आलेख
ऐतिहासिक आलोचना में सांस्कृतिक बोध
(सन्दर्भ: हजारी प्रसाद द्विवेदी)
साहित्य परिक्रमा के अक्टूबर-दिसंबर,2024 में प्रकाशित
साहित्यकार की रचना अपने युग से प्रभावित होती है। अतः आलोचक तत्कालीन परिस्थितियों का विश्लेषण कर उनकी पृष्ठभूमि में कृति का परीक्षण करता है। यह ऐतिहासिक आलोचना की श्रेणी में आता है। इसमें आलोचक साहित्य को समाज का प्रतिबिम्ब मानते हुए उन तत्त्वों की खोज करता है, जिससे आलोच्य कृति सृजित हुई है। इस पद्धति द्वारा आलोच्य-कृति का मूल्यांकन इतिहास एवं संस्कृति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में किया जाता है। वर्तमान की किसी गंभीर समस्या का समाधान अतीत की महान् ऐतिहासिक घटना में ढूँढने का प्रयास होता है। इसके लिए किसी युग-विशेष के साहित्य को समझना अपेक्षित होता है, जिसके लिए समूची ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परम्परा का अनुशीलन आवश्यक है।
ऐतिहासिक आलोचना में इस तथ्य पर विचार किया जाता है कि किसी रचना ने युग के साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्थान पर अपना प्रभाव किस सीमा तक डाला है। इस प्रभाव के आधार पर ही कृति की श्रेष्ठता और निम्नता का निर्धारण किया जाता है। इसमें आलोचक का मुख्य ध्येय युग की आत्मा को समझना होता है। इस हेतु वह युगीन वातावरण और देशकाल का पूर्ण विवरण सामने रखक आलोचना-प्रक्रिया में संलग्न होता है।
आचार्य शुक्ल के बाद पं.हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी नवीन एवं मौलिक दृष्टि से हिन्दी आलोचना को नई दिशा दी। उनका दृष्टिकोण उदार, सहिष्णु और मानववादी सांस्कृतिक बोध पर आधारित है। उन्होंने जहाँ साहित्य के इतिहास-लेखन के आदर्श को आगे बढ़ाया, वहीं आलोचक के रूप में साहित्य के मूल्यांकन में मानवतावादी भूमि की प्रतिष्ठा की है। पं.द्विवेदी का अभिमत है- “मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को पर दुखकातर और संवदेनशील न बना सके; उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।”
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के द्वारा रचित ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल’ तथा ‘हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास’ प्रसिद्ध साहित्येतिहास ग्रंथ हैं। ‘सूर साहित्य’, ‘कबीर’, ‘नाथ संप्रदाय’, ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य पर विचार’, ‘साहित्य का मर्म’, ‘लालित्य मीमांसा’, ‘साहित्य सहचर’ आदि महत्त्वपूर्ण आलोचना ग्रंथ हैं। इसके अतिरिक्त ‘कालिदास की लालित्य योजना’, ‘मृत्यंजय रवीन्द्र’ तथा ‘मध्यकालीन बोध का स्वरूप’ भी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी यद्यपि शुक्ल की परम्परा के आलोचक हैं, परन्तु अपने मानवतावादी दृष्टिकोण और ऐतिहासिक पद्धति का अनुसरण करने के कारण उनका अपना महत्त्व है। उन्होंने साहित्य को सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जोड़ते हुए मनुष्यता को साहित्य और रस का पर्याय माना। कबीर के भाषागत वैशिष्ट्य को उजागर करके हिन्दी जगत् में ‘कबीर’ को पुनः मूल्यांकित किया। इसके अतिरिक्त सूर-तुलसी-प्रेमचंद का आकलन मानवतावादी दृष्टि से करना महत्त्वपूर्ण है।
आचार्य द्विवेदी ने साहित्य को मनुष्य-सत्य के संदर्भ में देखा है और मनुष्य को ही साहित्य का लक्ष्य स्वीकार किया है। ‘साहित्य सहचर’ में उन्होंने लिखा- “साहित्य मानव-जीवन से सीधा उत्पन्न होकर सीधे मानव-जीवन को प्रभावित करता है। साहित्य में उन सारी बातों का जीवन्त विवरण होता है, जिसे मनुष्य ने देखा है, अनुभव किया है, सोचा है व समझा है।” इस प्रकार उन्होंने साहित्य के इतिहास को मनुष्य-जीवन के अखंड प्रवाह का इतिहास माना है। उन्होंने सारे काव्य, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान, कला, दर्शन के मूल में मानवीय चेतना को लक्षित किया है। वे मानते हैं कि मानवीय चेतना भाव और तथ्य के किनारों को स्पर्श करती हुई प्रवाहित होती है। जब वह ‘भाव’ को स्पर्श करती है तब काव्य और कला की सृष्टि होती है और जब यह तथ्य को स्पर्श करती है तो दर्शन और विज्ञान का विकास होता है।
पं.हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को भारतीय चिन्तन की अविच्छिन्न परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण शृंखला मानकर उसकी भूमिका प्रस्तुत की। उन्होंने इतिहास को जन-चेतना का प्रवाह माना और हिन्दी-साहित्य को संपूर्ण भारतीय साहित्य के संदर्भ में देखने का प्रस्ताव किया। डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने इस संदर्भ में लिखा- “द्विवेदी जी ने इतिहास के भीतर से उस चेतना को ग्रहण करने की चेष्टा की है जो मानवीय जीवन की अक्षय धारा का शक्ति-स्रोत है और जिसके आधार पर आज के साहित्य-भवन का भव्य आकार परिकल्पित हो सकता है।”
‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ में ‘भक्तिकाल’ के उदय के कारणों में आचार्य शुक्ल की मान्यता का खंडन करते हुए कहा कि भक्ति काव्य निराश और हताश पौरुष का काव्य नहीं है।........ यदि मुसलमान नहीं भी आये होते तो भक्तिकाव्य का बारह आना वैसा ही होता, जैसा अभी है। इस प्रकार उन्होंने साहित्य को सांस्कृतिक दृष्टि से मूल्यांकित किया। हिन्दी साहित्य के आरंभिक काल को ‘आदिकाल’ का संबोधन प्रदान कर समस्त विवादों का भी समाधान आचार्य द्विवेदी ने किया।
‘सूर’ और ‘कबीर’ पर पं.द्विवेदी की आलोचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। सूरदास की उन्होंने लोक परक दृष्टि से व्याख्या की और बताया कि लोक जीवन ही सूरसागर की लीलाओं की मुख्य सामग्री है। उन्होंने सूर को श्रद्धालु और विश्वासी भक्त बताया। ‘कबीर’ में आचार्य द्विवेदी की मानवतावादी दृष्टि का परिचय मिलता है। उन्होंने कबीर को साधना के क्षेत्र में युग-गुरु, साहित्य के क्षेत्र में भविष्य का स्रष्टा, लोकधर्म का प्रतीक, व्यंग्य का बादशाह और वाणी का डिक्टेटर बताया।
साहित्य एवं संस्कृति के पारस्परिक संबंध को शाश्वत बताते हुए इसे मानवता के उत्थान का कारक बताया। उनका मत है कि साहित्य का सबसे बड़ा उद्देश्य मानव-जीवन को उन्नत करना और देवोपम बना देना है। वे मानते हैं कि साहित्य मनुष्य को उन्नत और विशाल बनाता है, उसको मोह और संस्कार से मुक्त करता है और उसे धीर तथा पर दुःखकातर बनाता है। इसी कारण उन्होंने अपनी आलोचना दृष्टि में समग्र दृष्टि से विवेचन किया।
आलोचना की समग्र दृष्टि के कारण ही आलोच्य कवि की केन्द्रीय विशेषता को उन्होंने उभारकर सामने रखा। उनकी प्रमुख टिप्पणियाँ अवलोकनीय हैं- “‘कबीर’ मस्तमौला थे। उनमें युग-प्रवर्तक का विश्वास था और लोकनायक की हमदर्दी।” “‘नानक’ की साम्य-भावना विचार-प्रसूत और करुणा-मूलक थी।” “‘सूरदास’ बालक का हृदय लेकर पैदा हुए थे।” “‘तुलसी’ का सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।” “‘दादू’ के पदों में अभिमान का भाव बिल्कुल नहीं है।” “‘सुन्दरदास’ सर्वाधिक शास्त्रीय ज्ञान-सम्पन्न महात्मा थे।” “‘रज्जबदास’ निश्चय ही दादू के शिष्यों में सबसे अधिक कवित्व लेकर उत्पन्न हुए थे।” इत्यादि कथन कवि की विशिष्टता सूत्र-वाक्य में समग्र-दृष्टि से मूल्यांकित करते हैं।
अपनी विराट दृष्टि एवं समन्वयकारी आलोचना दृष्टि के कारण नीति-सौन्दर्य, मंगल-सत्य, शास्त्रीयता-स्वच्छन्दता, प्राचीनता-नवीनता, रस-उक्तिवक्रता, भौतिकता-आध्यात्मिकता आदि तत्त्वों में विरोध के स्थान पर सामंजस्य को महत्त्व दिया। प्राचीन कवियों में कबीर, विद्यापति, चण्डीदास, सूरदास और तुलसीदास के महत्त्व को स्वीकार किया। आधुनिक कवियों में रवीन्द्रनाथ, पंत, प्रसाद, महादेवी, निराला के साथ भी न्याय किया। अनुसंधान की दृष्टि से आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी-साहित्य की सभी प्रमुख काव्य-प्रवृत्तियों के मूल स्रोतों को अपभ्रंश साहित्य से निःसृत प्रमाणित किया। सूफी कथा-काव्यों को भारतीय लोक-कथाओं से सुसम्बद्ध किया। दक्षिण के वैष्णव मतवाद को सहज विकास बताया। संत-साहित्य को योगियों और बौद्ध-सिद्धों की वाणियों की परम्परा में रखा। ‘नाथ-संप्रदाय’ और ‘कबीर’ इस दृष्टि से अद्वितीय ग्रंथ हैं।
इस प्रकार ऐतिहासिक-सांस्कृतिक आलोचना में पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम अग्रगण्य है। वे साहित्य को सांस्कृतिक धरातल पर रखकर उसका मूल्यांकन करने के पक्षधर रहे। डॉ. नगेन्द्र का कथन है- “जनजीवन की सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं का उद्घाटन करते हुए विवेच्य को समष्टि के साथ सम्बद्ध कर देखना इनकी आलोचना का मूलाधार है। द्विवेदी जी साहित्य का संबंध नवजीवन के साथ मानकर चलते हैं। उनकी समीक्षा का आधार-फलक मानववादी होने के कारण अत्यन्त विस्तृत है और उनका व्यक्तित्व उसको संभालने योग्य पांडित्य, सहानुभूति तथा कल्पना आदि गुणों से संपन्न है।” वस्तुतः आचार्य द्विवेदी ने साहित्य को व्यापक सांस्कृतिक-गरिमा के परिप्रेक्ष्य में देखकर वर्तमान की चेतना और भविष्य-निर्माण का हेतु माना।
No comments:
Post a Comment