फ़ादर डॉ. कामिल बुल्के की दृष्टि में रामचरित मानस की सार्वकालिकता

 


फ़ादर डॉ. कामिल बुल्के की दृष्टि में रामचरित मानस की सार्वकालिकता

(गगनांचल, जनवरी-अप्रैल,२०२४ में प्रकाशित)

यह एक विलक्षण संयोग है कि लॉर्ड मैकाले के भारत आने के ठीक एक सौ वर्ष बाद 1935 में फ़ादर डॉ. कामिल बुल्के मिशनरी काम से भारत आए और सनातन संस्कृति के प्रस्थान बिंदुओं की खोज करते-करते रामत्व के आकर्षण में बंध गए। लंबे समय तक फादर बुल्के के संपर्क में रहने वाले डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के शब्दों में, “फादर बुल्के उन विदेशी संन्यासियों में थे, जो भारत आकर भारतीय से अधिक भारतीय हो गए थे. उन्होंने यहाँ की जनता के जीवन से अपने को एकाकार कर लिया था। उन्हें देखकर कोई भी व्यक्ति यह अनुभव कर सकता था कि संन्यास का अर्थ जीवन और जगत का निषेध न होकर स्वत्व का निषेध है और स्व का ऐसा विस्तार, जिसमें पूरी दुनिया के लिए ममत्व भरा हुआ है।”1  बुल्के का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट म्युनिसिपैलिटी के एक गाँव रम्सकपेल में 1909 में हुआ था। उन्होंने लूवेन विश्वविद्यालय, लिस्सेवेगे से सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री ली और उसके बाद 1930 में जेसुइट बन गए। बाद में जेसुइट सेमिनरी से लैटिन भाषा पढ़ने के बाद ब्रदर बने बुल्के ने अपना जीवन एक संन्यासी के रूप में बिताने निश्चय किया और कई महत्त्वपूर्ण संस्थाओं में अध्ययन करने के बाद 1935 में भारत आ गए। यहाँ उन्होंने विज्ञान के अध्यापक के रूप में सेंट जोसेफ कॉलेज, दार्जीलिंग में और येसु संघियों के मुख्य निवास स्थान मनरेसा हाउस, रांची में अपना प्रवास किया। 1944 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया और उसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1947 में हिन्दी में एम.ए. और 1950 में डॉक्टोरेट करने के उपरांत 1951 में उन्होंने भारत की नागरिकता ग्रहण की।

उनके द्वारा रचित पुस्तकों की संख्या 29 है। जिसमें प्रमुख हैं, ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’, ‘हिंदी-अंगरेजी लघुकोश’,  ‘अंगरेजी-हिंदी कोश’, ‘रामकथा और तुलसीदास’, ‘मानस–कौमुदी’, ‘ईसा जीवन और दर्शन’, ‘एक ईसाई की आस्था’, ‘मुक्तिदाता’, ‘नया विधान’, ‘नीलपक्षी’ आदि। इसके अलावा भी उनके सैकड़ों शोध-निबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। वे ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’, ‘काशी नागरी प्रचिरिणी सभा’ और ‘बेल्जियन रॉएल अकादमी’ के सम्मानित सदस्य थे। निस्संदेह डॉ. फादर कामिल बुल्के ने भारत और पश्चिमी जगत को भावात्मक रूप से जोड़ने का महत्त्वपूर्ण  कार्य किया। भारत सरकार ने साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके योगदान के लिए उन्हें 1974 में  पद्मभूषण से सम्मानित किया।

डॉ. फादर बुल्के का शोध-प्रबंध हिन्दी माध्यम में प्रस्तुत हिन्दी विषय का पहला शोध-प्रबंध भी है। जिस समय फादर बुल्के इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय विश्वविद्यालय के सभी विषयों के शोध-प्रबंध केवल अंग्रेजी में ही प्रस्तुत करने का विधान था। फादर बुल्के के लिए अंग्रेजी में शोध-प्रबंध प्रस्तुत करना सरल भी था, किन्तु यह बात उनके हिन्दी स्वाभिमान के विपरीत थी। उन्होंने आग्रह किया कि उन्हे हिन्दी में शोध-प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान की जाय। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. अमरनाथ झा ने उनके आग्रह पर शोध-संबंधी नियमावली में संशोधन कराया और उन्हें अनुमति दी। शोध-प्रबंध का शीर्षक था- रामकथा: उत्पति और विकास’। इसमें संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, बंगला, तमिल आदि सभी प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध रामविषयक विपुल साहित्य का ही नहीं, वरन् तिब्बती, वर्मी, इंडोनेशियाई, थाई आदि भाषाओं में उपलब्ध समस्त राम साहित्य का अत्यंत वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया गया है। अपना शोध-प्रबंध जमा करने के बाद भी डॉ. बुल्के इसी विषय पर अगले 18 वर्ष तक काम करते रहे। उनकी इस कृति के बारे में उनके गुरु डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा कि इसे रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है। वास्तव में यह शोध-प्रबंध अपने ढंग की पहली रचना है। हिन्दी क्या, किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में इस प्रकार का दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है। हिन्दी परिषद, इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने स्वयं इसे प्रकाशित करके इसकी गुणवत्ता पर मुहर लगा दी।

