आलोचना की सांस्कृतिक व्याख्या का अक्षय-वट : हिन्दी आलोचना कोश

 

पुस्तक समीक्षा

आलोचना की सांस्कृतिक व्याख्या का अक्षय-वट : हिन्दी आलोचना कोश

(शब्दघोष पत्रिका, जयपुर में प्रकाशित)


आलोचना साहित्य की परम्परागत विधा है। यह रचना का समग्र मूल्यांकन कर उसका साहित्य-प्रवाह में स्थान निर्धारित करती है। समग्रता के निर्धारण हेतु साहित्य की व्याख्या करना, सिद्धान्त निर्माण करना, रचना को मानकता की कसौटी पर परखना और युग-सापेक्षता तय करना आलोचना का महत्त्वपूर्ण कार्य है। समर्थ आलोचक कृति में अन्तर्निहित मूल्य, युगीन परिवेश एवं कलात्मक संरचना को पहचान कर तर्कबद्धता से प्रस्तुत करता है। उसकी दृष्टि एवं विवेकशीलता से रचना की सार्थकता प्रमाणित होती है। आलोचना की प्रक्रिया में साहित्यिक मूल्यों के निर्वहन की सदैव अपेक्षा रहती है। हिन्दी आलोचना ने भी समृद्ध परम्परा के साथ लम्बी यात्रा की है।

इक्कीसवीं सदी में हिन्दी आलोचना बहुमुखी धाराओं के साथ आगे बढ़ रही है। रचनागत मूल्यांकन में भारतीय मूल्यों की गहनता प्रकट हो रही है, तो पश्चिमी अवधारणाएँ इसे नया कलेवर दे रही हैं। रचनाओं की विपुल मात्राओं, विविध वैचारिक पक्षों के उदय से आलोचना की गंभीरता बढ़ती जा रही हैं। ऐसे समय में डॉ. हरेराम पाठक जी ने हिन्दी आलोचना कोश के नौ खंडों का संपादन कर हिन्दी के शोधार्थियों एवं आलोचना कर्म में प्रवृत्त स्वतंत्र अध्येताओं को हिन्दी आलोचना के विविध आयामों से तार्किक ढंग से परिचित कराने, आलोचना की प्रक्रिया एवं दिशा से अवगत होने तथा पूर्ववर्ती आलोचकों के समृद्ध योगदान से प्रेरणा ग्रहण करने का अवसर प्रदान किया है।

यह आलोचना कोश डॉ. पाठक जी के एक दशक के सतत एवं गहन परिश्रम का निकष है। आलोचना कोश के इन नौ खण्डों में आलोचकों के जन्मक्रम से 1844 ई. अर्थात बालकृष्ण भट्ट से लेकर 1960 ई. के 155 आलोचकों की आलोचकीय दृष्टि की गहन पड़ताल है। इन आलोचकों की आलोचना दृष्टि पर देश भर के समकालीन लेखकों से आलेखों का लेखन करवाना, लेखन की आंतरिक त्वरा में समानधर्मिता को बनाए रखना तथा वैचारिक आग्रहों से परे आलोचना दृष्टि की सांस्कृतिक व्याख्या का उद्देश्य पूर्ण करने में डॉ. पाठक की साधना विस्मित करती है। परिणामस्वरूप डॉ. पाठक ने लगभग एक शताब्दी के आलोचना इतिहास और उसकी प्रवृत्तियों को एक साथ संकलित कर एवं उसे प्रकाश में लाकर हिंदी जगत के लिए विलक्षण कार्य किया  है।

वस्तुतः साहित्य की संस्कृति विभिन्न खेमों में बँटी हुई नहीं होती है। उसकी एक धारा होती है, जिसकी अंतरधारा मानवता से जुड़ी रहती है। आलोचना की यह संस्कृति बालकृष्ण भट्ट, भारतेन्दु, श्यामसुन्दरदास, मिश्रबंधु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध एवं नामवर जी के बरास्ते चलकर यहाँ तक आयी है। डॉ. पाठक का मन्तव्य है कि उस पर हम इसलिए गर्व करते हैं क्योंकि इससे हमें सांस्कृतिक आधार एवं 'सत्यं वद्, धर्मं चर' का आचरण प्राप्त होता है।

संपादक महोदय का मत है कि आलोचना साहित्य की विभिन्न विधाओं का मुखिया है। अतः उसके ऊपर दायित्व भी गुरुतर है। आलोचक की संस्कृति विवेक से जन्म लेती है, विवेक संवेदनाओं की पकड़ से जन्म लेता है। ऐसी संवेदना जो ज्ञानात्मक हो। ज्ञानहीन संवेदना न विवेक पैदा करेगी, न उससे आलोचक की संस्कृति ही निर्मित हो पायेगी। आलोचना की संस्कृति अंततः आलोचक के गुणों को ही रेखांकित करती है। इस दृष्टि से यह कोश हिन्दी आलोचना की सांस्कृतिक व्याख्या का स्वयमेव अक्षय-वट है। पुस्तक को मूर्त रूप प्रदान करने में अनेक लेखकों का रचना कर्म प्रणम्य है। साथ ही सर्व भाषा ट्रस्ट द्वारा आकर्षक कलेवर में त्रुटि रहित मुद्रण और समुचित मूल्य पर प्रकाशित यह कोश विद्यार्थियों, अध्यापकों एवं स्वतंत्र अध्येताओं के लिए श्रेयस्कर होगा, ऐसा विश्वास है।





पुस्तक   : हिन्दी आलोचना कोश (खंड:1-9)
संपादक  : डॉ. हरेराम पाठक
संस्करण : प्रथम संस्करण, 2024
प्रकाशक : सर्वभाषा ट्रस्ट, उत्तम नगर, नई दिल्ली-59, 
 मूल्य   :  प्रति खंड-499/- (अजिल्द), 999/- (सजिल्द)

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‘कोरोना का कहर’ और त्रास में मनुष्यता

 ‘कोरोना का कहर’ और त्रास में मनुष्यता

('मधुमती' अंक अप्रैल-मई, २०२४ में प्रकाशित)

कोरोना काल' हमारी स्मृतियों में इस समय का सर्वाधिक त्रासदीमूलक काल-खण्ड है। एक ऐसा काल-खण्ड, जिसने न केवल भारत, अपितु वैश्विक महाशक्तियों को अपने कहर से स्तब्ध कर दिया। एक बार तो ऐसा लगा कि मृत्यु की विभीषिका हर दरवाजे पर आकर अट्टहास कर रही हो, जहाँ महाप्रलय सुनिश्चित है। अपने ही स्व-जनों की लाशों को कंधा न दे पाना, अंतिम संस्कार भी न हो पाना, पल भर में जीवन का समाप्त हो जाना और असहाय स्थिति में आपदा के टलने का इंतजार करना नियति बनकर रह गया। नर्सिंगकर्मी किशनलाल वर्मा जो स्वयं संवेदनशील रचनाकार रहे हैं और महामारियों के वैश्विक इतिहास से परिचित हैं, उन्होंने ‘कोरोना का कहर’ पुस्तक के माध्यम से मनुष्य-जाति पर आए इस संकट का हृदय-विदारक चित्रण किया है। पुस्तक में आत्म की अभिव्यक्ति के साथ कविता का संवेदना तत्त्व संपूर्ण जगत से जुड़ता है। सारी जटिलताओं के होते हुए भी कविता हमारी संवेदना के निकट होती है, यही राग तत्त्व है। इससे कवि की पीड़ा साधारणीकृत हो जाती है और जगत की पीड़ा उसकी वाणी बन जाती है।

सोलह खंडों में रचित पुस्तक का कलेवर ‘खंडकाव्य’ की भाँति है। इसके वर्ण्य-विषय में कोरोना का उद्गम, लक्षण, प्रसार, प्रभाव एवं परिणाम के साथ-साथ मानवीय व्यथा को उद्घाटित किया गया है, जहाँ मनुष्य के हाथ केवल बेबसी है। रचनाकार ने इस पुस्तक के माध्यम से अपनी संवेदनाओं को गीतिकाव्य से विस्तार देकर मार्मिक प्रस्तुति दी है। काव्य के प्रारंभ में कोरोना वायरस का उद्गम और इसकी प्रकृति की भयावहता की ओर संकेत करते हुए लिखा कि केवल छूने मात्र से यह रोग फैल रहा था और प्राणों को संकट में डाल रहा था- मानव से मानव में विचरण, इस वायरस के मिले प्रमाण।/चले हवा से बातें करते, छूने भर से संकट में प्राण।।

इसकी भयावहता का वर्णन करते हुए वह कहते हैं कि आरंभ में सर्दी-जुकाम, फिर खांसी, उसके बाद श्वास लेने में तकलीफ और देखते-देखते फेफड़े जाम हो जाना, उसके बाद रक्तचाप का कम होना, कोई दवा-उपचार न होना और मृत्यु का निकट आना आदि दृश्य विचलित करते हैं। कवि ने इसे ‘निशाचरी काया’ कहकर संबोधित किया-चमगादड़ का यह वंशज है, निशाचरी इसकी माया।/ मानव का भक्षण करने वाली है निशाचरी काया।। कोरोना के भीषण प्रवाह ने दुनिया की सारी दिशाओं को दहला दिया। वैश्विक ताकतें भी असहाय होकर ईश्वर के सामने नतमस्तक हो गईं। यहाँ कवि कोरोना के कहर को एक वैश्विक परिघटना के रूप में तो देखता ही है, उससे भी अधिक अपने आसपास घटी घटनाओं की स्थिति का रेखांकन करते हुए हमारे साथ बीती त्रासदी को  इन शब्दों में व्यक्त करता है-एम्बुलेंस के पीछे पीछे पुलिस का दस्ता आया था।/बल्ली बांस रस्सियां नगर निगम का बन्दा लाया था।।/कोरोना का ठप्पा घर के दरवाजे पर चस्पाया था।।/गली हो गई सील बल्लियों का अवरोध लगाया था।।

इस त्रासदी में कवि ने अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, पड़ौसियों और की युवा चेहरों को खोया। उनकी स्मृतियों में वह द्रवित होकर चीत्कार उठता है। कोटा के साहित्यकार राधेश्याम मेहर और उनके युवा पुत्र की मृत्यु पर क्वारंटाइन के नाम पर अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाना आदि संयोगों को वर्णित कर हमारी सोई हुई स्मृतियों को जागा दिया। सभी साहित्यिक मित्रों के दुःख को व्यक्त करते हुए लिखा कि- निर्मोही, आनन्द, राजेन्द्र, परमानन्द, विजय विचलित।/ कर न सके अन्तिम दर्शन अस्पताल में हम विलज्जित ।।

वस्तुतः कोरोना के कहर के बहाने कवि ने उन बाजारवादी शक्तियों को बेनकाब किया है जो प्रकृति का नाश कर रहे हैं और उपभोग की पराकाष्ठा में मानवता के विनाश की दहलीज पर खड़ा कर दिया है। कवि ने स्पष्ट किया है कि कथित बड़े राष्ट्रों ने मानवता को बाजार में बेच दिया है, इस कारण ऐसे दृश्य उपस्थित होते हैं। फिर भी उसे विश्वास है कि अंततः मनुष्यता की ही विजय होगी। समग्रतः कवि ने युगानुकूल परिदृश्य को अपनी कविता में बखूबी उकेरा है। उसका समय मानवता और दानवता की संक्रमणकालीन परिस्थितियों का साक्षी है, जिसकी पहचान उसने कर ली है। भूमंडलीकरण के फलस्वरूप बदलते परिवेश को उसने बखूबी व्यक्त किया और उसके भावी दुष्परिणामों का संकेत कर कवि-समय का निर्वाह किया है।

पुस्तक की भाषा में सहजता है। साहित्यिक प्रतिमानों का निर्वाह नहीं के बराबर है, परंतु संवेदना का धरातल गहरा है। लयात्मक गीतिबद्धता से पीड़ा का उद्घाटन मर्मस्पर्शी ढंग से हहुआ है। पुस्तक की भूमिका में ही कथ्य को स्पष्ट किया गया है, जिससे पाठकों को रचना के मर्म को समझने में मदद मिली है। आवरण शीर्षक के अनुरूप है। ओम पब्लिशिंग कंपनी, दिल्ली से प्रकाशित यह कृति सुधी पाठकों को अवश्य उद्वेलित करेगी ऐसा विश्वास है।


समीक्षक: डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी

खंडकाव्य: कोरोना का कहर

रचनाकार: किशनलाल वर्मा

प्रकाशक: ओम पब्लिशिंग कंपनी, दिल्ली-32

पृष्ठ: 119, आमंत्रण मूल्य: ₹ 295/-,





फ़ादर डॉ. कामिल बुल्के की दृष्टि में रामचरित मानस की सार्वकालिकता

 


फ़ादर डॉ. कामिल बुल्के की दृष्टि में रामचरित मानस की सार्वकालिकता

(गगनांचल, जनवरी-अप्रैल,२०२४ में प्रकाशित)

