प्रकृति एवं भारतीय साहित्य
श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इंदौर द्वारा प्रकाशित 'वीणा' अप्रैल,२०२१ अंक में ...
मानव के स्थूल भौतिक शरीर का
विनिर्माण जिन पाँच तत्वों से हुआ है, वे प्रकृति के ही मूलभूत अंग हैं। अतः मानव
मन में प्रकृति के प्रेम अनैसर्गिक नहीं है। वस्तुतः प्रकृति से
विनिर्मित होकर, उसके तत्त्वों से पोषित होकर और अंत में उसी से विलीन होना मानव
जीवन की नियति है। साहित्य के नाम से प्राचीनतम सर्जनाएँ प्रकृति से ही आरंभ
होती है। ऋग्वेद के अनेक सूक्त, रामायण एवं महाभारत के आख्यान, सम्पूर्ण संस्कृत वाङ्मय और
उसके पश्चात् समकालीन साहित्य परम्परा विद्यमान है।
भारतीय वाङ्मय के आदि-ग्रंथ वेद हैं। इनमें वर्णित प्राकृतिक चित्र
आर्य-संस्कृति के प्राकृतिक प्रेम को उजागर करते हैं, यथा-
ओउम् द्योः शान्तिरन्तरिक्ष
शान्तिः पृथिवी
शान्तिः रापः शान्तिरोषधयः
शान्तिः।
वनस्पतयः शान्ति र्विष्वेदेवाः
शान्ति र्ब्रह्म शान्तिः सर्व
शान्तिः।
शान्ति रेव शान्तिः सा मा
शान्ति रेधि।
ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।1
धर्म दर्शन, कला एवं साहित्य सभी में
प्रकृति को विशिष्ट स्थान मिला है, किंतु काव्य में उसे सर्वाधिक महत्त्व
प्राप्त हुआ है। कवि अधिक संवेदनशीलता के कारण प्रकृति के समस्त दृश्यों
से अभिभूत होकर वर्णन करता है। आदिकवि वाल्मीकि ने जब प्रकृति के दो
निर्द्वन्द्व प्राणियों को मुक्त विहार करते देखा तो उनकी आत्मा भाव-विह्वल
हो उठी, जब दूसरे ही क्षण एक को व्याध के बाण से आहत देखा तो करुणा का
क्रन्दन फूट पड़ा। परिणामस्वरूप कविता का जन्म हुआ-
‘‘मा निषाद ! प्रतिष्ठां त्वामगमः
शाश्वती समः।
यत्क्रौंचयों मिथुनादेकमवधी काम
मोहितम्।।’’2
प्रकृति के प्रति यह कवि-प्रेम अनादि
काल से अनवरत जारी है। यह वर्णन कभी स्वतंत्र आलंबन रूप में, कभी हृदयगत भावों को उद्दीप्त
करने अथवा आगे की घटनाओं की पृष्ठभूमि के रूप में होता है।
कई बार यह वर्णन बिम्ब-प्रतिबिम्ब, उपदेश, रहस्य या मानवीकरण रूप में
दृष्टिगोचर होता है। विशिष्टता यह है कि प्रकृति के स्निग्ध रूप पर कवि मोहित है
तो भाव-विह्वल होकर रचना करता है और यदि उस पर संकट है तो वह आभास ही
नहीं देता, वरन् उसकी संरक्षा के लिए अपने रचनाकर्म को समर्पित कर देता
है। आदिकालीन हिन्दी-काव्य में रासो-काव्यों में प्रकृति का आलम्बन व
उद्दीपन रूप में अतिशय वर्णन हुआ है। इसी काल में मैथिल-कोकिल विद्यापति रचित ‘पदावली’ प्रकृति वर्णन की दृष्टि से
अद्वितीय है। ऋतुराज वसन्त का स्वागत किसी राजा के आगमन पर उल्लसित वातावरण के समान प्रदर्शित किया गया है, यह प्रकृति के प्रति ममत्व का
निदर्शन है-
आएल रितुपति राज बसंत, धाओल अलिकुल माधवि-पंथ।
दिनकर किरन भेल पौगंड, केसर कुसुम धएल हेमदंड।
नृप-आसन नव पीठल पात, काँचन कुसुम छत्र धरू माथ।
मौलि रसाल-मुकुल भेल ताब, समुखहि कोकिल पंचम गाय।।3
भक्तिकालीन कवियों की साधना में आध्यात्मिक
तन्मयता व एकनिष्ठता का भाव विद्यमान रहा है। कबीर, तुलसी, सूर, जायसी की रचनाओं में प्रकृति का
कई स्थलों पर रहस्यात्मक वर्णन हुआ है।
कहीं-कहीं वन, पर्वत, नदी, पशु-पक्षी, उपवन का स्वाभाविक व उल्लासमयी भंगिमाओं
के साथ वर्णन भी है। तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में लक्ष्मण और सीता को
वृक्षारोपण करते हुए दिखाया है, यथा-
‘‘तुलसी तरुवर विविध सुहाए।
कहुँ-कहुँ सिय, कहुँ लखन लगाए।’’4
इसी प्रकार सूर, मीरा, रसखान आदि भक्त कवियों ने
प्रकृति के अपार व मोहक चित्र खीचें हैं। रीतिकालीन कवियों ने यद्यपि प्रकृति की
