चित्तौड़गढ़ की साहित्यिक विरासत
चित्तौड़गढ़ प्राचीन काल से साहित्य-रचना का प्रमुख केन्द्र रहा है। संस्कृत,प्राकृत,अपभ्रंश एवं हिन्दी भाषा में रचित साहित्य आज विशिष्ट धरोहर के रूप में ख्यात है। साहित्य का विषय-क्षेत्र अध्यात्म, मानव-मूल्य, राष्ट्रप्रेम एवं समसामयिक घटनाओं पर केन्द्रित रहा। यह साहित्य शास्त्रीय दृष्टिकोण से न केवल उन्नत कोटि का है, वरन् भविष्य की रूपरेखा निर्धारित करने में भी सहायक रहा है।
5वीं शती में आचार्य सिद्धसेन ने जैन-दर्शन पर
आधारित ग्रंथ ‘सम्मई सूत्र’
की रचना की। यह ग्रंथ राजस्थान का प्राकृत भाषा
में रचित प्रथम ग्रंथ है। जैन संस्कृति की दृष्टि से चित्तौड़गढ़ में अभूतपूर्व
साहित्य लिखा गया। उद्योतन सूरि रचित ‘कुवलयमाला’, आचार्य वीरसेन
रचित ‘धवला’ नामक टीका, जो कि ‘षटखंडागम’
ग्रंथ पर आधारित थी, अद्वितीय है। इसमें 72000 श्लोक संस्कृत और प्राकृत भाषा में है। इसी प्रकार हरिषेण
द्वारा लिखित ‘धम्म परीक्खा’
जिसमें चारों पुरुषार्थों का वर्णन है, उल्लेखनीय है।
यहाँ रचित अन्य प्रमुख कृतियों में चरित्र
रत्नगणि रचित ‘चित्रकूट
प्रशस्ति’, जिन हर्षगण रचित ‘वस्तुपाल चरित्र’, महाकवि डढ्ढा द्वारा लिखित ‘पंच-संग्रह’, विशालराज कृत ‘ज्ञान-प्रदीप’,
ऋषिवर्द्धन रचित ‘नवलराज चउपई’, राणा कुंभा रचित ‘संगीतराज’,
‘रसिक-प्रिया’ तथा कवि खेतल रचित ‘चित्तौड़ गज़ल’ प्रमुख हैं।
आठवीं शती के जैन आचार्य हरिभद्रसूरि चित्तौड़गढ़
की अनुपम धरोहर हैं। उन्होंने कथा, उपदेश, योग, दर्शन आदि से संबंधित 1444 ग्रंथों की रचना
की तथा संस्कृत-प्राकृत में एक लाख पचास हजार श्लोक लिखे। वर्तमान में उपलब्ध
ग्रंथ हैं- ‘समराइच्च कहा’,
‘शास्त्र वार्ता समुच्चय’, ‘धूर्ताख्यान’, ‘योग शतक’, ‘योग बिन्द’ु, ‘योग दृष्टि समुच्चय’, ‘संबोध प्रकरण’
आदि। इन ग्रंथों पर आज कई शोधार्थी शोध कर रहे
हैं।
नवीं शती के चित्तौड़ नरेश खुमाण के युद्धों का
वर्णन दलपत विजय ने ‘खुमाण रासो’
में किया। यह रचना वीरगाथात्मक है। इसमें पाँच
हजार छंद हैं। इस काव्य-ग्रंथ में बगदाद के खलीफा अलामामूँ के चित्तौड़ आक्रमण का
वर्णन है। वीर और शृंगार रस की दृष्टि से यह कृति उल्लेखनीय है। वीर रस की
पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
खत्री मौड़ खुमाण, मान कर मूँछ मरौड़े।
जणणी वह जाइयो, जोध जोर मम जोड़े।
इसी तरह शृंगार रस युक्त पंक्तियाँ अवलोकनीय
हैं-
पिउ चित्तौड़ न आविउ, सावण पहली तीज।
जोवै वाट विरहिणी, खिण-खिण अणवै खीझ।
प्राचीन भारतीय साहित्य के शोध और संरक्षण की
दृष्टि से ‘जिन विजय’ चित्तौड़गढ़ की अमूल्य विरासत है। उनकी गवेषणाओं