यह एक विलक्षण संयोग है कि लॉर्ड मैकाले के भारत आने के ठीक एक सौ वर्ष बाद 1935 में फ़ादर डॉ. कामिल बुल्के मिशनरी काम से भारत आए और सनातन संस्कृति के प्रस्थान बिंदुओं की खोज करते-करते रामत्व के आकर्षण में बंध गए। लंबे समय तक फादर बुल्के के संपर्क में रहने वाले डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के शब्दों में, “फादर बुल्के उन विदेशी संन्यासियों में थे, जो भारत आकर भारतीय से अधिक भारतीय हो गए थे. उन्होंने यहाँ की जनता के जीवन से अपने को एकाकार कर लिया था। उन्हें देखकर कोई भी व्यक्ति यह अनुभव कर सकता था कि संन्यास का अर्थ जीवन और जगत का निषेध न होकर स्वत्व का निषेध है और स्व का ऐसा विस्तार, जिसमें पूरी दुनिया के लिए ममत्व भरा हुआ है।”1  बुल्के का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट म्युनिसिपैलिटी के एक गाँव रम्सकपेल में 1909 में हुआ था। उन्होंने लूवेन विश्वविद्यालय, लिस्सेवेगे से सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री ली और उसके बाद 1930 में जेसुइट बन गए। बाद में जेसुइट सेमिनरी से लैटिन भाषा पढ़ने के बाद ब्रदर बने बुल्के ने अपना जीवन एक संन्यासी के रूप में बिताने निश्चय किया और कई महत्त्वपूर्ण संस्थाओं में अध्ययन करने के बाद 1935 में भारत आ गए। यहाँ उन्होंने विज्ञान के अध्यापक के रूप में सेंट जोसेफ कॉलेज, दार्जीलिंग में और येसु संघियों के मुख्य निवास स्थान मनरेसा हाउस, रांची में अपना प्रवास किया। 1944 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया और उसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1947 में हिन्दी में एम.ए. और 1950 में डॉक्टोरेट करने के उपरांत 1951 में उन्होंने भारत की नागरिकता ग्रहण की।

उनके द्वारा रचित पुस्तकों की संख्या 29 है। जिसमें प्रमुख हैं, ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’, ‘हिंदी-अंगरेजी लघुकोश’,  ‘अंगरेजी-हिंदी कोश’, ‘रामकथा और तुलसीदास’, ‘मानस–कौमुदी’, ‘ईसा जीवन और दर्शन’, ‘एक ईसाई की आस्था’, ‘मुक्तिदाता’, ‘नया विधान’, ‘नीलपक्षी’ आदि। इसके अलावा भी उनके सैकड़ों शोध-निबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। वे ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’, ‘काशी नागरी प्रचिरिणी सभा’ और ‘बेल्जियन रॉएल अकादमी’ के सम्मानित सदस्य थे। निस्संदेह डॉ. फादर कामिल बुल्के ने भारत और पश्चिमी जगत को भावात्मक रूप से जोड़ने का महत्त्वपूर्ण  कार्य किया। भारत सरकार ने साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके योगदान के लिए उन्हें 1974 में  पद्मभूषण से सम्मानित किया।

डॉ. फादर बुल्के का शोध-प्रबंध हिन्दी माध्यम में प्रस्तुत हिन्दी विषय का पहला शोध-प्रबंध भी है। जिस समय फादर बुल्के इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय विश्वविद्यालय के सभी विषयों के शोध-प्रबंध केवल अंग्रेजी में ही प्रस्तुत करने का विधान था। फादर बुल्के के लिए अंग्रेजी में शोध-प्रबंध प्रस्तुत करना सरल भी था, किन्तु यह बात उनके हिन्दी स्वाभिमान के विपरीत थी। उन्होंने आग्रह किया कि उन्हे हिन्दी में शोध-प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान की जाय। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. अमरनाथ झा ने उनके आग्रह पर शोध-संबंधी नियमावली में संशोधन कराया और उन्हें अनुमति दी। शोध-प्रबंध का शीर्षक था- रामकथा: उत्पति और विकास’। इसमें संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, बंगला, तमिल आदि सभी प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध रामविषयक विपुल साहित्य का ही नहीं, वरन् तिब्बती, वर्मी, इंडोनेशियाई, थाई आदि भाषाओं में उपलब्ध समस्त राम साहित्य का अत्यंत वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया गया है। अपना शोध-प्रबंध जमा करने के बाद भी डॉ. बुल्के इसी विषय पर अगले 18 वर्ष तक काम करते रहे। उनकी इस कृति के बारे में उनके गुरु डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा कि इसे रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है। वास्तव में यह शोध-प्रबंध अपने ढंग की पहली रचना है। हिन्दी क्या, किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में इस प्रकार का दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है। हिन्दी परिषद, इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने स्वयं इसे प्रकाशित करके इसकी गुणवत्ता पर मुहर लगा दी।

फादर कामिल बुल्के के रचना क्षेत्रों को चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- रामकथा,कोश, अनुवाद और धर्म दर्शन। रामकथा उनकी कीर्ति का विशेष आधार रहा है। 'रामकथा: उत्पत्ति और विकास' नामक ग्रंथ के तीन संस्करण प्रकाशित हुए और उनके देहावसान पश्चात चौथे संस्करण की पांडुलिपि में कुछ प्रविष्टियाँ समाविष्ट हुईं। रामकथा को भारत की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में रेखांकित करते हुए अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मेलन, कानपुर 1967 का उद्घाटन भाषण में डॉ. बुल्के ने कहा, “वास्तव में रामकथा आदर्श जीवन का वह दर्पण है, जिसे भारतीय प्रतिभा शताब्दियों तक परिष्कृत करती रही। इस प्रकार रामकथा भारतीय आदर्शवाद का उज्ज्वलतम प्रतीक बन गई है। भारतीय संस्कृति में विचारों की उदारता, स्वतंत्रता, तथा निर्भीक जिज्ञासा के विशेष लक्षण हैं। इतिहास इसका साक्षी है कि भारत में नई धार्मिक तथा दार्शनिक विचारधाराएं बराबर उत्पन्न होती रही और नए विचारों का स्वागत होता रहा। अतीत के भंडार से किसी कार्य विशेष के कुछ ही सिद्धांत निकाल कर उन्हें भारतीयता की एकमात्र प्रतिनिधिक उपलब्धि ठहराना, भारत की शताब्दियों तक निरंतर आगे बढ़ती हुई  उदार संस्कृति के प्रति घोर अन्याय ही है। .... वाल्मीकि ने जिस भारत का चित्रण किया है वह अपना अतीत गौरव से मोहित होकर निष्क्रिय नहीं बन गया था, वरन हृदय में  जीवन के प्रति उत्साह भरकर अग्रसर होता रहा था।“2

रामकथा उनके जीवन का प्रमुख केंद्र रही, किंतु इस कथा के प्रति उनका आकर्षण सबसे पहले तुलसीदास के कारण उत्पन्न हुआ। जिनकी कुछ पंक्तियाँ पढ़कर वह अभिभूत हो उठे थे। उनका कथन है, "क्या मुझे उस समय अदृष्ट का संकेत मिल रहा था कि मैं उस कवि के देश में जाकर बस जाऊंगा, उसकी रचना से मोहित होकर उसके साहित्य का विशेष अध्ययन करूंगा, उसी काव्य के कथानक पर अनुसंधान करुंगा?"3 तुलसीदास कामिल बुल्के के सबसे प्रिय कवि और उनकी धर्म साधना के प्रेरक आदर्श थे । उनके निकटतम अधिकतर विद्वान लोगों को उनके जैसे प्रखर बुद्धि की धर्म निष्ठा और एक विदेशी के हिंदी प्रेम की तरह समर्पित ईसाई सन्यासी की तुलसी भक्ति बहुत  आश्चर्यजनक लगती थी। उनसे कई बार प्रश्न भी किया करते थे। उन्होंने इसका समाधान देते हुए कहा, “जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूँ तो मुझे लगता है कि ईसा, हिंदी और तुलसीदास यह वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और मेरे लिए उन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं, बल्कि गहरा संबंध है।“4  प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन नागपुर के अवसर पर पवनार आश्रम, वर्धा में 14 जनवरी,1975 को तुलसी की प्रतिमा का अनावरण करते हुए बुल्के ने कहा था, "तुलसी ने कहा है, सब ही नचावत राम गोसाईं, किंतु मैं कहता हूँ- मोहि नचावत तुलसी गोसाईं। प्रत्येक वर्ष तुलसी का संदेश सुनाने के लिए मैं बहुत दौड़ा करता हूँ।“5  अपनी तुलसी भक्ति के बारे में उन्होंने लिखा है,1938 में मैने ‘रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका’ को प्रथम बार आद्योपान्त पढ़ा। उस समय तुलसीदास के प्रति मेरे हृदय में जो श्रद्धा उत्पन्न हुई और बाद में बराबर बढ़ती गई, वह भावुकता मात्र नहीं है. साहित्य तथा धार्मिकता के विषय में मेरी धारणाओं से इस श्रद्धा का गहरा संबंध है।”6  वे तुलसीदास को केवल विश्व के महानतम कवियों में एक ही नहीं मानते थे, वरन उनकी भगवत भक्ति को मानव मात्र के लिए आदर्श मानते थे। यद्यपि तुलसी पर एक विस्तृत ग्रंथ लिखने का उनका सपना पूरा नहीं हो सका, लेकिन उनके निबंधों तथा 'रामकथा और तुलसीदास' तथा मानस-कौमुदी' नामक पुस्तक से उनकी तुलसी संबंधित दृष्टि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

 

डॉ. बुल्के रामकथा के ऐतिहासिक विकास को तीन सोपानों में विभाजित करते हैं और यह कहते हैं कि तुलसी की रामकथा इसके तीसरे सोपान का प्रतिनिधित्व करती है। उनके अनुसार राम कथा के विकास का पहला सोपान है-वाल्मीकि द्वारा अंकित आदर्श क्षत्रिय मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र तथा दूसरा सोपान राम का विष्णु के अवतार के रूप में परिवर्तन है और तीसरा सोपान रामभक्ति है। इस चरण में राम को न केवल विष्णु का अवतार माना गया, बल्कि स्वयं परब्रह्म का अवतार निरूपित किया गया। रामचरितमानस का संबंध रामकथा के विकास के सोपान से है। फादर कामिल बुल्के की दृष्टि में तुलसी की राम कथा मात्र परंपरा का अनुसरण नहीं है, बल्कि उसे अपनी परिकल्पना के अनुसार कभी स्वीकार करते, कहीं छोड़ते और कहीं बदल देते हैं। लेकिन वे यह सब कथानक के परंपरागत ढांचे के अंतर्गत इतनी सहजता से करते हैं कि उनकी मौलिकता पर कोई असहमति नहीं दिखती। इस संबंध में उनका अभिमत है, "तुलसी उन विभिन्न कथाओं-वाल्मीकि, अध्यात्म रामायण, महानाटक, प्रसन्न राघव आदि से प्रसंग चुनकर अपने रामचरित की रचना करते हैं।"7  इसीलिए तुलसी की राम कथा में यदि परंपरा से भिन्नता मिलती है तो इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि यह कोई एक कथा ना होकर असंख्य कथाओं का समूह है । उन्होंने तुलसी की रामकथा के विशेष ढांचे या रूप विधान के तीन कारण बताए हैं- पहला कारण कवि इसके माध्यम से राम के परमब्रह्मत्व को स्थापित करना चाहते हैं, दूसरा कारण इसके माध्यम से  वे भक्ति का निरूपण करना चाहते हैं और तीसरा कारण यह कि वे अपने समकालीन एवं पूर्ववर्ती राम साहित्य में बढ़ते हुए शृंगारिकता से इसे पूर्णता मुक्त कर मर्यादित और नैतिक स्वरूप देना चाहते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि किस प्रकार तुलसी की रामकथा परंपरा के सर्वोत्तम का संरक्षण करने और उसे निरंतरता प्रदान करने वाली प्रतिनिधि रचना है। वे लिखते हैं, "नैतिक आदर्शों के चित्रण द्वारा लोक संग्रह का भाव और भगवदभक्ति, राम कथा परंपरा के इन दोनों तत्वों का अपूर्व समन्वय तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में प्रस्तुत किया है।“8  

वस्तुतः वाल्मीकि के परवर्ती रामकाव्य के कवियों में तुलसी का स्थान अद्वितीय है। उन्होंने वाल्मीकि और लोकसंग्रह का पूरा-पूरा निर्वाह किया है और उस रामकथा के सोने में भगवद्भक्ति की सुगंध जगा दी है। तुलसीदास ने भगवद्भक्ति के विषय में जो संदेश दिया है, वह वाल्मीकि के नैतिक आदर्श की भांति विश्वजनीन है। इष्टदेव के प्रति अनन्य आत्म-समर्पण के साथ- साथ अपने दैन्य की तीव्र अनुभूति तुलसी की भगवद्भक्ति की प्रमुख विशेषता है। उन्होंने कहीं भी कर्मकाँड पर बल नहीं दिया, कहीं भी मन्दिर में होने वाली पूजा के लिए अनुरोध नहीं किया। भक्तिमार्ग की नींव नैतिकता है और अपनी उक्त प्रमुख विशेषता के कारण वह सब संप्रदायों के ऊपर उठकर मानव मात्र के लिए उपयुक्त है।”9  तुलसी ने वाल्मीकि रचित रामकथा के आदर्शवाद और भक्ति रूप बनाए रखा। वस्तुतः वाल्मीकि की राम कथा में 2000 वर्षों तक होते रहने वाले परिवर्तनों और परिवर्धनों के बावजूद उसका लोक संग्रह और आदर्शवादी स्वभाव अक्षुण्ण रहा। परंतु सखी संप्रदाय के माध्यम से जब इस कथा में शृंगारिकता का समावेश होने लगा और उसके बाद काव्य के नाम पर ऐसी रचनाएं लोकप्रिय भी हो गई, जिनमें नायक-नायिकाओं के प्रेम प्रसंगों का वर्णन मिलता था। तब तुलसी ने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से इस प्रवृत्ति का विरोध किया। वह एक ऐसे कवि का स्वरूप चाहते थे जो जीवन के सात्विक लक्षणों से प्रेरित हो।