छटा को आलंकारिक रूप में अधिक प्रकट किया, किंतु बिहारी, पद्माकर, देव, सेनापति ने उसके सौंदर्य को
अपनत्व भी दिया। मलयानिल की शीतलता, सुगंधि का वर्णन करते हुए
बिहारी ने बिम्बात्मक वर्णन किया है-
‘‘चुवत स्वेद मकरंद कन, तरु तरु तर बिरमाय।
आवंत दच्छिन देष ते थक्यौ बटोही
बाय।’’5
आधुनिक हिन्दी काव्य का जन्म यूरोप के
औद्योगिकीरण के समानान्तर होता है, जहाँ प्रकृति मात्र सौंदर्य का
उपादान रहकर क्रूर दृष्टि का शिकार होना आरंभ हो जाती है। श्रीधर पाठक 'कश्मीर-सुषमा’ में प्रकृति की मनोमुग्धकारी
छटा बिखेरते हैं, तो ‘हरिऔध’ रचित प्रिय-प्रवास में राधिका की हृदय-व्यथा में प्रकृति के उपादानों में
व्यंजित होती है, तो कृष्ण भी अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति में प्राकृतिक
प्रतीकों का आश्रय लेते हैं-
‘‘उत्कंठा के विवष नभ को, भूमि को पादपों को।
ताराओं को मनुज मुख को प्रायषः
देखता हूँ।
प्यारी ! ऐसी न ध्वनि मुझको है
कहीं भी सुनाती।
जो चिंता से चलित-चित की शान्ति
का हेतु होवें।’’6
प्रकृति की छटा का सुंदर रूप मैथिलीशरण
गुप्त के ‘साकेत’, ‘पंचवटी’, ‘यशोधरा’, ‘सिद्धराज’ आदि ग्रंथों में सुन्दर रूप में अभिव्यंजित होता है। चन्द्र-ज्योत्स्ना में
रात्रिकालीन वेला की प्राकृतिक छटा का मुग्धकारी वर्णन द्रष्टव्य है-
‘‘चारू चंद्र की चंचल किरणें खेल
रही हैं जल थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि
और अम्बरतल में।’’7
छायावादी काव्य शैली में प्रकृति का
सूक्ष्म और उत्कट रूप दिखाई देता है। प्रकृति की भव्यता ‘पंत’,
‘प्रसाद’ और निराला’ की कविताओं में यत्र-तत्र पाई
जाती है। ये कवि प्रकृति की रमणीयता में इतने मुग्ध हो जाते हैं कि प्रेयसी का प्यार भी उन्हें तुच्छ लगता है।
पंत कहते हैं-
‘‘छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले, तेरे बाल-जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन,
भूल अभी से इस जग को।’’8
इसी तरह संध्या की छटा निराला
को सुन्दरी के रूप में आभासित होती है-
‘‘दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है।
वह संध्या सुन्दरी परी-सी,
धीरे, धीरे, धीरे।’’9
‘कामायनी’ इस काल का उत्कृष्ट काव्य है।
जिसके आरंभ में प्रकृति के भयानक रूप का वर्णन है, जिसमें जल-प्रलय के पश्चात्
सर्वस्व नष्ट हो जाता है। संभवतः ‘प्रसाद’ का यह संकेत उद्दाम लालसाओं से
ग्रसित उन लोंगो के लिए भी है, जो प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे
हैं, परिणाम स्पष्ट है-
‘‘हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर
बैठ शिला की भीतल छाँह।
एक पुरुष भीगे नयनों से,
देख रहा था प्रलय-प्रवाह।’’10
मनुष्य का प्रकृति के प्रति भोगवादी
दृष्टिकोण ने जीवन को खतरे में डाल दिया है। परिणामतः अकाल, बाढ़, आदि प्राकृतिक त्रासदियों से
हमें सामना करना पड़ता है। ‘बंगाल का अकाल’ इस प्राकृतिक विनाश का एक
दुखान्तकारी घटनाक्रम है। नागार्जुन ने इस दृश्य का वर्णन
किया है-
‘‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास।
कई दिनों तक कानी कुतिया, सोई उनके पास।
कई दिनों तक लगी भीत पर, छिपकलियों की गष्त।
कई दिनों तक चूहों की भी, हालत रही शिकस्त।’’11
भोगवादी दृष्टि के साथ वैज्ञानिक
प्रयोगों ने भी प्रकृति को नष्ट करने का कुत्सित प्रयास किया है। युद्धों की
विभीषिका में जब परमाणु त्रासदी के बाद मनुष्य नहीं बच पाता है तो प्रकृति का
क्या हाल होगा? अज्ञेय ने कहा कि ‘मानव का रचा हुआ सूरज मानव को भाप बनकर
सोख गया।’ उसी पृष्ठभूमि में ‘दिनकर’ ने लिखा-
‘‘बुद्धि के पवमान में उड़ता हुआ
असहाय
जा रहा तू किस दिशा की ओर को
निरुपाय?