फादर कामिल बुल्के के रचना क्षेत्रों को चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- रामकथा,कोश, अनुवाद और धर्म दर्शन। रामकथा उनकी कीर्ति का विशेष आधार रहा है। 'रामकथा: उत्पत्ति और विकास' नामक ग्रंथ के तीन संस्करण प्रकाशित हुए और उनके देहावसान पश्चात चौथे संस्करण की पांडुलिपि में कुछ प्रविष्टियाँ समाविष्ट हुईं। रामकथा को भारत की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में रेखांकित करते हुए अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मेलन, कानपुर 1967 का उद्घाटन भाषण में डॉ. बुल्के ने कहा, “वास्तव में रामकथा आदर्श जीवन का वह दर्पण है, जिसे भारतीय प्रतिभा शताब्दियों तक परिष्कृत करती रही। इस प्रकार रामकथा भारतीय आदर्शवाद का उज्ज्वलतम प्रतीक बन गई है। भारतीय संस्कृति में विचारों की उदारता, स्वतंत्रता, तथा निर्भीक जिज्ञासा के विशेष लक्षण हैं। इतिहास इसका साक्षी है कि भारत में नई धार्मिक तथा दार्शनिक विचारधाराएं बराबर उत्पन्न होती रही और नए विचारों का स्वागत होता रहा। अतीत के भंडार से किसी कार्य विशेष के कुछ ही सिद्धांत निकाल कर उन्हें भारतीयता की एकमात्र प्रतिनिधिक उपलब्धि ठहराना, भारत की शताब्दियों तक निरंतर आगे बढ़ती हुई  उदार संस्कृति के प्रति घोर अन्याय ही है। .... वाल्मीकि ने जिस भारत का चित्रण किया है वह अपना अतीत गौरव से मोहित होकर निष्क्रिय नहीं बन गया था, वरन हृदय में  जीवन के प्रति उत्साह भरकर अग्रसर होता रहा था।“2

रामकथा उनके जीवन का प्रमुख केंद्र रही, किंतु इस कथा के प्रति उनका आकर्षण सबसे पहले तुलसीदास के कारण उत्पन्न हुआ। जिनकी कुछ पंक्तियाँ पढ़कर वह अभिभूत हो उठे थे। उनका कथन है, "क्या मुझे उस समय अदृष्ट का संकेत मिल रहा था कि मैं उस कवि के देश में जाकर बस जाऊंगा, उसकी रचना से मोहित होकर उसके साहित्य का विशेष अध्ययन करूंगा, उसी काव्य के कथानक पर अनुसंधान करुंगा?"3 तुलसीदास कामिल बुल्के के सबसे प्रिय कवि और उनकी धर्म साधना के प्रेरक आदर्श थे । उनके निकटतम अधिकतर विद्वान लोगों को उनके जैसे प्रखर बुद्धि की धर्म निष्ठा और एक विदेशी के हिंदी प्रेम की तरह समर्पित ईसाई सन्यासी की तुलसी भक्ति बहुत  आश्चर्यजनक लगती थी। उनसे कई बार प्रश्न भी किया करते थे। उन्होंने इसका समाधान देते हुए कहा, “जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूँ तो मुझे लगता है कि ईसा, हिंदी और तुलसीदास यह वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और मेरे लिए उन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं, बल्कि गहरा संबंध है।“4  प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन नागपुर के अवसर पर पवनार आश्रम, वर्धा में 14 जनवरी,1975 को तुलसी की प्रतिमा का अनावरण करते हुए बुल्के ने कहा था, "तुलसी ने कहा है, सब ही नचावत राम गोसाईं, किंतु मैं कहता हूँ- मोहि नचावत तुलसी गोसाईं। प्रत्येक वर्ष तुलसी का संदेश सुनाने के लिए मैं बहुत दौड़ा करता हूँ।“5  अपनी तुलसी भक्ति के बारे में उन्होंने लिखा है,1938 में मैने ‘रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका’ को प्रथम बार आद्योपान्त पढ़ा। उस समय तुलसीदास के प्रति मेरे हृदय में जो श्रद्धा उत्पन्न हुई और बाद में बराबर बढ़ती गई, वह भावुकता मात्र नहीं है. साहित्य तथा धार्मिकता के विषय में मेरी धारणाओं से इस श्रद्धा का गहरा संबंध है।”6  वे तुलसीदास को केवल विश्व के महानतम कवियों में एक ही नहीं मानते थे, वरन उनकी भगवत भक्ति को मानव मात्र के लिए आदर्श मानते थे। यद्यपि तुलसी पर एक विस्तृत ग्रंथ लिखने का उनका सपना पूरा नहीं हो सका, लेकिन उनके निबंधों तथा 'रामकथा और तुलसीदास' तथा मानस-कौमुदी' नामक पुस्तक से उनकी तुलसी संबंधित दृष्टि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

 

