चिंतामणि में विचार-प्रवाह



चिंतामणि में विचार­प्रवाह 
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हिंदी निबंध साहित्य के क्षितिज पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल का पदार्पण एक युगांतरकारी परिवर्तन का श्रीगणेश था। आचार्य शुक्ल ने ‘चिंतामणि‘ में जिस मौलिक सर्जना के साथ निबंध लिखे, उसकी शैलीगत नवीनता, विषय की गरिमा और गांभीर्य अद्वितीय है । अपनी सूक्ष्म­व्यापक निरीक्षण क्षमता से आचार्य शुक्ल ने मनोविज्ञान को साहित्य के धरातल पर उतार कर यह सिद्ध कर दिया कि नवीन भावों की उद्भावना करने वाले निबंध ही श्रेष्ठ कोटि के कहे जा सकते हैं।

आचार्य रामंचद्र शुक्ल के निबंधों का संग्रह ‘चिंतामणि’ के दो भागों में सुरक्षित है। चिंतामणि भाग­एक में संगृहीत सत्रह निबंध मनोविकार व समीक्षात्मक श्रेणी के हैं, जबकि चिंतामणि भाग­दो में काव्यशास्त्र से संबंधित तीन गवेषणात्मक निबंध हैं । इस प्रकार आचार्य शुक्ल द्वारा लिपिबद्ध बीस निबंधों का विषय­क्षेत्र मनोविकार, काव्यशास्त्र एवं आलोचना के परिक्षेत्र में है । ये निबंध हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं । अपनी मौलिक उद्भावनाओं और बलवती विचार शैली के कारण वे निबंध क्षेत्र के एकमात्र अधिपति हैं । हिन्दी साहित्य को अभी उनके जैसा दूसरा श्रेष्ठ निबंधकार नहीं मिला है। 

चिंतामणि भाग­-एक में भाव या मनोविकार संबंधी कुल दस निबंध हैं, जो इस प्रकार हैं­ भाव या मनोविकार, उत्साह, श्रद्धाभक्ति, करुणा, लज्जा और ग्लानि, लोभ और प्रीति, घृणा, ईर्ष्या, भय, क्रोध इत्यादि । इन निबंधों को लिखते समय शुक्ल जी की दृष्टि साहित्य पर रही है, फलतः मनोवैज्ञानिक आधार को साहित्यिक धरातल पर ले आने से यह भ्रम स्वाभाविक है कि ये निबंध मनोवैज्ञानिक है, किंतु गहराई से चिंतन करने पर यह प्रकट होता है कि आचार्य शुक्ल रचित उक्त मनोविकार संबंधी निबंध मानव मन के भावों से संबंधित होने पर भी विशुद्ध रूप से मनोवैज्ञानिक विवेचन से संबंधित है । साहित्य का सीधा संबंध मानव एवं उसके मनोभावों से है। साहित्य में व्यक्त भाव जगत् का सामाजिक मूल्यांकन और परीक्षण व्यक्ति को केन्द्र में रखकर ही संभव है। अतः आचार्य शुक्ल के मनोविकार संबंधी निबंध मनोविज्ञान के नहीं, बल्कि हिन्दी साहित्य की अनमोल विरासत है। 

चिंतामणि के भाव या मनो विकार संबंधी निबंधों में विविध सूत्रात्मक परिभाषाएँ प्रकट होती हैं, जो आलोचकों के लिए गंभीर विवेचना का अवसर प्रदान करती हैं । जैसे-
अनुभूति के द्वंद्व ही से प्राणी के जीवन का आरंभ होता है । उच्च प्राणी मनुष्य भी केवल एक जोड़ी अनुभूति लेकर इस संसार में आता है।
(भाव या मनोविकार)

दुःख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनन्द वर्ग में उत्साह का है।  (उत्साह)

श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। (श्रद्धा­भक्ति)

दूसरों के दुःख से दुखी होने का नियम जितना व्यापक है, दूसरों के सुख से सुखी होने का नियम उतना ही व्यापक नहीं है।
(करुणा)

