध्यमवर्गीय  समाज की पीडाओं, रूढ़ि-बद्धताओं के विरुद्ध प्रतिकार है। ‘माफ़ करना यार’ समीक्षा में कथाकार बलराम का व्यक्तित्त्व एक समकालीन साहित्यिक समाज के नायक के रूप में उभर कर आया है, जहाँ आत्म-व्यंजना की धुरी से युगीन साहित्यिक परिदृश्य की पड़ताल है। ‘सन्नाटे का शोर’ ललित निबंध संग्रह की समीक्षा करते हुए विविध निबंधों में व्यक्त लोक की पीड़ा के बहाने उन्होंने सांस्कृतिक प्रतिबोध को भी उजागर किया है। विवेचना में यह भाव प्रकट हुआ है कि ये ललित-निबंध ‘कोरोना काल’ की भयावह मृत्युलीला की करुणा से जितने द्रवित हैं, उतने ही सांस्कृतिक प्रवाह की जीवनी शक्ति के संबोधक भी।

    पुस्तक में ‘नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे’ यात्रावृत्त की समीक्षा के बहाने भारतीयता का सांस्कृतिक भूगोल चाक्षुष बिम्ब की भांति चित्रित हुआ है, जिसमें जगन्नाथ पुरी, कोणार्क, अयोध्या, उज्जयिनी, वृन्दावन, चित्तौड़, सांवलियाजी आदि तीर्थों की महिमा प्रकट होती है। ‘देखो यह पुरुष’ नाटक में ईसा के व्यक्तित्त्व को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास हुआ है। आचार्य मानतुंग की अमर कृति ‘भक्तामर’ की व्याख्या आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा ‘भक्तामर के अन्तस्तल का स्पर्श’ शीर्षक कृति में की है, जिसकी विवेचना करते हुए समीक्षक ने बताया कि यह व्याख्या आज के विज्ञान, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, सभी दर्शनों, तार्किक-भाविक शैलियों से जोडती है और युगीन परिप्रेक्ष्य में सार्थकता सिद्ध करती है।   

      शिवनारायण के प्रथम गजल-संग्रह ‘झील में चाँद’ का मूल्यांकन करते हुए लिखा कि इसमें दुष्यंत की हिन्दी गजल परम्परा की राह में बढ़ते हुए प्रकृति बिम्बों के नयेपन में सामाजिक परिदृश्यों को संजोया गया है। इसी प्रकार ‘कठपुतलियाँ जाग रही हैं’ काव्य-संग्रह में कविताओं के बहुआयामी रंग और उनकी बुनावट पर गंभीर चर्चा है।  ‘कोणार्क’ काव्यकृति, ‘समकाल के नेपथ्य में’ निबंध, ‘कथा कहे बलराम’ आलोचना, ‘महादेवी का मानवेतर परिवार’ संस्मरण, ‘डॉलर का नोट’, ‘सठियाने की दहलीज पर’, ‘लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन’ आदि   व्यंग्य, गुजराती कहानियों की समीक्षाएँ पाठकों को पुस्तक की गहराई में ले जाती है, जहाँ उसकी पाठकीय संवेदना का आयत्तीकरण हो जाता है और वह रचनाकार के साथ चलने लगता है।

    शीर्षक कृति की मूल संवेदना को उजागर करता है पुस्तक का कलेवर विनय माथुर ने भरपूर भावधारा से तैयार किया है, भूमिका स्वयमेव कवि की आलोचना दृष्टि को प्रकट करती प्रतीत होती है। इससे कृति का महत्त्व बढ़ गया है। इंडिया नेट बुक्स प्रा. लि., नोएडा द्वारा इसे सुन्दर ढंग से प्रकाशित किया गया है और संतोष का विषय है कि कृति का मूल्य पुस्तक के आकार अनुसार है। पुस्तक की समस्त समीक्षाएँ पाठकों के ज्ञानात्मक संवेदन को समृद्ध करने में समर्थ है।


 

पुस्तक  : कृति की राह से

लेखक   : डॉ. बी. एल. आच्छा

आवरण  : विनय माथुर

प्रकाशक  : इंडिया नेट बुक्स प्रा. लि., नोएडापृ.197

मूल्य    : 375/-




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