से प्राचीन भारतीय इतिहास और साहित्य विषयक कई धारणाएँ बदल गई। उन्होंने लगभग 200 प्राचीन ग्रंथों का संपादन-प्रकाशन किया,
प्राच्य-ज्ञान संबंधी कई शोध-आलेख लिखे। मुनि
जिन विजय ने राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला के अंतर्गत 67, सिंघी जैन ग्रंथमाला के अंतर्गत 47, कांति विजय इतिहास माला अन्तर्गत 6, तथा जैन साहित्य संशोधक समिति पूना के अंतर्गत 4 ग्रंथों का संपादन किया। इसके अतिरिक्त ‘भारतीय विद्या जन जागृति’, ‘जैन साहित्य संशोधक’ आदि पत्रिकाओं का संपादन भी किया। आप द्वारा 1950 में स्थापित सर्वोदय आश्रम चंदेरिया में स्थित
है।
जर्मन ओरियंटल रिसर्च सोसायटी ने 1952 में प्राच्य ज्ञान विद्वता के कारण मुनि जिन
विजय को मानद सदस्यता प्रदान की तथा भारत सरकार ने ‘पद्म श्री’ सम्मान से विभूषित
किया। आपके निर्देशन में ही राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान की स्थापना हुई।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल विषयक जो नवीन
स्थापनाएँ दी एवं जैन-जैनेत्तर साहित्य को साहित्यिक कोटि में रखने का मत दिया,
उनमें अधिकांश प्रमाण जिन विजय जी द्वारा खोजे
गए थे। ‘पृथ्वीराज रासो’ की काव्यभाषा ‘अपभ्रंश’ के निकट थी,
यह स्थापना भी मुनि श्री की है। इसी तरह 12 वीं शती में काशी के पंडित दामोदर रचित ‘उक्ति व्यक्ति प्रकरण’ की भाषा पर विशेष
चर्चा में भाग लेते हुए मुनि जिन विजय ने न केवल ‘उक्ति’ शब्द की विवेचना
की, बल्कि समकालीन चार-पाँच
उक्ति ग्रंथों का संग्रह ‘उक्ति रत्नाकर’
प्रकाशित कर चर्चा को विराम दिया।
मीरां के कारण चित्तौड़ को ‘भक्ति की नगरी’ संज्ञा मिली है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनकी 11 रचनाओं की चर्चा है। प्रमुख रचनाएँ हैं- ‘गीत गोविन्द की टीका’, ‘नरसी जी का मायरा’, ‘राग सोरठ के पद’, ‘मलार राग’, ‘राग गोविन्द’,
‘सत्यभामानुं रूसण’, ‘मीरा गी गरबी’, रूक्मणी मंगल’, ‘नरसी मेहता की
हुंडी’ आदि। मीरां का रचा हुआ
साहित्य देशभर में पढ़ा जाता है।
जिले के बड़ीसादड़ी कस्बे में जन्मे पं. सूरज चंद
डांगी संस्कृत, पालि, प्राकृत, हिन्दी सहित अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के जानकार थे। ‘मंथन’, ‘महाशास्त्र’, ‘गीतावश्यक मंत्र’, ‘सर्वस्वभावोद्धार’,
‘जिनभक्ति आदि प्रकाशित गं्रथ हैं। इसके
अतिरिक्त ‘तत्त्व-तात्पर्यामृत
प्रवाह’ जो कि 2500 पीयूष प्लवंगम छंद में रचित है, अभी अप्रकाशित है। ‘कल्याण’ पत्रिका में 50 वर्षों तक आपकी रचनाएँ प्रकाशित हुई। आपने ‘शाश्वत धर्म’ मासिक पत्रिका का संपादन भी किया। सूरज चंद डांगी ओशो के