जहाँ लोभ सामान्य या जाति के प्रति होता है, वहाँ वह लोभ ही रहता है, जहाँ पर किसी जाति के एक ही विशेष व्यक्ति के प्रति होता है, वहाँ प्रीति का पद प्राप्त करता है।
(लोभ और प्रीति)

घृणा निवृत्ति का मार्ग दिखलाती है और क्रोध प्रवृत्ति का।
(घृणा)

ईर्ष्या का अनन्य अधिकार मनुष्य जाति पर ही है ।
(ईर्ष्या)

सामाजिक जीवन में क्रोध की आवश्यकता है। 
(क्रोध)

चिंतामणि में आचार्य शुक्ल ने अपने मौलिक चिंतन के बल पर भारतीय एवं पाश्चात्य समीक्षात्मक सिद्धान्तों का समन्वय करके समृद्ध और समर्थ बनाया। समालोचन का प्रारंभ उन्होंने जायसी, सूरदास और तुलसीदास की कृतियों की समीक्षा के दौरान लंबी भूमिकाओं के रूप में किया। आचार्य शुक्ल के समीक्षा सिद्धान्तों में प्रमुख हैं- लोकमंगल, प्रकृति का आलंबन रूप, रसवाद साधारणीकरण, देशप्रेम, विश्वधर्म, विषयानुरक्ति, मौलिकता, वैयक्तिकता, बौद्धिकता, विचार प्रधानता आदि। 

‘चिंतामणि: एक’ में संकलित इन समीक्षात्मक निबंधों में शुक्लजी का मत है कि ब्रह्म के सत्, चित् और आनंद तत्त्वों में से काव्य और भक्ति को ‘आनंद’ तत्त्व ग्रहण करना चाहिए। इसके समर्थन में उन्होंने कहीं आनंद की साधनावस्था के सौंदर्य का उद्घाटन किया तो कहीं सिद्धावस्था का। उनकी दृष्टि में लोकमंगलकारी और आनंदमयी सौन्दर्य का चित्रण विश्व कल्याण की भावना को पुष्ट करता है। 

‘चिंतामणि­ भाग-दो’ में उनके तीन समीक्षात्मक निबंध हैं- 1. काव्य में प्राकृतिक दृश्य, 2. काव्य में रहस्यवाद और 3. काव्य में अभिव्यंजनावाद। इन तीनों निबंधों में काव्य रचना संबंधी महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ स्थापित की गई हैं। काव्य में प्राकृतिक दृश्य वर्णन में वे बिम्ब ग्रहण पद्धति को श्रेष्ठ मानते हैं, क्योंकि यही प्रकृति का वास्तविक एवं हृदयग्राही स्वरूप प्रस्तुत करती है। इस दृष्टि से उन्होंने शुद्ध भारतीय परम्परा के प्राचीन संस्कृत कवियों वाल्मीकि, भवभूति, कालिदास के प्रकृति वर्णन को हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठतम कवियों तुलसीदास, सूरदास के प्रकृति वर्णन से अच्छा बताया। 

आचार्य शुक्ल ने काव्य में रसात्मक अनुभूति को आवश्यक बताया, क्योंकि यह मानव में रागात्मक वृत्ति का पोषण करती है। ‘कविता’ को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा- “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द­विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।”

आचार्य शुक्ल ने इन निबंधों में लोक के कल्याण पर सर्वत्र ध्यान दिया है। उनका विचार है कि जो राष्ट्र दूसरों का गला घोंटकर स्वयं समृद्ध बनने की लालसा रखते हैं, वे कभी भी समाज के कल्याण के कारक नहीं बन सकते, अपितु सदैव विश्व में विषमता के कारण बने रहेंगे। इसी तरह शुक्ल जी का देश प्रेम तीन रूपों में व्यंजित हुआ है- वर्तमान के प्रति क्षोभ, अतीत के प्रति श्रद्धा तथा भविष्य के प्रति विश्वास। उन्होंने विश्व धर्म को गृह, कुली, समाज एवं लोक धर्म से श्रेष्ठ मानते हुए लिखा- “ जिनकी आत्मा समस्त भेदभाव से परे अत्यंत उत्कर्ष पर पहुँची हुई होती है वे सारे संसार की रक्षा चाहते हैं।” यह धारणा आज कितनी समीचीन है, जबकि सारा संसार वैमनस्य की आग में झुलस रहा है। 

