आचार्य शिवपूजन सहाय की दृष्टि में हिन्दी-उर्दू का रिश्ता

 आचार्य शिवपूजन सहाय की दृष्टि में हिन्दी-उर्दू का रिश्ता
(हिन्दी अनुशीलन-मार्च,2018 में प्रकाशित)


 आज संपूर्ण विश्व में हिन्दी और उर्दू को दो पृथक् भाषाओं के रूप में जाना जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि दोनों भाषाओं में संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया आदि पद तथा वाक्य-रचना समान है; केवल लिपि भिन्न है। हिन्दी देवनागरी में तो उर्दू फारसी लिपि में लिखी जाती है। स्वतंत्रता के बाद हिन्दी भारतीय गणतंत्र की राजभाषा बनी, वहीं पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू को घोषित किया गया। समय के साथ दोनों भाषाएँ दो संप्रदायों में विभक्त हो गई। आचार्य शिवपूजन सहाय ने अपने निबंध ‘राष्ट्रभाषा और उर्दू’ में हिन्दी और उर्दू के पारस्परिक रिश्ते को रेखांकित किया है, जिसमें भारतीय भाषायी अतीत का प्रतिबिम्ब प्रकट होता है।

         अरबी, फारसी तथा संस्कृत के आधिक्य की बात को छोड़ दें तो हिन्दी और उर्दू में कोई खास अंतर नहीं है। दोनों एक ही भाषा की शैलियाँ हैं। इसलिए प्रारंभ में ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग हिन्दी और उर्दू दोनों के लिए होता था। ‘तजकिरा-मखजन-उल-गरायब’ में आता है- ‘दर ज़बाने हिंदी की मुराद उर्दू अस्त।’ यहाँ ‘हिन्दी’ शब्द उर्दू का समानार्थी है, तो दूसरी तरफ हिन्दी के सूफी कवि नूर मुहम्मद ने कहा है- “हिन्दू मग पर पाँव न राख्यौ, का बहुतै जो हिन्दी भाख्यो।” - यहाँ इस शब्द का प्रयोग हिन्दी के लिए है।1 1850 ई. के बाद संस्कृत बहुला हिन्दी और अरबी-फारसी-तुर्की शब्दों से युक्त भाषा उर्दू के नाम से जानी जाने लगी। आचार्य शिवपूजन सहाय का विचार है- “उर्दू केवल दुर्बोध लिपि और अरबी-फारसी के क्लिष्ट शब्दों के जाल में फँस जाने के कारण ही हिन्दी से अलग नजर आती है। यदि अप्रचलित, अपरिचित और दुरूह शब्दों के प्रयोग का दुराग्रह न हो, तो हिन्दू-मुस्लिम जनता की भाषा में विशेष भेद न रहेगा।”2

            हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास लेखक ‘गार्सा-द-तासी’ ने अपने गं्रथ ‘इत्सवार द ला लितरेत्युर ऐंदुई ए ऐंदुस्तानी’ में हिन्दी-उर्दू मिश्रित भाषा को ‘हिन्दुस्तानी’ नाम दिया। इसी तरह फोर्ट विलियम कॉलेज के संस्थापक आचार्य जॉन गिलक्राइस्ट ने भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासकों को हिन्दी सिखाने के लिए उन्होंने एक व्याकरण और शब्दकोश का निर्माण किया। वे इस भाषा को हिन्दुस्तानी कहना अधिक उचित समझते थे। कम्पनी की यह नीति भी थी। इसमें देवनागरी लिपि के साथ उर्दू शब्दावली का प्रयोग अधिक होता था।3 गांधीजी ने भी ‘हिन्दुस्तानी’ शब्द का प्रयोग करते हुए ऐसी भाषा का समर्थन किया जिसमें न तो संस्कृत के कठिन शब्द हों और न ही अरबी-फारसी के अप्रचलित शब्दों का प्रयोग। वस्तुतः उनका दृष्टिकोण विराट भारतीय सांप्रदायिक सद्भाव को बनाये रखना था। 

          अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज्य करो’ की नीति का शिकार ये दोनों भाषाएँ हुई। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में ब्रितानी शासन ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस विवाद को बढ़ाने की कोशिश की और दोनों को अलग-अलग स्वरूप में समान प्रतीकात्मक दर्जा दे दिया, जबकि दोनों खड़ी बोली हिन्दी की भिन्न-भिन्न शैलियाँ थी। लिपि की भिन्नता से अलगाव अधिक हो गया। आचार्य शिवपूजन सहाय लिखते हैं- “कई लेखकों और कवियों की उर्दू-रचनाएँ ऐसी हैं, जो अगर नागरी लिपि में लिख दी जाएँ, तो मुहावरेदार सरल हिन्दी की ही एक शैली प्रतीत होंगी। लिपि की दीवार हटा देने पर बहुत-सी उर्दू की रचनाएँ हिन्दी की हो जाएँगी।”4 वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि केवल फारसी लिपि ने हिन्दी को उर्दू के नाम से साम्प्रदायिक भाषा बना दिया है।

          हिन्दी और उर्दू को माध्यम बनाकर देश का वातावरण साम्प्रदायिक रूप से विषैला बनाया गया, परिणाम स्वरूप भारत और पाकिस्तान के रूप में दो राष्ट्रों का उदय हुआ। अन्यथा, देश के स्वाधीनता आन्दोलन में दोनों भाषाओं का समान योगदान रहा था। तत्कालीन वातावरण में भाषायी विवाद खड़ा करने से आचार्य शिवपूजन सहाय क्षुब्ध थे। वे मानते थे कि अरबी-फारसी लिपि में लिखकर उसे उर्दू के नाम से पुकारना और साम्प्रदायिक रूप देना जमीन के साथ जबान की लड़ाई भी तय करना है। उनका कथन था- “जमीन का पाकिस्तान बनने से तो राष्ट्र में अशांति बढ़ ही रही है, जबान का पाकिस्तान बनने पर वह अशांति और भी बढ़ती रहेगी।”5 अतः उनका आग्रह था कि स्वतंत्र भारत को शांतिप्रिय साहित्य-सेवी समझ-बूझकर राष्ट्रीय एकता को खतरे से बचाने की कोशिश करें।

           अरबी, फारसी तो विदेशी भाषाएँ हैं, परन्तु उर्दू का जन्म तो भारत में हुआ। मुगल-दरबारों में सरकारी कामकाज में भले ही फारसी का प्रयोग होता रहा, परन्तु जनभाषा तो हिन्दी ही थी। अमीर खुसरो, कबीर, जायसी, रहीम, रसखान की भाषा इसका प्रमाण है। उर्दू के जन्म के बारे में आचार्य प्रवर का मत है- “जनभाषा हिन्दी में ही अरबी-फारसी के मेल-जोल से मुसलमानी रंगत आ गई। उसी को मुसलमान भाई ‘उर्दू’ कहने लगे। हिन्दुओं की ‘खड़ी बोली’ ही मुसलमानों में ‘उर्दू’ कहलाने लगी। ‘खड़ी बोली’ क्षेत्र में ही उर्दू पैदा हुई थी। वास्तव में वह ‘खड़ी बोली’ (हिन्दी) का ही मुसलमानी रूप है।”6 इस तरह खड़ी बोली में अरबी-फारसी शब्दों के प्रयोग से विकसित मुस्लिम परिवारों की यह भाषा उर्दू के रूप में विकसित हुई। 

           आचार्य शिवपूजन सहाय ने हिन्दी-उर्दू के रिश्ते को व्याकरणिक दृष्टि से भी विवेचित किया है। वे लिखते हैं- “क्रियापद, अव्यय, मुहावरे, तद्धित, कृदंत आदि हिन्दी व्याकरण के निकट हैं। दुर्गम लिपि और अरबी-फारसी की बाहरी पोशाक उतार देने पर उसका गठन बस हिन्दी की है।”7 मात्र लिपि से उसे पृथक् भाषा रूप मानना उनकी दृष्टि में उचित नहीं था। वे तर्क देते हैं कि आज भी मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पद्मावत’ फारसी लिपि में लिखा मिलता है, पर यह ‘अवधी’ भाषा का प्रसिद्ध ग्रंथ है। लिपि और भाषा का झगड़ा तो शुद्ध साम्प्रदायिक है।”8 वे मानते हैं कि फारसी लिपि के माध्यम से मुसलमानों ने हिन्दी की सेवा की है, वहीं हिन्दू साहित्यकारों की सेवा से उर्दू का इतिहास जगमगा रहा है। पंजाब के हिन्दू-घरानों में रामायण-महाभारत की कथाएँ भी फारसी लिपि में पढ़ी जाती रही हैं, अतः हिन्दी-उर्दू विवाद मात्र हठधर्मिता है।