डॉ. बुल्के रामकथा के ऐतिहासिक विकास को तीन सोपानों में विभाजित करते हैं और यह कहते हैं कि तुलसी की रामकथा इसके तीसरे सोपान का प्रतिनिधित्व करती है। उनके अनुसार राम कथा के विकास का पहला सोपान है-वाल्मीकि द्वारा अंकित आदर्श क्षत्रिय मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र तथा दूसरा सोपान राम का विष्णु के अवतार के रूप में परिवर्तन है और तीसरा सोपान रामभक्ति है। इस चरण में राम को न केवल विष्णु का अवतार माना गया, बल्कि स्वयं परब्रह्म का अवतार निरूपित किया गया। रामचरितमानस का संबंध रामकथा के विकास के सोपान से है। फादर कामिल बुल्के की दृष्टि में तुलसी की राम कथा मात्र परंपरा का अनुसरण नहीं है, बल्कि उसे अपनी परिकल्पना के अनुसार कभी स्वीकार करते, कहीं छोड़ते और कहीं बदल देते हैं। लेकिन वे यह सब कथानक के परंपरागत ढांचे के अंतर्गत इतनी सहजता से करते हैं कि उनकी मौलिकता पर कोई असहमति नहीं दिखती। इस संबंध में उनका अभिमत है, "तुलसी उन विभिन्न कथाओं-वाल्मीकि, अध्यात्म रामायण, महानाटक, प्रसन्न राघव आदि से प्रसंग चुनकर अपने रामचरित की रचना करते हैं।"7  इसीलिए तुलसी की राम कथा में यदि परंपरा से भिन्नता मिलती है तो इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि यह कोई एक कथा ना होकर असंख्य कथाओं का समूह है । उन्होंने तुलसी की रामकथा के विशेष ढांचे या रूप विधान के तीन कारण बताए हैं- पहला कारण कवि इसके माध्यम से राम के परमब्रह्मत्व को स्थापित करना चाहते हैं, दूसरा कारण इसके माध्यम से  वे भक्ति का निरूपण करना चाहते हैं और तीसरा कारण यह कि वे अपने समकालीन एवं पूर्ववर्ती राम साहित्य में बढ़ते हुए शृंगारिकता से इसे पूर्णता मुक्त कर मर्यादित और नैतिक स्वरूप देना चाहते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि किस प्रकार तुलसी की रामकथा परंपरा के सर्वोत्तम का संरक्षण करने और उसे निरंतरता प्रदान करने वाली प्रतिनिधि रचना है। वे लिखते हैं, "नैतिक आदर्शों के चित्रण द्वारा लोक संग्रह का भाव और भगवदभक्ति, राम कथा परंपरा के इन दोनों तत्वों का अपूर्व समन्वय तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में प्रस्तुत किया है।“8  

वस्तुतः वाल्मीकि के परवर्ती रामकाव्य के कवियों में तुलसी का स्थान अद्वितीय है। उन्होंने वाल्मीकि और लोकसंग्रह का पूरा-पूरा निर्वाह किया है और उस रामकथा के सोने में भगवद्भक्ति की सुगंध जगा दी है। तुलसीदास ने भगवद्भक्ति के विषय में जो संदेश दिया है, वह वाल्मीकि के नैतिक आदर्श की भांति विश्वजनीन है। इष्टदेव के प्रति अनन्य आत्म-समर्पण के साथ- साथ अपने दैन्य की तीव्र अनुभूति तुलसी की भगवद्भक्ति की प्रमुख विशेषता है। उन्होंने कहीं भी कर्मकाँड पर बल नहीं दिया, कहीं भी मन्दिर में होने वाली पूजा के लिए अनुरोध नहीं किया। भक्तिमार्ग की नींव नैतिकता है और अपनी उक्त प्रमुख विशेषता के कारण वह सब संप्रदायों के ऊपर उठकर मानव मात्र के लिए उपयुक्त है।”9  तुलसी ने वाल्मीकि रचित रामकथा के आदर्शवाद और भक्ति रूप बनाए रखा। वस्तुतः वाल्मीकि की राम कथा में 2000 वर्षों तक होते रहने वाले परिवर्तनों और परिवर्धनों के बावजूद उसका लोक संग्रह और आदर्शवादी स्वभाव अक्षुण्ण रहा। परंतु सखी संप्रदाय के माध्यम से जब इस कथा में शृंगारिकता का समावेश होने लगा और उसके बाद काव्य के नाम पर ऐसी रचनाएं लोकप्रिय भी हो गई, जिनमें नायक-नायिकाओं के प्रेम प्रसंगों का वर्णन मिलता था। तब तुलसी ने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से इस प्रवृत्ति का विरोध किया। वह एक ऐसे कवि का स्वरूप चाहते थे जो जीवन के सात्विक लक्षणों से प्रेरित हो।