‘चिंतामणि’ में संगृहीत निबंधों में व्यक्तित्व की भूमिका गौण है। आचार्य शुक्ल ने शुद्ध विचारात्मकता को निबंधों की कोटि में स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार के निबंधों को वे तत्त्व चिंतन अथवा दर्शन के क्षेत्र में रखते थे। उनके मतानुसार गंभीर विचार और व्यक्तित्व के संयोग से साहित्यिक सौन्दर्य की सृष्टि होती है, जिसके अभाव में कोई रचना निबंध नहीं होती। एक ही बात को भिन्न दृष्टि से देखना व्यक्तिगत विशेषता को मूल आधार है और शुक्लजी की दृष्टि में निबंधकार की यह सबसे बड़ी विशेषता है।

निबंधकार जिस भी विषय पर अपनी लेखनी चलाता है, उसमें वह अपनी संपूर्ण मानसिकता के साथ तन्मय हो जाता है। वह अर्थगत विशेषता और भावाभिव्यंजना से विशिष्ट शैली का निर्माण करता है। शुक्लजी शब्द आडम्बर युक्त रचना को हेय मानते हैं, जो अर्थ संबंध का निर्वाह करने में अक्षम है और भाषा केवल तमाशा बनकर रह जाती है। 

आचार्य शुक्ल के निबंधों पर क्लिष्टत्व दोष का आरोप लगाया जाता है, किंतु स्वस्थ मन से विचार किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका दृष्टिकोण वस्तुवादी है। उनके निबंधों में विषय और व्यक्तित्व का अद्भुत समन्वय मिलता है। संघटित विचार परंपरा, वैचारिक प्रौढ़ता व गांभीर्य, भाव­-भाषा में औदात्य और कसावट इनकी व्यक्तिगत विशिष्टता है।

 हिन्दी शब्द कोश को समृद्ध करने के उद्देश्य से अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय गढे़ हैं, यथा स्थान मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग कर भाषायी निखार लोने का प्रयास किया है, वहीं विश्व साहित्य से भारतीय साहित्य की तुलना कर अपना निर्णय दे दिया है, अतः निबंध­ साहित्य में वे मूर्धन्य स्थान पर है।

हिंदी निबंध साहित्य में शुक्लजी सर्वोच्च पीठ के योग्य समर्थ अधिकारी हैं । आलोचक जयनाथ नलिन ने उनके बारे में लिखा है­ “विचारात्मक निबंधकार के रूप में रामचंद्र शुक्ल की रचनाएँ अमर हैं। ‘चिंतामणि’ हिन्दी का ही नहीं, भारतीय गद्य­ साहित्य का गौरव है । चिंतामणि के निबंध किसी भी देश के सर्वश्रेष्ठ विचारात्मक निबंधों की पहली पंक्ति में पूरे आत्मविश्वास और गौरव से बैठ सकते हैं । शुक्लजी का एक­एक निबंध हिन्दी गद्य शैली के विकास की शानदार मंजिल है, एक­-एक पैरा प्रगति और प्रौढ़ता के पथ पर बढ़ता हुआ है, एक­एक पंक्ति गंभीर चिंतन की साँस है और एक­-एक शब्द अभिव्यंजना की सार्थकता है । भावों, वृत्तियों और विचारों का इतना सूक्ष्म विवेचन कहीं और नहीं मिलता। इतनी बारीक और गहरी लकीरें परिभाषात्मक सीमा तक हमने उनके सिवा कहीं नहीं देखी। उक्त टिप्पणी आचार्य शुक्ल और चिंतामणि के गौरव को अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त है । उनकी यशोकीर्ति अमर रहेगी और हिन्दी के भावी निबंधकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी । 

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डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी

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