लक्ष्य क्या ? उद्देश्य क्या ? क्या अर्थ ?
यह नहीं ज्ञात, तो विज्ञान का श्रम व्यर्थ।’’12
अभी मानवता उससे उबर ही नहीं पाई कि
पूरे विश्व में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर बाजार का विकास हुआ।
भूमण्डलीकरण के दौर में बाजारवाद की त्रासदी का सबसे पहले शिकार बना-पर्यावरण।
परिणाम स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल, शुद्ध फल, शुद्ध भोजन का भी अभाव उत्पन्न हो गया है। इक्कीसवीं सदी का आरंभ पर्यावरण संकट के साथ उदित होता है। ऐसी
परिस्थिति में रचनाकार सजग हो उठता है। ‘पानी की प्रार्थना’ में केदारनाथ सिंह ने भीषण संकट
की ओर आगाह किया है-
‘‘अब देखिये न,/लम्बे समय के बाद/कल
मेरे तट पर एक चील आई/प्रभु,
कितनी कम चीलें दिखती हैं आज
कल।
आपको तो पता होगा कहाँ गयीं वे?/
पर जैसे भी हो एक वह आई/जाने
कहाँ से भटक कर/और बैठ गयी मेरे
बाजू में/
उसने चौंककर पहले इधर उधर देखा।
फिर अपनी लम्बी चोंच गड़ा
दी/मेरे सीने में।
$$$$
अंत में प्रभु अंतिम/लेकिन सबसे
जरूरी बात
वहाँ होंगे मेरे भाई बन्धु/मंगल
ग्रह या चाँद पर/
पर यहाँ पृथ्वी पर मैं/यानी
आपका मुँह लगा यह पानी
अब दुर्लभ होने के कगार
तक/पहुँच चुका हूँ।’’13
अंत में यह स्पष्ट करना जरूरी है कि
भारतीय साहित्य में जहाँ प्रकृति का प्रत्येक उपादान वृक्ष, नदी, फल, फूल, अनाज आदि को पूजनीय स्थलों का
अधिकार बनाया, वहीं आज का यह पदार्थवादी इंसान अपने जीवन-रस को ही लूटने चला है। ऐसी स्थिति में साहित्य-जगत् को
मौन रहकर तमाषा देखने के बजाय अपनी रचनाधर्मिता से मानवता को बचाने
का सार्थक प्रयास करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति से अलगाव मनुष्य के
स्वार्थी होने की निशानी है।
संदर्भ-
1. यजुर्वेद, शान्ति सूक्त, 36/17
2. वाल्मीकि रामायण, 1/2/15
3. पदावली, विद्यापति, पृ.-295
4. रामचरितमानस, तुलसीदास, 2/236/3
5. बिहारी प्रकाश, बिहारी, पृ.-31
6. प्रिय-प्रवास, हरिऔध, उद्धृत आधुनिक काव्य सोपान, पृ.-5
7. पंचवटी, मैथिलीशरण गुप्त, उद्धृत ‘कविताकोश’ वेब पेज से ।
8. सुमित्रानंदन पंत संचयन, कुमार विमल, पृ.-51
9. ‘कवि श्री’, निराला,सं. सियारामशरण गुप्त, पृ.-11
10. कामायनी, जयशंकर प्रसाद, चिंता सर्ग, पृ.-5
11. अकाल और उसके बाद, नागार्जुन, उद्धृत ‘कविताकोश’ वेब पेज से ।
12.
कुरुक्षेत्र, दिनकर, षष्ठ सर्ग, पृ.-68
13. पानी की
प्रार्थना, केदारनाथ
सिंह, उद्धृत ‘कविताकोश’
वेब पेज से।
1 comment:
बहुत अच्छा लगा आप के चिट्ठे पर आकर , अब पढ़ता रहूंगा, जय श्री राधे
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