रामचरितमानस में राम के नैतिक और लोक संग्रह ही चरित्र की अभिव्यक्ति अत्यधिक मार्मिक ढंग से हुई है। इस दृष्टि से यह अद्वितीय कृति है। किंतु जब तुलसी भक्ति पर अपने विचार को प्रकट करते हैं तो उन्हें यह ईश्वर तक पहुंचने का श्रेष्ठतम मार्ग दिखाई देता है। डॉ. बुल्के का मत है कि यहाँ  उनका पूर्ववर्ती रामकथा परंपरा से भेद हो जाता है। यह बात 'अध्यात्म रामायण' से उनके भक्ति संबंधी दृष्टिकोण की तुलना करने पर और भी स्पष्ट हो जाती है। अध्यात्म रामायण में भक्ति को ज्ञान का साधन मात्र माना गया है। मोक्ष ज्ञान द्वारा ही संभव है और ज्ञान की अनिवार्य शर्त सन्यास और वैराग्य है, लेकिन इसके ठीक विपरीत तुलसी यह कहते हैं कि ज्ञान मार्ग अत्यंत कठिन है। यह मार्ग मनुष्य के चित्त को भीतर से बदलने में असमर्थ है। सबसे श्रेष्ठ है-भक्ति। क्योंकि यह मनुष्य को भीतर से धोकर पवित्र करती है और बड़ी सरलता से प्रभु तक ले जाती है। तुलसी ने इसे सर्व सुलभ मार्ग बताया और इसे राजमार्ग भी कहा, जिस पर चलने का अधिकार सब मनुष्यों को है। तुलसी मर्यादा को भक्ति का आवश्यक आधार मानते हैं। उनके अनुसार भक्ति का सामाजिक कर्तव्यों के पालन और सदाचरण से विच्छेद संबंध है। उनके  रामचरितमानस और अन्य रचनाओं में भक्ति का जो स्वरूप व्यक्त हुआ है, उससे  स्पष्ट है कि "संत गोस्वामी तुलसीदास ने भक्ति का जो सिक्का चलाया, उसके दो पहलू हैं- एक भगवत भक्ति और दूसरा नैतिकता।"10

      फादर बुल्के को तुलसी की भक्ति में जो एक विशेषता विशेष रूप से आकर्षित करती है वह है-परहित भावना। आचार्य शुक्ल ने इसे 'लोकमंगल' के रूप में निरूपित किया, लेकिन कामिल बुल्के इस दृष्टिकोण को तुलसी की महत्त्वपूर्ण  उपलब्धि मानते हैं। उनकी दृष्टि में यह महाकवि तुलसी की मौलिकता है, जिसमें मनुष्य की सेवा महत्त्वपूर्ण  है। तुलसी का प्रभु-भक्त न केवल नैतिक आचरण करने वाला और परहित निरत व्यक्ति है, बल्कि वह प्रपत्ति और आत्मदैन्य भवापन्न व्यक्ति भी है। वह पूरी श्रद्धा से भगवान का विधान स्वीकार करता है और भरत की तरह यह मानता है कि प्रभु की आज्ञा के पालन से बढ़कर उसकी और कोई सेवा नहीं है। ईश्वर के विधान के प्रति पूर्ण समर्पण और पाप-बोध तुलसी की भक्ति की ये विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं।

लेखक केदारनाथ सिंह ने कहा कि हिंदी में तुलनात्मक साहित्य और भारत एवं अन्य जगहों पर राम कथा का तुलनात्मक अध्ययन फादर बुल्के के शोध कार्य ‘राम कथा’ से शुरू हुआ। हिंदी को जो विशिष्ट बनाता है वह यह है कि इसके जैसा कोई अन्य अध्ययन किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में मौजूद नहीं है। हिंदी पट्टी में इस प्रमुख मुद्दे की इस तरह की गहन जांच कई धार्मिक और राजनीतिक भ्रांतियों को दूर करती है और विद्वानों को एक दिशा प्रदान करती है। कामिल बुल्के की दृष्टि में रामचरितमानस की प्रासंगिकता सार्वकालिक है। उसके दो बड़े कारण हैं- उनकी भक्ति और कवित्व। उनकी भक्ति केवल वर्णाश्रम धर्म तक सीमित न होकर विश्वजनीन है। उनके काव्य का आधारभूत ढाँचा पौराणिक है। उनकी युग के धार्मिक विश्वास और सामाजिक व्यवस्था दोनों परंपरागत हैं, लेकिन उनकी युगीन सीमाएँ उनके मूल्यांकन की एकमात्र कसौटी नहीं है। वह मानव मात्र को समान निरूपित करने वाले और जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर प्रत्येक मनुष्य की सेवा को परम धर्म मानने वाले 'परहित' को अपने विचार व्यवस्था में जो महत्त्व देते हैं, वह इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। उनके इस मानव समतावाद का स्रोत उनकी भक्ति ही है। लेकिन इसके समांतर उनके मानस की प्रासंगिकता का रहस्य उनका कालजयी कवित्व है।


संदर्भ ग्रंथ-

1.   हिन्दी चेतना, फ़ादर कामिल बुल्के विशेषांक, हिन्दी प्रचारिणी सभा, केनेडा, जुलाई 2009, पृष्ठ-19

2.   वही, पृष्ठ-42

3.   फ़ादर कामिल बुल्के, विनिबंध, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, सं. 2002, पृष्ठ-21

4.   एक ईसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी भक्ति, धर्मयुग, 27 दिसंबर, 1970

5.   फ़ादर कामिल बुल्के, विनिबंध, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, सं. 2002,  पृष्ठ-15

6.   हिन्दी चेतना, फ़ादर कामिल बुल्के विशेषांक,हिन्दी प्रचारिणी सभा, केनेडा, जुलाई 2009, पृष्ठ-34

7.   फ़ादर कामिल बुल्के, विनिबंध, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, सं. 2002, पृष्ठ-63

8.   वही, पृष्ठ-64

9.   हिन्दी चेतना, फ़ादर कामिल बुल्के विशेषांक, हिन्दी प्रचारिणी सभा, केनेडा, जुलाई 2009, पृष्ठ-32

10. रामकथा और तुलसीदास, फ़ादर कामिल बुल्के, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, सं. 2008, पृष्ठ-75

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ऐतिहासिक आलोचना में सांस्कृतिक बोध (सन्दर्भ: हजारी प्रसाद द्विवेदी)

 

आलेख

ऐतिहासिक आलोचना में सांस्कृतिक बोध

(सन्दर्भ: हजारी प्रसाद द्विवेदी)

साहित्य परिक्रमा के अक्टूबर-दिसंबर,2024 में प्रकाशित



साहित्यकार की रचना अपने युग से प्रभावित होती है। अतः आलोचक तत्कालीन परिस्थितियों का विश्लेषण कर उनकी पृष्ठभूमि में कृति का परीक्षण करता है। यह ऐतिहासिक आलोचना की श्रेणी में आता है। इसमें आलोचक साहित्य को समाज का प्रतिबिम्ब मानते हुए उन तत्त्वों की खोज करता है, जिससे आलोच्य कृति सृजित हुई है। इस पद्धति द्वारा आलोच्य-कृति का मूल्यांकन इतिहास एवं संस्कृति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में किया जाता है। वर्तमान की किसी गंभीर समस्या का समाधान अतीत की महान् ऐतिहासिक घटना में ढूँढने का प्रयास होता है। इसके लिए किसी युग-विशेष के साहित्य को समझना अपेक्षित होता है, जिसके लिए समूची ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परम्परा का अनुशीलन आवश्यक है।

ऐतिहासिक आलोचना में इस तथ्य पर विचार किया जाता है कि किसी रचना ने युग के साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्थान पर अपना प्रभाव किस सीमा तक डाला है। इस प्रभाव के आधार पर ही कृति की श्रेष्ठता और निम्नता का निर्धारण किया जाता है। इसमें आलोचक का मुख्य ध्येय युग की आत्मा को समझना होता है। इस हेतु वह युगीन वातावरण और देशकाल का पूर्ण विवरण सामने रखक आलोचना-प्रक्रिया में संलग्न होता है।

आचार्य शुक्ल के बाद पं.हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी नवीन एवं मौलिक दृष्टि से हिन्दी आलोचना को नई दिशा दी। उनका दृष्टिकोण उदार, सहिष्णु और मानववादी सांस्कृतिक बोध पर आधारित है। उन्होंने जहाँ साहित्य के इतिहास-लेखन के आदर्श को आगे बढ़ाया, वहीं आलोचक के रूप में साहित्य के मूल्यांकन में मानवतावादी भूमि की प्रतिष्ठा की है। पं.द्विवेदी का अभिमत है- मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को पर दुखकातर और संवदेनशील न बना सके; उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के द्वारा रचित हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘हिन्दी साहित्य का आदिकालतथा हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकासप्रसिद्ध साहित्येतिहास ग्रंथ हैं। सूर साहित्य’, ‘कबीर’, ‘नाथ संप्रदाय’, ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य पर विचार’, ‘साहित्य का मर्म’, ‘लालित्य मीमांसा’, ‘साहित्य सहचरआदि महत्त्वपूर्ण आलोचना ग्रंथ हैं। इसके अतिरिक्त कालिदास की लालित्य योजना’, ‘मृत्यंजय रवीन्द्रतथा मध्यकालीन बोध का स्वरूपभी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी यद्यपि शुक्ल की परम्परा के आलोचक हैं, परन्तु अपने मानवतावादी दृष्टिकोण और ऐतिहासिक पद्धति का अनुसरण करने के कारण उनका अपना महत्त्व है। उन्होंने साहित्य को सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जोड़ते हुए मनुष्यता को साहित्य और रस का पर्याय माना। कबीर के भाषागत वैशिष्ट्य को उजागर करके हिन्दी जगत् में कबीरको पुनः मूल्यांकित किया। इसके अतिरिक्त सूर-तुलसी-प्रेमचंद का आकलन मानवतावादी दृष्टि से करना महत्त्वपूर्ण है।

आचार्य द्विवेदी ने साहित्य को मनुष्य-सत्य के संदर्भ में देखा है और मनुष्य को ही साहित्य का लक्ष्य स्वीकार किया है। साहित्य सहचरमें उन्होंने लिखा- साहित्य मानव-जीवन से सीधा उत्पन्न होकर सीधे मानव-जीवन को प्रभावित करता है। साहित्य में उन सारी बातों का जीवन्त विवरण होता है, जिसे मनुष्य ने देखा है, अनुभव किया है, सोचा है व समझा है।इस प्रकार उन्होंने साहित्य के इतिहास को मनुष्य-जीवन के अखंड प्रवाह का इतिहास माना है। उन्होंने सारे काव्य, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान, कला, दर्शन के मूल में मानवीय चेतना को लक्षित किया है। वे मानते हैं कि मानवीय चेतना भाव और तथ्य के किनारों को स्पर्श करती हुई प्रवाहित होती है। जब वह भावको स्पर्श करती है तब काव्य और कला की सृष्टि होती है और जब यह तथ्य को स्पर्श करती है तो दर्शन और विज्ञान का विकास होता है।

पं.हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को भारतीय चिन्तन की अविच्छिन्न परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण शृंखला मानकर उसकी भूमिका प्रस्तुत की। उन्होंने इतिहास को जन-चेतना का प्रवाह माना और हिन्दी-साहित्य को संपूर्ण भारतीय साहित्य के संदर्भ में देखने का प्रस्ताव किया। डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने इस संदर्भ में लिखा- द्विवेदी जी ने इतिहास के भीतर से उस चेतना को ग्रहण करने की चेष्टा की है जो मानवीय जीवन की अक्षय धारा का शक्ति-स्रोत है और जिसके आधार पर आज के साहित्य-भवन का भव्य आकार परिकल्पित हो सकता है।

हिन्दी साहित्य की भूमिकामें भक्तिकालके उदय के कारणों में आचार्य शुक्ल की मान्यता का खंडन करते हुए कहा कि भक्ति काव्य निराश और हताश पौरुष का काव्य नहीं है।........ यदि मुसलमान नहीं भी आये होते तो भक्तिकाव्य का बारह आना वैसा ही होता, जैसा अभी है। इस प्रकार उन्होंने साहित्य को सांस्कृतिक दृष्टि से मूल्यांकित किया। हिन्दी साहित्य के आरंभिक काल को आदिकालका संबोधन प्रदान कर समस्त विवादों का भी समाधान आचार्य द्विवेदी ने किया।

सूरऔर कबीरपर पं.द्विवेदी की आलोचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। सूरदास की उन्होंने लोक परक दृष्टि से व्याख्या की और बताया कि लोक जीवन ही सूरसागर की लीलाओं की मुख्य सामग्री है। उन्होंने सूर को श्रद्धालु और विश्वासी भक्त बताया। कबीरमें आचार्य द्विवेदी की मानवतावादी दृष्टि का परिचय मिलता है। उन्होंने कबीर को साधना के क्षेत्र में युग-गुरु, साहित्य के क्षेत्र में भविष्य का स्रष्टा, लोकधर्म का प्रतीक, व्यंग्य का बादशाह और वाणी का डिक्टेटर बताया।

साहित्य एवं संस्कृति के पारस्परिक संबंध को शाश्वत बताते हुए इसे मानवता के उत्थान का कारक बताया। उनका मत है कि साहित्य का सबसे बड़ा उद्देश्य मानव-जीवन को उन्नत करना और देवोपम बना देना है। वे मानते हैं कि साहित्य मनुष्य को उन्नत और विशाल बनाता है, उसको मोह और संस्कार से मुक्त करता है और उसे धीर तथा पर दुःखकातर बनाता है। इसी कारण उन्होंने अपनी आलोचना दृष्टि में समग्र दृष्टि से विवेचन किया।

