कामायनी का सामयिक यथार्थ

कामायनी का सामयिक यथार्थ 

(आकाशवाणी चित्तौड़गढ़ से प्रसारित)
                        जयशंकर ‘प्रसाद’ रचित कामायनी हिन्दी जगत् की कालजयी कृति है । इसकी रचना के समय भारतीय जनमानस स्वाधीनता की आकांक्षा के साथ संघर्ष कर रहा था । राष्ट्रप्रेम की धारा में डूबा हुआ सारा देश अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियों के विरूद्ध उठ खड़ा हुआ था । सदियों की दासता से पीड़ित जनता में स्वातंत्र्य चेतना पूरी शक्ति के साथ उद्वेलित हो उठी थी। उस समय भारतीय चिंतन के क्षितिज पर अहिंसा, राष्ट्रप्रेम, सत्याग्रह आदि मूल्य उभर रहे थे । 

                     आज इक्कीसवीं सदी का प्रथम दशक भी व्यतीत हो चुका है। पूरी दुनिया ‘ग्लोबल विलेज’ में विचरण कर रही है । वैश्वीकरण के इस दौर में बाज़ार हमारे जीवन में प्रविष्ट हो चुका है । इस बाज़ार में आचार, विचार, परिधान, जीवन­शैली में परिवर्तन के साथ हमारा सांस्कृतिक तंत्र भी इस व्यवस्था की फाँस में है । मानवीय संदर्भ बदल गए हैं और चुनौतियाँ निरन्तर बढ़ रही हैं । 

                     वर्तमान समय के संदर्भ में कामायनी का अवलोकन करें तो प्रतीत होता है कि समकालीन चुनौतियों के समाधान इस कृति में यत्र­तत्र विद्यमान हैं, जो न केवल सामयिक संदर्भों में उपयोगी हैं, वरन् भविष्य के दिशा सूचक भी हैं । प्रसाद कृत कामायनी कर्मण्यता का संदेश देती है । इसकी प्रथम पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला का शीतल छाँह ।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय­प्रवाह ।।

                     यह प्रलय­प्रवाह मनुष्य की अत्यधिक भोगवादी लालसा से घातक परिणामों की ओर संकेत करता है, जहाँ कवि ने संदेश दिया कि यह प्रवृत्ति महाविनाश की ओर ले जाने वाली है, जहाँ सिवाय ‘आँसुओं’ के कुछ नहीं बचेगा।  आज अहंकार के रथ में जुती हुई आर्थिक साम्राज्यवादी ताकतें उदारवादी अर्थ­व्यवस्था के बहाने मानवता को सामान्य प्राकृतिक अधिकारों से भी वंचित कर रही हैं । यह कृत्य शोषण का नया पर्याय है । इसके दायरे में तो लगभग सम्पूर्ण मानव­समुदाय आ गया है । अर्थ­शक्ति का यह अहंकार पतन की शुरूआत है, जिसका संकेत कामायनी में किया गया-

देव न हम थे और न ये हैं,
सब परिवर्तन के पुतले ।
हाँ कि गर्व­रथ में तुरंग­सा,
जितना जी चाहे जुत ले ।।

                    इस गर्व रथ की परिधि में बौद्धिक जगत भी आ गया है, जो विषमताओं का समाना नहीं करना चाहता । पलायनवादी मानसिकता ने अकर्मण्यता को जन्म दे दिया है, जिसससे मानवता का विकास अवरूद्ध हो रहा है। कामायनी मनुष्य को कर्म की ओर प्रवृत्त करती है, जो वर्तमान समय की नितांत आवश्यकता है । श्रद्धा का यह कथन वर्तमान परिस्थितियों में सार्थक प्रतीत होता है-

काम मंगल से मंडित श्रेय,
सर्ग इच्छा का है परिणाम ।
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल,
बनाते हो असफल भवधाम ।।