रामचरितमानस में राम के नैतिक और लोक संग्रह ही चरित्र की अभिव्यक्ति अत्यधिक मार्मिक ढंग से हुई है। इस दृष्टि से यह अद्वितीय कृति है। किंतु जब तुलसी भक्ति पर अपने विचार को प्रकट करते हैं तो उन्हें यह ईश्वर तक पहुंचने का श्रेष्ठतम मार्ग दिखाई देता है। डॉ. बुल्के का मत है कि यहाँ  उनका पूर्ववर्ती रामकथा परंपरा से भेद हो जाता है। यह बात 'अध्यात्म रामायण' से उनके भक्ति संबंधी दृष्टिकोण की तुलना करने पर और भी स्पष्ट हो जाती है। अध्यात्म रामायण में भक्ति को ज्ञान का साधन मात्र माना गया है। मोक्ष ज्ञान द्वारा ही संभव है और ज्ञान की अनिवार्य शर्त सन्यास और वैराग्य है, लेकिन इसके ठीक विपरीत तुलसी यह कहते हैं कि ज्ञान मार्ग अत्यंत कठिन है। यह मार्ग मनुष्य के चित्त को भीतर से बदलने में असमर्थ है। सबसे श्रेष्ठ है-भक्ति। क्योंकि यह मनुष्य को भीतर से धोकर पवित्र करती है और बड़ी सरलता से प्रभु तक ले जाती है। तुलसी ने इसे सर्व सुलभ मार्ग बताया और इसे राजमार्ग भी कहा, जिस पर चलने का अधिकार सब मनुष्यों को है। तुलसी मर्यादा को भक्ति का आवश्यक आधार मानते हैं। उनके अनुसार भक्ति का सामाजिक कर्तव्यों के पालन और सदाचरण से विच्छेद संबंध है। उनके  रामचरितमानस और अन्य रचनाओं में भक्ति का जो स्वरूप व्यक्त हुआ है, उससे  स्पष्ट है कि "संत गोस्वामी तुलसीदास ने भक्ति का जो सिक्का चलाया, उसके दो पहलू हैं- एक भगवत भक्ति और दूसरा नैतिकता।"10

      फादर बुल्के को तुलसी की भक्ति में जो एक विशेषता विशेष रूप से आकर्षित करती है वह है-परहित भावना। आचार्य शुक्ल ने इसे 'लोकमंगल' के रूप में निरूपित किया, लेकिन कामिल बुल्के इस दृष्टिकोण को तुलसी की महत्त्वपूर्ण  उपलब्धि मानते हैं। उनकी दृष्टि में यह महाकवि तुलसी की मौलिकता है, जिसमें मनुष्य की सेवा महत्त्वपूर्ण  है। तुलसी का प्रभु-भक्त न केवल नैतिक आचरण करने वाला और परहित निरत व्यक्ति है, बल्कि वह प्रपत्ति और आत्मदैन्य भवापन्न व्यक्ति भी है। वह पूरी श्रद्धा से भगवान का विधान स्वीकार करता है और भरत की तरह यह मानता है कि प्रभु की आज्ञा के पालन से बढ़कर उसकी और कोई सेवा नहीं है। ईश्वर के विधान के प्रति पूर्ण समर्पण और पाप-बोध तुलसी की भक्ति की ये विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं।

लेखक केदारनाथ सिंह ने कहा कि हिंदी में तुलनात्मक साहित्य और भारत एवं अन्य जगहों पर राम कथा का तुलनात्मक अध्ययन फादर बुल्के के शोध कार्य ‘राम कथा’ से शुरू हुआ। हिंदी को जो विशिष्ट बनाता है वह यह है कि इसके जैसा कोई अन्य अध्ययन किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में मौजूद नहीं है। हिंदी पट्टी में इस प्रमुख मुद्दे की इस तरह की गहन जांच कई धार्मिक और राजनीतिक भ्रांतियों को दूर करती है और विद्वानों को एक दिशा प्रदान करती है। कामिल बुल्के की दृष्टि में रामचरितमानस की प्रासंगिकता सार्वकालिक है। उसके दो बड़े कारण हैं- उनकी भक्ति और कवित्व। उनकी भक्ति केवल वर्णाश्रम धर्म तक सीमित न होकर विश्वजनीन है। उनके काव्य का आधारभूत ढाँचा पौराणिक है। उनकी युग के धार्मिक विश्वास और सामाजिक व्यवस्था दोनों परंपरागत हैं, लेकिन उनकी युगीन सीमाएँ उनके मूल्यांकन की एकमात्र कसौटी नहीं है। वह मानव मात्र को समान निरूपित करने वाले और जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर प्रत्येक मनुष्य की सेवा को परम धर्म मानने वाले 'परहित' को अपने विचार व्यवस्था में जो महत्त्व देते हैं, वह इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। उनके इस मानव समतावाद का स्रोत उनकी भक्ति ही है। लेकिन इसके समांतर उनके मानस की प्रासंगिकता का रहस्य उनका कालजयी कवित्व है।


संदर्भ ग्रंथ-

1.   हिन्दी चेतना, फ़ादर कामिल बुल्के विशेषांक, हिन्दी प्रचारिणी सभा, केनेडा, जुलाई 2009, पृष्ठ-19

2.   वही, पृष्ठ-42

3.   फ़ादर कामिल बुल्के, विनिबंध, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, सं. 2002, पृष्ठ-21

4.   एक ईसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी भक्ति, धर्मयुग, 27 दिसंबर, 1970

5.   फ़ादर कामिल बुल्के, विनिबंध, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, सं. 2002,  पृष्ठ-15

6.   हिन्दी चेतना, फ़ादर कामिल बुल्के विशेषांक,हिन्दी प्रचारिणी सभा, केनेडा, जुलाई 2009, पृष्ठ-34