आलोचना की समग्र दृष्टि के कारण ही आलोच्य कवि की केन्द्रीय विशेषता को उन्होंने उभारकर सामने रखा। उनकी प्रमुख टिप्पणियाँ अवलोकनीय हैं- “‘कबीरमस्तमौला थे। उनमें युग-प्रवर्तक का विश्वास था और लोकनायक की हमदर्दी।” “‘नानककी साम्य-भावना विचार-प्रसूत और करुणा-मूलक थी।” “‘सूरदासबालक का हृदय लेकर पैदा हुए थे।” “‘तुलसीका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।” “‘दादूके पदों में अभिमान का भाव बिल्कुल नहीं है।” “‘सुन्दरदाससर्वाधिक शास्त्रीय ज्ञान-सम्पन्न महात्मा थे।” “‘रज्जबदासनिश्चय ही दादू के शिष्यों में सबसे अधिक कवित्व लेकर उत्पन्न हुए थे।इत्यादि कथन कवि की विशिष्टता सूत्र-वाक्य में समग्र-दृष्टि से मूल्यांकित करते हैं।

अपनी विराट दृष्टि एवं समन्वयकारी आलोचना दृष्टि के कारण नीति-सौन्दर्य, मंगल-सत्य, शास्त्रीयता-स्वच्छन्दता, प्राचीनता-नवीनता, रस-उक्तिवक्रता, भौतिकता-आध्यात्मिकता आदि तत्त्वों में विरोध के स्थान पर सामंजस्य को महत्त्व दिया। प्राचीन कवियों में कबीर, विद्यापति, चण्डीदास, सूरदास और तुलसीदास के महत्त्व को स्वीकार किया। आधुनिक कवियों में रवीन्द्रनाथ, पंत, प्रसाद, महादेवी, निराला के साथ भी न्याय किया। अनुसंधान की दृष्टि से आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी-साहित्य की सभी प्रमुख काव्य-प्रवृत्तियों के मूल स्रोतों को अपभ्रंश साहित्य से निःसृत प्रमाणित किया। सूफी कथा-काव्यों को भारतीय लोक-कथाओं से सुसम्बद्ध किया। दक्षिण के वैष्णव मतवाद को सहज विकास बताया। संत-साहित्य को योगियों और बौद्ध-सिद्धों की वाणियों की परम्परा में रखा। नाथ-संप्रदायऔर कबीरइस दृष्टि से अद्वितीय ग्रंथ हैं।

इस प्रकार ऐतिहासिक-सांस्कृतिक आलोचना में पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम अग्रगण्य है। वे साहित्य को सांस्कृतिक धरातल पर रखकर उसका मूल्यांकन करने के पक्षधर रहे। डॉ. नगेन्द्र का कथन है- जनजीवन की सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं का उद्घाटन करते हुए विवेच्य को समष्टि के साथ सम्बद्ध कर देखना इनकी आलोचना का मूलाधार है। द्विवेदी जी साहित्य का संबंध नवजीवन के साथ मानकर चलते हैं। उनकी समीक्षा का आधार-फलक मानववादी होने के कारण अत्यन्त विस्तृत है और उनका व्यक्तित्व उसको संभालने योग्य पांडित्य, सहानुभूति तथा कल्पना आदि गुणों से संपन्न है।वस्तुतः आचार्य द्विवेदी ने साहित्य को व्यापक सांस्कृतिक-गरिमा के परिप्रेक्ष्य में देखकर वर्तमान की चेतना और भविष्य-निर्माण का हेतु माना।


रचनात्मकता की प्रतिध्वनि 'कृति की राह से'

 

रचनात्मकता की प्रतिध्वनि 

'कृति की राह से'

 ( साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' में..)

 बी. एल. आच्छा हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक एवं समीक्षक हैं। इसी वर्ष प्रकाशित 'कृति की राह से' पुस्तक हिंदी की समकालीन रचनाओं पर केंद्रित समीक्षाओं का संचयन है। गंभीर आलोचकीय मेधा से यह पुस्तक पाठकों को नई दृष्टि प्रदान करती है। इस पुस्तक में कुल चौंतीस कृतियों की समीक्षा है।  भूमिका में लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि उनकी दृष्टि में कृति ही लक्ष्य है, जहाँ विचारधाराओं का कोई आग्रह नहीं है। उन्होंने रचना में निहित वैचारिक सत्व, यथार्थ के बहुआयामी कोण, रचनाकार की वैयक्तिक विशिष्टता और सम्प्रेषणीयता  के स्तर पर नवीनता को तलाशने की कोशिश की है। इससे समीक्षा का आयतन विस्तारित हो गया है।   

    यदि तटस्थता से विचार किया जाये तो लेखन और समीक्षा साहित्य समृद्धि के दो अनिवार्य हेतु हैं।  लेखन में जहाँ रचनाकार का अंतःव्यक्तित्व किसी दृष्टिकोण और भावधारा के साथ प्रकट होता है, तो समीक्षक रचना की सम्प्रेषणीयता को मूल्यांकित करता है। उसका उद्देश्य पाठकों को रचना की अंतर्वस्तु से परिचित कराना, साहित्यिक परिमाप से रचना को मानकता की कसौटी पर परखना और युग-सापेक्षता तय करना है। समर्थ समीक्षक कृति में अन्तर्निहित मूल्य, युगीन परिवेश एवं कलात्मक संरचना को पहचान कर तर्कबद्धता से प्रस्तुत करता है। उसकी दृष्टि एवं विवेकशीलता से रचना की सार्थकता प्रमाणित होती है। इस प्रक्रिया में साहित्यिक मूल्यों के निर्वहन की अपेक्षा सदैव रहती है।

    इस पुस्तक में संकलित समीक्षाओं में हिंदी की लगभग सभी विधाओं को केंद्रित करते हुए विविध विषयों को भी समाहित कर लिया है। इनमें भारतीय सांस्कृतिक अतीत, लोकसाहित्य की पुकार, समकालीन जीवन में मूल्यचराचर जगत में मानवेतर प्राणियों की दुनिया, तीर्थ स्थलों की आध्यात्मिक अनुभूतिप्रवासी सामाजिक जीवन में भारतीय मन, इतिहास और समकाल, साहित्यिक पत्रकारिता की दुनिया, भारतीय-पश्चिमी काव्यशास्त्र के प्रतिमान आदि विभिन्न विधाओं की कृतियों की समीक्षा के माध्यम से रचना के वस्तु और शिल्प का मूल्यांकन किया गया है।

    प्रथम सामीक्ष्य कृति ‘सागलकोट’ विभाजन की अकल्पित त्रासदी, साम्प्रदायिकता के खूनी जुनून और विस्थापन की पीडाओं से गुजरकर भारतीय सांस्कृतिक परिधि और इतिहास को साथ लेकर वर्तमान वैश्विक स्तर पर यह कथाकृति किस तरह से अन्य कृतियों से अलग है, इसका प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। डॉ. हंसादीप के उपन्यास 'कुबेर' और सुधा ओम ढींगरा के कहानी संग्रह 'खिड़कियों से झाँकती आंखें' के माध्यम से प्रवासी सामाजिक जीवन को संवेदना के धरातल पर रेखांकित करते हुए समीक्षक ने प्रवासी भारतीयों के खुरदुरे यथार्थ को प्रकट करते हुए माना है कि इनमें जिन्दगी का गद्य चट्टानों–सा पसरा है, मगर मनोभूमि कविता की संवेदनात्मक लय से टकराती नजर आती है। ‘जिस्मों का तिलिस्म’, ‘अँधेरा उबालना है’, ‘वक्त कहाँ लौट पाता है’ आदि लघुकथा संग्रहों में मानवीय जीवन-संघर्षों और मूल्यों के साथ साहचर्य की तलाश को मूल्यांकित किया है। इसी प्रकार उत्तर आधुनिक जीवन के बदलते समाज मनोविज्ञान को ‘स्टेपल्ड पर्चियाँ’ कहानी संग्रह के मूल्यांकन में पहचाना है।

 अशोक भाटिया के लघु कथा संग्रह ‘अँधेरे में आँख’ की समीक्षा में इसके मूल स्वर को प्रकट करते हुए लिखा कि इनमें निम्न-मध्यमवर्गीय  समाज की पीडाओं, रूढ़ि-बद्धताओं के विरुद्ध प्रतिकार है। ‘माफ़ करना यार’ समीक्षा में कथाकार बलराम का व्यक्तित्त्व एक समकालीन साहित्यिक समाज के नायक के रूप में उभर कर आया है, जहाँ आत्म-व्यंजना की धुरी से युगीन साहित्यिक परिदृश्य की पड़ताल है। ‘सन्नाटे का शोर’ ललित निबंध संग्रह की समीक्षा करते हुए विविध निबंधों में व्यक्त लोक की पीड़ा के बहाने उन्होंने सांस्कृतिक प्रतिबोध को भी उजागर किया है। विवेचना में यह भाव प्रकट हुआ है कि ये ललित-निबंध ‘कोरोना काल’ की भयावह मृत्युलीला की करुणा से जितने द्रवित हैं, उतने ही सांस्कृतिक प्रवाह की जीवनी शक्ति के संबोधक भी।

    पुस्तक में ‘नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे’ यात्रावृत्त की समीक्षा के बहाने भारतीयता का सांस्कृतिक भूगोल चाक्षुष बिम्ब की भांति चित्रित हुआ है, जिसमें जगन्नाथ पुरी, कोणार्क, अयोध्या, उज्जयिनी, वृन्दावन, चित्तौड़, सांवलियाजी आदि तीर्थों की महिमा प्रकट होती है। ‘देखो यह पुरुष’ नाटक में ईसा के व्यक्तित्त्व को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास हुआ है। आचार्य मानतुंग की अमर कृति ‘भक्तामर’ की व्याख्या आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा ‘भक्तामर के अन्तस्तल का स्पर्श’ शीर्षक कृति में की है, जिसकी विवेचना करते हुए समीक्षक ने बताया कि यह व्याख्या आज के विज्ञान, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, सभी दर्शनों, तार्किक-भाविक शैलियों से जोडती है और युगीन परिप्रेक्ष्य में सार्थकता सिद्ध करती है।   

      शिवनारायण के प्रथम गजल-संग्रह ‘झील में चाँद’ का मूल्यांकन करते हुए लिखा कि इसमें दुष्यंत की हिन्दी गजल परम्परा की राह में बढ़ते हुए प्रकृति बिम्बों के नयेपन में सामाजिक परिदृश्यों को संजोया गया है। इसी प्रकार ‘कठपुतलियाँ जाग रही हैं’ काव्य-संग्रह में कविताओं के बहुआयामी रंग और उनकी बुनावट पर गंभीर चर्चा है।  ‘कोणार्क’ काव्यकृति, ‘समकाल के नेपथ्य में’ निबंध, ‘कथा कहे बलराम’ आलोचना, ‘महादेवी का मानवेतर परिवार’ संस्मरण, ‘डॉलर का नोट’, ‘सठियाने की दहलीज पर’, ‘लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन’ आदि   व्यंग्य, गुजराती कहानियों की समीक्षाएँ पाठकों को पुस्तक की गहराई में ले जाती है, जहाँ उसकी पाठकीय संवेदना का आयत्तीकरण हो जाता है और वह रचनाकार के साथ चलने लगता है।

    शीर्षक कृति की मूल संवेदना को उजागर करता है पुस्तक का कलेवर विनय माथुर ने भरपूर भावधारा से तैयार किया है, भूमिका स्वयमेव कवि की आलोचना दृष्टि को प्रकट करती प्रतीत होती है। इससे कृति का महत्त्व बढ़ गया है। इंडिया नेट बुक्स प्रा. लि., नोएडा द्वारा इसे सुन्दर ढंग से प्रकाशित किया गया है और संतोष का विषय है कि कृति का मूल्य पुस्तक के आकार अनुसार है। पुस्तक की समस्त समीक्षाएँ पाठकों के ज्ञानात्मक संवेदन को समृद्ध करने में समर्थ है।


 

पुस्तक  : कृति की राह से

लेखक   : डॉ. बी. एल. आच्छा

आवरण  : विनय माथुर

प्रकाशक  : इंडिया नेट बुक्स प्रा. लि., नोएडापृ.197

मूल्य    : 375/-




हिंदी का वैश्विक धरातल एवं विस्तार


हिन्दी का वैश्विक धरातल एवं विस्तार
मधुमती, सितंबर-२०२४ में प्रकाशित

भारत वर्तमान में विश्व-पटल पर सांस्कृतिक प्रभुत्त्व के साथ नेतृत्व की भूमिका में है। सामान्यतः जब कोई राष्ट्र अपने गौरव में वृद्धि करता है तो वैश्विक दृष्टि से उसकी प्रत्येक विरासत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। परम्पराएँ, नागरिक दृष्टिकोण और भावी संभावनाओं के केन्द्र में ‘भाषा’ महत्त्वपूर्ण कारक बनकर उभरती है, क्योंकि अंततः यही संवाद का माध्यम भी है। वैश्वीकरण के दौर में संपूर्ण जीवन ‘वैश्विक ग्राम’ में सिमट कर रह गया है। भौगोलिक दूरियाँ, प्राकृतिक दुरुहता अथवा भाषायी अवरोध अब इतिहास की किवदन्तियाँ मात्र हैं। वर्तमान में राष्ट्रों की शक्तिमत्ता का आधार  सैन्य शक्ति से अधिक आर्थिक संपन्नता है। ‘बाज़ार’ नई दुनिया के केन्द्र में है, इसी कारण चीन और भारत 21 वीं सदी के नेतृत्वकर्ता बन रहे हैं। इसमें भी भारत अपनी लोकतांत्रिक विशिष्टताओं, समृद्ध सांस्कृतिक परम्पराओं, उदारवादी-सर्वसमावेशी वृत्ति, प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा, निपुण एवं प्रशिक्षित युवा-शक्ति के कारण दुनिया के आकर्षण का केन्द्र बन रहा है। भारत की विश्व धरातल पर स्थापना में हिन्दी का योगदान अप्रतिम है।  