परम मित्र थे, उनकी सभा में
उन्हें विशिष्ट स्थान प्राप्त था। पंथवाद पर चोट करती उक्त पंक्तियाँ द्रष्टव्य
हैं-
पंथ-मत के पंक में पड़, खो रहा क्यों जिन्दगी।
हृदय-वीणा का मधुर हार, तार श्री सर्वेश का।।
बड़ीसादड़ी के भगवती प्रसाद व्यास का उपन्यास ‘स्वर्ग-भ्रष्ट’ चर्चित रहा। उनके द्वारा रचित ‘अन्तर्दर्शन’ खंडकाव्य की भूमिका बाबू गुलाबराय ने लिखी।
बीसवीं सदी के रचनाकारों में जयशिव व्यास
श्रीमाली प्रतापगढ़ निवासी थे। स्वतंत्रता आन्दोलन में उनकी कविताओं ने जन-जागरण का
कार्य किया। ‘युद्ध तीसरा मत
होने दो’, ‘तभी बगावत जग जाती है’,
‘नारी का आत्म-निवेदन’, ‘आ मारी मोत्यां सूं मूंगी’, ‘पीड़ाओं के बोल’, ‘त्याग की देवी पन्ना’ आदि काव्य-रचनाएँ,
‘विजय रेखा’ उपन्यास तथा ‘कुलसुम्बी’ कहानी-संग्रह
उल्लेखनीय है। द्वितीय विश्वयुद्ध की पीड़ा से त्रस्त उनकी वाणी इस प्रकार
प्रस्फुटित हुई-
रूस जला, जापान जल गया, झुलस गई लंदन की काया।
तडप उठा इन्सान विश्व का, जब फैली हिटलर की माया।
युद्ध-त्रस्त यह भूमंडल है, दो पल तो सुख से सोने दो।
घर-घर में संदेश सुना दो, युद्ध तीसरा मत होने दो।
इसी प्रकार प्रताप और चित्तौड़ के यश को उजागर
करती उक्त पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-
थी क्षुधा-खोह स्वीकार जिसे, भरकर जीने का चाव रहा।
जो जंगल-जंगल में भटका, फिर भी शाहों का शाह रहा।
मैं ढूँढ़ रहा उस पगड़ी को, जो झुकी नहीं दरबारों में ।
मैं ढूँढ़ रहा हूँ वह चुनरी, जो जली नहीं अंगारों में ।
मन्ना लाल ‘परदेसी’ प्रतापगढ़ के
ख्यातनाम रचनाकार रहे हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी का ‘परदेसी’ पुरस्कार उन्हीं
के नाम पर हैं। उन्होंने मात्र 14 वर्ष की आयु में
‘चित्तौड़’ खंडकाव्य की रचना की, जिसकी प्रशंसा मैथिलीशरण गुप्त ने की। ‘प्यार’, ‘बादल’, ‘धरती माता’,
‘वातायन’ जैसे प्रसिद्ध काव्य-संग्रह लिखे। ‘चेतना’ पत्रिका का
संपादन किया। ‘धर्मयुग’ पत्रिका के उपसंपादक भी रहे। आप द्वारा रचित
उपन्यास हैं-‘औरत’, ‘रात और रोटी’, ‘भगवान बुद्ध की आत्मकथा’, ‘बड़ी मछली, छोटी मछली’
आदि। समालोचक डाॅ. देवराज उपाध्याय ने ‘भगवान बुद्ध की आत्मकथा’ को ‘बाणभट्ट की
आत्मकथा’ से अधिक मूल्यवान बताया। 1942 की क्रांति पर उनकी पंक्तियाँ-
उठो जवानो, सदियों के इतिहास, पलटने वाले हैं।
आज गुलामी के, जहरीले बंधन, कटने वाले हैं।
साहित्य-लेखन की यह विशिष्ट परम्परा अनवरत जारी
है। चित्तौड़गढ़ भक्ति और शक्ति के साथ साहित्य का भी केन्द्र बना रहेगा, यह विश्वास है।
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