7.   फ़ादर कामिल बुल्के, विनिबंध, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, सं. 2002, पृष्ठ-63

8.   वही, पृष्ठ-64

9.   हिन्दी चेतना, फ़ादर कामिल बुल्के विशेषांक, हिन्दी प्रचारिणी सभा, केनेडा, जुलाई 2009, पृष्ठ-32

10. रामकथा और तुलसीदास, फ़ादर कामिल बुल्के, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, सं. 2008, पृष्ठ-75

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ऐतिहासिक आलोचना में सांस्कृतिक बोध (सन्दर्भ: हजारी प्रसाद द्विवेदी)

 

आलेख

ऐतिहासिक आलोचना में सांस्कृतिक बोध

(सन्दर्भ: हजारी प्रसाद द्विवेदी)

साहित्य परिक्रमा के अक्टूबर-दिसंबर,2024 में प्रकाशित



साहित्यकार की रचना अपने युग से प्रभावित होती है। अतः आलोचक तत्कालीन परिस्थितियों का विश्लेषण कर उनकी पृष्ठभूमि में कृति का परीक्षण करता है। यह ऐतिहासिक आलोचना की श्रेणी में आता है। इसमें आलोचक साहित्य को समाज का प्रतिबिम्ब मानते हुए उन तत्त्वों की खोज करता है, जिससे आलोच्य कृति सृजित हुई है। इस पद्धति द्वारा आलोच्य-कृति का मूल्यांकन इतिहास एवं संस्कृति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में किया जाता है। वर्तमान की किसी गंभीर समस्या का समाधान अतीत की महान् ऐतिहासिक घटना में ढूँढने का प्रयास होता है। इसके लिए किसी युग-विशेष के साहित्य को समझना अपेक्षित होता है, जिसके लिए समूची ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परम्परा का अनुशीलन आवश्यक है।

ऐतिहासिक आलोचना में इस तथ्य पर विचार किया जाता है कि किसी रचना ने युग के साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्थान पर अपना प्रभाव किस सीमा तक डाला है। इस प्रभाव के आधार पर ही कृति की श्रेष्ठता और निम्नता का निर्धारण किया जाता है। इसमें आलोचक का मुख्य ध्येय युग की आत्मा को समझना होता है। इस हेतु वह युगीन वातावरण और देशकाल का पूर्ण विवरण सामने रखक आलोचना-प्रक्रिया में संलग्न होता है।

आचार्य शुक्ल के बाद पं.हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी नवीन एवं मौलिक दृष्टि से हिन्दी आलोचना को नई दिशा दी। उनका दृष्टिकोण उदार, सहिष्णु और मानववादी सांस्कृतिक बोध पर आधारित है। उन्होंने जहाँ साहित्य के इतिहास-लेखन के आदर्श को आगे बढ़ाया, वहीं आलोचक के रूप में साहित्य के मूल्यांकन में मानवतावादी भूमि की प्रतिष्ठा की है। पं.द्विवेदी का अभिमत है- मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को पर दुखकातर और संवदेनशील न बना सके; उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के द्वारा रचित हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘हिन्दी साहित्य का आदिकालतथा हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकासप्रसिद्ध साहित्येतिहास ग्रंथ हैं। सूर साहित्य’, ‘कबीर’, ‘नाथ संप्रदाय’, ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य पर विचार’, ‘साहित्य का मर्म’, ‘लालित्य मीमांसा’, ‘साहित्य सहचरआदि महत्त्वपूर्ण आलोचना ग्रंथ हैं। इसके अतिरिक्त कालिदास की लालित्य योजना’, ‘मृत्यंजय रवीन्द्रतथा मध्यकालीन बोध का स्वरूपभी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी यद्यपि शुक्ल की परम्परा के आलोचक हैं, परन्तु अपने मानवतावादी दृष्टिकोण और ऐतिहासिक पद्धति का अनुसरण करने के कारण उनका अपना महत्त्व है। उन्होंने साहित्य को सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जोड़ते हुए मनुष्यता को साहित्य और रस का पर्याय माना। कबीर के भाषागत वैशिष्ट्य को उजागर करके हिन्दी जगत् में कबीरको पुनः मूल्यांकित किया। इसके अतिरिक्त सूर-तुलसी-प्रेमचंद का आकलन मानवतावादी दृष्टि से करना महत्त्वपूर्ण है।

आचार्य द्विवेदी ने साहित्य को मनुष्य-सत्य के संदर्भ में देखा है और मनुष्य को ही साहित्य का लक्ष्य स्वीकार किया है। साहित्य सहचरमें उन्होंने लिखा- साहित्य मानव-जीवन से सीधा उत्पन्न होकर सीधे मानव-जीवन को प्रभावित करता है। साहित्य में उन सारी बातों का जीवन्त विवरण होता है, जिसे मनुष्य ने देखा है, अनुभव किया है, सोचा है व समझा है।इस प्रकार उन्होंने साहित्य के इतिहास को मनुष्य-जीवन के अखंड प्रवाह का इतिहास माना है। उन्होंने सारे काव्य, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान, कला, दर्शन के मूल में मानवीय चेतना को लक्षित किया है। वे मानते हैं कि मानवीय चेतना भाव और तथ्य के किनारों को स्पर्श करती हुई प्रवाहित होती है। जब वह भावको स्पर्श करती है तब काव्य और कला की सृष्टि होती है और जब यह तथ्य को स्पर्श करती है तो दर्शन और विज्ञान का विकास होता है।