वर्तमान में ‘हिन्दी’ को जो स्वरूप हमारे समक्ष विद्यमान है, उसका समय के साथ क्रमिक विकास का आधार है। हिन्दी की आदि जननी संस्कृत है। संस्कृत पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के मार्ग से गुजरती हुई प्रारंभिक हिन्दी का रूप ग्रहण करती है। हिन्दी भाषा के विकास का विशुद्ध आरंभ ‘अपभ्रंश’ से माना जाता है, जो हमारे देश में 500 ई. से लेकर 1000 ई. के मध्य तक समृद्ध रूप में रही। अपभ्रंश से ही आधुनिक आर्य भाषाओं का भी विकास हुआ है, जिसमें शौरसेनी से पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती; अर्द्ध मागधी से पूर्वी हिन्दी; मागधी से बिहारी, उड़िया, बांग्ला, असमिया; खस से पहाड़ी; ब्राचड़ से सिंधी; पैशाची से पंजाबी; महाराष्ट्री से मराठी आदि अपभ्रंश के बाद हमारे देश में विविध भाषाओं का विकास होने लगा। इन प्रमुख भाषाओं में गुजराती, बांग्ला, उड़िया, असमिया, सिंधी, पंजाबी, मराठी के साथ हिन्दी भाषा समूह का विकास हुआ। वस्तुतः ‘हिन्दी’ शब्द भाषा विशेष का पर्याय नहीं, बल्कि भाषा-समूह का नाम है।

हिन्दी जिस भाषा समूह का नाम है, उसमें आज के हिन्दी प्रदेशों की पाँच प्रमुख उपभाषाएँ यथा-राजस्थानी हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, बिहारी हिन्दी तथा पहाड़ी हिन्दी सम्मिलित हैं। इन पाँच उपभाषाओं की कुल 17 बोलियाँ इसकी संपत्ति है। पश्चिमी हिन्दी में खड़ी बोली, ब्रज, बांगरू, कन्नौजी, बुंदेली; पूर्वी हिन्दी में अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी; बिहारी हिन्दी में भोजपुरी, मैथिली, मगही; राजस्थानी हिन्दी में मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी; पहाड़ी हिन्दी में गढ़वाली, कुमाऊँनी आदि।

इन बोलियों की विशिष्टता है कि किसी निश्चित कालखंड में इन्होंने ‘हिन्दी’ का नेतृत्व किया है, जैसे- आदिकाल में राजस्थानी, भक्तिकाल में अवधी, ब्रज आदि, रीतिकाल में ब्रज तथा आधुनिक काल में खड़ी बोली आदि। सुखद पहलू यह है कि अन्य बोलियों ने सहजता से दूसरे का नेतृत्व स्वीकार किया। साथ ही समस्त बोलियों का फलना-फूलना जारी रहा। आज हिन्दी का विशाल साहित्य इन्हीं बोलियों में पल्लवित साहित्य का परिणाम है। इसका क्षेत्र इतना व्यापक रहा कि स्वतंत्रता-संघर्ष में एकमात्र यही भाषा थी, जिसने पूरे भारत को एक सूत्र में बाँध दिया था।

हिन्दी के व्यापक प्रभाव का प्रमाण कुछ उदाहरणों से पुष्ट होता है। दिल्ली के सहायक रेजिडेंट ‘मेटकॉफ’ ने फोर्ट विलियम कॉलेज के ‘हिन्दुस्तानी’ के विभागाध्यक्ष जॉन गिलक्राइस्ट को एक पत्र लिखा- “भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमायूँ के पहाड़ों से नर्मदा तक, अफगानों, मराठों, राजपूतों, जाटों, सिक्खों और उन प्रदेशों के सभी कबीलों में जहाँ मैंने यात्रा की है, मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी थी। मैं कन्याकुमारी से कश्मीर तक ........ इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जायेंगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।" इसी तरह एनीबेसेंट ने कहा था, “हिन्दी जानने वाला संपूर्ण भारतवर्ष में मिल सकता है और भारत भर में यात्रा कर सकता है।” 

एशियाटिक रिसर्च के लेखक एच.टी.कोलब्रुक ने लिखा- “जिस भाषा का व्यवहार भारत में प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है और जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।” भारतीय भाषा विशेषज्ञ जार्ज ग्रियर्सन ने भी हिन्दी को भारत की सामान्य भाषा माना है। 1894 से 1927 तक ग्रियर्सन ने ‘लिग्विंस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’ अर्थात् भारतीय भाषाओं के सर्वेक्षण का कार्य किया। ग्यारह बड़े-बड़े वोल्यूम में यह विशाल ग्रंथ भारत सरकार के केन्द्रीय प्रकाशन विभाग, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित किया गया। पहला खंड बड़े महत्त्व का है, इसमें तुलनात्मक भाषा-विज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है। इस ग्रंथ की भूमिका में उन्होंने लिखा- “It is a comparative vocabulary of 168 selected words. In about 368 different languages and dialects. …… gramophone records are available in this country and in Paris.” ​इस भाग के अंत में ग्रियर्सन ने लिखा है कि भारत वस्तुतः विरोधी तत्त्वों की भूमि है और भाषाओं के संबंध में विचार करते समय तो यह तत्त्व और भी दृष्टिगोचर होते हैं। यहाँ अनेक ऐसी भाषाएँ हैं जिनके ध्वनि-संबंधी-नियमों के कारण केवल गौण और साधारण विचारों को ही प्रकट किया जा सकता है। वस्तुतः 179 भाषाओं और 544 बोलियों के इस देश में ध्वनिगत भिन्नताओं का होना कोई आश्चर्य नहीं है। 

ग्रियर्सन ने इस खंड की भूमिका में देश का भाषिक प्रशिक्षण और उसकी क्षमता को भी स्वीकार किया है। इसमें भारतीय भाषाओं, उप-भाषाओं और बोलियों के उदाहरण भी संकलित हैं। तिब्बती, चीनी, बर्मी, ईरानी भाषा-परिवारों को सम्मिलित कर उन्होंने भारतीय आर्य भाषाओं के इतिहास का सबसे अधिक प्रामाणिक और क्रमबद्ध वर्णन किया। इस अथक परिश्रम का संकेत भूमिका में उल्लिखित इस टिप्पणी से मिल जाता है- “ Finish a work extending over thirty years, that after writing this Preface, the pen will be laid down …. I plead guilty to a vain boast whom I claim that what has been done in it for India has been done for no other country in the world.” ग्रियर्सन की यह मान्यता थी कि मैं इसको एक ऐसे सामग्री संग्रह के रूप में भेंट कर रहा हूँ जो नींव का काम दे सके। जिन लेखकों का नाम हम जानते तक नहीं, किन्तु वे जनता के हृदयों में जीवित वाणी बनकर बचे हुए हैं, क्योंकि उन्होंने जन की सत्य और सुन्दर भावना को प्रभावित किया।

भारतीय विचार-दृष्टि को समझने के लिए स्वाभाविक रूप से हिन्दी भाषा वैश्विक आकर्षण का केन्द्र बनी हैं। समग्र एवं निरपेक्ष दृष्टि से यदि विचार किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि हिंदी भौगोलिक आधार पर विश्व-भाषा है, क्योंकि इसके बोलने समझने वाले  संसार के सब महाद्वीपों में फैले हैं। नवीनतम सर्वेक्षण अनुसार इसकी संख्या विश्व में मंदारिन के बाद दूसरे स्थान पर है। विश्व के 132 देशों में जा बसे भारतीय मूल के लगभग दो करोड़ लोग हिंदी माध्यम से ही अपना कार्य निष्पादित करते हैं। देखा जाए तो एशियाई संस्कृति में अपनी विशिष्ट भूमिका के कारण हिंदी एशियाई भाषाओं में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी का किसी देशी या विदेशी भाषा से कोई विरोध नहीं रहा है। अनेक भाषाओं के शब्द हिंदी में बन गए हैं। यही कारण है कि आज हिंदी का शब्दकोश विश्व का सबसे बड़ा भाषिक शब्दकोश माना जाता है। 

हिंदी स्वयं के भीतर एक अंतर्राष्ट्रीय जगत समाहित है, जिसमें आर्य, द्रविड़, अंग्रजी, स्पेनी, पुर्तगाली, जर्मन, फ्रेंच, जापानी, चीनी, फारसी, अरबी अदि सारे संसार की भाषाओं के शब्द समाहित है, जो अंतरराष्ट्रीय मैत्री और वसुदेव कुटुंबकम वाली प्रवृत्ति को उजागर करती है। हिंदी में अब अनुवाद और साहित्य लेखन भी बढ़ रहा है। गुणवत्ता की दृष्टि से इसकी वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ रही है। प्रवासी भारतीय अपने अनेक कार्यक्रमों से हिंदी को जीवंत बनाए हुए हैं। इंटरनेट पर सर्वाधिक लोकप्रिय भाषाओं में हिंदी का अपना स्थान है। देश विदेश से प्रकाशित होने वाले पत्र-पत्रिकाएँ हिंदी को विश्व भाषा बनाने में मदद कर रहे हैं। भारतीय दूरदर्शन और आकाशवाणी और उसके साथ अनेक चैनलों ने हिंदी का प्रचार विश्वव्यापी करने में मदद की है। हिंदी की व्यापकता के कारण दुनिया के 175 देशों में हिंदी के शिक्षण और प्रशिक्षण के अनेक माध्यम केंद्र बन गए हैं। लगभग 180 विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्यापन हो रहा है और दिनों-दिन इसका वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। एनसाइक्लोपीडिया के अनुसार मंदारिन के बाद सबसे बड़ी भाषा हिंदी है।


आज हिंदी 12 से अधिक देशों में बहुसंख्यक समाज की मुख्य भाषा है। इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, नेपाल, मॉरीशस, न्यूजीलैंड, सिंगापुर, यमन, युगांडा में भारतीयों की संख्या 2 करोड़ है। फिजी, गुयाना, सुरीनाम, टोबेगो, त्रिनिडाड तथा अरब अमीरात में भी अल्पसंख्यक भाषा के रूप में संवैधानिक दर्जा प्राप्त है। भारत से बाहर जिन देशों में हिंदी का बोलने,लिखने, पढ़ने तथा अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से प्रयोग होता है, उन्हें हम चार वर्गों में बाँट सकते हैं-

1. जहाँ भारतीय मूल के लोग अधिक संख्या में रहते हैं, जैसे-पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका और मालदीव।

2.भारतीय संस्कृति से प्रभावित दक्षिण पूर्वी एशियाई देश, जैसे-इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, चीन, मंगोलिया, कोरिया, तथा जापान।

3. जहाँ हिंदी को विश्व के आधुनिक भाषा के रूप में पढ़ाया जाता है, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूरोप के देश।

4. अरब और अन्य इस्लामी देश, जैसे संयुक्त अरब अमीरात, अफगानिस्तान, कतर, मिस्र, उज़्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान आदि।

जहाँ तक विश्व भाषा के स्तर को प्राप्त करने का प्रश्न है, तो उसके कुछ निश्चित प्रतिमान हैं। यथा-विश्व के अधिकांश भू-भाग पर भाषा का प्रयोग, साहित्य-सृजन की सुदीर्घ परम्परा, विपुल शब्द-संपदा, विज्ञान-तकनीक एवं संचार के क्षेत्र में व्यवहार, आर्थिक-विनिमय का माध्यम, वैज्ञानिक लिपि एवं मानक व्याकरण, अनुवाद की सुविधा, उच्च कोटि की पारिभाषिक शब्दावली एवं स्थानीय आग्रहों से मुक्त होना आदि। इन प्रतिमानों के आलोक में हिन्दी की विशिष्टताओं और सामर्थ्य का मूल्यांकन वर्तमान संदर्भों में समीचीन प्रतीत होता है।

भाषा के प्रयोग की दृष्टि से अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि आज हिन्दी का प्रयोग विश्व के सभी महाद्वीपों में प्रयोग हो रहा है। डॉ. करुणा शंकर उपाध्याय द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिन्दी का विश्व सन्दर्भ’ में आधिकारिक तत्थ्यों के साथ स्पष्ट किया गया है कि  लगभग 140 देशों में हिन्दी का प्रचलन न्यून या अधिक मात्रा में है। सन् 1999 में टोकियो विश्वविद्यालय के प्रो. होजुमि तनाका ने ‘मशीन ट्रान्सलेशन समिट’ में भाषायी आँकड़े पेश करते हुए कहा कि विश्वभर में चीनी भाषा बोलने वालों का स्थान प्रथम, हिन्दी का द्वितीय है और अंग्रेजी तीसरे क्रमांक पर पहुँच गई है। डॉ. जयन्तीप्रसाद नौटियाल ने ‘भाषा शोध अध्ययन-2005’ के आधार पर हिन्दी जानने वालों की संख्या एक अरब से अधिक बताई है। आज भारतीय नागरिक दुनिया के अधिकांश देशों में निवास कर रहे हैं और हिन्दी का व्यापक स्तर पर प्रयोग भी करते हैं, अतः यह माना जा सकता है कि अंग्रेजी के पश्चात् हिन्दी अधिकांश भू-भाग पर बोली अथवा समझी जाने वाली भाषा है।

हिन्दी में साहित्य-सृजन परम्परा एक हजार वर्ष से भी पूर्व की है। आठवीं शताब्दी से निरन्तर हिन्दी भाषा गतिमान है। पृथ्वीराज रासो, पद्मावत, रामचरित मानस, कामायनी जैसे महाकाव्य अन्य भाषाओं में नहीं हैं। संस्कृत के बाद सर्वाधिक काव्य हिन्दी में ही रचा गया। हिन्दी का विपुल साहित्य भारत के अधिकांश भू-भाग पर अनेक बोलियों में विद्यमान है, लोक-साहित्य व धार्मिक साहित्य की अलग संपदा है और सबसे महत्त्वपूर्ण यह महान् सनातन संस्कृति की संवाहक भाषा है, जिससे दुनिया सदैव चमत्कृत रही है। उन्नीसवीं शती के पश्चात् आधुनिक गद्य विधाओं में रचित साहित्य दुनिया की किसी भी समृद्ध भाषा के समकक्ष माना जा सकता है। साथ ही दिनों-दिन हिन्दी का फलक विस्तारित हो रहा है, जो इसकी महत्ता को प्रमाणित करता है।