                     पदार्थवादी दुनिया, विषमतामूलक समाज और मूल्यहीनता की ओर बढ़ती अपसंस्कृति ने मनुष्य को पंगु बनाया है । उद्दाम लालसाएँ पालने मात्र से जीवन सुखद नहीं होता, बल्कि ज्ञान और क्रिया से सामंजस्य भी स्थापित करना पड़ता है। इसके अभाव में जीवन की पूर्णता संभव नहीं । कोरी बुद्धि अथवा कोरी भावुकता सफलता का हेतु नहीं, बल्कि इनका समन्वय आवश्यक है । कामायनी कार का स्पष्ट संदेश है-

ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की ।
एक दूसरे से न मिल सके,
यह विडम्बना जीवन की ।

                        हमारा सामाजिक जीवन विसंगतियों को शिकार हो गया है । जाति, धर्म, संप्रदाय आधारित विकृत व्यवस्था नई सदी के साथ चल रही है, जिसके मूल में मात्र विद्वेष है । यह विद्वेष ही संघर्ष को जन्म दे रहा है । प्रसाद ने कहा-

द्वयता में लगी निरन्तर ही,
वर्णों की करती रहे सृष्टि ।
अनजान समस्याएँ गढ़तीं,
रचती हैं अपनी ही विनष्टि ।।

                          क्या यह विद्वेष समाप्त नहीं हो सकता? हम आधुनिक मानव एवं विकसित सभ्यता का दंभ पालने वाले ऐसे विश्व का निर्माण नहीं कर सकते, जैसा कामायनी में वर्णित है-

शापित न यहाँ है कोई, तापित पानी न यहाँ हैं ।
जीवन वसुधा समतल है, समरस है जो कि जहाँ है ।

                          यह सच है कि पूँजीवादी व्यामोह में प्रकृति के साथ सर्वाधिक खिलवाड़ हुआ है । भौतिक समृद्धि के साथ विनाश ने आने वाली पीढ़ियों के जीवन को संकट में डाल दिया है । कामायनी का कथानक भी इसी आधार पर बुना गया । वस्तुतः विलास सदैव विनाश की ओर ले जाता है । कामायनी की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

मौन, नाश, विध्वंस, अँधेरा
शून्य बना जो प्रकट अभाव ।
वही सत्य है अरी अमरते,
तुझको यहाँ कहाँ अब छाँव ।।

                          नई सदी में सबसे प्रबल चिंतनपरक विमर्श उभर कर आया है, वह है- नारीवाद । कामायनी नारी के प्रति परम्परागत दृष्टिकोण को बदलने का संदेश देती है । वह उपभोग की वस्तु मात्र नहीं, अपितु प्रेरणा का पावन उत्स है, जो पुरुष को जीवन में प्रवृत्त करती है । पुरुषों की एकाधिकार प्रवृत्ति के प्रति कवि ने सावधान किया है-

तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में,
कुछ सत्ता है नारी की ।
समरसता है संबंध बनी,
अधिकार और अधिकारी भी ।।

                          यह स्पष्ट है कि साहित्यिक कृति कभी अप्रासंगिक नहीं होती । वे समय से आगे का सच कहती हैं । मनुष्य उनकी समय रहते पहचान कर ले तो समस्याएँ नहीं रहतीं । वर्तमान विश्व जब अपने ही बुने हुए जाल में उलझता जा रहा है । तब कामायनी मानवता को उत्कृष्ट बनाने का रास्ता बनाती है । कविवर जयशंकर प्रसाद की यह दृढ़ कामना रही कि मानव सृष्टि चेतना का इतिहास हों, अतीत की गलतियाँ दुहराई न जाए, तब दिव्य विश्व निर्मित होगा। यथा-
चेतना का सुन्दर इतिहास,
अखिल मानव भावों का सत्य ।
विश्व के हृदय­पटल पर दिव्य,
अक्षरों से अंकित हो नित्य ।।

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1 comment:

Unknown said...

So nyc Nd very helpful.

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