पं.हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को भारतीय चिन्तन की अविच्छिन्न परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण शृंखला मानकर उसकी भूमिका प्रस्तुत की। उन्होंने इतिहास को जन-चेतना का प्रवाह माना और हिन्दी-साहित्य को संपूर्ण भारतीय साहित्य के संदर्भ में देखने का प्रस्ताव किया। डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने इस संदर्भ में लिखा- द्विवेदी जी ने इतिहास के भीतर से उस चेतना को ग्रहण करने की चेष्टा की है जो मानवीय जीवन की अक्षय धारा का शक्ति-स्रोत है और जिसके आधार पर आज के साहित्य-भवन का भव्य आकार परिकल्पित हो सकता है।

हिन्दी साहित्य की भूमिकामें भक्तिकालके उदय के कारणों में आचार्य शुक्ल की मान्यता का खंडन करते हुए कहा कि भक्ति काव्य निराश और हताश पौरुष का काव्य नहीं है।........ यदि मुसलमान नहीं भी आये होते तो भक्तिकाव्य का बारह आना वैसा ही होता, जैसा अभी है। इस प्रकार उन्होंने साहित्य को सांस्कृतिक दृष्टि से मूल्यांकित किया। हिन्दी साहित्य के आरंभिक काल को आदिकालका संबोधन प्रदान कर समस्त विवादों का भी समाधान आचार्य द्विवेदी ने किया।

सूरऔर कबीरपर पं.द्विवेदी की आलोचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। सूरदास की उन्होंने लोक परक दृष्टि से व्याख्या की और बताया कि लोक जीवन ही सूरसागर की लीलाओं की मुख्य सामग्री है। उन्होंने सूर को श्रद्धालु और विश्वासी भक्त बताया। कबीरमें आचार्य द्विवेदी की मानवतावादी दृष्टि का परिचय मिलता है। उन्होंने कबीर को साधना के क्षेत्र में युग-गुरु, साहित्य के क्षेत्र में भविष्य का स्रष्टा, लोकधर्म का प्रतीक, व्यंग्य का बादशाह और वाणी का डिक्टेटर बताया।

साहित्य एवं संस्कृति के पारस्परिक संबंध को शाश्वत बताते हुए इसे मानवता के उत्थान का कारक बताया। उनका मत है कि साहित्य का सबसे बड़ा उद्देश्य मानव-जीवन को उन्नत करना और देवोपम बना देना है। वे मानते हैं कि साहित्य मनुष्य को उन्नत और विशाल बनाता है, उसको मोह और संस्कार से मुक्त करता है और उसे धीर तथा पर दुःखकातर बनाता है। इसी कारण उन्होंने अपनी आलोचना दृष्टि में समग्र दृष्टि से विवेचन किया।

आलोचना की समग्र दृष्टि के कारण ही आलोच्य कवि की केन्द्रीय विशेषता को उन्होंने उभारकर सामने रखा। उनकी प्रमुख टिप्पणियाँ अवलोकनीय हैं- “‘कबीरमस्तमौला थे। उनमें युग-प्रवर्तक का विश्वास था और लोकनायक की हमदर्दी।” “‘नानककी साम्य-भावना विचार-प्रसूत और करुणा-मूलक थी।” “‘सूरदासबालक का हृदय लेकर पैदा हुए थे।” “‘तुलसीका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।” “‘दादूके पदों में अभिमान का भाव बिल्कुल नहीं है।” “‘सुन्दरदाससर्वाधिक शास्त्रीय ज्ञान-सम्पन्न महात्मा थे।” “‘रज्जबदासनिश्चय ही दादू के शिष्यों में सबसे अधिक कवित्व लेकर उत्पन्न हुए थे।इत्यादि कथन कवि की विशिष्टता सूत्र-वाक्य में समग्र-दृष्टि से मूल्यांकित करते हैं।

अपनी विराट दृष्टि एवं समन्वयकारी आलोचना दृष्टि के कारण नीति-सौन्दर्य, मंगल-सत्य, शास्त्रीयता-स्वच्छन्दता, प्राचीनता-नवीनता, रस-उक्तिवक्रता, भौतिकता-आध्यात्मिकता आदि तत्त्वों में विरोध के स्थान पर सामंजस्य को महत्त्व दिया। प्राचीन कवियों में कबीर, विद्यापति, चण्डीदास, सूरदास और तुलसीदास के महत्त्व को स्वीकार किया। आधुनिक कवियों में रवीन्द्रनाथ, पंत, प्रसाद, महादेवी, निराला के साथ भी न्याय किया। अनुसंधान की दृष्टि से आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी-साहित्य की सभी प्रमुख काव्य-प्रवृत्तियों के मूल स्रोतों को अपभ्रंश साहित्य से निःसृत प्रमाणित किया। सूफी कथा-काव्यों को भारतीय लोक-कथाओं से सुसम्बद्ध किया। दक्षिण के वैष्णव मतवाद को सहज विकास बताया। संत-साहित्य को योगियों और बौद्ध-सिद्धों की वाणियों की परम्परा में रखा। नाथ-संप्रदायऔर कबीरइस दृष्टि से अद्वितीय ग्रंथ हैं।