शब्द-संपदा की दृष्टि से हिन्दी में लगभग पच्चीस लाख शब्द प्रचलन में हैं। ये शब्द संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश परम्परा से विकसित, आँचलिक बोलियों में व्यवहृत, उपसर्ग-प्रत्यय, संधि-समास से निर्मित हैं, जिसका सुनिश्चित वैज्ञानिक आधार है। साथ ही विदेशी शब्दावली के अनेक शब्द जो व्यावहारिक रूप से प्रचलन में है, उनमें अंग्रेजी, फारसी, अरबी, पुर्तगाली, स्पेनिश, फ्रेंच आदि भाषाओं से गृहीत भी हैं। यह गुण हिन्दी की उदारता को रेखांकित करता है। विश्व की सबसे बड़ी कृषि विषयक शब्दावली हिन्दी के पास है, जो वैश्विक धरोहर है। दूसरी भाषाओं के साथ तादात्म्य स्थापित करने में हिन्दी की भाषिक संरचना लोकतांत्रिक है। इसकी वाक्य-संरचना में आसानी से दुनिया की किसी भी भाषा का शब्द समायोजित होकर अर्थ प्रकट कर देता है। यह विशिष्टता हिन्दी विशालता का प्रमाण है।


हिन्दी की लिपि-देवनागरी की वैज्ञानिकता सर्वमान्य है। लिपि की संरचना अनेक मानक स्तरों से परिष्कृत हुई है। यह उच्चारण पर आधारित है, जो उच्चारण-अवयवों के वैज्ञानिक क्रम- कंठ, तालु, मूर्धा, दंत, ओष्ठ आदि से निःसृत हैं। प्रत्येक ध्वनि का उच्चारण स्थल निर्धारित है और लेखन में विभ्रम की आशंकाओं से विमुक्त है। अनुच्चरित वर्णों का अभाव, द्विध्वनियों का प्रयोग, वर्णों की बनावट में जटिलता आदि कमियों से बहुत दूर है। पिछले कई दशकों से देवनागरी लिपि को आधुनिक ढंग से मानक रूप में स्थिर किया है, जिससे कम्प्यूटर, मोबाइल आदि यंत्रों पर सहज रूप से प्रयुक्त होने लगी है। स्वर-व्यंजन एवं वर्णमाला का वैज्ञानिक स्वरूप के अतिरिक्त केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण भी किया गया, जो इसकी वैश्विक ग्राह्यता के लिए महत्त्वपूर्ण कदम है।


हिन्दी में पिछले कई वर्षों से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विषयक उत्तम कोटि की पुस्तकों का अभाव था, लेकिन नई सदी में अनेक विश्वविद्यालय, केन्द्रीय संस्थाओं आदि ने इस दिशा में विशेष कार्य किया। वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा मानक पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण किया, ताकि लेखन में एकरूपता रहे। आज संचार के क्षेत्र में तेजी से हिन्दी शब्दावली का प्रयोग बढ़ रहा है। यहाँ तक कि उच्चारण के आधार पर यंत्रों पर मुद्रण हिन्दी के प्रसार का लक्षण है। अभियांत्रिकी एवं चिकित्सा के क्षेत्र में हिन्दी का प्रयोग निरन्तर जारी है, अच्छा साहित्य निरन्तर प्रकाशित हो रहा है। निकट भविष्य में यह अभाव भी नहीं रहेगा, ऐसी आशा की जा सकती है।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक संदर्भों, आर्थिक गतिविधियों एवं सांस्कृतिक विनिमय के क्षेत्र में हिन्दी ने भारतीय उपमहाद्वीप का नेतृत्व किया है। अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भारतीय नेताओं ने हिन्दी को समय-समय पर केन्द्र में रखा और संयुक्त राष्ट्र संघ में अब यह धारणा बनी है कि हिन्दी दुनिया की एक महत्त्वपूर्ण भाषा है। आर्थिक उन्नति की दृष्टि से भारत तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, दुनिया के लिए एक करोड़ से अधिक का बाजार है और अपने उत्पाद के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा उसके आर्थिक लाभ की कुंजी है, अतः विज्ञापन से लेकर आर्थिक जगत की समस्त गतिविधियों में हिन्दी को समुचित दर्जा मिला है। टेलीविजन, कम्प्यूटर, मोबाइल एवं मीडिया में हिन्दी की लोकप्रियता भविष्य के लिए अच्छे संकेत प्रदान करती है। गूगल, माइक्रोसोफ्ट एवं अन्य कंपनियों ने हिन्दी के व्यापक जनाधार को देखते हुए अनेक सॉफ्टवेयर  हिन्दी की दृष्टि से तैयार किए, परिणाम स्वरूप इंटरनेट पर हिन्दी तेजी से फैल रही है।

वैश्विक स्तर पर किसी भाषा के स्तर निर्धारण में उसकी वैज्ञानिकता एवं मानकता का आधार महत्त्वपूर्ण होता है। इस दृष्टि से हिन्दी का मानक व्याकरण है। शब्द रचना की दृष्टि से संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, अव्यय आदि का वैज्ञानिक विवेचन है। वाक्य संरचना के निश्चित नियम है, शब्द-शिल्प प्रक्रिया का विवेचन किया गया है, साथ ही व्याकरणिक कोटियों की विशद् विवेचना की गई है। मानकता के कारण ही कम्प्यूटर आदि के लिए यह अनुकूल बन गई है। अनुवाद के लिए अच्छे सॉफ्टवेयर तैयार हो गए हैं और भाषा को समझने के लिए यह मानक व्याकरण पर्याप्त दिशा प्रदान करता है।


हिन्दी की लोकप्रियता जहाँ भारतीय उपमहाद्वीप के देश- नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश आदि में है, वहीं संपूर्ण भारत में यह प्रमुख संपर्क भाषा भी है। सुदूर इण्डोनेशिया, सूरीनाम, मलेशिया, मारीशस, सुमात्रा, जावा, बाली आदि देशों में बहुतायत में बोली जाती है। यूरोप एवं अमेरिका-कनाड़ा में हिन्दी भाषियों की तेजी से अभिवृद्धि हो रही है। मध्य एशिया में इसका सांस्कृतिक प्रभाव रहा है तो द. अफ्रीका आदि में राजनीतिक साहचर्य से यह समान रूप से लोकप्रिय हैं। यूनेस्को के अनेक कार्यक्रम हिन्दी में हैं। विश्व के अनेक क्षेत्र- मारीशस, सूरीनाम, लंदन, त्रिनिदाद, न्यूयार्क आदि में विश्व हिन्दी सम्मेलन सफलता पूर्वक आयोजित हो चुके हैं। इसी तरह भारतीय- सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दी को वैश्विक गरिमा प्रदान करने का प्रयास जारी है। महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा तथा अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय, भोपाल की स्थापना भी इसी दृष्टिकोण पर आधारित है। विश्व हिन्दी सम्मलेन जैसे आयोजन के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा में हिन्दी को स्थान दिलाने का प्रयास जारी है।

अतः समग्र विवेचन उपरान्त यह स्पष्टतः कहा जा सकता है कि भाषायी संरचना शब्द-संपदा, मानकता, लिपि की वैज्ञानिकता, साहित्यिक उच्चता, सांस्कृतिक विशिष्टता, व्यापक विस्तार की दृष्टि से हिन्दी अपना एकाधिकार प्रमाणित कर चुकी है, जहाँ उसे वैश्विक भाषा का स्तर मिल सकता है। संयक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा अधिसूचित करने के अपने नियम हो सकते हैं, परन्तु स्वीकार्यता और भाषाई प्रतिमानों की दृष्टि से हिन्दी का धरातल अब विस्तृत हो चुका है। जिसकी उपेक्षा करना आने वाले समय में संभव नहीं होगा।  

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आदिम जाति की धड़कन 'शाका'

आदिम जाति की धड़कन 'शाका'


डॉ. अब्दुल रशीद अगवान रचित ‘शाका’ उपन्यास एक ऐसे गाँव की कहानी है, जहाँ मानव-सभ्यता का उदय हुआ। लेखक के दृष्टिकोण से दक्षिणी तुर्किये में 'फर्टाइल क्रिसेंट'  में जो पुरातत्वीय साक्ष्य मिले हैं, उनके आधार पर वैज्ञानिक जानकारी और कल्पना के अद्भुत मिश्रण में ढले इस उपन्यास में आज से लगभग 11500 साल पहले बसे एक मानव-ग्राम के दर्शन होते हैं और वहाँ बसी आदिम जाति की धड़कनों को सुना जा सकता है। उपन्यास के फलक में यह स्पष्ट किया गया है कि धरती के औसत ताप में कम अंतराल में ही बड़े उतार-चढ़ाव और फिर लघु-हिमयुग के प्रकोप से आदिम जाति लुप्त होने लगी। उसके बाद ग्रीष्म युग के आरंभ पर इस विनाश से बचे बहुते से लोग तूरा-पर्वत के दक्षिण में गुफाओं में या चट्टानों पर वास बना कर रहने लगे। उन्हीं में से कुछ लोग एक ऊँचे पठार पर बस गये और वहाँ एक बस्ती का जन्म हुआ जिसे ‘शाका’ कहा जाता था। इससे पहले आदिम जाति ने कभी शाका जैसा कोई वास नहीं बनाया था। इसीलिए यह शाका आदिम जाति का पहला ग्राम था और यह उस क्षेत्र की आदिम जाति का केंद्र बन गया।

यहाँ बसे लोगों ने खेती और पशु-पालन की शुरुआत की। शाका का एक और महत्व यह भी है कि यहां विश्व की पहली वेधशाला निर्मित हुई। इस शाका ने बड़े उतार-चढ़ाव देखे और आदिम जाति ने सभ्यता की नींव रखी। शाका में ऐसा क्या हुआ कि वहां जंगलों में भटकते मानव समुदाय को ठहराव मिला और उसने वासों में रहना शुरू कर दिया? क्या शाका में पशुपालन और खेती की शुरुआत हुई? उत्सव और मेलों के लिए लोग शाका में बार-बार क्यों आते थे? क्या शाका के लोग इतनी प्रगति कर चुके थे कि उन्होंने दुनिया की पहली वेधशाला बना डाली। शाका के उत्थान और पतन की कहानी में वर्तमान सभ्यता के लिए भी बहुत से सबक छिपे हैं। यह कहानी इसी शाका और उसके एक साहसी युवक नील के बारे में है।

‘जीवन चुनता है जीवन को’ वाक्य के दार्शनिक आधार पर लिखित इस उपन्यास का केन्द्रीय भाव इस रूप में प्रकट होता है कि स्थान, जाति, लिंग, धर्म, बनावट, सौन्दर्य आदि के निर्माण में हमारा कोई हाथ नहीं होता, यह नियति का विधान है और मनुष्य का जीवन भी इसी पर आधारित है तथ्यात्मक कथानक और अपूर्व रोमांच में यथार्थ और कल्पना का सम्यक मिश्रण करते हुए लेखक ने आदिम युग में मानवीय जीवन के विविध पहलुओं को उभारते हुए नील और बाला के प्रेम-साहचर्य, शाका निवासियों के जातीय गौरव, विजातीय विवाह की तार्किकता जैसे प्रश्नों पर मौलिक ढंग से विचार किया है

इसमें आदिमानव की जीवनचर्या, शिकार, पशुपालन, व्यापार, उपचार आदि का उल्लेख इसे समकाल की परिस्थितियों से अवगत कराता है, वहीं आधुनिक सभ्यता के समक्ष खड़े जातीय गौरव, वैमनस्य और वैज्ञानिक दृष्टि जैसे कई प्रश्नों का समाधान भी देता हैनील, बाला, अब्रा, कोको, शकवीर जैसे पात्र आज भी हमारे समाज के अंग हैं पात्रानुकूल भाषा के साथ आडम्बरहीनता, अनावश्यक ठहराव व वैचारिक आग्रह से मुक्त, उद्देश्यनिष्ठ रचना है, जिसमें पाठक को नए कलेवर में रोमांचक यात्रा का एहसास कराती हैशीर्षक कृति की मूल संवेदना को उजागर करता है, भूमिका से ही कथानक के रोमांच का आभास हो जाता है। इससे कृति का महत्त्व बढ़ गया है। अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक ब्लू रोज पब्लिशर्स, इंडिया/यूके द्वारा इसे सुन्दर ढंग से प्रकाशित किया गया है और संतोष का विषय है कि कृति का मूल्य पुस्तक के आकार अनुसार है।


पुस्तक  : शाका  

लेखक   : डॉ. अब्दुल रशीद अगवान

प्रकाशक  : ब्लू रोज पब्लिशर्स, इंडिया/यूके, पृष्ठ- 292

मूल्य    : 365/-


भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य का आतंरिक-प्रवाह

 

भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य का आतंरिक-प्रवाह

(हिंदी अनुशीलन के अंक अक्टूबर-दिसंबर, २०२३ में प्रकाशित)