          उर्दू को देवनागरी लिपि में लिखने का समर्थन करते हुए आचार्य शिवपूजन सहाय ने लिखा कि यह प्रयास सांप्रदायिक मनोवृत्ति के लोग सफल नहीं होने दे रहे, क्योंकि इससे देश में सद्भाव की स्थापना हो जाएगी। वे कहते हैं- यह बात भी प्रत्यक्ष ही सिद्ध है कि देवनागरी-लिपि में लिखी जाने पर उर्दू कहीं की क्षेत्रीय भाषा न रहकर राष्ट्रभाषा के कक्ष में चली जायेगी। देवनागरी उसे अमृत पिला देगी। भेदभाव की भीति भूमिसात् हो जाएगी। दोनों पक्ष के लोग एक-दूसरे की संस्कृति से परिचित हो जाएँगे। दिन-दिन बढ़ता हुआ वैमनस्य क्रमशः विलीन हो जायेगा। आपस में मनोमालिन्य की खाई पट जाएगी। उन्होंने हिन्दी के समर्थकों से भी आह्वान किया कि वे उर्दू को अपने से अलग न होने दें, यह हिन्दी की ही एक सुहावनी शैली है।

           हिन्दी वालों ने उर्दू से जितना प्यार किया है, उतना शायद किसी ने नहीं। आज भी हिन्दी वाले उर्दू के लेखकों, कवियों की रचनाओं को बड़े शौक से पढ़ते हैं। यहाँ तक कि ऐसे विद्वान भी हैं जो हिन्दी के माध्यम से उर्दू-साहित्य का विशेष ज्ञान रखते हैं। इसके विपरीत फारसी लिपि के माध्यम से हिन्दी साहित्य का परिचय बहुत कम है। आचार्य शिवपूजन सहाय ने दोनों भाषाओं में कोई मौलिक भेद न मानते हुए इन्हें भारतीयता की पहचान बताया है। उनका कथन है- “राष्ट्रभाषा और उर्दू में कोई मौलिक भिन्नता नहीं है और किसी प्रकार का साम्प्रदायिक विरोध भी नहीं है। अगर कोई ऐसे सपने देखता है, तो वह कभी भारत की राष्ट्रीय एकता का हिमायती नहीं हो सकता।”9

            उल्लेखनीय है कि जब गिलक्राइस्ट ने भारतीय भाषा-शब्दावली को दो वर्गों में बाँटा था, उस समय अनजाने में ही हिन्दी और उर्दू को धार्मिक पहचान दे दी। धीरे-धीरे सांप्रदायिक रंग में रंगती हुई दो पृथक् भाषाओं के रूप में दिखाई देने लगी, परन्तु आत्मा की दृष्टि से देनों की अंतरंगता आज भी विद्यमान है। आचार्य शिवपूजन सहाय ने दोनों भाषाओं के रिश्तों को याद करते हुए भारतीयता के दृष्टिकोण को उजागर किया है। यह निबंध स्वतंत्र भारत की तत्कालीन स्थितियों में तो प्रासंगिक रहा, किन्तु हिन्दी-उर्दू के रिश्ते को आज भी जीवन्त बनाए जाने की आवश्यकता प्रतिपादित करता है। ये दोनों भाषाएँ बाहरी स्वरूप में चाहे अलग दिखती हों, परन्तु आन्तरिक प्रवाह समान हैं। भावात्मक एकता की दृष्टि से पारस्परिक अन्तःसंबंध को प्रगाढ़ किया जाना वर्तमान समय की आवश्यकता है।

संदर्भ ग्रंथ सूची-
1.नगेन्द्र, हरदयालः हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.11, मयूर पेपर बैक्स, नौएडा, प्रकाशन वर्ष, 2009 ई.
2.राष्ट्रभाषा और उर्दू (निबंध) : साहित्य(त्रैमासिक), पटना, अप्रैल, 1954 ई.
3.हरदेव बाहरीः हिन्दी भाषा, पृ.67, अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रकाशन वर्ष, 2000 ई.
4.राष्ट्रभाषा और उर्दू (निबंध), साहित्य (त्रैमासिक), पटना,अप्रैल, 1954 ई.
5.पूर्ववत्
6.पूर्ववत्
7.पूर्ववत्
8.पूर्ववत्
9.पूर्ववत् ।
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