इस प्रकार ऐतिहासिक-सांस्कृतिक आलोचना में पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम अग्रगण्य है। वे साहित्य को सांस्कृतिक धरातल पर रखकर उसका मूल्यांकन करने के पक्षधर रहे। डॉ. नगेन्द्र का कथन है- जनजीवन की सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं का उद्घाटन करते हुए विवेच्य को समष्टि के साथ सम्बद्ध कर देखना इनकी आलोचना का मूलाधार है। द्विवेदी जी साहित्य का संबंध नवजीवन के साथ मानकर चलते हैं। उनकी समीक्षा का आधार-फलक मानववादी होने के कारण अत्यन्त विस्तृत है और उनका व्यक्तित्व उसको संभालने योग्य पांडित्य, सहानुभूति तथा कल्पना आदि गुणों से संपन्न है।वस्तुतः आचार्य द्विवेदी ने साहित्य को व्यापक सांस्कृतिक-गरिमा के परिप्रेक्ष्य में देखकर वर्तमान की चेतना और भविष्य-निर्माण का हेतु माना।


रचनात्मकता की प्रतिध्वनि 'कृति की राह से'

 

रचनात्मकता की प्रतिध्वनि 

'कृति की राह से'

 ( साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' में..)

 बी. एल. आच्छा हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक एवं समीक्षक हैं। इसी वर्ष प्रकाशित 'कृति की राह से' पुस्तक हिंदी की समकालीन रचनाओं पर केंद्रित समीक्षाओं का संचयन है। गंभीर आलोचकीय मेधा से यह पुस्तक पाठकों को नई दृष्टि प्रदान करती है। इस पुस्तक में कुल चौंतीस कृतियों की समीक्षा है।  भूमिका में लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि उनकी दृष्टि में कृति ही लक्ष्य है, जहाँ विचारधाराओं का कोई आग्रह नहीं है। उन्होंने रचना में निहित वैचारिक सत्व, यथार्थ के बहुआयामी कोण, रचनाकार की वैयक्तिक विशिष्टता और सम्प्रेषणीयता  के स्तर पर नवीनता को तलाशने की कोशिश की है। इससे समीक्षा का आयतन विस्तारित हो गया है।   

    यदि तटस्थता से विचार किया जाये तो लेखन और समीक्षा साहित्य समृद्धि के दो अनिवार्य हेतु हैं।  लेखन में जहाँ रचनाकार का अंतःव्यक्तित्व किसी दृष्टिकोण और भावधारा के साथ प्रकट होता है, तो समीक्षक रचना की सम्प्रेषणीयता को मूल्यांकित करता है। उसका उद्देश्य पाठकों को रचना की अंतर्वस्तु से परिचित कराना, साहित्यिक परिमाप से रचना को मानकता की कसौटी पर परखना और युग-सापेक्षता तय करना है। समर्थ समीक्षक कृति में अन्तर्निहित मूल्य, युगीन परिवेश एवं कलात्मक संरचना को पहचान कर तर्कबद्धता से प्रस्तुत करता है। उसकी दृष्टि एवं विवेकशीलता से रचना की सार्थकता प्रमाणित होती है। इस प्रक्रिया में साहित्यिक मूल्यों के निर्वहन की अपेक्षा सदैव रहती है।

    इस पुस्तक में संकलित समीक्षाओं में हिंदी की लगभग सभी विधाओं को केंद्रित करते हुए विविध विषयों को भी समाहित कर लिया है। इनमें भारतीय सांस्कृतिक अतीत, लोकसाहित्य की पुकार, समकालीन जीवन में मूल्यचराचर जगत में मानवेतर प्राणियों की दुनिया, तीर्थ स्थलों की आध्यात्मिक अनुभूतिप्रवासी सामाजिक जीवन में भारतीय मन, इतिहास और समकाल, साहित्यिक पत्रकारिता की दुनिया, भारतीय-पश्चिमी काव्यशास्त्र के प्रतिमान आदि विभिन्न विधाओं की कृतियों की समीक्षा के माध्यम से रचना के वस्तु और शिल्प का मूल्यांकन किया गया है।

    प्रथम सामीक्ष्य कृति ‘सागलकोट’ विभाजन की अकल्पित त्रासदी, साम्प्रदायिकता के खूनी जुनून और विस्थापन की पीडाओं से गुजरकर भारतीय सांस्कृतिक परिधि और इतिहास को साथ लेकर वर्तमान वैश्विक स्तर पर यह कथाकृति किस तरह से अन्य कृतियों से अलग है, इसका प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। डॉ. हंसादीप के उपन्यास 'कुबेर' और सुधा ओम ढींगरा के कहानी संग्रह 'खिड़कियों से झाँकती आंखें' के माध्यम से प्रवासी सामाजिक जीवन को संवेदना के धरातल पर रेखांकित करते हुए समीक्षक ने प्रवासी भारतीयों के खुरदुरे यथार्थ को प्रकट करते हुए माना है कि इनमें जिन्दगी का गद्य चट्टानों–सा पसरा है, मगर मनोभूमि कविता की संवेदनात्मक लय से टकराती नजर आती है। ‘जिस्मों का तिलिस्म’, ‘अँधेरा उबालना है’, ‘वक्त कहाँ लौट पाता है’ आदि लघुकथा संग्रहों में मानवीय जीवन-संघर्षों और मूल्यों के साथ साहचर्य की तलाश को मूल्यांकित किया है। इसी प्रकार उत्तर आधुनिक जीवन के बदलते समाज मनोविज्ञान को ‘स्टेपल्ड पर्चियाँ’ कहानी संग्रह के मूल्यांकन में पहचाना है।