भारत वर्ष भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से विविधता युक्त रहा है, उसी अनुरूप भाषायी विविधता भी विद्यमान रही। एक ओर भारोपीय परिवार से जन्म लेने वाली भाषाएँ यथा- संस्कृत, हिंदी, मराठी, बांग्ला, उड़िया, असमिया, गुजराती आदि में साहित्य रचना हुई तो दूसरी ओर द्रविड़ परिवार की भाषाओं- तमिल, तेलगू, मलयालम, कन्नड़ आदि में विपुल साहित्य रचा गया। अपने प्रादेशिक वैशिष्ट्य एवं सांस्कृतिक पहचान को अक्षुण्ण रखते हुए समग्र साहित्य ने अनंत विस्तार ग्रहण किया, परन्तु उसके व्यक्तित्व में एक­दूसरे का प्रभाव अवश्य रहा। यही आत्म­तत्त्व भाषायी विविधता के बाद भी भावात्मक एकता का आधार बना, जो अद्वितीय है। यह गौरव का विषय है कि भारतीय भाषाओं में रचा गया साहित्य अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए हुए है, यह उसका प्रखर वैशिष्ट्य भी है और प्रादेशिक संस्कृति के प्रभाव से निर्मित उसका व्यक्तित्व भी। परन्तु एक­दूसरे की सीमाएँ कब लयबद्ध हो जाती है, पता ही नहीं चलता, जैसे - बांग्ला, असमिया व उड़िया, तमिल व तेलगू, मराठी व गुजराती, कन्नड़ तथा मलयालम, पंजाबी और सिंधी, विशेष रूप से हिन्दी में इन सभी भाषाओं से गृहीत शब्दावली। यही तत्त्व भारतीय साहित्य की अन्तः धारा को रसमय बनाए हुए हैं।

आचार्य कहते हैं- संस्कृति मनुष्य के चित्त की खेती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृति को मनुष्य के चिन्तन की उपज कहा है। वस्तुतः सम्यक् कृति ही संस्कृति है। बाबू गुलाबराय के अनुसार, “संस्कृति के मूलाधारों में- आध्यात्मिक दृष्टिकोण,सांस्कृतिक चेतना, धार्मिकता, सजीव सत्यों का संकलन, सहन शक्ति, सामाजिक चेतना आदि है।1 संस्कृति के मूलभूत तत्त्व नैतिकता, सदाशयता, सहनशीलता, शरणागत की रक्षा, आचरण की पवित्रता और समभाव की उच्चत्ता में इसकी शक्ति निहित है। चिंतन की स्वतंत्रता और उपास्य की अनेकता, वेश-भूषा और खान-पान की विविध स्वरूप के बावजूद अनेकता में एक तत्त्व की प्रधानता ही आर्यावर्त की संस्कृति का सबसे बड़ा सम्बल है। हमारा चिंतन मात्र देह तक सीमित नहीं है। स्थूल जगत् से परे हम यह विचार करते हैं कि मैं कौन हूँ? हमारा प्रत्यभिज्ञा दर्शन स्वयं की पहचान पर बल देता है। हम आत्मतत्त्व की खोज में लगे रहे। जयशंकर प्रसाद के शब्दों में हम कह सकते हैं किएक तत्त्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन2 

महादेवी वर्मा ने राष्ट्र के स्वरूप को अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखा, “राष्ट्र केवल पर्वत-नदी,या समतल का सवाल नहीं होता, उसमे उस भूमिखंड में निवास तथा विकास करने वाले मानव-समूह का जीवन अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहता है।3 राष्ट्रवादी चिन्तक श्रीराम परिहार लिखते हैं, ”राष्ट्र क्या है? उसकी संस्कृति क्या है? वस्तुतः ये दोनों मिलकर ही तो समूचे विश्व में अपनी पहचान स्थापित करते हैं, अन्यथा छह अरब की दुनिया की भीड़ में खोने के अलावा क्या है? राष्ट्र का निजत्व होता है, गुणधर्म होता है, उसकी पहचान, आकृति, अस्मिता और भूगोल होता है।4 भारतीय राष्ट्रीयता के लिए वन्देमातरम् का उद्घोष, शंकराचार्य का एकात्मभाव, विवेकानंद की विराट दृष्टि ने ही तो आने वाली पीढ़ियों को चमत्कृत कर दिशा दी। भारतीय साहित्य की पारस्परिक अन्तः संबद्धता तथा आधारभूत एकता को प्रतिबिम्बित करने वाले अनेक तत्त्व दृष्टिगोचर होते हैं, उनमें प्रमुख हैं - भाषाओं का जन्मकाल, विकास के चरण, सांस्कृतिक आन्दोलनों का प्रभाव, प्राचीन ग्रंथों का आधार ग्रहण आदि में समानता। यह विवेचना का एक पक्ष हो सकता है।

उर्दू और तमिल भाषा को छोड़कर समस्त भारतीय भाषाओं का जन्मकाल प्रायः समान रहा है, जैसे- कन्नड़ का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ कविराजमार्गराष्ट्रकूट वंश के नरेश नृपतुंगद्वारा नवीं शती में रचा गया, गुजराती का आदिग्रंथ शालिभद्र सूरि रचित भरतेश्वर बाहुबलि रासबारहवीं शती की रचना है। मलयालम की प्रथम कृति रामचरितमतेरहवीं शती में रचित हुई, तो मराठी का आदिम साहित्य भी बारहवीं शती का है। तेलगू साहित्य के प्रथम ज्ञात कवि नन्नयका समय भी ग्यारहवीं शती है। असमिया साहित्य में हेम सरस्वती की रचनाएँ प्रह्लाद चरित्रतथा हरि गौरी संवादतेरहवीं शती में रचित हैं। बांग्ला में चर्यागीतों की रचना का समय दसवीं और बारहवीं शती के मध्य का माना जाता है। उड़िया के व्यास सारलादास का समय भी चैदहवीं शती का है। इसी प्रकार हिन्दी का आदिकालीन साहित्य भी ग्यारहवीं शती के आसपास का है। अतः समस्त भारतीय भाषाओं का जन्मकाल एक निश्चित अवधि में हुआ, जो इसका अन्तः वैशिष्ट्य है।

भारत की विभिन्न भाषाओं का विकास क्रम भी लगभग समान रहा है। सभी भाषाओं का आदिकाल पन्द्रहवीं शती तक का है, पूर्व मध्यकाल सत्रहवीं शती के मध्य तक, जो मुगल­शासन के वैभव तक सीमित है। उत्तर मध्यकाल अंग्रेजी शासन की स्थापना अर्थात् उन्नीसवीं शती के आरंभ तक है। उसके बाद का समय सभी भाषाओं के साहित्य में आधुनिक काल के रूप में माना गया है। यह समानांतर विकास क्रम यह इंगित करता है कि इन भाषाओं के विकास के राजनीतिक एवं सास्कृतिक आधार समान रहे हैं।

भारतीय भाषाओं को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला समान कारक रहा- धार्मिक आन्दोलन। बौद्धधर्म के पतन पश्चात् जो संप्रदाय पल्लवित हुए, उनमें नाथपंथ उल्लेखनीय है। इसका प्रभाव तिब्बत से लेकर महाराष्ट्र और दक्षिण से पूर्वी घाट के प्रदेशों तक फैला हुआ था। नाथ­पंथ के सिन्द्धान्त- हठयोग, जीवन का साधना पक्ष, आत्माभिव्यक्ति व जीवन­शैली का प्रभाव भारतीय भाषाओं के विकास के प्रथम चरण में व्याप्त रहा। इनके बाद वेदांत दर्शन से प्रभावित इनके उत्तराधिकारी संत­संप्रदाय व नवागत सूफी­संतों का प्रभाव सभी भाषाओं के साहित्य पर रहा।

संत और सूफी काव्य के उपरांत देश में वैष्णव आन्दोलन का तीव्र वेग से प्रचार हुआ। हिन्दी­काव्य में रामकाव्य और कृष्णकाव्य धारा में साहित्य रचा गया तो तमिल प्रांत में आलवार साहित्यउल्लेखनीय है। वैष्णव आन्दोलन भी द्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्धैत आदि शाखाओं में विभक्त होकर बंगाल में चैतन्य संप्रदाय तक पहुँच गया। समस्त भारतीय भाषाओं में राम और कृष्ण की मधुर उपासना के गीत गाए गए और पूरा भारत वर्ष सगुण ईश्वर लीला गान से गुंजरित हो उठा। उसके बाद ईरानी संस्कृति से अनेक आकर्षक तत्त्व- वैभव­विलास, अलंकरण, सज्जा, राग­रंग, भोग आदि विकसित हुए, जिसे दरबारी संस्कृति कहा जा सकता है। साहित्य भी इससे प्रभावित हुआ और शृंगारिक विलास युक्त रचनाएँ विकसित हुईं। हिन्दी साहित्य का रीतिकाल इसी से प्रभावित है। इसके पश्चात् अंग्रेजों का आगमन, स्वतंत्रता आन्दोलन आदि में सभी भाषाओं के रचनागत विषय में आधारभूत समानता विद्यमान रही।

यह अचरज का विषय है कि भारत की भाषाओं का परिवार एक नहीं होते हुए भी उनके साहित्य की आधारभूमि समान रही है। भारतीय भाषाओं के साहित्य पर प्राचीन ग्रंथ- रामायण, महाभारत, उपनिषद् पुराण, भागवत् का आधार रहा है, परवर्ती संस्कृत ग्रंथों ने भी साहित्य की धारा को प्रभावित किया। उसमें कालिदास, बाण, भवभूति, जयदेव आदि का साहित्य केन्द्र में रहा। प्राकृत, अपभ्रंश-साहित्य पूर्व में ही सभी भारतीय भाषाओं के उत्तराधिकार में था। काव्यशास्त्र से संबंधित ग्रंथों ने सभी का पोषण किया, जैसे- भरत का नाट्य शास्त्र‘, आनंदवर्द्धन का ध्वन्यालोक‘, मम्मट का काव्य­प्रकाश‘, विश्वनाथ का साहित्य दर्पणआदि ग्रंथ सभी भाषाओं के मूल में रहे।

विश्व साहित्य की प्रथम पुस्तक, जिसे यूनेस्को ने भी स्वीकार किया है, वह है- ऋग्वेद। उसमें कहा गया है- मनुर्भवः, अर्थात् मनुष्य बनो। मनुष्यता का बोध ही भारतीय संस्कृति का मूल है, जो वर्तमान और भविष्य के लिए भी जरूरी है व रहेगी। हमें यह समझना होगा कि भारतवर्ष पूर्वी-पश्चिमी सभ्यताओं का समूह नहीं, वरन मानवता का संस्कार देने के लिए ईश्वरीय योजनानुरूप इस राष्ट्र का उदय हुआ। यजुर्वेद में कहा गया कि हम राष्ट्र के पुरोहित हैं। हम भोग में भी त्याग के समान आचरण करते हैं। विश्व के सभी प्राणी सुखी हों, ऐसी उदात्त भावना है। हम प्रकृति के सहचर हैं, जिससे हम रस ग्रहण कर जीवन को गति प्रदान करते हैं, दूसरी ओर पश्चिमी दृष्टि की धारणा है कि मनुष्य का प्रकृति पर आधिपत्य है और वह भोग के लिए है। भारतीय परम्परा का ज्ञान हमारे साहित्य ने करवाया। राम, कृष्ण, वाल्मीकि, वेदव्यास का व्यक्तित्व हमारी विरासत में साहित्य की देन है। शरीर नश्वर है, कर्म ही जीवन है, ज्ञान, इच्छा और क्रिया का समन्वय होना चाहिए यह सब हमारे साहित्य में लिखा गया और अपने-अपने समय के अनुकूल लिखा गया। शंकराचार्य ने आठ साल की उम्र में वेदों की ऋचाओं का अध्ययन किया और बारह वर्ष की आयु में वेदान्त की पुनर्व्याख्या कर वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना कर दी।

भारत की विशालता और विविधता के बावजूद उसे परस्पर जोड़ने में संस्कृत-साहित्य का अन्यतम महत्त्व हैं। वेद, उपनिषद, स्मृति, ब्राह्मण ग्रन्थ, रामायण, महाभारत, चरक, सुश्रुत इत्यादि में सांस्कृतिक चेतना का ऐसा युग-युगीन सेतु बन चुका है, जिसमें पूरा भारत वर्ष एक बना हुआ है। कालिदास का रघुवंश, महाकाव्य, भवभूति और अश्वघोष का साहित्य, माघ और भाष का चिंतन हमें जिस संस्कृति का आसव परोसता है, वही हमारी राष्ट्रीयता का सबसे बड़ी खुराक है। संस्कृति की इस चेतना को बलवती बनाने में कश्मीर के पंडितों व आचार्यों का सराहनीय महत्त्व है। आचार्य कल्हण द्वारा लिखित राजतरंगिणी इतिहास का महाभारत के बाद पहला ग्रन्थ माना जाता है। इसी प्रकार विल्हण का योगदान कम नहीं है। जिस कश्मीर में आतंक का ताण्डव चक्र रहा है वहां कभी- 8वीं से 12 वीं शती तक भिज्ञा दर्शन का साम्राज्य था, जिसमें शैवोपासना की संस्कृति का उज्ज्वल प्रकाश बिखरता रहता था। इसी काल के दसवीं से ग्यारहवीं शती मे आचार्य अभिनवगुप्त ने ध्वनि में रस और रस में जीवन तलाशने का भगीरथ प्रयास किया था।