 अशोक भाटिया के लघु कथा संग्रह ‘अँधेरे में आँख’ की समीक्षा में इसके मूल स्वर को प्रकट करते हुए लिखा कि इनमें निम्न-मध्यमवर्गीय  समाज की पीडाओं, रूढ़ि-बद्धताओं के विरुद्ध प्रतिकार है। ‘माफ़ करना यार’ समीक्षा में कथाकार बलराम का व्यक्तित्त्व एक समकालीन साहित्यिक समाज के नायक के रूप में उभर कर आया है, जहाँ आत्म-व्यंजना की धुरी से युगीन साहित्यिक परिदृश्य की पड़ताल है। ‘सन्नाटे का शोर’ ललित निबंध संग्रह की समीक्षा करते हुए विविध निबंधों में व्यक्त लोक की पीड़ा के बहाने उन्होंने सांस्कृतिक प्रतिबोध को भी उजागर किया है। विवेचना में यह भाव प्रकट हुआ है कि ये ललित-निबंध ‘कोरोना काल’ की भयावह मृत्युलीला की करुणा से जितने द्रवित हैं, उतने ही सांस्कृतिक प्रवाह की जीवनी शक्ति के संबोधक भी।

    पुस्तक में ‘नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे’ यात्रावृत्त की समीक्षा के बहाने भारतीयता का सांस्कृतिक भूगोल चाक्षुष बिम्ब की भांति चित्रित हुआ है, जिसमें जगन्नाथ पुरी, कोणार्क, अयोध्या, उज्जयिनी, वृन्दावन, चित्तौड़, सांवलियाजी आदि तीर्थों की महिमा प्रकट होती है। ‘देखो यह पुरुष’ नाटक में ईसा के व्यक्तित्त्व को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास हुआ है। आचार्य मानतुंग की अमर कृति ‘भक्तामर’ की व्याख्या आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा ‘भक्तामर के अन्तस्तल का स्पर्श’ शीर्षक कृति में की है, जिसकी विवेचना करते हुए समीक्षक ने बताया कि यह व्याख्या आज के विज्ञान, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, सभी दर्शनों, तार्किक-भाविक शैलियों से जोडती है और युगीन परिप्रेक्ष्य में सार्थकता सिद्ध करती है।   

      शिवनारायण के प्रथम गजल-संग्रह ‘झील में चाँद’ का मूल्यांकन करते हुए लिखा कि इसमें दुष्यंत की हिन्दी गजल परम्परा की राह में बढ़ते हुए प्रकृति बिम्बों के नयेपन में सामाजिक परिदृश्यों को संजोया गया है। इसी प्रकार ‘कठपुतलियाँ जाग रही हैं’ काव्य-संग्रह में कविताओं के बहुआयामी रंग और उनकी बुनावट पर गंभीर चर्चा है।  ‘कोणार्क’ काव्यकृति, ‘समकाल के नेपथ्य में’ निबंध, ‘कथा कहे बलराम’ आलोचना, ‘महादेवी का मानवेतर परिवार’ संस्मरण, ‘डॉलर का नोट’, ‘सठियाने की दहलीज पर’, ‘लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन’ आदि   व्यंग्य, गुजराती कहानियों की समीक्षाएँ पाठकों को पुस्तक की गहराई में ले जाती है, जहाँ उसकी पाठकीय संवेदना का आयत्तीकरण हो जाता है और वह रचनाकार के साथ चलने लगता है।

    शीर्षक कृति की मूल संवेदना को उजागर करता है पुस्तक का कलेवर विनय माथुर ने भरपूर भावधारा से तैयार किया है, भूमिका स्वयमेव कवि की आलोचना दृष्टि को प्रकट करती प्रतीत होती है। इससे कृति का महत्त्व बढ़ गया है। इंडिया नेट बुक्स प्रा. लि., नोएडा द्वारा इसे सुन्दर ढंग से प्रकाशित किया गया है और संतोष का विषय है कि कृति का मूल्य पुस्तक के आकार अनुसार है। पुस्तक की समस्त समीक्षाएँ पाठकों के ज्ञानात्मक संवेदन को समृद्ध करने में समर्थ है।


 

पुस्तक  : कृति की राह से

लेखक   : डॉ. बी. एल. आच्छा

आवरण  : विनय माथुर

प्रकाशक  : इंडिया नेट बुक्स प्रा. लि., नोएडापृ.197

मूल्य    : 375/-




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