डॉ. विनीता राय लिखती हैं, “जीवन के मूल्य वास्तव में संस्कृति के अंगभूत हुआ करते हैं। हम अपने मूल्यों के माध्यम से राष्ट्र और संस्कृति का परिचय देते हैं।5  विवेकानंद ने 30 वर्ष की उम्र में अपने ज्ञान से दुनिया को पागल कर दिया था। उन्होंने 1200 वर्ष बाद शंकराचार्य की परम्परा को संवाहित किया। यह स्पष्ट किया कि मनुष्य श्रेष्ठ है। मनुष्य का अस्तित्व मानवता की पराकाष्ठा है एवं आत्म तत्त्व को पहचानना है। डॉ. देवराज ने मानव मूल्यों को सांस्कृतिक पहचान से जोड़ते हुए कहा, ”किसी व्यक्ति की संस्कृति वह मूल्य चेतना है, जिसका निर्माण उसके सम्पूर्ण बोध के आलोक में होता है।6 यही कारण है कि पश्चिम के विज्ञान और पूर्व के ज्ञान के समन्वय पर बल देने वाला व्याख्यान भारत को दुनिया में सिरमौर बनाता है। 1913 में गीतांजलि पर टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलता है। मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारती राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में जन चेतना को जाग्रत करती है। 1915 मेंउसने कहा थाकहानी उस शाश्वत वचन को प्रमाणित करती हैं, जिसमें कहा गया है किरघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई। साकेत का यह कथन विचारणीय है-संदेश नहीं मैं यहाँ स्वर्ग का लाया, इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।यह साहित्य समकाल में लिखा गया, जो हमारी परम्परा से प्रभावित था। 1936 मेंराम की शक्ति पूजाभी अपने अन्दर रामत्व को जगाने का प्रयास है। कामायनी अथवा दिनकर, अज्ञेय अथवा धर्मवीर भारती सबने उस भारतीय परम्परा को आगे बढ़ाया, जिसके सूत्र वैदिक ऋषियों से प्राप्त हुए थे। अतः राष्ट्र को सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नत बनाने में साहित्य का योगदान अतुल्य है। 

भारत की संस्कृति का निर्माण, सौ दो सौ वर्ष में नहीं, हिमालय की तरह हजारों वर्ष में हुआ है। उसके निर्माण के कई कारक हैं। साहित्य का अवदान उसमें अन्यतम है। यह साहित्य लोकभाषाओं से संस्कृत भाषा का व्याप्त है। यद्यपि यह कहना अर्धसत्य होगा कि संस्कृति का निर्माण साहित्य ही करता है पर साहित्य का संबल धारण कर संस्कृति शक्तिमान  बनती है। भारत के विभिन्न अंचलों में व्याप्त बोलियों का एक विशाल साहित्य है। उस विशाल लोक साहित्य में संस्कृति की अनेक तरंगे प्रस्फुटित हुई हैं। हिन्दी की तमाम उपबोलियों में, पंजाबी जुबान के साहित्य में, बंगला, उड़िया, असमिया, मलयालम, कन्नड़, तेलगू, तमिल भाषाओं में व्याप्त भारतीय संस्कृति के विविध रंग मिलते हैं- पर उन रंगों का आस्वाद एक जैसा है। राजस्थानी लोकगीतों के प्रवाह में संस्कृति का रत्न छिपा है। कहना न  होगा कि भारत की इन भाषाओं-उपभाषाओं में संस्कृति की समझ बड़ी समृद्ध है। अनेक भावों की अंतर तरंगे अध्यात्म के महाभाव में मिलकर एक महातरंग को जन्म देती हैं। भाषा-उपभाषा में लिखित और मौखिक साहित्य की लिपि भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, उच्चारण में भेद हो सकते हैं, भौगोलिक विभिन्नताएँ हो सकती हैं, कहीं रेगिस्तान, कहीं हरियाली, कहीं मैदान तो कहीं पहाड़ हो सकते है- पर सबका भाव एक ही होता है- जीवन में अध्यात्म का चटकीला रंग। काव्य-महाकाव्य, खंडकाव्य, गद्यकाव्य, चम्पूकाव्य शैली की दृष्टि से भले ही पृथक-पृथक हों पर भाव की दृष्टि से उनकी एकात्मकता की संस्कृति का प्राण-तत्त्व बनता है। 

अपनी संस्कृति का सीधा संवाद साहित्य से होता है। नदी, नारी और संस्कृति का प्रवाह शाश्वत होता है। नारी का एक प्रकृष्ट रूप माँ होती है। वह शास्त्र से बड़ी और गुरु से भी अधिक पूज्य होती है। शास्त्र जब निःशब्द हो जाते है तब माँ की बात ही अंतिम होती है। वह संस्कृति की प्रतीक होती है। नदी भी उसी का रूप है। न नारी वृद्ध होती है और न संस्कृति। इन दोनों का अविरल प्रवाह साहित्य में दिखता है। पं. विद्यानिवास मिश्र साहित्य और संस्कृति के अन्तः सम्बन्ध को इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं-इस देश की संस्कृति सीता है, जो धरती से जनक के हल के नोक से पैदा हुई हैं। इस देश की संस्कृति गंगा है, जिन्हें भगीरथ ने अपने परिश्रम से पहाड़ खोदकर निकाला था। इस देश की संस्कृति गौरी है, जिन्होंने अपने प्रियतम को सौन्दर्य से नहीं तम से प्राप्त किया था। इस देश की संस्कृति असंख्य ग्रामीण बन्धु और वनवासी हैं, जो असंख्य बाधाओं को राम की धनुही से तोड़ने का विश्वास रखते है

 भारतीय चिंतन परम्परा व्यापक दृष्टिकोण पर आधारित है। हमारे जीवन का कोई पक्ष ऐसा नहीं है, जिस पर हमारी परंपरा ने विचार नहीं किया। हमारे शास्त्रों ने जीवन के उज्ज्वल उदात्त पक्ष को ग्रहण करने पर सदैव बल दिया। यह प्रयास भारतीय साहित्य में निरंतर विद्यमान रहा कि नवनीत छूट न जाए, उसी के कारण वैश्विक पटल पर भारतीय साहित्य अप्रतिम गहराई के साथ खड़ा है।

सहायक ग्रन्थ सूची 

1. बाबू गुलाबराय, भारतीय संस्कृति की रूपरेखा, ज्ञानगंगा प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2008, पृष्ठ-26 

2. जयशंकर प्रसाद, कामायनी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2014, पृष्ठ-1

3. धर्मवीर भारती (सं.), धर्मयुग, फरवरी,1987, पृष्ठ-

4. डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष (सं.)राष्ट्रबोध, संस्कृति एवं साहित्य, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, सं. 2019 पृष्ठ-33

5. डॉ. विनीता राय, मूल्य और मूल्य संक्रमण, अनिल प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2005 पृष्ठ-15 

6. डॉ. देवराज, संस्कृति का दार्शनिक विवेचन, सू.प्र.विभाग,उ.प्र.,लखनऊ सं.1957, पृष्ठ-175

7. डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष (सं.),राष्ट्रबोध, संस्कृति एवं साहित्य, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, सं. 2019 पृष्ठ-34

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चित्तौड़ का जीवन-रस: गंभीरी और बेड़च

 चित्तौड़ का जीवन-रस: गंभीरी और बेड़च

कवर स्टोरी में प्रकाशित


अरावली की पर्वतीय उपत्यकाओं से आच्छादित, शोणित की धारा से सिंचित, गोरा-बादल और जयमल-फत्ता की हुँकारों से ऊर्जस्वित, भक्तिमती मीरा, वीरांगना पद्मिनी, त्यागमूर्ति पन्ना की पावन धरा चित्तौड़गढ़ विश्व-विख्यात नगरी है। चित्तौड़गढ, वह वीरभूमि है, जिसने समूचे भारत के सम्मुख अपूर्व शौर्य, विराट बलिदान और स्वातंत्र्य-प्रेम का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। बेड़च की लहरों में यहाँ के असंख्य वीरों ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए असिधारा रूपी तीर्थ में स्नान किया। वहीं वीरांगनाओं ने कई अवसर पर अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने बाल-बच्चों सहित जौहर की अग्नि में प्रवेश कर आदर्श उपस्थित किए। वीरों और वीरांगनाओं की स्मृति स्वरूप खड़े दुर्ग के ये स्मारक अपनी मूक भाषा में अतीत की गौरव गाथाएँ सुनाते दिखाई पड़ते हैं। स्वाभिमानी देशप्रेमी योद्धाओं से भरी पड़ी यह भूमि पूरे भारतवर्ष के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर देश-प्रेम का ज्वार उत्पन्न करने में अपनी भूमिका आज भी अदा करती है।

इस नगरी को जीवन-रस से सिंचित किया है- गंभीरी और बेड़च ने। जिसके रस से आप्लावित यहाँ का पौरूष इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य एवं आध्यात्मिक विरासत के पटल पर हमें अपूर्व गौरव प्रदान करता है। राजस्थान को प्रकृति द्वारा प्रदत्त जीवनदायिनी जलधाराएँ प्रदान करने वाली बेड़च और गंभीरी नदियाँ चित्तौड़गढ शहर के मध्य से गुजरती हैं। अतीत के जिस गौरव पर हम अभिमान करते हैं, यह गौरव-रस इन्हीं नदियों के किनारे फलित हुआ और संभवतः वैभवशाली इतिहास का साक्षी भी बना। इन दोनों नदियों ने चित्तौड़ वासियों को फलने-फूलने का सदैव अवसर दिया और आज भी दे रही हैं। चित्तौड़गढ गंभीरी और बेड़च के मध्य स्थित है। शहर में गंभीरी नदी पर पन्नाधाय सेतु एवं बेड़च नदी पर नवीन पुल का निर्माण किया गया है। ये दोनों नदियाँ प्रवाहित होकर बीसलपुर बांध तक जाती हैं, जो राजधानी जयपुर की प्यास बुझाता है । 

बेड़च नदीबनास नदी की एक सहायक नदी है  यह नदी गंगा नदी बेसिन से संबंधित है। इसकी लंबाई 157 किमी और बेसिन क्षेत्र 7,502 किमी है। उदयपुर की गोगुन्दा-पहाड़ियों से निकलने वाली बेड़च राजस्थान की प्राचीन नदी है। अब तक यह जीवनदायिनी नदी किसानों की फसलों को सींचने के साथ, भूजल में वृद्धि करने वाली रही है, जिसके कारण कुओं और नलकूपों के माध्यम से आमजन की प्यास बुझती आई है। चित्तौड़वासियों के लिए यह मातृ-स्वरूपा रही है। गंभीरी ने भी यही कर्तव्य निभाया। इन दोनों नदियों का मिलन चित्तौड़गढ जिले में ही होता है। 

चित्तौड़ के ऐतिहासिक प्रसिद्ध तीन शाकों-जौहर और सहस्र तर्पणों की साक्षी गम्भीरी नदी  चित्तौड़ के वास्ते सुरक्षा प्रहरी और सुरक्षा खाई थी। नगर के बीचों-बीच बहने वाली इस नदी के ऊपर लगभग 700 वर्ष पहले सन् 1310 ई. में अलाउद्दीन के बेटे खिजरखाँ ने एक विशाल पुल बनाया जो आज भी सुरक्षित आवागमन का शहरवासियों के लिए प्रमुख साधन है। किन्तु कई इतिहासवेत्ता मानते  हैं कि इस पुल के निर्माण की शुरुआत तो अलाउद्दीन के सन् 1303 ई. के आक्रमण से पहले ही राणा समयसिंह और तेजसिंह के समय हो गई थी।

समय के साथ चित्तौड़गढ शहर ने औद्योगिक विकास की राह पकड़ ली और वर्तमान में प्रमुख औद्योगिक शहर के रूप में विकसित होता हुआ प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है। प्रगति के दौर में आर्थिक महत्त्वाकांक्षाएँ हावी होना स्वाभाविक हैं, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि हम अपना मौलिक कर्तव्य भूल रहे हैं। वह है- इन दोनों नदियों के स्वच्छ जल को बचाने का कर्तव्य। यह सच है कि शहर का विकास इन दो नदियों के केन्द्र में है, उसका अतीत साक्षी है और भावी विकास में भी इन दोनों नदियों की सदैव आवश्यकता रहेगी। फिर भी हमारा ध्यान इस ओर नहीं है कि ये नदियाँ किस सीमा तक प्रदूषित हो चुकी हैं और इस प्रदूषण को रोकने के हमारे द्वारा किये गये प्रयास क्या हैं? औद्योगिक विकास से रासायनिक कचरों का निष्पादन और उससे इन नदियों का बचा रहना आवश्यक है, किंतु पर्यावरणीय मानकों का निर्वाह कहीं भी दिखाई नहीं देता। औद्योगिक कचरे से जहाँ भूमि बंजर हो रही है, वहीं इन नदियों का पानी भी विषैला हो रहा है। यह कितना भयावह है, यह तो आने वाला समय बताएगा।

औद्योगिक कचरे के साथ शहरवासियों की नालियों का गंदा पानी कहाँ जा रहा है? इस विषय पर भी हमारा ध्यान नहीं गया है। यह गंदा पानी घूम-फिरकर इन्हीं नदियों में मिश्रित हो रहा है, जो अन्ततः हमारे ही शरीर में पुनः जहर घोल रहा है। जहरीले पानी से मछलियों का मरना आम बात है, तो सफेद होती चट्टानें, बंजर होती भूमि, जहरीली घास का पैदा होना, तटीय गाँवों में चर्मरोगों का बढ़ना कहीं इनके प्रदूषित होने का प्रमाण तो नहीं है। समय रहते यदि इस ओर हमारा ध्यान नहीं गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ नहीं करेंगी। 

बेड़च और गंभीरी का कलकल की ध्वनि से निरन्तर बहते रहना और निर्मल धाराओं की श्वेतकणिकाओं से हरीतिमा का अवलोकन करना चित्तौड़गढ की विरासत का बिम्ब रहा है। यह बिम्ब सदैव मुग्धकारी रहा है और भविष्य में भी रहना चाहिए, आवश्यकता  है तो मात्र सजग प्रहरी के रूप में हमारे दायित्व बोध की। औद्योगिक समूह पर्यावरणीय मानकों का निर्वाह करे, शासकीय अभिकरण सजग निगरानी रखे और जनता स्वयं चेतनावान बनकर अपने जीवन-रक्त को जहर से बचाये, तो वह दिन स्वर्णिम होगा जब पुनः यह शहर समूचे वैभव के साथ अरावली के अंश को हरितिमा से आच्छादित करता रहेगा और जीवन-रथ को प्रगति के पथ पर अग्रसर करेगा ।

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